विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं-विध–सुख-स्वरूप-ज्ञानस्य +++(सुख-)+++विशेषकत्वं+++(→अनुकूलत्वं)+++
ब्रह्म-व्यतिरिक्तस्य वस्तुनः सातिशयम् अस्थिरं च
ब्रह्मणस् त्व् अनवधिकातिशयं स्थिरं चेति ।
नीलमेघः
ज्ञान सुखरूप होने का कारण यही है कि
वह अनुकूल विषयों को ग्रहण करता है ।
ब्रह्म व्यतिरिक्त पदार्थों में रहने वाली अनुकूलता
सीमित एवं अस्थिर है,
ब्रह्म में रहने वाली अनुकूलता निःसीम एवं स्थिर है ।
मूलम्
एवंविधसुखस्वरूप-ज्ञानस्य विशेषकत्वं ब्रह्मव्यतिरिक्तस्य वस्तुनः सातिशयमस्थिरं (सातिशयत्वमस्थिरत्वं) च ब्रह्मणस्त्वनवधिकातिशयं स्थिरं चेति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनन्दो ब्रह्म (तै.उ.भृ.६.१) इत्युच्यते ।
नीलमेघः
अतएव श्रुति ने कहा कि “आनन्दो ब्रह्म"
अर्थात् ब्रह्म आनन्द स्वरूप है ।
मूलम्
आनन्दो ब्रह्म (तै.उ.भृ.६.१) इत्युच्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयायत्तत्वात् ज्ञानस्य सुख–स्व-रूपताया -
ब्रह्मैव सुखम् ।
नीलमेघः
[[३१६]]
ज्ञान की सुखरूपता विषयाधीन है।
इसलिये अनुकूल प्रतीत होने वाला ब्रह्म सुख एवं आनन्द कहा गया है ।
मूलम्
विषयायत्तत्वात् ज्ञानस्य सुखस्वरूपताया ब्रह्मैव सुखम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदमाह -
रसो वै सः, रसं ह्य् एवायं लब्ध्वा ऽऽनन्दी भवति (तै.उ.आ.७.१)
इति।
ब्रह्मैव सुखम् इति, ब्रह्म लब्ध्वा सुखी भवतीत्यर्थः ।
नीलमेघः
यह अर्थ निम्नलिखित श्रुति वचन से स्पष्ट हो जाता है ।
“रसो वै सः, रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति”
अर्थात् ब्रह्म ही रस स्वरूप है एवं सुखस्वरूप है ।
अतएव ब्रह्म को प्राप्त करके साधक सुखी हो जाता है ।
मूलम्
तदिदमाह - रसो वै सः, रसं ह्य् एवायं लब्ध्वा ऽऽनन्दी भवति (तै.उ.आ.७.१) इति।
ब्रह्मैव सुखमिति, ब्रह्म लब्ध्वा सुखी भवतीत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परम-पुरुषः स्वेनैव स्वयम् अनवधिकातिशय-सुखः सन्
परस्यापि सुखं भवति -
सुख–स्व-रूपत्वाविशेषात्।
ब्रह्म यस्य ज्ञानविषयो भवति स सुखी भवतीत्यर्थः ।
नीलमेघः
लौकिक पदार्थों से परब्रह्म में यह विशेषता है कि
लौकिक भोग्य पदार्थ जड़ हैं,
वे भोक्ताओं के लिये अनुकूल लगते हैं
अतएव भोक्ताओं के लिये सुख बन जाते हैं,
अपने लिये नहीं क्योंकि जड़ होने से
अपने लिये अनुकूल लग नहीं सकते ।
परब्रह्म में यह विशेषता है कि
परब्रह्म चेतन है,
वह अपने लिये दूसरों के लिये भी अनुकूल लगता है,
अनुकूल स्वरूप का साक्षात्कार करता हुआ
वह परब्रह्म सदा सुखी बनकर रहता है
तथा दूसरे भक्त और मुक्त इत्यादिकों के द्वारा साक्षात्कृत होता हुआ
उनके लिये अत्यन्त अनुकूल प्रतीत होता है
तथा उनको अत्यन्त सुखी बना देता है।
यह परब्रह्म की विशेषता है।
मूलम्
परमपुरुषः स्वेनैव स्वयमनवधिकातिशयसुखः सन् परस्यापि सुखं भवति - सुखस्वरूपत्वाविशेषात्।
ब्रह्म यस्य ज्ञानविषयो भवति स सुखी भवतीत्यर्थः ।