०५ शेषत्वम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् एवं परस्य ब्रह्मणो
ऽनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण-गुण-गणाकरस्य
निरवद्यस्य +अनन्त-महाविभूतेः
अनवधिकातिशय-सौशील्य-सौन्दर्य-वात्सल्य-जलधेः सर्व-शेषित्वाद्,
आत्मनः शेषत्वात्,
शेषित्व-प्रतिसम्बन्धितया ऽनुसंधीयमानम्
अनवधिकातिशय-प्रीति-विषयं सत्
परं ब्रह्मैवैनमात्मानं प्रापयतीति।

नीलमेघः

यह परब्रह्म ही सबसे श्रेष्ठ परतत्त्व है,
यह उत्कर्ष की चरम सीमा में पहुँचे हुये असंख्य कल्याणगुणों का सागर है, निर्दोष है,
एवं लीलाविभूति और त्रिपाद विभूति ऐसी बड़ी बड़ी विभूतियों का स्वामी है।
इससे उनका परत्व स्पष्ट हो जाता है ।
सबसे श्रेष्ठ होते हुए वह परब्रह्म परमात्मा अत्यन्त सुलभ है,
वह उत्कर्ष की चरम सोमा में पहुँचे हुये सोशोल्य सौन्दर्य और वात्सल्य इत्यादि सौलभ्योपयोगी कल्याणगुणों का समुद्र है।
वह साथ ही चेतनाचेतों का स्वामी भी है।
इस बात को समझते ही —
कि हम श्रीभगवान के दास है,
श्रीभगवान मेरे स्वामी हैं -
साधकों को श्रीभगवान के विषय में अपार प्रीति उत्पन्न होती है ।

प्रतिदिन बढ़ने वाली उस प्रीति का विषय होते हुये
परब्रह्म परमात्मा श्रीमन्नारायण भगवान प्रसन्न होकर
साधकों को अपनी प्राप्ति करा देते हैं ।
यही वेदसिद्धान्त है ।
जीवात्मा अपने को श्रीभगवान का परतन्त्रदास
तथा श्रीभगवान को स्वतन्त्र स्वामी समझकर प्रसन्न होता है ।

परात्पर श्रीभगवान के साथ अपने अविच्छेद्य संबन्ध को जानकर
किसको हर्ष नहीं होगा ?
इस संबन्ध को जान कर
साधक श्रीभगवान से प्रेम करता हुआ
सदा उसकी सेवा में लगा रहता है,
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग इत्यादि उनकी सेवा ही है ।
इससे प्रसन्न होकर श्रीभगवान
साधक को संसार से छुड़ा कर के
परमपद ले जाकर
अपना अनुभव कराते हुये
सर्वदेश सर्वकाल सर्वावस्थोचित सर्वविध कैंकर्य देकर कृतार्थ कर देते हैं ।+++(5)+++

जीवात्मा अपने को परतन्त्रदास समझकर
श्रीभगवन्-मुखोल्लासार्थ - न कि स्वार्थ के लिये - सर्वविध केकये करता हुआ
सदा प्रसन्न रहता है ।

[[३२०]]

मूलम्

तदेवं परस्य ब्रह्मणोऽनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणाकरस्य निरवद्यस्यानन्त-महाविभूतेः अनवधिकातिशयसौशील्यसौन्दर्यवात्सल्यजलधेः सर्वशेषित्वादात्मनः शेषत्वात् शेषित्व-प्रतिसंबन्धितया ऽनुसंधीयमानम् अनवधिकातिशयप्रीतिविषयं सत्परं ब्रह्मैवैनमात्मानं प्रापयतीति।

ज्ञाने सति न दुःखदम्!

नीलमेघः

भगवत्पारतन्त्र्य और भगवद्दास्य सुखरूप है, इस अर्थ का प्रतिपादन

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु चात्यन्त-शेषतैवात्मनो ऽनवधिकातिशय-सुखम् इत्य् उक्तं भवति ।
तद् एतत् सर्व-लोक-विरुद्धम् ।
तथा हि सर्वेषाम् एव चेतनानां स्वातन्त्र्यम् एवेष्टतमं दृश्यते,
पारतन्त्र्यं दुःखतरम् ।

नीलमेघः

यहाँ पर यह शंका होती है कि
यह जो कहा गया है कि जीवात्मा
अपने को श्रीभगवान का परतन्त्रदास समझकर कैंकर्य करे
यही सुख का निदान है,
यही अत्यन्त अनुकूल प्रतीत होता हुआ
स्वयं सुख बन जाता है ।
यह कथन समीचीन नहीं है,
क्योंकि यह सर्वलोकानुभव से विरोध रखता है।
लोक में सभी चेतन स्वातन्त्र्य चाहते हैं
क्योंकि स्वातन्त्र्य उनको अत्यन्त अनुकूल प्रतीत होता है,
कोई भी चेतन पारतन्त्र्य नहीं चाहता है
क्योंकि पारतन्त्र्य उनको अत्यन्त प्रतिकूल प्रतीत होता है ।

मूलम्

ननु चात्यन्तशेषतैवात्मनोऽनवधिकातिशयसुखमित्युक्तं भवति । तदेतत्सर्वलोकविरुद्धम् । तथा हि सर्वेषामेव चेतनानां स्वातन्त्र्यमेव इष्टतमं दृश्यते, पारतन्त्र्यं दुःखतरम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मृतिश्च –

सर्वं परवशं दुःखं
सर्वम् आत्मवशं सुखम् । (मनु.स्मृ.४.१६०)

नीलमेघः

यह अर्थ मनुस्मृति में भी बति है । मनुस्मृति का यह श्लोक प्रसिद्ध है कि-
(अर्थात्) पराधीन रहना सब दुःख हैं । स्वाधीन रहना सब सुख है ।

यही सुख और दुःख का संक्षिप्त लक्षण है । इसे जान ले ।

मूलम्

स्मृतिश्च –

सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । (मनु.स्मृ.४.१६०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा हि

सेवा श्ववृत्तिर् आख्याता
तस्मात् तां परिवर्जयेत् । (मनु.स्मृ.४.६)

इति ।

नीलमेघः

मनु ने अन्यत्र भी कहा है कि-

“सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात् तां परिवर्जयेत्”

अर्थात् सेवा कुत्तों की आजीविका कही गई हैं,
इसलिये उसे छोड़ दे ।

ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना सहज है कि
परात्पर श्रीभगवान का परतन्त्र दास बनकर
उनकी सेवा करना
कैसे सुखदायक होगा ।
यह शंका है।

मूलम्

तथा हि

सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत् । (मनु.स्मृ.४.६)

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् इदम् अनधिगत-देहातिरिक्तात्म-रूपाणां शरीरात्माभिमान-विजृम्भितम् ।

नीलमेघः

इसका उत्तर यह है कि
यह शंका वे ही लोग कर सकते हैं
जो देहव्यतिरिक्त आत्मस्वरूप को नहीं जानते हैं
तथा देहात्माभिमान में डूबे हुये हैं ।
इस शंका का कारण देहात्माभिमान ही है।

मूलम्

तदिदमनधिगतदेहातिरिक्तात्मरूपाणां शरीरात्माभिमानविजृम्भितम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा हि शरीरं हि मनुष्यत्वादि-जातिगुणाश्रय-पिण्ड-भूतं स्वतन्त्रं प्रतीयते ।

नीलमेघः

[[३२२]]
शरीर में एक पिण्ड है
जिसमें मनुष्यत्व इत्यादि जाति और गुण इत्यादि रहते हैं ।
यह शरीर पिण्ड स्वतन्त्र प्रतीत होता है ।
यह प्रतीति भ्रम है
क्योंकि शरीर भी ईश्वर का परतन्त्र है।
किन्तु शरीर को अपने अधीन रखने वाले ईश्वर दिखाई नहीं देते
इसलिये शरीर उसी प्रकार स्वतन्त्र प्रतीत होता है -

जिस प्रकार वायु बहकर आने वाला सुगन्ध
पुष्पकणों का आश्रय लेकर आने पर भी
पुष्पकण न दिखाई देने के कारण
स्वतन्त्र प्रतीत होता है ।+++(5)+++

मूलम्

तथा हि शरीरं हि मनुष्यत्वादिजातिगुणाश्रयपिण्डभूतं स्वतन्त्रं प्रतीयते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्न् एवाहम् इति संसारिणां प्रतीतिः ।

नीलमेघः

भ्रम से स्वतन्त्र रूप में प्रतीत होने वाले इस शरीर को
संसारी लोग आत्मा समझते हैं इसलिये अपने को स्वतन्त्र मानते हैं ।

मूलम्

तस्मिन्न् एवाहम् इति संसारिणां प्रतीतिः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्माभिमानो यादृशस्
तद्-अनुगुणैव पुरुषार्थ-प्रतीतिः । +++(5)+++

नीलमेघः

चेतन आत्मा को जैसा मानते हैं
उसके अनुसार ही उनको कोई कोई पुरुषार्थं अच्छा लगता है ।
अपने आत्मा को स्वतन्त्र समझने वालों को
स्वातन्त्र्य अच्छा लगता है,
पारतन्त्र्य दुःखदायी प्रतीत होता है ।+++(5)+++

मूलम्

आत्माभिमानो यादृशस्तदनुगुणैव पुरुषार्थप्रतीतिः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंह-व्याघ्र-वराह-
मनुष्य-यक्ष-रक्षः-
पिशाच-देव-दानव-
स्त्री-पुंस-व्यवस्थित-+आत्माभिमानानां
सुखानि व्यवस्थितानि ।+++(5)+++

नीलमेघः

जो चेतन अपने को सिंह व्याघ्र वराह मनुष्य यक्ष राक्षस पिशाच देव दानव स्त्री और पुमान समझते हैं
उनमें प्रत्येक के सुख दुःख व्यवस्थित रहते हैं,
कोई पदार्थ किसी को
सुखदायक प्रतीत होता है,
दूसरा पदार्थ दूसरे को सुखदायक प्रतीत होता है ।

मूलम्

सिंहव्याघ्रवराहमनुष्ययक्षरक्षः पिशाचदेवदानव-स्त्रीपुंसव्यवस्थित-आत्माभिमानानां सुखानि व्यवस्थितानि ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि च +++(सुखानि)+++ परस्परविरुद्धानि ।

नीलमेघः

एक को सुख देने बाला पदार्थ दूसरे को दुःखदायक प्रतीत होता है ।
एक पदार्थ
परस्पर विरुद्ध कार्य को
स्वयं कर नहीं सकता।

मूलम्

तानि च परस्परविरुद्धानि ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् आत्माभिमानानुगुण-पुरुषार्थ-व्यवस्थया
सर्वं समाहितम् ।

नीलमेघः

एक पदार्थ जब एक को सुखदायक
और दूसरे को दुःखदायक प्रतीत होता है
तब कहना पड़ता है कि
यह सुख और दुःख पदार्थस्वरूपकृत नहीं है,
इसमें दूसरा ही प्रधान कारण है,
वह है आत्माभिमान ।
जो चेतन अपने को जैसा समझता है
उसके अनुसार वह पुरुषार्थ को चुनता है
और समझता है कि हमको इसमें सुख है
इसमें दुःख है इत्यादि ।

अब कहा जाता है कि
पुरुषार्थव्यवस्था आत्माभिमान के अनुगुण होती है

अतएव कहा गया है कि-

“अन्नं भोज्यं मनुष्याणाम्
अमृतं तु दिवौकसाम् ।
श्व-पशू विट्-तृण-हारी
सन्तो दास्यैक-जीवनाः ॥"+++(5)+++

अर्थात् मनुष्यों का अन्न भोज्य है,
देवताओं का अमृत भोज्य है,
कुक्कुर का जुगुत्सित पदार्थ भोज्य है,
पशु का तृण भोज्य है सन्तों का दास्य ही भोग्य वस्तु है ।
उन उन का विभिन्न आत्माभिमान है।।

कहने का भाव यह कि कर्मकृत देहात्माभिमान के कारण
स्वातन्त्र्य सुखदायक एवं पारतन्त्र्य दुःखदायक प्रतीत होता है,
स्वातन्त्र्य स्वरूपतः सुख का कारण नहीं,
पारतन्त्र्य स्वरूपतः दुःख का कारण नहीं।
यदि स्वरूपतः सुख दुःख का कारण होते
तो बन में चीरे हुये वृक्ष पर ठोंकी गई कील को
उखाड़ने वाले उस परमस्वतन्त्र वानर को सुख क्यों न हुआ ?+++(5)+++
अपने को परतन्त्र मानने वाले गुरुभक्त विद्यार्थी, पितृभक्त पुत्र, पति-शुश्रूषा-परायण पतिव्रता को क्यों सुख होता है ?
इसलिए कहना पड़ता है कि
स्वातन्त्र्य स्वातन्त्र्य होने कारण सुखदायक नहीं,
तथा पारतन्त्र्य पारतन्त्र्य होने के कारण दुःखदायक नहीं,
किंतु ये दोनों आत्माभिमान के अनुसार ही सुख और दुःख के कारण बनते हैं।

अपने को स्वतन्त्र मानने वालों को
अस्वातन्त्र्य दुःखदायक प्रतीत होता है ।+++(5)+++

मूलम्

तस्मादात्माभिमानानुगुण-पुरुषार्थव्यवस्थया सर्वं समाहितम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्म-स्वरूपं तु देवादि-देह-विलक्षणं ज्ञानैकाकारम् ।
तच्च पर-शेषतैक-स्वरूपम् ।

नीलमेघः

[[३२३]]
यदि जीवात्मा के वास्तविक स्वरूप पर विचार किया जाय
कि वह वास्तव में कैसा है
तो शास्त्रों से विदित होता है कि
जीवात्मा का स्वरूप देव इत्यादि देहों से विलक्षण है, ज्ञानस्वरूप है
तथा श्रीभगवान की शेषवस्तु है
अर्थात् श्रीभगवान के लिये बनी रहने वाली वस्तु है ।
अतएव दास्य जीवात्मा का स्वरूप हो जाता है ।

मूलम्

आत्मस्वरूपं तु देवादिदेहविलक्षणं ज्ञानैकाकारम् । तच्च परशेषतैकस्वरूपम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथावस्थितात्माभिमाने तद्-अनुगुणैव पुरुषार्थप्रतीतिः ।

नीलमेघः

यदि कोई चेतन अपने वास्तविक स्वरूप को अच्छी तरह से हृदयंगम करके
अपने को श्रीभगवान का अत्यन्त परतन्त्रदास माने
तो उसको उस आत्माभिमान के अनुसार
श्रीभगवद्दास्य में ही आनन्द प्रतीत होगा ।
वैसा सन्तों को होता भी है ।

मूलम्

यथावस्थितात्माभिमाने तदनुगुणैव पुरुषार्थप्रतीतिः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मा ज्ञानमयोऽमलः (वि.पु.६.७.२२)
इति स्मृतेर् ज्ञानैकाकारता प्रतिपन्ना ।

नीलमेघः

“आत्मा ज्ञानमयोऽयमलः " यह शास्त्र कहता है कि देहातिरिक्त आत्मा ज्ञानस्वरूप एवं निर्मल है ।

मूलम्

आत्मा ज्ञानमयोऽमलः (वि.पु.६.७.२२) इति स्मृतेर्ज्ञानैकाकारता प्रतिपन्ना ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिं विश्वस्य (तै.ना.उ.११.३) इत्यादि श्रुति-गुणैः
परमात्म-शेषतैकाकारता च प्रतीता ।

नीलमेघः

“पतिं विश्वस्य” यह श्रुति
श्रीभगवान को विश्व का स्वामी कहती हुई यह सिद्ध करती है कि
इस चेतनाचेतन प्रपञ्च के अन्तर्गत सभी चेतन श्रीभगवान की वस्तु हैं,
श्रीभगवान के शेष हैं तथा श्रीभगवान के दास हैं ।

मूलम्

पतिं विश्वस्य (तै.ना.उ.११.३) इत्यादि श्रुतिगुणैः परमात्मशेषतैकाकारता च प्रतीता ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः सिंह-व्याघ्रादि-शरीरात्माभिमानवत्
स्वातन्त्र्याभिमानोऽपि
कर्म-कृत-विपरीतात्म-ज्ञान-रूपो वेदितव्यः ।+++(4)+++

नीलमेघः

सारांश यह है कि
जिस प्रकार सिंह और व्याघ्र इत्यादि शरीरों को
आत्मा मानकर उनमें अभिमान करना विपरीत आत्मज्ञान है ।
यह कर्म से होता है,
उसी प्रकार अपने को स्वतन्त्र मानकर
उसपर अभिमान करना भी विपरीतात्मज्ञान ही है ।
यह भी कर्म के कारण होता रहता है ।
इसपर ध्यान देना चाहिये।

मूलम्

अतः सिंहव्याघ्रादिशरीरात्माभिमानवत्स्वातन्त्र्याभिमानोऽपि कर्मकृतविपरीतात्मज्ञानरूपो वेदितव्यः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः कर्म-कृतम् एव
परम-पुरुष-व्यतिरिक्त-विषयाणां सुखत्वम्।+++(4)+++
अत एव तेषाम् अल्पत्वम् अस्थिरत्वं च ।

नीलमेघः

किंच, ईश्वर को छोड़कर जगत में जितने पदार्थ हैं
वे कर्म के कारण ही अनुकूल एवं सुखरूप से प्रतीत होते हैं ।
उन पदार्थों का सुखत्व कर्मकृत है,
अतएव उनमें सुखत्व अल्प एवं अस्थिर रहता है ।
प्रबल कर्म होने पर
वे अधिक अनुकूल एवं अधिक सुखमय प्रतीत होते हैं,
दुर्बल कर्म होने पर
वे कम अनुकूल एवं कम सुखमय प्रतीत होते हैं ।
कर्म नष्ट होने पर
उनमें सुखत्व भी नहीं रहता है।

मूलम्

अतः कर्मकृतमेव परमपुरुषव्यतिरिक्तविषयाणां सुखत्वम्। अत एव तेषामल्पत्वमस्थिरत्वं च ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम-पुरुषस्यैव स्वत एव सुखत्वम् ।

नीलमेघः

श्रीभगवान ही स्वतः सुख होते हैं,
वे ही स्वतः अनुकूल प्रत होने वाले पदार्थ हैं ।
वे कर्म के कारण
सुख स्वरूप नहीं होते
किन्तु स्वतः ही सुख स्वरूप हैं ।

मूलम्

परमपुरुषस्यैव स्वत एव सुखत्वम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतस्तदेव स्थिरमनवधिकातिशयं च -

नीलमेघः

अतएव परमात्मा में
सुखस्व स्थायी एवं उत्कर्ष की चरम सीमा में पहुँचा हुआ रहता है ।

मूलम्

अतस्तदेव स्थिरमनवधिकातिशयं च -

विश्वास-प्रस्तुतिः

कं ब्रह्म खं ब्रह्म (छा.उ.४.१०.३),+++(5)+++

नीलमेघः

श्रुति ने कहा है कि-

“कं ब्रह्म खं ब्रह्म”
अर्थात् ब्रह्म सुख स्वरूप है, आकाश की तरह अपरिच्छेद्य सुख स्वरूप है,

मूलम्

कं ब्रह्म खं ब्रह्म (छा.उ.४.१०.३),

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनन्दो ब्रह्म (तै.उ.भृ६.१),

नीलमेघः

“आनन्दो ब्रह्म”
ब्रह्म आनन्दस्वरूप है,

मूलम्

आनन्दो ब्रह्म (तै.उ.भृ६.१),

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तै.उ.आ.१.१)

इति श्रुतेः ।

नीलमेघः

“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म”
ब्रह्म निर्विकार ज्ञानस्वरूप है एवं अपरिच्छेद्य है।

मूलम्

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तै.उ.आ.१.१)

इति श्रुतेः ।

ब्रह्मेतरं न स्वरूपतः सुखम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म-व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्य वस्तुनः
स्व-रूपेण सुखत्वाभावः
कर्मकृतत्वेन चास्थिरत्वं
भगवता पराशरेणोक्तम् …

नीलमेघः

भगवान श्रीपराशर जी ने कहा है कि
ब्रह्म व्यतिरिक्त ब पदार्थों में
स्वाभाविक सुखत्व नहीं रहता,
किन्तु कर्मकृत औपाधिक सुखत्व ही रहता है
वह भी एवं अस्थिर हैं ।
ये श्लोक विष्णुपुराण के हैं कि-

मूलम्

ब्रह्मव्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्य वस्तुनः स्वरूपेण सुखत्वाभावः कर्मकृतत्वेन चास्थिरत्वं भगवता पराशरेणोक्तम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरक-स्वर्ग-संज्ञे वै
पाप-पुण्ये द्विजोत्तम ।
वस्त्व् एकम् एव दुःखाय
सुखायेर्ष्यागमाय च ।
कोपाय च यतस्, तस्माद्
वस्तु +++(एकान्त-सुखादिना)+++ वस्त्व्-आत्मकं+++(→स्वतन्त्रं)+++ कुतः ॥ (वि.पु.२.६.४५)+++(5)+++

नीलमेघः

अर्थात् द्विजोत्तम !
पुण्य और पाप, क्रम से स्वर्ग एवं नरक नाम से कहे जाते हैं
क्योंकि वे स्वर्ग एवं नरक के कारण हैं ।
एक ही वस्तु एक मनुष्य के लिये
दुःख का कारण बनती है,
वही दूसरे मनुष्य के लिये सुख का कारण होती है ।
वही वस्तु तीसरे मनुष्य के लिये इर्ष्यो का कारण
एवं चतुर्थ मनुष्य के लिये कोप का कारण बन जाती है ।

[[३२४]]

मूलम्

नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ।
वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च ।
कोपाय च यतस् तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ॥ (वि.पु.२.६.४५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख-दुःखाद्य्-एकान्त-+++(स्व-)+++रूपिणो वस्तुनो वस्तुत्वं कुतः?
+++(तादृशं न किञ्चिद् अस्तीति।)+++

नीलमेघः

इस प्रकार विभिन्न मनुष्यों के सुख दुःखादि का कारण बनना
वस्तु का स्वरूप नहीं है।
कर्म के अनुसार वस्तु सुख दुःख आदि का कारण बनती है ।

मूलम्

सुखदुःखाद्येकान्तरूपिणो वस्तुनो वस्तुत्वं कुतः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्-एकान्तता+++(-प्रतीतिः)+++ पुण्य-पाप-कृतेत्य् अर्थः ।

मूलम्

तदेकान्तता पुण्यपापकृतेत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् अनेक-पुरुषापेक्षया
कस्यचित् सुखम् एव
कस्यचिद् दुःखं भवतीत्य् अवस्थां प्रतिपाद्य,
एकस्मिन्न् अपि पुरुषे
न व्यवस्थितम् इत्य् आह –

नीलमेघः

एक ही वस्तु भन्न मनुष्यों में
किसी के प्रति सुखरूप
और किसी के प्रति दुःखरूप प्रतीत होती है।

इस प्रकार अव्यवस्था का वर्णन करके
आगे श्रीपराशर जी ने कहा कि
विचार करने पर सिद्ध होता है कि
+++(एक)+++ मनुष्य के प्रति भी व्यवस्था नहीं घटती है
क्योंकि एक वस्तु एक मनुष्य के प्रति सदा दुःख ही देती हो,
या सुख ही देती हो,
ऐसी बात नहीं है क्योंकि देखने में आता है कि -

मूलम्

एवमनेकपुरुषापेक्षया कस्यचित्सुखमेव कस्यचिद्दुःखं भवतीत्यवस्थां प्रतिपाद्य, एकस्मिन्नपि पुरुषे न व्यवस्थितमित्याह –

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेव प्रीयते भूत्वा
पुनर् दुःखाय जायते ।
तदेव कोपाय यतः
प्रसादाय च जायते ॥
तस्माद् दुःखात्मकं नास्ति
न च किंचित् सुखात्मकम् । (वि.पु.२.६.४६)+++(5)+++

नीलमेघः

अर्थात् वही पदार्थ प्रीति का कारण होकर
दुःख का कारण बन जाता है,
वही कोप का कारण होकर
बाद प्रसन्नता का कारण बन जाता है।
इसलिये कहना पड़ता है कि
जगत में कोई भी दुःखात्मक नहीं हैं
न सुखात्मक ही है।

मूलम्

तदेव प्रीयते भूत्वा पुनर्दुःखाय जायते ।
तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते ॥
तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किंचित्सुखात्मकम् । (वि.पु.२.६.४६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सुख-दुःखात्मकत्वं सर्वस्य वस्तुनः कर्मकृतं
न वस्तु-स्वरूप-कृतम् ।+++(4)+++

नीलमेघः

वस्तु जो सुखात्मक या दुःखात्मक बनती है,
वस्तु का वह आकार कर्मकृत है,
वस्तुस्वरूपकृत नहीं है ।
वस्तुस्वरूप के कारण ही
वस्तु सुखात्मक या दुःखात्मक बनती हो ऐसी बात नहीं।
किंतु कर्म के कारण ही वस्तु सुखात्मक या दुःखात्मक बनती है।

मूलम्

इति सुखदुःखात्मकत्वं सर्वस्य वस्तुनः कर्मकृतं न वस्तुस्वरूपकृतम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः कर्मावसाने तद् अपैतीत्य् अर्थः।

नीलमेघः

कर्म पूर्ण रीति से जब मिट जायगा,
तब वस्तु न सुखात्मक बनेगी न दुःखात्मक ही।+++(5)+++

मूलम्

अतः कर्मावसाने तदपैतीत्यर्थः।

पारतन्त्र्यं कदा दुःखम्?

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु “सर्वं परवशं दुःखम्” इत्य् उक्तं तत्
परम-पुरुष-व्यतिरिक्तानां परस्-पर-+++(निरुपाधिक-)+++शेष-शेषि-भावाभावात्
तद्-व्यतिरिक्तं प्रति शेषता दुःखम् एवेत्य् उक्तम् ।+++(4)+++

नीलमेघः

शंका करने वाले ने “सर्व परवशं दुःखम्” इत्यादि मनुस्मृति वचनों को
प्रमाणरूप में प्रस्तुत किया था ।
उन वचनों का भाव यही है कि
जहाँ चेतन श्रीभगवान को छोड़कर दूमरों का शेष अर्थात् परतन्त्रदास बनता है,
बढी दुःख का कारण है।

मूलम्

यत्तु सर्वं परवशं दुःखम् इत्युक्तं तत्परमपुरुषव्यतिरिक्तानां परस्परशेषशेषिभावाभावात् तद्व्यतिरिक्तं प्रति शेषता दुःखमेवेत्युक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

“सेवा श्ववृत्तिर् आख्याता” इत्य्-अत्राप्य्
अ-सेव्य-सेवा श्व-वृत्तिर् एवेत्य् उक्तम् ।+++(4)+++

नीलमेघः

“सेवा दत्रवृत्तिराख्याता” इस वचन में यहो कहा गया है कि
उन सेव्य पुरुषों की सेवा कुत्ते की जविका के समान है।

मूलम्

सेवा श्ववृत्तिराख्याता इत्यत्राप्यसेव्यसेवा श्ववृत्तिरेवेत्युक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ह्य् आश्रमैः सदोपास्यः
समस्तैर् एक एव तु

इति सर्वैर् आत्म-याथात्म्य-वेदिभिः सेव्यः पुरुषोत्तम एक एव।

नीलमेघः

इस प्रकार निर्णय करने का कारण यही है कि
शास्त्रों में कहा गया है कि
“स ह्याश्रमैः सदोपास्यः समस्तैरेक एव च”
अर्थात् एकमात्र श्री-भगवान ही सभी आश्रमों के द्वारा सेव्य हैं।

इससे सिद्ध होता है कि
ठीक प्रकार से आत्मस्वरूप को जानने वालों को
श्रीभगवान की सेवा करना चाहिये ।

मूलम्

स ह्याश्रमैः सदोपास्यः समस्तैरेक एव तु इति सर्वैरात्मयाथात्म्यवेदिभिः सेव्यः पुरुषोत्तम एक एव।

भक्तिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं भगवता-

मां च योऽव्यभिचारेण
भक्ति-योगेन सेवते ।
स गुणान् समतीत्यैतान्
ब्रह्म-भूयाय कल्पते ॥ (भ.गी.१४.२६)

इति ।

नीलमेघः

श्रीभगवान ने भी गीता में कहा है कि-

“मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान् समतीत्यैनान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥

अर्थात् जो साधक देवतान्तर भजन छोड़कर
अनन्यभाव से भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा करता हैं,
वह सत्त्व रज और तमोगुण को पार करके
ब्रह्मभाव प्राप्त करने का अधिकारी होता है,
उसे परिशुद्धात्मस्वरूपानुभव प्राप्त होता है ।

मूलम्

यथोक्तं भगवता-

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (भ.गी.१४.२६)

इति ।

श्रुतौ वेदनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयम् एव भक्ति-रूपा सेवा

ब्रह्म-विद् आप्नोति परम् (तै.उ.आ.१.१),

नीलमेघः

यह भक्तिरूपा सेवा ही निम्नलिखित श्रुति वचनों में
वेदनशब्द अर्थात् ज्ञान शब्द से कही गई है।

वे वचन ये हैं कि

“ब्रह्मविदाप्नोति परम्”
अर्थात् ब्रह्म को जानने वाला परब्रह्म को प्राप्त होता है,

मूलम्

इयमेव भक्तिरूपा सेवा ब्रह्मविदाप्नोति परम् (तै.उ.आ.१.१),

विश्वास-प्रस्तुतिः

तम् एवं विद्वानमृत इह भवति (तै.आ.पु.३.१२.१७),

नीलमेघः

“तमेवं विद्वानमृत इह भवति”
उस परमपुरुष को इस प्रकार जानने वाला साधक मुक्त हो जाता है

मूलम्

तमेवं विद्वानमृत इह भवति (तै.आ.पु.३.१२.१७),

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मु.उ.३.२.९)

इत्य्-आदिषु वेदन-शब्देनाभिधीयत इत्युक्तम्।+++(5)+++

नीलमेघः

“ब्रह्म वेद ब्रह्म व भवति” । जो ब्रह्म को जानता है
वह ब्रह्म बन जाता है
अर्थात् ब्रह्म के अत्यन्त समान बन जाता है ।+++(4)+++

इन वचनों में ज्ञान वाचक वेदनशब्द से उपर्युक्त भक्ति ही कही गई है ।

मूलम्

ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मु.उ.३.२.९)

इत्यादिषु वेदनशब्देनाभिधीयत इत्युक्तम्।

भगवत्-प्रियता

विश्वास-प्रस्तुतिः

यम् एवैष वृणुते, तेन लभ्यः (मु.उ.३.२.३)

इति विशेषणाद्यम् एवैष वृणुत
इति भवगता वरणीयत्वं प्रतीयते ।

नीलमेघः

“यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः”
इस श्रुति वचन से सिद्ध होता है कि
वह ज्ञान प्रीतिरूप है ।
प्रीतिरूप ज्ञान ही भक्ति कहा जाता है ।

इस वचन से कहा गया है कि
श्रीभगवान जिसका वरण करते हैं
अर्थात् जिसे चाहते हैं
उसको भगवान प्राप्य होते हैं
अर्थात् उसको भगवान मिलते हैं।

मूलम्

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः (मु.उ.३.२.३)
इति विशेषणाद्यमेवैष वृणुत इति भवगता वरणीयत्वं प्रतीयते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरणीयश्च प्रियतमः ।

नीलमेघः

प्रश्न होता है कि श्रीभगवान किसका वरण करते हैं ?
श्रीभगवान के द्वारा वरण करने योग्य व्यक्ति कौन है ?
उत्तर यह है कि भगवान को जो अत्यन्तप्रिय है,
श्रीभगवान जिस पर अपार प्रीति करते हैं
वह श्रीभगवान के द्वारा वृत होता है,
श्रीभगवान उस प्रिय व्यक्ति को चाहते हैं,
वही श्रीभगवान का वरणीय है ।

मूलम्

वरणीयश्च प्रियतमः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य भगवत्य् अनवधिकातिशया प्रीतिर् जायते
स एव भगवतः प्रियतमः। +++(4)+++

नीलमेघः

फिर प्रश्न होता है कि
श्रीभगवान का अत्यन्त प्रिय कौन है ?
उत्तर यह है कि
जो श्रीभगवान में अपार प्रेम करता है,
वह श्रीभगवान का प्रिय होता है ।

मूलम्

यस्य भगवत्यनवधिकातिशया प्रीतिर्जायते स एव भगवतः प्रियतमः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदुक्तं भगवता

प्रियो हि ज्ञानिनो ऽत्यर्थम्
अहं, स च मम प्रियः । (भ.गी.७.१७)

इति ।

नीलमेघः

श्रीभगवान ने कहा भी है कि

“प्रियो हि ज्ञानिनो ऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः”

अर्थात् हम ज्ञानी भक्त को अत्यन्त प्रिय हैं,
ज्ञानी भक्त भी हमको अत्यन्त प्रिय हैं ।
इस विवेचन से सष्ट हो गया कि
जो भक्त श्रीभगवान पर अपार प्रेम करेगा,
उसपर श्रीभगवान भी अपार प्रेम करेंगे,
श्रीभगवान उसको चाहेंगे तथा उसको मिलेंगे ।

मूलम्

तदुक्तं भगवता

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः । (भ.गी.७.१७)

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् पर-भक्ति-रूपापन्नम् एव वेदनं
तत्त्वतो भगवत्-प्राप्ति-साधनम् ।+++(4)+++

नीलमेघः

इससे फलित हुआ कि श्रीभगवान में प्रेम करना चाहिये ।
यही भगवाप्ति का साधन है।
भक्ति प्रेम को लेकर होती है ।
परभक्तिरूप को प्राप्त हुआ ब्रह्मज्ञान ही
वास्तव में भगव्याप्ति का साधन है ।

मूलम्

तस्मात्परभक्तिरूपापन्नमेव वेदनं तत्त्वतो भगवत्प्राप्तिसाधनम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं भगवता द्वैपायनेन मोक्षधर्मे सर्वोपनिषद्व्याख्यानरूपम् –

नीलमेघः

श्रीभगवान वेदव्यास महर्षि ने मोक्षधर्म में
सर्व उपनिषदों के व्याख्यान के रूप में यह कहा है कि-

मूलम्

यथोक्तं भगवता द्वैपायनेन मोक्षधर्मे सर्वोपनिषद्व्याख्यानरूपम् –

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदृशो तिष्ठति रूपम् अस्य
चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् । भक्त्या च धृत्या च समाहितात्मा,
ज्ञान-स्वरूपं परिपश्यतीह ॥(म.भा.शान्ति.२१.६२)

नीलमेघः

अर्थात्
श्रीभगवान का दिव्यरूप देखने में नहीं आता,
कोई भी मनुष्य चतु से श्रीभगवान को देख नहीं सकता । किंतु धृति से मन को जीतने वाला साधक
भक्ति से ज्ञानस्वरूप श्री भगवान का साक्षात्कार करता है ।

मूलम्

न संदृशो तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् । भक्त्या च धृत्या च समाहितात्मा ज्ञानस्वरूपं परिपश्यतीह ॥(म.भा.शान्ति.२१.६२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृत्या समाहितात्मा
भक्त्या पुरुषोत्तमं पश्यति साक्षात्करोति – प्राप्नोतीत्यर्थः -
“भक्त्या त्वनन्यया शक्यः” (भ.गी.११.५४) इत्यनेनैकार्थ्यात् ।

नीलमेघः

यह श्लोक निम्नलिखित श्रुति वचन व्याख्यान है । वह श्रुति वक्त यह है की-

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा मनीषा मनसा ऽभिक्लृप्तो
य एतद् विदुर् अमृतास् ते भवन्ति ॥

इस मन्त्र के “हृदा मनीषा” इन दो पदों की
महाभारत श्लोक में “भक्त्या च धृत्या च " कहकर व्याख्या की गई है।

श्री वेदव्यास जी की यह व्याख्या श्रीभगवान की “भक्त्या त्वनन्यया शक्यः”
इस श्रीसूक्ति से मेल रखती है
अतः अत्यन्त उपादेय है ।
श्रीभगवान की श्रीसूक्ति का यह अर्थ है कि
हे अजुन अनन्य भक्ति के द्वारा मेरा ज्ञान, साक्षात्कार और मेरी प्राप्ति प्राप्त हो सकते हैं।

मूलम्

धृत्या समाहितात्मा भक्त्या पुरुषोत्तमं पश्यति साक्षात्करोति – प्राप्नोतीत्यर्थः भक्त्या त्वनन्यया शक्यः (भ.गी.११.५४) इत्यनेनैकार्थ्यात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्तिश्च ज्ञानविशेष एवेति सर्वमुपपन्नम् ।

नीलमेघः

[[३२९]]
भक्ति एक ज्ञान विशेष ही है ।
यह बात पहले ही कहो गई है।
इसलिये यह सर्वमान्य सिद्धान्त–जो कि
अज्ञान से संसार होता है।
ज्ञान से मोक्ष होता है-
भी संगत हो जाता है ।

मूलम्

भक्तिश्च ज्ञानविशेष एवेति सर्वमुपपन्नम् ।