द्रव्य-स्थिरत्व-निरूपणम्॥
हिन्दी
( द्रव्यों में स्थिरता का साधन एवं क्षणिकत्ववाद का खण्डन )
तानि च द्रव्याणि स्थिराण्य् एव-
क्षण-भङ्गे प्रमाणाभावात्।
हिन्दी
द्रव्याद्रव्य विभाग में जो द्रव्य कहे गये हैं, वे स्थिर हैं ।
बौद्ध लोग क्षणभंग को सिद्ध करने के लिये
जो कहते हैं कि
सभी पदार्थ क्षणिक हैं,
अर्थात् एक क्षण रहकर द्वितीय क्षण में नष्ट हो जाते हैं ।
उनके इस क्षणभंगवाद में कोई प्रमाण नहीं है ।
अतः द्रव्यों को स्थिर मानना चाहिये ।
स हि प्रत्यक्षतः? अनुमानतो वा?
हिन्दी
किंच, बौद्धों से यह पूछना चाहिये कि क्या वे प्रत्यक्ष प्रमाण से क्षणभंग को सिद्ध करते हैं ?
अथवा अनुमान प्रमाण से सिद्ध करते हैं ?
प्रत्यक्षतः
नाद्यः, प्रत्यक्षस्य विपरीतत्वात्,
प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्षेण स्थिरत्वस्यैव सिद्धेः।
हिन्दी
प्रथमपक्ष समीचीन नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष से क्षणिकत्व सिद्ध नहीं होता है, किंतु उलटा स्थिरत्व सिद्ध होता है ।
‘यह वही घट है’ इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष लोक में होती रहती है। उससे घटादि पदार्थों में स्थिरत्व अर्थात् पूर्वोत्तरकालवर्तित्व सिद्ध होता है । प्रत्यक्ष से पदार्थों का क्षणिकत्व सिद्ध नहीं होता है ।
“भ्रान्तिर् इयम्” इति चेन् न,
कारण-दोष-बाधक-प्रत्ययाभावे +++(भ्रान्तित्व→)+++तत्त्वायोगात्।
हिन्दी
‘भ्रान्तिरियमित्यादि’ ।
इस पर बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष भ्रान्ति है, उससे स्थिरत्व सिद्र नहीं होगा ।
बौद्धों का यह कथन ठीक नहीं है,
क्योंकि कारणदोष एवं बाधक ज्ञान न होने पर भी
प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष को भ्रम मानना उचित नहीं है ।
वह प्रमा ही है, उससे स्थिरत्व सिद्ध होगा ही।
“यौक्तिक-बाधेन दोषो ऽप्य् उन्नीयत” इति चेत्,
केयं युक्तिः?
हिन्दी
इस पर बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यक्ष से बाध न होने पर भी
युक्ति से प्रत्यभिज्ञा बाधित हो जाती है;
इसलिये मानना होगा कि प्रत्यभिज्ञा दोष से उत्पन्न है,
अत एव वह भ्रान्ति है ।
बौद्धों से पूछना चाहिये कि वह कौन सी युक्ति है
जिससे प्रत्यभिज्ञा का बाध होता है ?
+++([बीजादौ यथा] सहकारि-)+++करणाकरणाभ्यां +++(अङ्कुरोत्पत्त्यादि-)+++सामर्थ्यासामर्थ्य-लक्षण– विरुद्ध-धर्मेण
+++(वस्तुभेदाङ्गीकारे सामर्थ्य-)+++अध्यास-प्रसङ्गात्मिका,
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इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध यह कहते हैं कि
वह युक्ति दो प्रकार की है-
प्रथम युक्ति यह है कि -
स्थिरत्ववादी वेदान्ती यह मानते हैं कि
एक ही बीज कुसूल में रहते समय
अंकुर को उत्पन्न नहीं करता है ।
वही बीज क्षेत्र में पड़ने पर
अंकुर को उत्पन्न करता है ।
इस प्रकार एक ही बीज में अंकुरोत्पादन और अंकुरानुत्पादन ऐसे दो धर्म उपस्थित होते हैं,
इन धर्मों के अनुसार बीज में अंकुरोत्पादन सामर्थ्य एवं अंकुरानुत्पादन सामर्थ्य ऐसे विरुद्ध धर्मों को मानना होगा।
एक बीज में ऐसे विरुद्ध दोनों धर्मों का समावेश होना महान् दोष है ।
इस दोष का समाधान करने के लिए यह मानना होगा कि
समर्थ बीज एवं असमर्थ बीज भिन्न भिन्न वस्तु हैं, एक नहीं।
यह प्रथम युक्ति है,
इसके अनुसार बीज में भेद सिद्ध होने पर
दोनों बीज में एकता का ग्रहण करने वाली प्रत्यभिज्ञा बाधित हो जाती है,
तथा प्रत्यभिज्ञा किसी दोष से ही उत्पन्न होती है, अत एव भ्रम है ।
समर्थश् चेत् +++(सहकर्य्-अभावे ऽपि)+++ कुर्याद् इत्य्
अकुर्वद्-दशायाम् अपि करण-प्रसङ्गात्मिका वा
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दूसरी युक्ति यह है कि,
यदि बीज सदा अंकुरोत्पादन में समर्थ ही होता
तो कुसूल में रहते समय भी अंकुर को उत्पन्न करे,
किन्तु उत्पन्न करता नहीं ।
इससे सिद्ध होता है कि
अंकुरानुत्पादक कुसूलस्थ बीज तथा अंकुरोत्पादक क्षेत्रस्थ वीज भिन्न-भिन्न हैं ।
कुसूलस्थ बीज नष्ट होकर क्षेत्रस्थ बीज उत्पन्न करता है,
क्षेत्रस्थ बीज का पूर्वक्षणवर्ती बीज कारण है,
उसका तत्पूर्वक्षणवर्ती बीज कारण है,
इस प्रकार प्रतिक्षण बीज भिन्न-भिन्न होता है ।
इस प्रकार सभी पदार्थों का क्षणिकत्व सिद्ध होता है ।
इन विभिन्न बीजों में एकता को ग्रहण करनेवाली प्रत्यभिज्ञा बाधित है,
दोष प्रसूत है,
उससे पदार्थों का स्थैर्य सिद्ध नहीं होगा।
इस प्रकार बौद्ध इन दोनों युक्तियों से प्रत्यभिज्ञा का बाध करके
प्रत्यभिज्ञा को दोषप्रसूत सिद्ध करते हैं ।
इति चेन् न -
सहकारि-सन्निधौ कुर्वत्-स्वभावत्वस्य,
सहकार्य्-अभाव-प्रयुक्त-कार्याभाववत्त्वादेर् वा सामर्थ्य-पदार्थत्वात्।
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इस बौद्धोक्तवाद का खण्डन इस प्रकार है कि
बीज का अंकुरोत्पादनसामर्थ्य माना जाता है,
कभी भी अंकुरोत्पादन में उसका असामर्थ्य नहीं माना जाता है ।
अतः बीज में विरुद्ध धर्म का समावेश नहीं होता है।
बीज में विद्यमान सामर्थ्य का निर्वचन दो प्रकार का है-
(१) जल और मृत्तिका इत्यादि सहकारिकारण सन्निहित होने पर
अंकुर को उत्पन्न करना,
यह बीज का स्वभाव है ।
यह ‘सहकारिसन्निधौ कुर्वत्स्वभाववत्त्व" ही बीजगत सामर्थ्य माना जाता है ।
(२) दूसरा प्रकार यह है कि सहकारिकारण न होने पर
बीज अंकुर को उत्पन्न नहीं करता है।
बीज में विद्यमान “सहकार्यभावप्रयुक्तकर्याभाववत्त्व”
यह धर्म सामर्थ्य कहलाता है ।
यह सामर्थ्य बीज में सदा रहता है ।
उसमें असामर्थ्य धर्म है ही नहीं ।
अतः उसमें विरुद्धधर्म का समावेश नहीं होता है ।
ततश् च समर्थस्यैव करणाकरणयोः
सहकारि-सन्निध्य्–असन्निधि-प्रयुक्तत्वाद् एकत्र समावेशः।
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प्रश्न- यदि बीज में सदा सामर्थ्य ही रहता है
तो उस बीज में क्षेत्रस्थता दशा में अंकुरकरण
एवं कुसूलस्थता दशामें अंकुराकरण
ऐसे विरुद्ध-धर्म क्यों हुआ करते हैं ?
उत्तर—बीज सदा समर्थं ही रहता है ।
उसमें विद्यमान अंकुरकरण सहकारिसन्निधिप्रयुक्त है ।
इस प्रकार उपाधिप्रयुक्त उन दोनों विरुद्ध धर्मों का कालभेद से
एक बीज में समावेश हो सकता है, उसमें कोई विरोध नहीं ।
“ननु ताव् +++(→सहकारि-सन्निधानासन्निधानौ)+++ अप्य् एकस्य कथम् उपपद्येते?”
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‘ननु तावपि’ इत्यादि ।
यहाँ बौद्धों द्वारा यह पूर्वपक्ष उपस्थित किया जाता है कि
सहकारिसन्निधान तथा सहकार्यसन्निधान
इन दोनों विरुद्ध धर्मों का
एक बीज में समावेश कैसे हो सकता है ?
इति चेन् न,
तत्-तत्-सामग्री-सन्तान–प्रतिनियत-कालतया तद्-उपपत्तेः।
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इस पूर्वपक्ष का समाधान यह है कि–
सहकारिसन्निधान-प्रयोजक-सामग्री जब उपस्थित होती है,
तब सहकारिसन्निधान हुआ करता है,
सहकार्यसन्निधान की प्रयोजक सामग्री जब उपस्थित होती है,
तब सहकार्यसन्निधान होता है ।
इस प्रकार सन्निधान और असन्निधान [[१८]] विभिन्न काल में होनेवाली अपनी अपनी सामग्री के अनुसार विभिन्न काल में हुआ करते हैं ।
वे सामग्रियाँ भी अपनी अपनी सामग्री के अनुसार विभिन्न काल में हुआ करती हैं।
सामग्रीप्रवाह अनादि है ।
इस प्रकार तत्तत्सामप्रयुपाधिक सन्निधानासन्निधानों को विभिन्न कालों में एक बीज मैं होने में कोई अनुपपत्ति नहीं है ।
तत्-समाग्री-विशेष-सम्बन्धासम्बन्धयोर् अपि चोद्यम् अपरिहार्यम्
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‘तत्सामग्रीविशेष’ इत्यादि ।
यहाँ बौद्धों की यह शंका है कि
एक ही बीज में सामग्री-विशेष का संबन्ध और असंबन्ध
ये दोनों विरुद्ध धर्म कैसे समावेश पा सकते हैं ?
यह चोद्य अपरिहार्य है ।
इति चेन् न -
भिन्न-काल-भावि-सामग्री-विशेषाद् एव परिहृतत्वात्।
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इस शंका का समाधान यह है कि
विभिन्न कालों में होनेवाले
तत्-तत्-सामग्री-विशेष के अनुसार
विभिन्न कालों में सामग्रीविशेष संबन्धासंबन्ध हो सकते हैं,
इसमें कोई विरोध नहीं ।
इस प्रकार चोद्य का परिहार हो जाता है ।
यहाँ पर ये प्रश्नोत्तर अभिप्रेत हैं ।
प्रश्न - यदि विभिन्नकालों को लेकर एक वस्तु में संबन्धा संबन्धरूपी विरुद्ध धर्मों का समावेश हो सके
तो गोत्व एवं अश्वत्वरूपी विरुद्ध धर्मों का भी
एक वस्तु में कालभेद से समावेश हो सकता है,
ऐसी स्थिति में विरोध कथा ही उच्छिन्न हो जायगी ।
ऐसी स्थिति में कालभेद से विरुद्ध धर्मों का समावेश कैसे माना जा सकता है ?
उत्तर— दर्शनानुसार इस व्यवस्था को मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि
सामग्री संबन्धासंबन्धरूपी विरुद्ध धर्म
कालभेद से एक वस्तु में समावेश पाने योग्य हैं,
क्योंकि वे वैसे दिखाई देते हैं,
तथा गोत्व एवं अश्वत्वरूपी विरुद्ध धर्म
कालभेद से भी एक वस्तु में समावेश नहीं पा सकते हैं;
क्योंकि उनके विषय में
वैसा ही दर्शन है ।
इस प्रकार दर्शनानुसार व्यवस्था सध जाती है ।
तज्-जातीयस्यैव बीज-क्षणस्य समर्थ-बीजारम्भे
त्वयाप्य् एतद् अपरिहार्यम्।
तत्-पूर्व-क्षण-स्वभावाद् इत्य् अपि
तत एव दत्तोत्तरम् -
अन्यथा अनुपलभ्यमानान्त-क्षण-तत्-स्वभाव-कल्पना-गौरव-प्रसङ्गात्। अन्वय-व्यतिरेकवताम् अपि सहकारिणाम् अकारणत्वे दुर्निर्वहम् उपादानस्यापि कारणत्वम्। यदि च काल-भेद-भिन्नयोर् एव करणाकरणयोः सहकारि-सन्निध्योर् वा वस्तु-भेदकत्वम्। देश-भेद-भिन्नयोर् अपि करणाकरयोः सामर्थ्यासामर्थ्ययोः सहकारि-सन्निध्य्-असन्निध्योर् वा तयोर् भेदकत्व-प्रसङ्गेन क्षणे ऽपि क्षुद्यमाने ऽनवधिक-भेद-प्रसङ्गेन न सिध्येद् इति शून्य-वाद-प्रसङ्गः।
देश-भेदे स्व-सन्निध्य्-असन्निधिभ्याम् एव तद्-उपपत्तिर् इति चेन् न; तयोर् उपरि तद्वद् एव विरुद्धयोर् भेदकत्व-प्रसङ्गात्। परस्पर-विरुद्ध-पूर्वापर-काल-सम्बन्ध एव एकस्य कथम् इति चेन् न; स्वापेक्षया पूर्वापरत्वस्यासिद्धेः। न हि स्व-प्रागभाव-प्रध्वंसावच्छिन्न-काल-सम्बन्धित्वं वस्तुनो ब्रूमः। अन्यापेक्षया पूर्वापरयोर् अपि कालयोर् एतद्-अपेक्षया स्व-कालत्वे विरोधाभावः क्षणे ऽपि स्वीकार्यः। यथा परमाणु-द्वयापेक्षया पूर्वापरीभूतस्यापि तन्-मध्य-देशस्य परमाण्वन्तरं प्रति स्व-देशतया न तस्य तत्-सम्बन्ध-विरोधः। अन्यथा पूर्ववत् क्षणो ऽपि क्षुण्णः। तथापि पूर्वापर-कालयोस् तद्-उपाध्योर् वा विरुद्धयोः तेजस्-तमसोर् इव कथम् एकत्र समावेशः? अविरोधे तु यौगपद्य-प्रसङ्ग इति चेन् न। यौगपद्ये हि तयोर् विरोधः, न त्व् एक-वस्तु-सम्बन्धे। अन्यथा एक-ज्ञान-सम्बन्धे ऽपि विरोध-प्रसङ्गेन प्रत्यभिज्ञा-स्वरूपस्यानुत्पत्ति-प्रसङ्गात्। यदि पुनः कालयोः स्वरूप-भेदेन तादात्म्य-विरोधो विवक्षितः; तर्हि रूप-रसयोर् इव नैक-वस्तु-सम्बन्धं प्रतिभन्त्स्यति। न चैकस्यानेकसम्बन्धः क्वचिद् अपि नास्तीति वाच्यम्। क्षणिक-निर्धर्मक-परमाणाव् अपि पुञ्ज-दशायाम् अनेक-नैरन्तर्यादेर् अभ्युपेतत्वाद् इति।
एतेन वर्तमानत्व-प्रत्ययात् क्षण-भङ्ग-सिद्धिर् इति वदन्तो ऽपि निरस्ताः। न हि तेन पूर्वापर-कान-सम्बन्धाभावो गृह्यते। न चाक्षिप्यते। तद्-विरोध्य्-अवर्तमानत्व-मात्र-निषेधात्। तस्य च तदानीं प्रागभाव-प्रध्वंसाभाव-निषेधात्मकत्वेन पूर्वापर-काल-सम्बन्धाविरोधित्वात्। प्रत्यक्षेणेन्द्रिय-सम्बन्ध-क्षणो गृहीतः; क्षणान्तरं तु तस्य कुतः सिद्धम् इति चेन् न। प्रत्यभिज्ञानस्य तद्-अबाधस्य चोक्तत्वात्। प्रत्यभिज्ञात्वाद् एव दीप-प्रत्यभिज्ञावत् सर्वापि प्रत्यभिज्ञा भ्रान्तिर् इति चेत्, पूर्वोक्तेनैव सोपाधिकत्वात्। एतद्-अनुमान-मात्र-बाध्यत्वे प्रत्ययत्वाद् एव सर्वः प्रत्ययो भ्रान्तिर् इति माध्यमिक-मत-समुत्थानस्य दुष्परिहरत्वात्॥
क्षण-भङ्ग-पक्षे भ्रान्ति-रूपा ऽपि प्रत्यभिज्ञा स्मृति-मात्रम् अपि नोपपद्यते इत्य् आत्मनि वक्ष्यामः। ततश् च व्याप्ति-प्रतिसन्धानाद्य्-अनुपपत्तेः अनुमान-मात्रम् एव निर्मूलम् इति कुतः क्षण-भङ्गानुमानम्? यत् सत् तत् क्षणिकम्; यथा घटः, सन्तश् चामी भावा इत्य् अपि न। भाव-शब्देन विश्व-पक्षीकारे पक्ष-हेतु-दृष्टान्त-भेदासिद्धिः। घट-व्यतिरिक्त-पक्षीकारे ऽपि घटस्य क्षणिकत्वासम्प्रतिपत्तेर् दृष्टान्तत्वायोगः। विरुद्ध-धर्माध्यासस्य च परिहृतत्वात्। अत एव प्रदीपादि-दृष्टान्तो ऽपि प्रत्युक्तः। तेषाम् अपि त्रि-चतुर-क्षण-स्थायित्वाभ्युपगमात्। अस्तु तर्हि क्षणोपाधिर् दृष्टान्तः। स हि न स्थिरः। तथात्वे क्षणावच्छेदकत्वायोगाद् इति चेन् न। स्थिरैर् एव परस्परावच्छिन्नारम्भावसानैः तद्-अवच्छेदोपपत्तेः। परस्परावच्छेदश् च युगपद्-विशिष्ट-बुद्धि-विषयतया सिद्धः। यथा दीर्घयोर् एव मान-दण्डयोः विरुद्ध-दिक्-प्रसृतयोः मध्ये किञ्चित् संयुक्तयोः परस्पर-संयोगावच्छिन्नांशेन अल्पतर-देशावच्छेदः कर्तुं शक्यः। एवं काले ऽपीति न कश्चिद् दोषः। मा भूद् अन्वयः। यद्क्षणिकं तद् असत्; यथा शश-विषाणम् इति व्यतिरेकः स्यात्। न स्यात्। त्वद्-अभिमत-क्षणिकत्वासिद्धेर् एव तन्-निरूपिताक्षणिकत्वासिद्धेः तस्य व्याप्यत्व-ग्रहणायोगात्। चिर-काल-स्थायित्व-विवक्षायां तु निःस्वभावे शश-शृङ्गे तद्-अयोगः। अथ शश-शृङ्गाभावो दृष्टान्तः; स तर्हि सन्न् एव; प्रामाणिकत्वात्। भावेतरत्व-लक्षणम् असत्त्वम् अस्तीति चेन् न - भावान्तराभाव-वादे तस्याप्य् असिद्धेः। अन्यत्राप्य् अभावस्येव भावस्यापि सुवचत्वात्। प्रत्यक्षत्वादि-विरोध-परिहार-कुसृष्टेश् चाविशिष्टत्वाद् इति॥
केचित् तु नित्यम् अपि किञ्चित् तत्त्वं बुद्धोपदिष्टम् इति सत्त्वाख्य-साधनम् आगम-बाधितं कृत्वा ध्रुव-भावित्वम् एव हेतुम् अभिमन्यन्ते। तथा हि - यद् ध्रुव-भावि न तद् हेतु-सापेक्षम्। अन्यथा ध्रुव-भावित्व-विरोधात्। अतः कार्याणां ध्रुव-भाविनः प्रध्वंसस्याहेतुकत्व-सिद्धेर् विलम्बायोगाद् उदीयमानम् एव वस्तु तेन ग्रस्यत इति। तत्र ध्रुव-भावित्व-शब्देन तत्-सम-काल-भावित्व-तद्-अनन्तर-भावित्व-नियम-तन्-मात्र-जन्यत्व-तद्-एक-सामग्री-जन्यत्वाहेतुकत्वाद्य्-अर्थ-विवक्षायां यथायथम् असिद्धि-व्याघात-साध्याविशेषादि-दोषाद् एष्यत्त्व-नियम-मात्रम् अवशिष्यते। तच् च भवताम् अपि विसभाग-सन्तानारम्भक-कपाल-क्षण-तद्-अविनाभूत-प्रतिसङ्ख्या-निरोधादिनानैकान्तिकम् इति। अन्यथा सर्वेषाम् अप्य् उत्तर-क्षणानाम् एष्यत्त्वाविशेषात् प्रथम-क्षण एव सर्व-क्षणोत्पत्तौ विश्व-विनिवृत्ति-प्रसङ्गः। आस्था-निवृत्त्य्-अर्थं क्षणिकत्वम् उपदेष्टव्यम् इति चेत् - अहो! महा-ार्मिकस्य अनलीक-वादिनो महान् अयम् अधर्मः प्रसज्येत। सूक्ष्म-धियस् तत्रैवास्थानिवृत्ति-प्रसङ्गाच् च। विश्वानित्यतामात्रोपदेशाद् अपि च तत्-सिद्धेः। अन्यथा शून्य-उपदेशस्यैव अवश्य-कर्तव्यत्व-प्रसङ्गाद् इति॥
प्रत्यनुमानानि च - विगीता प्रत्यभिज्ञा स्व-विषये प्रमा; अबाधित-बुद्धित्वात्। स्व-लक्षण-बुद्धि-वत्। सा हि स्व-विषये प्रमैवास्माकं, वैभाषिकस्यापि। यत् सत् न तत् क्षणिकम्; यथा सम्प्रतिपन्नं नित्यम्। सन्तश् चामी भावा इति। यत् प्रतीयते तद्क्षणिकम्; यथा शश-शृङ्गम् इति भवद्-व्यवहारेणापि प्रसज्यते। प्रध्वंसः स-हेतुकः, पूर्वावधिमत्त्वात्, पटवद् इत्य्-आदीनि च स्वयम् उन्नेयानि। एवं द्रव्यस्य स्थिरत्वं सिद्धम्॥