०६ समाप्तिः

नीलमेघः

अन्त में श्री भाष्यकार स्वामी जी ने कहा कि
इस प्रकार प्रमाण और तर्कों के द्वारा
स्वपक्ष स्थापन और परपक्ष का निराकरण करके
बहुत से सैद्धान्तिक अर्थों का प्रतिपादन किया गया है ।
जो सैद्धान्तिक अर्थ छूट गये हों
उनका निर्वाह भी इन प्रमाण तर्कों के अनुसार करना चाहिये ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारासार-विवेकज्ञा
गरीयांसो विमत्सराः ।
प्रमाण-तन्त्राः सन्तीति
कृतो वेदार्थसङ्ग्रहः ॥+++(4)+++

नीलमेघः

ग्रन्थ के उपसंहार में इस वेदार्थसंग्रह की गंभीरता को सूचित करते हुये
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने यह श्लोक कहा है कि-

सारासारविवेकज्ञा गरीयांसो विमत्सराः ।
प्रमाणतन्त्राः सन्तीति कृतो वेदार्थसंग्रहः ॥

अर्थात्— सारासार विवेक-ज्ञानसंपन्न मात्सर्यहीन प्रमाणपरतन्त्र
बड़े-बड़े विद्वान विराजमान हैं
वे इस ग्रन्थ को अपनायेंगे ।
इस अभिप्राय से इस वेदार्थसंग्रह ग्रन्थ का निर्माण किया गया है।

इस श्लोक का भावार्थ यह है कि
ग्रन्थ उन लोगों को ही उपादेय हो सकता है
जो सार एवं असार की विवेचना करने में समर्थ हैं।
परस्पर विरुद्ध अनेक अर्थ सुनने में आने पर
जो विद्वान प्रमाण और तर्कों के अनुसार इस निर्णय में पहुंच सकते हैं कि
यही अर्थ प्रमाण तर्कों के अनुसार प्रबल ठहरता है,
यह अर्थ दुर्बल सिद्ध होता है ।
इस प्रकार विवेचना करने में जो विद्वान समर्थ हैं
वे इस ग्रन्थ को अवश्य अपनायेंगे।

केवल सारासार विवेक ज्ञान ही पयाप्त नहीं है
किन्तु बहुश्रुत भी होना चाहिये।
जिन लोगों ने अनेक विशिष्ट विद्वानों से
अनेक शास्त्रों को अनेक बार सुना हो
वे ही बहुश्रुत माने जाते हैं ।

बहुश्रुत न होने पर
साधारण विद्वान परस्पर विरुद्ध शास्त्रार्थों में
प्राबल्य एवं दौर्बल्य को समझने में असमर्थ हो जाते हैं ।
इसलिये बहुश्रुतता की आवश्यकता हैं।

केवल बहुश्रुत होने पर भी कार्य नहीं चल सकता ।
बहुश्रुत होने पर भी जो विद्वान मन्दबुद्धि से युक्त हैं
वे परस्पर विरुद्ध अर्थों को सुनकर यह सन्देह करते ही रह जायेंगे कि
इस शास्त्र में ऐसा कहा गया है
उस शास्त्र में इसके विरुद्ध वैसा कहा गया है
इनमें सत्य क्या है ? इस प्रकार के सन्देहों में फंसे हुये वे लोग
निर्णय करने में असमर्थ हो जाते हैं ।
इसलिये सारासार विवेक की भी आवश्यकता है ।

[[३२७]]
उपर्युक्त दोनों योग्यताओं से संपन्न होने पर भी
जो विद्वान मात्सर्य के कारण ऐसा सोचते हैं कि
ये हमारे समान अवस्था वाले हैं
इनकी बात को हम क्यों माने इत्यादि ।
ऐसे विचार रखने वालों को भी यह ग्रन्थ उपादेय नहीं होगा।
किंतु उपर्युक्त दोनों योग्यता के साथ
जिनमें मात्सर्य का अभाव भी है,
उनके लिये ही यह ग्रन्थ उपादेय होगा ।

इन तीनों योग्यताओं से अतिरिक्त चौथी एक योग्यता और भी है
वह योग्यता इन तीनों योग्यताओं के फलस्वरूप है ।
उस चौथी योग्यता की अत्यन्त आवश्यकता है ।
वह योग्यता है प्रमाण परतन्त्रता ।
जो विद्वान यह स्वभाव रखते हैं कि
पूरी तौर से प्रमाणों का अनुसरण करते हैं
प्रमाण एवं उनके अनुकूल तर्कों से ही
अर्थों का निर्णय करते हैं
इस प्रकार निर्णीत होने वाले अर्थ
भले अप्रिय भी हों,
तो भी उनको मानने में अणुमात्र भी आनाकानी नहीं करते हैं
ऐसे विद्वान ही प्रमाण परतन्त्र माने जाते हैं ।+++(5)+++
जो विद्वान मनसे किसी सिद्धान्त को पसन्द करके
उसको सिद्ध करने के लिये तोड़ मरोड़ कर
तथा खींचा तानी करके
प्रमाणों को उपस्थित करते हैं
वे प्रमाणपरतन्त्र नहीं माने जा सकते ।+++(5)+++
यह प्रमाण परतन्त्रता उन विद्वानों में हुआ करती है
जो सारासार विवेक ज्ञान एवं बहुश्रुतता से संपन्न हैं
तथा मत्सर दोष हीन हैं ।

ऐसे प्रमाण परतन्त्र विद्वान अनेक विद्यमान हैं,
वे इस ग्रन्थ को अवश्य अपनायेंगे ।
सर्वसाधारण भले न अपनावें
किन्तु प्रमाण परतन्त्र शिष्टजन तो अवश्य ही अपनायेंगे ।
अशिष्ट जनता अपनावे - तो वह ग्रन्थ का दोष है ।+++(4)+++
शिष्ट अपनावे यही ग्रन्थ का गुण है।

उपर्युक्त वे शिष्ट संपन्न प्रमाण-परतन्त्र अनेक शिष्ट विद्वज्जन
इस ग्रन्थ को अवश्य स्वीकार करेंगे ।
इस अभिप्राय से हो यह वेदार्थसंग्रह ग्रन्थ निर्मित हुआ है ।
इस प्रकार कहते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी ने इस प्रन्थ को पूर्ण किया है ।

॥ इति श्रीभगवद्रामानुजाचार्यविरचितो वेदार्थसंग्रहः समाप्तः ॥

इति श्री भगवद्रामानुजविरचित वेदार्थसंग्रह संपूर्ण

मूलम्

सारासारविवेकज्ञा गरीयांसो विमत्सराः ।
प्रमाणतन्त्राः सन्तीति कृतो वेदार्थसङ्ग्रहः ॥

। इति श्रीभगवद्रामानुजविरचितः श्री वेदार्थसंग्रहः समाप्तः ॥