०३ भगवत्प्राप्त्युपायः

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म-प्राप्त्य्-उपायश् च
शास्त्राधिगत-तत्त्व-ज्ञान-पूर्वक–
स्व-कर्मानुगृहीत–भक्ति-निष्ठा-साध्य+-
अनवधिक-अतिशय-प्रिय-विशदतम-प्रत्यक्षतापन्नानुध्यान-रूप–
पर-भक्तिर् एवेत्य् उक्तम् ।+++(4)+++

विश्वास-टिप्पनी

हार्दं रहस्यं शरणागत्याख्यं न वक्ति 🙂। परे ऽपूर्णावगत्या परिहसन्तीति भिया?!

नीलमेघः

[[३१८]]
इस प्रकार सिद्धवस्तु परब्रह्म के विषय में वक्तव्य का संग्रह करके
श्रीरामानुजस्वामी जी उपाय के विषय में वक्तव्य का संग्रह करते हुये बतलाते हैं कि
परब्रह्म को प्राप्त करने का उपाय भक्ति ही है ।
तदर्थ पहले शास्त्रों से तस्वज्ञान को प्राप्त करना चाहिये
बाद उस तत्त्वज्ञान के साथ स्वकर्मों का अर्थात् वर्णाश्रम धर्मो अनुष्ठान करना चाहिये ।
वर्णाश्रम धर्मों के अनुष्ठान से
चित्त शुद्ध होकर
भक्तियोग का अभ्यास करते करते
श्रीभगवान में ऐसा प्रेम उत्पन्न होता है
जो अत्यन्त प्रिय लगता है
तथा अत्यन्त विशद बनकर
प्रत्यक्ष के समान बन जाता है।
इस प्रकार का प्रेम मिश्रित ध्यान ही परभक्ति है,
यही भगवत्प्राप्ति की पूर्वास्था है ।
यह पराभक्ति ही भगवत्प्राप्ति का साधन है ।

मूलम्

ब्रह्मप्राप्त्युपायश्च शास्त्राधिगततत्त्वज्ञानपूर्वकस्वकर्मानुगृहीतभक्तिनिष्ठा-साध्यानवधिक-अतिशयप्रियविशदतम प्रत्यक्षतापन्नानुध्यानरूप परभक्तिरेवेत्युक्तम् ।

भक्तेर् ज्ञानत्वम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्ति-शब्दश् च प्रीति-विशेषे वर्तते ।
प्रीतिश् च ज्ञान-विशेष एव
+++(तेन क्वचिज् ज्ञानं मोक्षसाधनम् इत्य् उक्तम्)+++।+++(4)+++

नीलमेघः

भक्ति शब्द प्रीति विशेष का वाचक है ।
भृत्य का स्वामी के विषय में जो अनुराग होता है
वह प्रीति विशेष ही भक्ति कहलाता है ।
यह प्रीति भी एक ज्ञानविशेष ही है ।
इस भक्तिरूपी ज्ञान को लेकर ही
शास्त्रों में कहा गया है कि
ज्ञान मोक्ष का साधन है ।+++(4)+++

मूलम्

भक्तिशब्दश्च प्रीतिविशेषे वर्तते ।
प्रीतिश्च ज्ञानविशेष एव ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु च सुखं प्रीतिर् इत्य् अनर्थान्तरम् ।
“सुखं च ज्ञान-विशेष-साध्यं पदार्थान्तरम्”
इति हि लौकिकाः ।

नीलमेघः

यहाँ पर यह शंका होती हैं कि
प्रीति को ज्ञान मानना उचित नहीं ।
सुख और प्रीति लोक में एक ही पदार्थ माने जाते हैं ।
लौकिक वैशेषिक दार्शनिक इत्यादि पुरुष
यह मानते हैं कि
सुख ज्ञान विशेष से उत्पन्न होने वाला एक पदार्थ है ।
जो ज्ञान किसी विषय को अनुकूल रूप में ग्रहण करना है
उस ज्ञान विशेष से सुख उत्पन्न होता है,
वह ज्ञान कारण है उस, ज्ञान का कार्य सुख है ।
उनके मतानुसार ज्ञान और सुख भिन्न २ पदार्थ होते हैं ।
सुख और प्रीति एक ही वस्तु है ।
इससे सिद्ध होता है कि
प्रीति ज्ञान से भिन्न है,
उसे ज्ञान कैसे कहा जा सकता है ।
यह शंका है ।

सुखस्य ज्ञानत्वम्

मूलम्

ननु च सुखं प्रीतिरित्यनर्थान्तरम् । सुखं च ज्ञानविशेषसाध्यं पदार्थान्तरमिति हि लौकिकाः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवम् ।
येन ज्ञान-विशेषेण तत्-साध्यम् इत्य् उच्यते
स एव ज्ञान-विशेषः सुखम्

मूलम्

नैवम् । येन ज्ञानविशेषेण तत्साध्यमित्युच्यते स एव ज्ञानविशेषः सुखम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् उक्तं भवति
विषय-ज्ञानानि सुख-दुःख–मध्य-स्थ–साधारणानि ।

नीलमेघः

इसका समाधान यह है कि
विषयों का ग्रहण करने वाले ज्ञान
तीन प्रकार के होते हैं ।

(१) कई ज्ञान ऐसे विषयों का ग्रहण करते हैं
जो अनुकूल होने से सुख कहे जाते हैं ।
(२) कई ज्ञान ऐसे विषयों का ग्रहण करते हैं
जो प्रतिकूल होने से दुःख कहलाते हैं ।
(३) कई ज्ञान ऐसे विषयों का ग्रहण करते हैं
जो अनुकूल नहीं, तथा प्रतिकूल भी नहीं है, किन्तु मध्यस्थ हैं ।

इस प्रकार ज्ञान तीन प्रकार के होते हैं ।

मूलम्

एतदुक्तं भवति विषयज्ञानानि सुखदुःखमध्यस्थसाधारणानि ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि +++(सुख-दुःख-मध्यस्थानि)+++ च विषयाधीन-विशेषाणि तथा भवन्ति ।

नीलमेघः

ज्ञानों में होने वाली विशेषतायें विषयों के आधीन हैं ।
अतएव अनुकूल विषयों का ग्रहण करने वाले ज्ञान सुख कहलाते हैं,
प्रतिकूल विषयों का ग्रहण करने वाले ज्ञान दुःख कहे जाते हैं ।
मध्यस्थ विषयों का ग्रहण करने वाले ज्ञान मध्यस्थ कहलाते हैं ।

मूलम्

तानि च विषयाधीनविशेषाणि तथा भवन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन च विषय-विशेषेण विशेषितं ज्ञानं
सुखस्य जनकम् इत्य् अभिमतं +++(वैशेषिकादिभिः)+++
तद्-विषयं ज्ञानम् एव सुखं,
तद्-अतिरेकि पदार्थान्तरं नोपलभ्यते -
तेनैव सुखित्व-व्यवहारोपपत्तेश् च ।

नीलमेघः

वैशेषिक दार्शनिक इस प्रकार के ज्ञानों से
सुख और दुःख को उत्पत्ति मानते हैं ।
सब तरह के ज्ञानों से नहीं ।
यदि सब तरह के ज्ञानों से सुख उत्पन्न होता
तो काष्ठ और लोष्ठ आदि के ज्ञान से भी सुख उत्पन्न होना चाहिए ।
उस ज्ञान से सुख उत्पन्न होता नहीं
किन्तु अनुकूल प्रतीत होने वाली माला और चन्दन आदि के ज्ञान से ही
सुख उत्पन्न होता है,
वैसे प्रतिकूल प्रतीत होने वाले सर्प आदि के ज्ञान से ही
दुःख उत्पन्न होता है
ऐसा वैशेषिकों को कहना पड़ता है ।

ऐसी स्थिति में हम विशिष्टाद्वैती यही निर्णय करते हैं कि
वैशेषिक लोग अनुकूल विषयों का ग्रहण करने वाले जिन ज्ञानों से सुख की उत्पत्ति मानते हैं,
वे ज्ञान ही सुख हैं,
दूसरा कोई सुख नाम-धारी पदार्थ उत्पन्न होता नहीं दीखता है ।

उस ज्ञान को लेकर “सुखी” ऐसा व्यवहार भी संपन्न हो जाता है
इस व्यवहार को सम्हालने के लिये ज्ञान व्यतिरिक्त सुख की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
अनुकूल विषयों का ग्रहण करने वाला ज्ञान ही सुख है,
सुख ज्ञान से भिन्न नहीं है,
सुख और प्रीति एक होने से
प्रीति भी ज्ञान विशेष ही है।

मूलम्

येन च विषयविशेषेण विशेषितं ज्ञानं सुखस्य जनकमित्यभिमतं तद्विषयं ज्ञानमेव सुखं, तदतिरेकि पदार्थान्तरं नोपलभ्यते - तेनैव सुखित्वव्यवहारोपपत्तेश्च ।