१० गुणवद् रूप-पत्नी-परिजनाद्य्-अङ्गीकार्यता

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ज्ञानादि-कल्याण-गुण-गणानन्तर्य-निर्देशात्

अ-परिमित-कल्याण-गुण-गण-विशिष्टं परं ब्रह्म

इत्य् अवगम्यत
एवम् “आदित्य-वर्णं पुरुषम्” इत्य्-आदि-निर्देशात्

स्वाभिमत-स्वानुरूप-कल्याणतम-रूपः पर-ब्रह्म-भूतः पुरुषोत्तमो नारायण

इति ज्ञायते।+++(5)+++

नीलमेघः

जिस प्रकार ज्ञान इत्यादि अनन्त कल्याण गुणों का निर्देश होने से
यह मानना पड़ता है कि
परब्रह्म अनन्त कल्याण गुणों से युक्त है
उसी प्रकार ही “आदित्यवर्णं पुरुषम्” ऐसे निर्देश के अनुसार
यह भी मानना पड़ता है कि
परब्रह्म पुरुषोत्तम श्रीमन्नारायण भगवान
अपने अभिमत के अनुरूप मंगलमय दिव्य विग्रह से युक्त हैं।

मूलम्

यथा ज्ञानादिकल्याणगुणगणानन्तर्यनिर्देशात् अपरिमितकल्याण-गुणगणविशिष्टं परं ब्रह्मेत्यवगम्यत एवमादित्यवर्णं पुरुषमित्यादिनिर्देशात् स्वाभिमतस्वानुरूपकल्याणतमरूपः परब्रह्मभूतः पुरुषोत्तमो नारायण इति ज्ञायते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा

अस्येशना जगतो विष्णुपत्नी (तै.सं.४.४.१२.१४),

नीलमेघः

ऐसे ही वेदों में श्रीभगवान की पत्नी परिजन और स्थान इत्यादिकों का वर्णन है ।
इससे उनकी सत्यता प्रमाणित होती है ।
वे निर्देश ये हैं कि - “अस्येशाना जगतो विष्णुपत्नी” अर्थात् श्रीविष्णु भगवान की पत्नी इस जगत की ईश्वरी हैं ।

मूलम्

तथा अस्येशना जगतो विष्णुपत्नी (तै.सं.४.४.१२.१४),

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ (तै.आ.पु,३.१३.६)

नीलमेघः

हे जगत्कारण महापुरुष !
आपकी ह्री और श्री ऐसी दो पत्नी हैं।
इससे विदित होता है कि ये श्रीभगवान की पत्नी हैं ।

मूलम्

ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ (तै.आ.पु,३.१३.६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा पश्यन्ति सूरयः (सु.बा.६),

इस वचन से विदित होता है कि नित्य सूरिगण श्रीभगवान के परिजन हैं ।

नीलमेघः

“सदा पश्यन्ति सूरय "
अर्थात्
सूरि लोग सदा परमपद का दर्शन करते हैं ।

मूलम्

सदा पश्यन्ति सूरयः (सु.बा.६),

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमसः परस्तात् (तै.आ.पु,३.१३.२),

नीलमेघः

अर्थात् श्रीभगवान प्रकृति के ऊपर निवास करते हैं ।
उन वचनों से विदित होता है कि श्रीभगवान का दिव्यस्थान है ।

मूलम्

तमसः परस्तात् (तै.आ.पु,३.१३.२),

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षयन्तमस्य रजसः पराके (तै.सं.४.४.१२.१८)

मूलम्

क्षयन्तमस्य रजसः पराके (तै.सं.४.४.१२.१८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

… इत्य्-आदिना पत्नी-परिजन-स्थानादीनां निर्देशाद् एव
तथैव सन्तीत्य् अवगम्यते।

मूलम्

इत्यादिना पत्नीपरिजनस्थानादीनां निर्देशादेव तथैव सन्तीत्यवगम्यते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाह भाष्यकारः – यथाभूतवादि हि शास्त्रम् (द्र.भा) इति ।

नीलमेघः

द्रमिडभाष्यकार ने कहा है कि
जो पदार्थ जैसा है
वैसा उसका वर्णन करना
यही शास्त्र का कार्य है ।
शास्त्र मिथ्या वस्तु का वर्णन नहीं कर सकता
वैसा होने पर शास्त्र अप्रमाण हो जायगा ।
शास्त्र परमप्रमाण है ।
इसलिये मानना चाहिये कि
शास्त्र सत्य बातों का ही वर्णन करता है।
शास्त्र बताता है कि श्रीभगवान की पत्नी परिजन और स्थान इत्यादि हैं
उन्हें सत्य ही मानना चाहिये ।

मूलम्

यथाह भाष्यकारः – यथाभूतवादि हि शास्त्रम् (द्र.भा) इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदुक्तं भवति -

यथा “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” (तै.उ.आ.१.१) इति निर्देशात्
परमात्म-स्वरूपं समस्त-हेय-प्रत्यनीकानवधिकानन्तैकतानतया
ऽपरिच्छेद्यतया च
सकलेतर-विलक्षणं …

नीलमेघः

भाव यह है कि
उपनिषत् वर्णन करती है कि “सत्य ज्ञानमनन्तं ब्रह्म”
“आनन्दो ब्रह्म”
अर्थात्
सत्य अर्थात निर्विकार ज्ञान अर्थात् स्वयं प्रकाश एवं अनन्त अपरिछेद्य ब्रह्म है
ब्रह्म आनन्दत्वरूप हैं।
ऐसा वर्णन होने से
यह मानना पड़ता है कि
परमात्मस्वरूप समस्त दोषों से रहित हैं,
अपार आनन्दस्वरूप है तथा अपरिच्छेय है ।
इस दृष्टि से वह
सकल इतर पदार्थों से अत्यन्त विलक्षण हैं।

मूलम्

एतदुक्तं भवति - यथा “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” (तै.उ.आ.१.१) इति निर्देशात्परमात्मस्वरूपं समस्तहेयप्रत्यनीकानवधिकानन्तैकतानतयापरिच्छेद्यतया च सकलेतरविलक्षणं

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा

यः सर्वज्ञः सर्ववित् (मु.उ.१.१.१०),

नीलमेघः

उपनिषद् यह भी वर्णन करती है कि “यः सर्वज्ञः सर्ववित्”
अर्थात् परमात्मा सामान्य एवं विशेषरूप से सबको जानते हैं ।

मूलम्

तथा

यः सर्वज्ञः सर्ववित् (मु.उ.१.१.१०),

विश्वास-प्रस्तुतिः

परास्य शक्तिर् विविधैव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च (श्वे.उ६.८),

नीलमेघः

[[३०८]]
श्रीभगवान की पराशक्ति जो नाना प्रकार की है- सुनने में आती है
तथा उनकी स्वाभाविक ज्ञान बलक्रिया भी सुनने में आती है ।

मूलम्

परास्य शक्तिर् विविधैव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च (श्वे.उ६.८),

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेव भान्तम् अनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वम् इदं विभाति (कठ.उ.५.१५)

नीलमेघः

उस प्रकाशमान परमात्मा का अनुसरण करके
सब प्रकाशित होते हैं
उनके प्रकाश से सब प्रकाशित होते हैं ।

मूलम्

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति (कठ.उ.५.१५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

… इत्य्-आदि-निर्देशान् निरतिशयासंख्येयाश् च गुणाः सकलेतर-विलक्षणाः …

नीलमेघः

इन वर्णनों के अनुसार यह मानना पड़ता है कि
श्रीभगवान में ऐसे अत्युत्कृष्ट असंख्य कल्याणगुण हैं
जो अन्यत्र विद्यमान गुणों से अत्यन्त विलक्षण हैं ।

मूलम्

इत्यादिनिर्देशान्निरतिशयासंख्येयाश्च गुणाः सकलेतरविलक्षणाः …

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा “आदित्यवर्णम्” इत्यादि-निर्देशाद्
रूप-परिजन-स्थानादयश् च
सकलेतर-विलक्षणाः स्वासाधारणा अनिर्देश्य-स्वरूप-स्वभावा इति ।

नीलमेघः

वेद प्रतिपादित होने से परमात्मास्वरूप और उनके कल्याणगुणों को
जिस प्रकार सत्य मानना पड़ता है
उसी प्रकार ही “आदित्यवर्णम्” इत्यादि वेदवाक्यों से
प्रतिपादित होने के कारण
श्रीभगवान के रूप परिजन और स्थान इत्यादि को
सत्य मानना चाहिये ।

तथा यह भी मानना चाहिये कि ये पदार्थ
अत्यन्त विलक्षण हैं
श्रीभगवान के असाधारण हैं।
इनका स्वरूप और स्वभाव वर्णनानीत है ।
इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने
श्रीभगवान के दिव्यस्थान परिजन और पत्नी इत्यादि विशेषार्थों को सिद्ध किया है।

मूलम्

तथा “आदित्यवर्णम्” इत्यादिनिर्देशाद्रूपपरिजनस्थानादयश्च सकलेतरविलक्षणाः स्वासाधारणा अनिर्देश्यस्वरूपस्वभावा इति ।