०२ सृष्टिः, शरीरात्म-भावः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्य-संकलपं परं ब्रह्म
स्वयम् एव “बहु-प्रकारं स्याम्” इति संकल्प्य
+अ-चित्–समष्टि-रूप–महा-भूत–सूक्ष्म-वस्तु, भोक्तृ-वर्ग-समूहं च
स्वस्मिन् प्रलीनं स्वयम् एव विभज्य
तस्माद् भूत-सूक्ष्माद् वस्तुनो महाभूतानि सृष्ट्वा
तेषु च भोक्तृ-वर्गम् आत्मतया प्रवेश्य
तैश् चिद्-अधिष्ठितैर् महा-भूतैर् अन्योन्य-संसृष्टैः
कृत्स्नं जगद् विधाय
स्वयम् अपि सर्वस्यात्मतया प्रविश्य
परमात्मत्वेनावस्थितं सर्व-शरीरं बहु-प्रकारम् अवतिष्ठते

नीलमेघः

विश्वरूप धारी श्रीभगवान ही अभेद निर्देशों का प्रतिपाद्य है,
यह अर्थ पहले ही कहा जा चुका है।
प्रलयकाल में यह जड़प्रपञ्च
नाम रूप विभाग को त्याग कर
मूल कारण सूक्ष्म प्रकृति बनकर परमात्मा में लीन हो जाता है
तथा भोक्ता चेतनों का समूह भी परमात्मा में लीन हो जाता है,
लीन होने पर इनका अलग पता नहीं चलता है।
सृष्टिकाल उपस्थित होते ही
वह सत्य-संकल्प वाले परमात्मा
अपने में लीन हुये इन चेतनाचेतन पदार्थों को विभक्त करके
मूल कारण सूक्ष्म प्रकृति से पंचमहाभूतों की सृष्टि करके
उनमें भोक्ता चेतनों को आत्मा के रूप में प्रविष्ट करा करके
जीवात्माओं के द्वारा अधिष्ठित महाभूतों को परस्पर में मिश्रित करके
संपूर्ण जगत का निर्माण करते हैं,
तथा स्वयं इन चेतनाचेतन पदार्थों में
अन्तरात्मा के रूप में प्रविष्ट होकर विश्वरूपी हो जाते हैं ।

विश्व इनका शरीर है, ये विश्व की आत्मा हैं,
इनकी कोई आत्मा नहीं अतएव ये परमात्मा कहलाते हैं ।
इस प्रकार सभी पदार्थों को शरीर बनाकर
धारण करते हुये परमात्मा नाना प्रकार से अवस्थित रहते हैं ।

मूलम्

सत्यसंकलपं परं ब्रह्म स्वयमेव बहुप्रकारं स्यामिति संकल्प्याचित्समष्टि-रूपमहाभूतसूक्ष्मवस्तु भोक्तृवर्गसमूहं च स्वस्मिन् प्रलीनं स्वयमेव विभज्य तस्माद्भूतसूक्ष्माद्वस्तुनो महाभूतानि सृष्ट्वा तेषु च भोक्तृवर्गमात्मतया प्रवेश्य तैश्चिदधिष्ठितैर्महाभूतैरन्योन्यसंसृष्टैः कृत्स्नं जगद्विधाय स्वयमपि सर्वस्यात्मतया प्रविश्य परमात्मत्वेनावस्थितं सर्वशरीरं बहुप्रकारमवतिष्ठते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् इदं महा-भूत-सूक्ष्मं वस्तु
तद् एव प्रकृति-शब्देनाभिधीयते ।

नीलमेघः

यह जो महाभूतों का कारण बनने वालो सुक्ष्म वस्तु है,
वह प्रकृति कहलाती है ।

मूलम्

यदिदं महाभूतसूक्ष्मं वस्तु तदेव प्रकृतिशब्देनाभिधीयते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोक्तृ-वर्ग-समूह एव पुरुष-शब्देन चोच्यते ।

नीलमेघः

भोक्ता जीवों का समूह पुरुष कहलाता है ।

मूलम्

भोक्तृवर्गसमूह एव पुरुषशब्देन चोच्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ च प्रकृति-पुरुषौ
परमात्म-शरीरतया परमात्म-प्रकार-भूतौ ।

नीलमेघः

प्रकृति और पुरुष ये दोनों परमात्मा के शरीर हैं
अतएव परमात्मा के विशेषण हैं,

मूलम्

तौ च प्रकृतिपुरुषौ परमात्मशरीरतया परमात्मप्रकारभूतौ ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्-प्रकारः परमात्मैव प्रकृति-पुरुष-शब्दाभिधेयः ।

नीलमेघः

प्रकृति पुरुष रूपी विशेषणों से युक्त परमात्मा
उन शब्दों के वाच्य होते हैं जो प्रकृति पुरुषों के वाचक हैं ।

मूलम्

तत्प्रकारः परमात्मैव प्रकृतिपुरुषशब्दाभिधेयः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति,

नीलमेघः

यह अर्थ निम्नलिखित श्रुति वाक्य से स्पष्ट है ।
“सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति"
अर्थात् उस आनन्दमय परमात्मा ने यह संकल्प किया कि
मैं देव और मनुष्य आदि के रूप से बन जाऊँ
तदर्थं आकाश आदि के रूप में उत्पन्न होऊँ ।

मूलम्

सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति,

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् सृष्ट्वा तद् एवानुप्रविशत्

नीलमेघः

वह परमात्मा इस जड़ चेतनात्मक प्रपञ्च की सृष्टि करके
उसमें प्रविष्ट हुआ

मूलम्

तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्रविशत्

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् अनुप्रविश्य
सच्च त्यच्चाभवन्
निरुक्तं+++(←अचित्)+++ चानिरुक्तं च
निलयनं+++(←चित्)+++ चानिलयनं च
विज्ञानं चाविज्ञानं च
सत्यं+++(←चित्)+++ चानृतं च

नीलमेघः

इसमें प्रवेश करके वह परब्रह्म सत् एवं त्यत् बना,
निर्विकार तथा सदा एक रूप से रहने के कारण चेतन सत् कहलाता है ।
विकारों का स्थान अचेतन पदार्थ त्यत् कहलाता है ।
जाति गुण और क्रिया का आश्रय होने के कारण
अचेतन पदार्थ जाति गुण और क्रिया का वाचक शब्दों से अभिहित होता है,
इसलिये अचेतन निरुक्त कहलाता है ।
चेतन पदार्थ स्वतः जाति और गुण आदि से रहित है
अतः जाति गुणादि वाचक शब्दों से अभिहित होता नहीं
इसलिये चेतन पदार्थ अनिरुक्त कहलाता है ।
अचेतन पदार्थों का आधार होने से
चेतन पदार्थ निलयन कहलाता है ।
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आश्रित अचेतन पदार्थ आनिलयन कहलाता है ।
निर्विकार होने से
चेतन सत्य कहलाता है ।
सविकार होने से जड़ पदार्थ अनृत कहलाता है ।

मूलम्

तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवन्निरुक्तं चानिरुक्तं च निलयनं चानिलयनं च विज्ञानं चाविज्ञानं च सत्यं चानृतं च

विश्वास-प्रस्तुतिः

… सत्यम्+++(=अविकृतम् ब्रह्म)+++ अभवत् (तै.उ.आ.६.२-३)

इति पूर्वोक्तं सर्वम् अनयैव श्रुत्या व्यक्तम् ।

नीलमेघः

इस चेतनाचेतन प्रपञ्च में
अन्तर्यामी के रूप में प्रविष्ट होकर
परब्रह्म इन चेतन वाचक शब्दों से अभिहित होता है,
अतएव वह परब्रह्म इस प्रकार कहा जाता है कि
वह चेतनाचेतन रूप बन गया है,
इस प्रकार चेतनाचेतन रूप बनने पर भी
इन चेतनाचेतनों से स्वरूपैक्य न होने से वह परब्रह्म सत्य अर्थात् निर्विकार ही बना रहता है ।
इन श्रुति वचनों से उपर्युक्त सभी अर्थ व्यक्त होते हैं ।

मूलम्

सत्यमभवत् (तै.उ.आ.६.२-३) इति पूर्वोक्तं सर्वमनयैव श्रुत्या व्यक्तम् ।