२० शब्दः

वेद-विवक्षितम् अपूर्वम् अविरुद्धम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाः प्रमाणं चेद्
विध्य्–अर्थ-वाद–मन्त्र-गतं सर्वम् अ-पूर्वम् अ-विरुद्धम् अर्थजातं
यथाऽवस्थितम् एव बोधयन्ति

नीलमेघः

[[३०३]]
आगे श्रीरामानुजस्वामी जी ने
इसके समर्थन में यह कहा है कि
वेद परमप्रमाण है ।
उनको परमप्रमाण मानने वालों को
यह मानना होगा कि
वेद विधि अर्थवाद और मन्त्रों से
जिन अपूर्व अर्थों का प्रतिपादन करते हैं,
यदि वे अर्थ प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरोध न रखते
तो मानना होगा कि
वे अर्थ सत्य हैं,
वेद सत्य अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं ।
इस प्रकार के अर्थों का प्रतिपादन करने पर ही
वेदों की सार्थकता है ।

वेद यदि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध होने वाले अर्थों का प्रतिपादन करते
तो वेदों को अनुवादकत्व दोष होगा ।
लोग कह सकते हैं कि
वेदों की क्या आवश्यकता है,
हम प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ही उन अर्थों को जान सकते हैं।+++(4)+++

यदि वेद प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित होने वाले अर्थों का प्रतिपादन करते (… ???)।

(यदि वेद उन अर्थोँ का प्रतिपादन करते) जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से न सिद्ध किये जा सकते
तथा नहीं काटे जा सकते
तो वेदों का प्रामाण्य एवं सार्थकत्व बना रहेगा ।

मूलम्

वेदाः प्रमाणं चेद्विध्यर्थवादमन्त्रगतं सर्वमपूर्वमविरुद्धमर्थजातं यथावस्थितमेव बोधयन्ति ।

शब्द-बोधकत्व-स्वाभाविकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रामाण्यं च वेदानां

औत्पत्तिकस् तु शब्दस्यार्थेन संबन्धः (पू.मी.सू.१.१.७)

इत्य्-उक्तम् ।

नीलमेघः

श्रीजैमिनिमहर्षि ने पूर्वमीमांसा दर्शन में
“औत्पत्तिस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः”
इस सूत्र से वेदों के प्रमाण्य को सिद्ध किया है ।
भाव यह है कि अर्थ के साथ
शब्द का सम्बन्ध स्वाभाविक है ।

मूलम्

प्रामाण्यं च वेदानां औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन संबन्धः (पू.मी.सू.१.१.७) इत्युक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ऽग्नि-जलादीनाम् औष्ण्यादि-शक्ति-योगः स्वाभाविकः,
यथा च चक्षुर्-आदीनाम् इन्द्रियाणां बुद्धि-विशेष-जनन-शक्तिः स्वाभाविकी
तथा शब्दस्यापि बोधन-शक्तिः स्वाभाविकी ।

नीलमेघः

जिस अग्नि और जल आदियों को
उष्णता और शीतता इत्यादि शक्तियों के साथ संबन्ध स्वाभाविक है
जिस प्रकार चक्षु आदियों की वह शक्ति - जिस से वे प्रत्यक्ष ज्ञान को उत्पन्न करते हैं - स्वाभाविक है
वैसे ही शब्दों में विद्यमान अर्थ प्रतिपादन शक्ति भी स्वाभाविक है ।

मूलम्

यथाग्निजलादीनामौष्ण्यादिशक्तियोगः स्वाभाविकः, यथा च चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां बुद्धिविशेष-जननशक्तिः स्वाभाविकी तथा शब्दस्यापि बोधनशक्तिः स्वाभाविकी ।

न सङ्केत-मूलम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च

हस्त-चेष्टादिवत् सङ्केत-मूलं शब्दस्य बोधकत्वम्

इति वक्तुं शक्यम् -
अनाद्य्-अनुसंधानाविच्छेदेऽपि सङ्केतयितृ-पुरुषाज्ञानात्
+++(काव्यपाठकेषु कव्य्-अज्ञानवत्)+++।

विश्वास-टिप्पनी

नैतद् युक्तम् उक्तम् - सन्ति हि प्रसिद्ध-सुभाषितादीन्य् अनामकानि, स्तोत्राणि च। किञ्चाग्रे वक्ष्यमाणं कारणान्तरं वरम्। +++(5)+++

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

यहाँ पर कोई कोई यह शंका करते हैं कि
हस्त से होने वाली विलक्षण चेष्टायें
किसी किसी अर्थ का ज्ञान कराती हैं ।
इतने से उनकी अर्थबोधनशक्ति स्वाभाविक नहीं माना जा सकती है
क्योंकि वे चेष्टायें
संकेत के अनुसार
उन अर्थों को बतलाती हैं ।
उनकी अर्थबोधकत्व शक्ति संकेताधीन है
स्वाभाविक नहीं है ।
इसी प्रकार शब्द को भी संकेतानुसार बोधक
क्यों न माना जाय ।

इनकी अर्थबोधकत्व शक्ति को
स्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ।
यह शंका है।

नीलमेघः - समाधानम्

इसका समाधान यह है कि
जहाँ संकेत के अनुसार बोधकत्व होता है
वहाँ सबको यह विदित रहता है कि
अमुक पुरुष ने यह संकेत किया है ।
यह बात साक्षात् या परम्परा से
किसी न किसी प्रकार से विदित रहती है ।
यदि शब्द संकेत के अनुसार बोधक होता
तो यहाँ पर भी संकेत करने वाले पुरुष का ज्ञान होना चाहिये
वह तो है नहीं ।

यदि कहा जाय संकेत करने वाला मनुष्य विस्मृत हो गया है
यह नहीं हो सकता
क्योंकि अनादि काल से शब्दों का प्रयोग होता रहता है
लोग अर्थ समझते रहते हैं
इस प्रकार जब अनादि काल से अनुसंधान बना रहता है
तब संकेत करने वाले पुरुष के विषय में ज्ञान भी होना चाहिये।
किसी काव्य को पढते समय
काव्यकर्ता कवि का ज्ञान पढने वालों को है,
काव्य पढने वाले लोग
कवि को नहीं भूल सकते ।
इसी प्रकार ही प्रकृत में माना चाहिये
यदि किसी ने शब्दों को उन अर्थों में संकेतित किया हो
तो उनके विषय में ज्ञान उनको होना चाहिये
जो शब्द बोलते हैं तथा सुनते हैं ।
ऐसा ज्ञान किसी को भी है नहीं ।

इससे मानना पडता है कि
शब्द संकेत के अनुसार बोध नहीं कराता है,
किन्तु उसकी बोधकत्वशक्ति स्वाभाविक है ।

मूलम्

न च हस्तचेष्टादिवत्संकेतमूलं शब्दस्य बोधकत्वमिति वक्तुं शक्यम् - अनाद्यनुसंधानाविच्छेदेऽपि संकेतयितृपुरुषाज्ञानात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि संकेत-मूलानि
तानि सर्वाणि साक्षाद् वा परं-परया वा +++(“सङ्केत-मूलम् इदम्” इति)+++ ज्ञायन्ते +++(उदाहरिष्यमाण-रीत्या)+++।

मूलम्

यानि संकेतमूलानि तानि सर्वाणि साक्षाद्वा परंपरया वा ज्ञायन्ते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च देव-दत्तादि-शब्दवत् कल्पयितुं युक्तम् ।
तेषु च साक्षाद् वा परंपरया वा +++(नाम-करण-रूप-)+++संकेतो ज्ञायते ।

नीलमेघः - शङ्का

यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
पिता पुत्रों को देवदत्त इत्यदि नाम रखते समय
यह संकेत करा देते हैं कि
यह शब्द इस पुत्र का वाचक है
उस संकेत के अनुसार वह शब्द
उस व्यक्ति का बोधक हो जाता है ।
ऐसे ही सभी शब्द संकेत के अनुसार ही
बोधक क्यों न माने जांय ?
यह प्रश्न है।

[[३१०]]

नीलमेघः - समाधानम्

ऐसे प्रश्न का उत्तर दिया जा चुका है ।
वह उत्तर यह है कि
जहाँ शब्द के संकेत अनुसार बोधक होता है
वहाँ संकेत विदित रहता है ।
मनुष्य स्वयं या दूसरों के द्वारा
यह जानते ही हैं कि
अमुक ने इसका यह नाम रखा है ।
इस प्रकार संकेत को लोग जानते हैं ।

मूलम्

न च देवदत्तादिशब्दवत्कल्पयितुं युक्तम् ।
तेषु च साक्षाद्वा परंपरया वा संकेतो ज्ञायते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गवादि-शब्दानां त्व् अनाद्य्-अनुसंधानाविच्छेदेऽपि
संकेताज्ञानाद् एव
बोधकत्व-शक्तिः स्वाभाविकी ।

नीलमेघः

गौ इत्यादि शब्दों के विषय में तो
अनादिकाल से अनुसंधान अविच्छिन रूप से बने रहने पर भी
लोग संकेत को नहीं जानते हैं ।

मूलम्

गवादिशब्दानां त्वनाद्यनुसंधानाविच्छेदेऽपि संकेताज्ञानादेव बोधकत्वशक्तिः स्वाभाविकी ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽग्न्यादीनां दाहकत्वादि-शक्तिवद्
इन्द्रियाणां बोधकत्वशक्तिवच् च
शब्दस्यापि बोधकत्व-शक्तिः आश्रयणीया॥

विश्वास-टिप्पनी

कालक्रमेण शब्दार्थसम्बन्ध-परिवर्तनम् आधुनिक-भाषा-शास्त्रज्ञाः प्रदर्शयन्ति।

नीलमेघः

इसलिये ये मानना पड़ता है कि
इन शब्दों की वोधकत्व शक्ति संकेताधीन नहीं
किन्तु उसी प्रकार स्वाभाविक हैं
जिस प्रकार अग्नि आदि पदार्थों की दाहकत्वादिशक्ति स्वाभाविक हैं,
इन्द्रियों की बोधकत्व शक्ति स्वाभाविक है ।

मूलम्

अतोऽग्न्यादीनां दाहकत्वादिशक्तिवदिन्द्रियाणां बोधकत्वशक्तिवच्च शब्दस्यापि बोधकत्वशक्तिः आश्रयणीया॥

शब्दार्थ-सम्बन्ध-ज्ञानापेक्षायाम् अपि

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु च इन्द्रियवच् छब्दस्यापि बोधकत्वं स्वाभाविकं
+++(शब्दार्थ-)+++संबन्ध-ग्रहणं बोधकत्वाय किम् इत्य् अपेक्षते?+++(5)+++
+++(इन्द्रिय-विषय-सम्बन्ध-ज्ञानम् अन्तरापि विषयम् प्रकाशयति।)+++

नीलमेघः

यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
यदि इन्द्रियों की तरह शब्दों की बोधकत्व शक्ति स्वाभाविक हैं
तो शब्दों को सम्बन्ध ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये ।

उदाहरण - इन्द्रिय विषयों से सम्बद्ध होने पर ही
उन विषयों का ज्ञान कराते हैं ।
यदि कोई मनुष्य उस संबन्ध को न जाने
उसको इन्द्रिय उस विषय का ज्ञान नहीं कराता है,
ऐसी बात नहीं।
किंतु यहां देखने में आता है कि
मनुष्य चाहे उस संबन्ध को जाने या न जाने,
इन्द्रिय ज्ञान कराता ही रहता है।
इसका कारण यही है कि
इन्द्रियों की ज्ञानजनकत्वशक्ति स्वाभाविक है।

यदि इसी प्रकार शब्द की बोधकत्वशक्ति भी स्वाभाविक है
तो वहाँ पर भी जो शब्द और अर्थ का बोध्य-बोधक-भाव सबन्ध है
उसके ज्ञान की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये।
मनुष्य चाहे शब्दार्थों के बोध्यबोधकभाव संबन्ध को जाने या न जाने,
शब्द को बोध करते रहना चाहिये।
क्योंकि शब्द की बोधकत्वशक्ति स्वाभाविक है ।

परन्तु देखने में ऐसा नहीं आता है,
देखने में यही आता है कि
जो मनुष्य शब्दार्थों के बोध्य-बोधक-भाव सम्बन्ध को
इस प्रकार जानता है कि
यह शब्द अमुक अर्थ का वाचक है,
यह अर्थ अमुक शब्द का वाच्य है,
उस मनुष्य को शब्द अर्थज्ञान कराता है, दूसरे को नहीं ।

इससे यही विदित होता है कि
शब्द के द्वारा अर्थबोध होने में
शब्दार्थों के सम्बन्ध का ज्ञान आवश्यक है।

इससे यही निर्णय करना पड़ता है कि
शब्द की बोधकत्वशक्ति स्वाभाविक नहीं हैं ।
उसे स्वाभाविक कैसे माना जाता है ?

नीलमेघः - समाधानम्

यह प्रश्न है
जिसका उत्तर इस प्रकार है कि
चक्षु आदि इन्द्रियों की प्रत्यक्ष जनकत्वशक्ति स्वाभाविक हैं,
इसे सभी मानते हैं ।
ऐसा होने पर भी वहाँ आलोक अर्थात् प्रकाश की आवश्यकता रहती हैं
प्रकाश में रहने वाले पदार्थ के विषय में
चक्षु इन्द्रिय ज्ञान करा सकता हैं,
अन्धकार में विद्यमान पदार्थ के विषय में
चक्षु इन्द्रिय ज्ञान नहीं कराता है ।
इससे आलोकसम्बन्ध की आवश्यकता माननी पड़ती है ।
इससे चक्षु इन्द्रिय की बोधकत्व शक्ति के स्वाभाविकत्व में बाधा नहीं पड़ती हैं ।
इसी प्रकार ही प्रकृत में मानना चाहिये कि
सम्बन्ध ज्ञान की आवश्यकता होने पर भी
शब्द की बोधकत्वशक्ति स्वाभाविक बनी रहती है।

मूलम्

ननु च इन्द्रियवच्छब्दस्यापि बोधकत्वं स्वाभाविकं संबन्धग्रहणं बोधकत्वाय किमित्यपेक्षते

विश्वास-प्रस्तुतिः

लिङ्गादिवद् इत्य् उच्यते
यथा ज्ञात-संबन्ध-नियमं धूमाद्य् अग्न्य्-आदि-विज्ञान-जनकं
तथा ज्ञात-संबन्ध-नियमः शब्दो ऽप्य् अर्थ-विशेष-बुद्धि-जनकः ।

नीलमेघः

किंच अनुमान स्थल में यह माना जाता है कि
हेतु साध्य का ज्ञान कराता है ।
साध्य ज्ञान का कारण हेतु है
अतएव वह हेतु कहलाता है।
हेतु की साध्यज्ञापकत्वशक्ति स्वाभाविक होने पर भी
वहाँ सम्बन्ध ज्ञान की आवश्यकता मानी जाती है ।
हेतु और साध्य का सम्बन्ध व्याप्यव्यापक भाव है।
हेतु साध्य का व्याप्य होता है,
साध्य हेतु का व्यापक होता है ।
जहाँ जहाँ हेतु है वहाँ वहाँ साध्य है ।
इससे हेतु में व्याप्यत्व
और साध्य में व्यापकत्व सिद्ध होता है ।
यह व्याप्य व्यापक भाव संबन्ध भी
हेतु और साध्य में होने वाले कार्यकारण भाव इत्यादि के अनुसार होता है ।
[[३११]]
हेतु और साध्य में सम्बन्ध नियम ही व्याप्ति है ।
इस व्याप्ति का ज्ञान होने पर ही
हेतु साध्य का ज्ञान करा सकता है अन्यथा नहीं ।

इसी प्रकार ही प्रकृत में समझना चाहिये
शब्द की वोधकत्व शक्ति स्वाभाविक है,
परन्तु संबन्ध ज्ञान की भी आवश्यकता उसी प्रकार होती है
जिस प्रकार हेतु में संबन्ध ज्ञान की आवश्यकता होती है ।
इससे शब्द की बोधकत्वशक्ति को
स्वाभाविक मानने में बाधा नहीं होती है ।

मूलम्

लिङ्गादिवदिति उच्यते यथा ज्ञातसंबन्धनियमं धूमाद्यग्न्यादिविज्ञानजनकं तथा ज्ञातसंबन्ध-नियमः शब्दोऽप्यर्थविशेषबुद्धिजनकः ।

शब्दानुमान-प्रमाणयोर् भेदः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तर्हि शब्दोऽप्यर्थविशेषस्य लिङ्गमित्यनुमानं स्यात्

नीलमेघः

यहाँ पर दूसरा प्रश्न यह होता है कि
यदि शब्द हेतु की तरह संबन्ध ज्ञान की सहायता लेकर बोधक होता है
तो शब्द को अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव करना चाहिये,
शब्द को पृथक प्रमाण क्यों माना जाता है ?
यह प्रश्न है ।

मूलम्

एवं तर्हि शब्दोऽप्यर्थविशेषस्य लिङ्गमित्यनुमानं स्यात्

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवम् ।
शब्दार्थयोः संबन्धो बोध्य-बोधक-भाव एव,
धूमादीनां तु +++(धूम-वह्न्योर् इव बोध्य-बोधक-भावम् अतिरिच्य व्याप्य-व्यापक-भावः, कार्य-कारणभावः इत्यादि)+++ संबन्धान्तरम्
इति {तस्य संबन्धस्य} +++(/सम्बन्धान्तर-)+++ज्ञान-द्वारेण बुद्धि-जनकत्वम्
इति विशेषः ।

नीलमेघः

इसका उत्तर यह है कि
अनुमान प्रमाण में यह माना जाता है कि
साध्य और हेतु में ज्ञाप्य ज्ञापक भाव संबन्ध है,
साध्य ज्ञाप्य है । हेतु ज्ञापक है।
इसे बोध्य-बोधक भाव भी कह सकते हैं ।
यह बोध्यबोधक तभी कार्यकर होता है
जब हेतु और साध्य में व्याप्यव्यापक संबन्ध विदित हो जाय ।
वह व्याप्यव्यापक भाव संबन्ध भी
कार्यकारण भाव इत्यादि दूसरे संबन्ध को जानने पर ही विदित होता है ।
इसलिये अनुमान में यह मानना पड़ता है कि
व्याप्यव्यापक भाव संबन्ध को
तथा उसका मूल कार्यकारण भाव इत्यादि संबन्ध को जानने पर ही
हेतु साध्य का ज्ञान करा सकता है अन्यथा नहीं ।

शब्द प्रमाण में वैसे अन्य सम्बन्धों की ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती है
किन्तु बोध्यबोधक भाव संबन्ध को जानने की आवश्यकता है
इस लिये बोध्यबोधक भाव से अतिरिक्त
व्याप्यव्यापक इत्यादि संबन्ध ज्ञान की सहायता लेकर प्रवृत्त होने वाला अनुमान प्रमाण
तथा बोध्य बोधक भाव संबन्ध ज्ञान की ही सहायता लेकर प्रवृत्त होने वाला शब्द प्रमाण
भिन्न भिन्न प्रमाण माने जाते हैं ।

मूलम्

नैवम् ।
शब्दार्थयोः संबन्धो बोध्यबोधकभाव एव धूमादीनां तु संबन्धान्तरम् इति तस्य संबन्धस्य ज्ञानद्वारेण बुद्धिजनकत्वमिति विशेषः ।

उपसंहारः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं गृहीत-+++(शब्दार्थ-)+++संबन्धस्य बोधकत्व-दर्शनाद्
अनाद्य्-अनुसंधानाविच्छेदेऽपि
सङ्केताज्ञानाद्
+++(बोध-मूल-कारणं स्वाभाविकी)+++ बोधकत्व-शक्तिर् एवेति निश्चीयते ।

नीलमेघः

संबन्ध ज्ञान होने पर शब्द बोधक होता है।
अनादिकाल से अनुसन्धान बने रहने पर भी
यह पता नहीं चलता कि किसने संकेत किया ।
इससे यहो मानना पड़ता है कि किसी ने भी संकेत नहीं किया ।
शब्द की बोधकत्व शक्ति स्वाभाविक है ।
इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने सामान्य रूप से शब्द प्रमाण को सिद्ध किया ।

मूलम्

एवं गृहीतसंबन्धस्य बोधकत्वदर्शनादनाद्यनुसंधानाविच्छेदेऽपि संकेताज्ञानाद्बोधकत्वशक्तिरेवेति निश्चीयते ।

वेदो नित्यो ऽपौरुषेयः प्रमाणम्

नीलमेघः

वेदों का अपौरुषेयत्व नित्यत्व एवं प्रामाण्य

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बोधकानां पद-सङ्घातानां
संसर्ग-विशेष-बोधकत्वेन वाक्य-शब्दाभिधेयानाम् उच्चारण-क्रमो
यत्र पुरुष-बुद्धि-पूर्वकस्
ते पौरुषेयाः शब्दा इत्युच्यन्ते ।

नीलमेघः

[[३१२]]
आगे श्रीरामानुजस्वामी जी ने वेदों का अपौरुषेयत्व और प्रामाण्य को सिद्ध करते हुये
यह कहा कि स्वार्थबोधक शब्दों का समुदाय वाक्य कहलाता है ।
वाक्य में अन्तर्गत प्रत्येक पद का अर्थ
पहले से ही विदित रहता है ।
वाक्य उन पदार्थों के आपसी संबन्ध को बताता है,
यह संबन्ध पहले विदित नहीं रहता है ।
यही संबन्ध वाक्यार्थं कहलाता है ।
पदार्थों के पारस्परिक संबन्ध को बताने वाला पद समूह ही वाक्य है ।
इन पदों के उच्चारण में क्रम होता है,
एक पद का पहले उच्चारण होता है,
दूसरे पद का उच्चारण बाद में होता है।
जिन पदों का उच्चारण क्रम स्वतन्त्र पुरुष की बुद्धि अर्थात् इच्छा के अनुसार होता है
वे पद और वाक्य पौरुषेय कहलाते हैं ।
इन वाक्यों की रचना पुरुष स्वेच्छा से करते हैं ।
कालिदास आदि कवियों के द्वारा निर्मित ग्रन्थ
पौरुषेय कहलाते हैं
क्योंकि इन ग्रन्थों में विद्यमान पद और वाक्यों का क्रम
उन कवियों की के अनुसार बना है।

मूलम्

एवं बोधकानां पदसंघातानां संसर्गविशेषबोधकत्वेन वाक्यशब्दाभिधेयानामुच्चारणक्रमो यत्र पुरुषबुद्धिपूर्वकस्ते पौरुषेयाः शब्दा इत्युच्यन्ते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र तु तद्-उच्चारण-क्रमः
पूर्व-पूर्वोच्चरण-क्रम-जनित–संस्कार-पूर्वकः
सर्वदा ऽपौरुषेयास्
ते च वेदा इत्युच्यन्ते ।

नीलमेघः

वे शब्द अपौरुषेय कहलाते हैं
जिनका उच्चारण क्रम पुरुष की इच्छा के अनुसार नहीं होता है
किंतु पूर्वपूर्व उच्चारण क्रम को समझकर
उस अनुभव से होने वाले संस्कार के अनुसार
उसी क्रम से ही उच्चारण होता है ।
उत्तरोत्तर उच्चारण क्रम
पूर्वपूर्व उच्चारण क्रम के अनुसार होता है
क्रम का परिवर्तन नहीं होता है ।
ऐसे शब्द अपौरुषेय कहलाते हैं ।
इनके क्रम का परिवर्तन करने में
पुरुषों का अधिकार नहीं है,
पूर्वपूर्व क्रम के अनुसार उच्चारण करने का ही अधिकार है ।
ऐसे अपौरुषेय शब्द वेद ही हैं ।

मूलम्

यत्र तु तदुच्चारणक्रमः पूर्वपूर्वोच्चरणक्रमजनित-संस्कारपूर्वकः सर्वदापौरुषेयास्ते च वेदा इत्युच्यन्ते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् एव वेदानाम् अपौरुषेयत्वं नित्यत्वं च
यत् पूर्वोच्चारण–क्रम-जनित-संस्कारेण
तम् एव क्रम-विशेषं स्मृत्वा
तेनैव क्रमेणोच्चार्यमाणत्वम् ।

नीलमेघः

सिद्धान्त में वेदों को अपौरुषेय और नित्य माना जाता है
उसका कारण यही है कि
विद्यार्थी गुरुओं से उन शब्दों के परम्परा प्राप्त उच्चारण क्रम को सीखते हैं
आगे उस संस्कार के अनुसार उसी क्रम का स्मरण करके
उसी क्रम से ही उच्चारण करते हैं।
ऐसे ही सदा से होता आया है ।
सृष्टि के आरम्भ में श्रीभगवान
पहले कल्प में अवस्थित वेदाख्य अक्षर राशि के क्रम को जानकर
उसी क्रम से ही ब्रह्मा जी को बेदों का उपदेश देते हैं ।+++(5)+++
विभिन्न कल्पों में वेदों का क्रम नहीं बदलता है
किन्तु एकसा ही रहता है ।+++(5)+++

शब्दों में स्वतः दोष नहीं रहता है,
वक्ता पुरुष में दोष हो तो शब्द में दोष माना जाता है ।
पौरुषेय शब्दों में वक्ता के दोष आ जाते हैं।
इसलिये यह मानना पड़ता है कि
आप्तपुरुष का वाक्य ही प्रमाण है।
दुष्ट पुरुषों का वाक्य प्रमाण नहीं है ।
वेद का कोई आदि वक्ता पुरुष है ही नहीं, वेद अपौरुषेय हैं,
वक्ता न होने के कारण वेद निर्दोष है अतएव वे परमप्रमाण हैं ।

[[३१३]]

मूलम्

एतदेव वेदानामपौरुषेयत्वं नित्यत्वं च यत्पूर्वोच्चारणक्रमजनितसंस्कारेण तमेव क्रमविशेषं स्मृत्वा तेनैव क्रमेणोच्चार्यमाणत्वम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते चानुपूर्वी-विशेषेण संस्थिता अक्षर-राशयो वेदा
ऋग्-यजुः-सामाथर्व-भेद-भिन्ना अनन्त-शाखा वर्तन्ते ।

नीलमेघः

विलक्षण आनुपूर्वी में अवस्थित अपौरुषेय अक्षर राशि वेद हैं ।
ये वेद ऋग्यजु साम और अथर्व नाम से चार प्रकार के हैं ।
इन वेदों की शाखा अनन्त हैं ।

मूलम्

ते चानुपूर्वीविशेषेण संस्थिता अक्षरराशयो वेदा ऋग्यजुःसामाथर्वभेदभिन्ना अनन्तशाखा वर्तन्ते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते च विध्य्-अर्थवाद-मन्त्र-रूपा वेदाः
पर-ब्रह्म-भूत–नारायण–स्व-रूपं,
तद्-आराधन-प्रकारम्,
आराधितात् फलविशेषं च बोधयन्ति

नीलमेघः

ये वेद विधि अर्थवाद और मन्त्र के रूप में भी विभक्त हैं ।
ये अपौरुषेय निर्दोष वेद
जिन अर्थों का प्रतिपादन करते हैं
वे परम सत्य हैं ।
वक्तृ दोष होने पर ही शब्द मिथ्यार्थ का प्रतिपादन करता है ।
वैसे दोष न होने से वेद परमप्रमाण है,
वेदार्थ भी परम सत्य है ।

वेद परब्रह्म नारायण के स्वरूप, उनके आराधन का प्रकार,
एवं आराधित नारायण से प्राप्त होने वाले फलों का प्रतिपादन करता है ।

मूलम्

ते च विध्यर्थवादमन्त्ररूपा वेदाः परब्रह्मभूतनारायणस्वरूपं तदाराधनप्रकारमाराधितात्फलविशेषं च बोधयन्ति।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम-पुरुषवत्
तत्–स्व-रूप–तद्-आराधन–तत्-फल-ज्ञापक–
वेदाख्य-शब्द-जातं नित्यम् एव ।+++(4)+++

नीलमेघः

जिस प्रकार परब्रह्म परमपुरुष श्रीमन्नारायण नित्य हैं
वैसे ही उनका स्वरूप, उसका आराधन और उससे मिलने वाले फल इत्यादि अर्थों को बतलाने वाले वेदाख्य शब्द समूह भी नित्य ही है ।

मूलम्

परमपुरुषवत्तत्स्वरूपतदाराधनतत्फलज्ञापक वेदाख्यशब्दजातं नित्यमेव ।

वेदोपहबृंहण-प्रणयन-हेतुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदानाम् अनन्तत्वाद् दुरवगाहत्वाच् च
परम-पुरुष-नियुक्ताः परम-र्षयः
कल्पे कल्पे निखिल-जगद्-उपकारार्थं
वेदार्थं स्मृत्वा
विध्य्-अर्थवाद-मन्त्र-मूलानि +++(विधि-वाक्येभ्यो विशिष्य→)+++धर्म-शास्त्राणि +इतिहास-पुराणानि च चक्रुः

नीलमेघः

वेद अनन्त है एवं दुरवगाह हैं
वेदों के अर्थ सरलता से समझ में नहीं आते हैं ।
इसलिये वेदार्थों को विशद रूप से बतलाने वाले ग्रन्थों की आवश्यकता होती है ।
तदर्थं श्रीभगवान के द्वारा प्रेरणा पाकर
महर्षियों ने प्रतिकल्प में संपूर्ण जगत के कल्याणार्थ
वेदार्थ का स्मरण करके
वेदार्थों को व्यक्त करने वाले उपबृंहण ग्रन्थों का निर्माण किया ।
वेद के विधि भाग के अर्थों का स्मरण करके
धर्म शास्त्रों का निर्माण किया
तथा अर्थवाद एवं मन्त्र भाग के अर्थों का स्मरण करके
इतिहास और पुराणों का निर्माण किया है।+++(5)+++

मूलम्

वेदानामनन्तत्वाद्दुरवगाहत्वाच्च परमपुरुषनियुक्ताः परमर्षयः कल्पे कल्पे निखिलजगदुपकारार्थं वेदार्थं स्मृत्वा विध्यर्थवादमन्त्रमूलानि धर्मशास्त्राणीतिहासपुराणानि च चक्रुः ।

लौकिक-वैदिकशब्दैक्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

लौकिकाश्च शब्दा वेद-राशेर् उद्धृत्यैव
तत्-तद्-अर्थ-विशेष-नामतया पूर्ववत् प्रयुक्ताः
पारंपर्येण प्रयुज्यन्ते ।

नीलमेघः

लोक में प्रयुक्त होने वाले ये लौकिक संस्कृत शब्द
वैदिक शब्दों से भिन्न नहीं हैं ।
वैदिक शब्दों को वेद से निकाल कर
उन उन अर्थविशेषों के वाचक नाम के रूप में
लोक में नियत किया गया है ।
यह भी पूर्व पद्धति के अनुसार किया गया है।
इस प्रकार परम्परा से वैदिक शब्द ही
लोक में उन उन अर्थों के वाचक रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं ।
इन लौकिक शब्दों का मूल स्वरूप वैदिक ही है ।

मूलम्

लौकिकाश्च शब्दा वेदराशेरुद्धृत्यैव तत्तदर्थविशेषनामतया पूर्ववत्प्रयुक्ताः पारंपर्येण प्रयुज्यन्ते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु च वैदिक एव सर्वे वाचकाः शब्दाश् चेच्
छन्दस्यैवं भाषायाम् एवम् इति लक्षण-भेदः कथम् उपपद्यते?

नीलमेघः

यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
यदि लौकिक शब्द और वैदिक शब्द एक हैं
तो व्याकरण शास्त्र के सूत्रों से
भेद क्यों बताया जाता है कि
संस्कृत भाषा में शब्दों का रूप ऐसा होता है,
वेद में शब्दों का रूप वैसा होता है इत्यादि ।
इससे तो यही विदित होता है कि
संस्कृत भाषा शब्द और वैदिक शब्द भिन्न है ।
ऐसी स्थिति में इन शब्दों को एक कैसे माना जाय ?
यह प्रश्न है ।

मूलम्

ननु च वैदिक एव सर्वे वाचकाः शब्दाश्चेच्छन्दस्यैवं भाषायामेवमिति लक्षणभेदः कथमुपपद्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्यते - तेषाम् एव शब्दानां
तस्याम् एवानुपूर्व्यां +++(→भाषाशैल्यां वाऽपि)+++ वर्तमानानां
तथैव प्रयोगः,
अन्यत्र प्रयुज्यमानानाम् अन्यथा +इति न कश्चिद्दोषः ।

नीलमेघः

इसका उत्तर यह है कि
लौकिक एवं वैदिक शब्द एक ही हैं
तो भी भाषा एवं वेद में उनकी आनुपूर्वी में स्वल्प भेद होता है,
उसको बलाने के लिये व्याकरण में कहा गया है कि
इस शब्द का भाषा में ऐसा रूप होता है
वेद में कैसा रूप होता है इत्यादि ।

मूलम्

उच्यते तेषामेव शब्दानां तस्यामेवानुपूर्व्यां वर्तमानानां तथैव प्रयोगः, अन्यत्र प्रयुज्यमानानामन्यथेति न कश्चिद्दोषः ।

नीलमेघः - उपसंहारः

इसे उन शब्दों में भेद नहीं होता है ।
इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने
लौकिक एवं वैदिक शब्दों की एकता
वेद का अपौरुषत्रत्व और प्रामाण्य को सिद्ध करके
यह बतलाया है
वेद प्रतिपादित ईश्वर उनका आराधन और उनसे होने वाले फल इत्यादिकों को
वैसे सत्य मानना ही वैदिकता है उनमें हेर फेर करना
या तोड़ मरोड़ करना उचित नहीं ।