०१ नारायणः

नीलमेघः

इस ग्रन्थ में वर्णित सिद्धवस्तु संबन्धी विचारों का उपसंहार

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् इतिहास-पुराण-धर्मशास्त्रोपबृंहित-साङ्ग-वेद-वेद्यः
पर-ब्रह्म-भूतो नारायणो
निखिल-हेय-प्रत्यनीकः
सकलेतर-विलक्षणो ऽपरिच्छिन्न ज्ञानानन्दैक-स्वरूपः
स्वाभाविकानवधिकातिशयासंख्येय-
कल्याण-गुण-गणाकरः
स्व-संकल्पानुविधायि–स्व-रूप-स्थिति-प्रवृत्ति-भेद–चिद्–अ-चिद्-वस्तु-जातः
अ-परिच्छेद्य–स्व-रूप–स्वभावानन्त-महा-विभूतिः
नाना-विधानन्त-चेतनाचेतनात्मक–प्रपञ्च–लीलोपकरण
इति प्रतिपादितम् ।

नीलमेघः

[[३१४]]
अनन्तर श्रीरामानुजस्वामी जी सबको अनायास समझने के लिये
इस वेदार्थसंग्रह में वर्णित अर्थों का संग्रह करते हुये
उपसंहार करते हैं ।
वह इस प्रकार है कि
इतिहास पुराण और धर्मशास्त्र वेदार्थों को विशद बतलाने के लिये प्रवृत्त हैं ।
इनकी सहायता लेकर यदि वेदार्थ समझने का प्रयत्न किया जाय
तभी वह प्रयत्न सफल होगा ।
इतिहास पुराण और धर्मशास्त्रों की सहायता लेकर
विशदरूप से अर्थों को बतलाने वाले सांगवेद प्रधानरूप से
परतत्त्व परब्रह्म श्रीमन्नारायण का प्रतिपादन करने के लिये ही प्रवृत्त है ।

वेदवेद्य प्रधानार्थ परब्रह्म श्रीमन्नारायण ही हैं।
वेदों ने परब्रह्म श्रीमन्नारायण भगवान को
इस प्रकार बतलाया कि
वे सब दोषों से रहित हैं
तथा दोषों को नष्ट करने वाले हैं ।
[[३१५]]
श्रीभगवान को छोड़कर जितने पदार्थ जगत में हैं,
उन सबसे श्रीभगवान सब तरह से अत्यन्त विलक्षण हैं ।
अपरिच्छिन्न ज्ञानानन्द ही उनका स्वरूप है ।
उत्कर्ष की चरम सीमा में पहुँचे हुये
स्वाभाविक असंख्य कल्याणगुणों के वे निधि हैं
संपूर्ण चेतनाचेतन पदार्थों के स्वरूप स्थिति और प्रवृत्ति
एवं इनमें होने वाले भेदों को
वे अपने संकल्प के आधीन में रखे रहते हैं ।

वे उस त्रिपाद्विभूति महाविभूति के स्वामी हैं
जिसका स्वरूप और स्वभाव अपरिच्छेद्य है ।
वे लीला विभृति में विद्यमान अनन्त चेतनाचेतन पदार्थों को
प्रती लीला का उपकरण बनाये रखे हैं ।

मूलम्

एवमितिहासपुराणधर्मशास्त्रोपबृंहितसाङ्गवेदवेद्यः परब्रह्मभूतो नारायणो निखिलहेयप्रत्यनीकः सकलेतरविलक्षणोऽपरिच्छिन्न ज्ञानानन्दैकस्वरूपः स्वाभाविकानवधिकातिशय असंख्येयकल्याणगुणगणाकरः स्वसंकल्पानुविधायिस्वरूपस्थिति प्रवृत्तिभेदचिदचिद्वस्तुजातः अपरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावानन्तमहाविभूतिः नानाविधानन्तचेतनाचेतनात्मकप्रपञ्चलीलोपकरण इति प्रतिपादितम् ।

श्रुतयः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं खल्व् इदं ब्रह्म (छा.उ.३.१४.१),

नीलमेघः

श्रीभगवान को छोड़कर इस प्रकार का कोई पदार्थ जगत में नहीं,
अतएव वे सर्वविलक्षण कहे जाते हैं।
इस प्रकार सर्वविलक्षण होते हुये भी श्रीभगवान
शरीर के रूप में सर्व पदार्थों को धारण करते हुये
विश्वरूप में अवस्थित हैं
क्योंकि विश्व की आत्मा हैं
विश्व उनका शरीर है ।

अभेद वाक्य विश्वरूप में अवस्थित श्रीभगवान का वर्णन करते हैं । वे वाक्य ये हैं-

(१) “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” अर्थात् यह सब कुछ ब्रह्म ही है ।

मूलम्

सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छा.उ.३.१४.१),

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐतदात्म्यमिदं सर्वं,

नीलमेघः

(२) “ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्” अर्थात् यह सब कुछ ब्रह्मात्मक ही है ।

मूलम्

ऐतदात्म्यमिदं सर्वं,

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्त्वमसि श्वेतकेतो (छा.उ.६.८.७),

नीलमेघः

(३) “तत्त्वमसि श्वेतकेतो” अर्थात हे श्वेतकेतो ? तू वह ब्रह्म ही हो ।

मूलम्

तत्त्वमसि श्वेतकेतो (छा.उ.६.८.७),

स्मृत्यादयः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एनम् एके वदन्त्य् अग्निं
मरुतोऽन्यो प्रजापतिम् ।
इन्द्रम् एके परे प्राणम्
अपरे ब्रह्म शाश्वतम् ॥ (मनु.स्मृ.१२.१२३)

नीलमेघः

अर्थात् कई वेद भाग इस परमात्मा को अग्नि कहते हैं, कई मरुत कहते हैं, दूसरे वेद भाग प्रजापति कहते हैं, कई वेद भाग इन्द्र कहते हैं अन्य वेद भाग प्राण कहते हैं । उपनिषद्भाग शाश्वत ब्रह्म कहते हैं ।

मूलम्

एनमेके वदन्त्यग्निं मरुतोऽन्यो प्रजापतिम् ।
इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम् ॥ (मनु.स्मृ.१२.१२३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्योतींषि शुक्लानि च यानि +++(त्रीणि)+++ लोके
त्रयो लोका, लोकपालास्, त्रयी च ।
त्रयो ऽग्नयश् चाहुतयश् च पञ्च
सर्वे देवा देवकीपुत्र एव ॥ (वि.पु.६.५.७२)

नीलमेघः

अर्थात् इस लोक में जो तीन ज्योति हैं, वे तीन लोक लोकपाल तीन वेद तीन अग्नि, पांच आहुति
सभी देव ये सब देवकी पुत्र श्रीभगवान ही हैं ।

मूलम्

ज्योतींषि शुक्लानि च यानि लोके त्रयो लोका लोकपालास्त्रयी च ।
त्रयोऽग्नयश्चाहुतयश्च पञ्च सर्वे देवा देवकीपुत्र एव ॥ (वि.पु.६.५.७२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं यज्ञस् त्वं वषट्कारस्
त्वम् ओंकारः परं-तपः ।
(वा.रा.यु.१२०.२०)

नीलमेघः

अर्थात् शत्रुओं को संताप देने वाले आप ही यज्ञ हो,
वषट्कार हो तथा ओंकार हो,

मूलम्

त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोंकारः परंतपः ।
(वा.रा.यु.१२०.२०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतु-धामा +++(नाम)+++ वसुः पूर्वो
वसूनां त्वं प्रजापतिः ॥
(वा.रा.यु.१२०.७)

नीलमेघः

प्रजाओं के पति एवं वसुओं में पूर्व ऋत-धामा नामक वसु आप ही हो।

मूलम्

ऋतुधामा वसुः पूर्वो वसूनां त्वं प्रजापतिः ॥
(वा.रा.यु.१२०.७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगत् सर्वं शरीरं ते,
स्थैर्यं ते वसुधा-तलम् ।
अग्निः कोपः, प्रसादस् ते
सोमः श्रीवत्स-लक्षणः ॥
(वा.रा.यु.१२०.२६) +++(5)+++

नीलमेघः

सभी जगत आपका शरीर है,
भूतल स्थित स्थिरता आपकी ही हैं।
अग्नि आपका कोप
एवं श्रीवत्स के समान चिन्ह वाले चन्द्र आपका प्रसाद है ।३१६
(19)

मूलम्

जगत्सर्वं शरीरं ते स्थैर्यं ते वसुधातलम् ।
अग्निः कोपः प्रसादस्ते सोमः श्रीवत्सलक्षणः ॥
(वा.रा.यु.१२०.२६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्योतींषि विष्णुर् भुवनानि विष्णुर्
वनानि विष्णुर् गिरयो दिशश् च ।
नद्यः समुद्राश्च स एव सर्वं
यद् अस्ति, +++(विकारतो)+++ यन् नास्ति च विप्रवर्य ॥ (वि.पु.२.१२.३८)

नीलमेघः

अर्थात् ज्योति विष्णु है, भुवन विष्णु है, बन विष्णु है,
पर्वत और दिशायें विष्णु हैं, नदी और समुद्र विष्णु हैं,
निर्विकार सदा रहने वाले चेतन
तथा सविकार सदा परिवर्तित होने वाले अचेतन पदार्थ ये सब विष्णु ही हैं ।

मूलम्

ज्योतींषि विष्णुर्भुवनानि विष्णुर्वनानि विष्णुर्गिरयो दिशश्च ।
नद्यः समुद्राश्च स एव सर्वं यदस्ति यन्नास्ति च विप्रवर्य ॥ (वि.पु.२.१२.३८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्य्-आदि-सामानाधिकरण्य-प्रयोगेषु
सर्वैः शब्दैः
सर्व-शरीरतया सर्व-प्रकारं ब्रह्मैवाभिधीयत
इति चोक्तम् ।

नीलमेघः

इस प्रकार के अभेद निर्देशों से युक्त प्रयोगों में
सभी शब्दों से
वह परब्रह्म ही प्रतिपादित होता हैँ
जो सर्वशरीर वाला होने से सब प्रकारों में अवस्थित रहता है ।

मूलम्

इत्यादिसामानाधिकरण्यप्रयोगेषु सर्वैः शब्दैः सर्वशरीरतया सर्वप्रकारं ब्रह्मैवाभिधीयत इति चोक्तम् ।