०९ शारीरक-सूत्रादिभिर् अनुवचनम्

ब्रह्म-सूत्रेषु

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्य ब्रह्मणो रूपवत्त्वं
सूत्रकारश् च वदति

“अन्तस् तद्-धर्मोपदेशात्” (ब्र.सू.१.१.२१)

इति +++(यद्-विषय-वाक्यम् - “य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते”)+++।

नीलमेघः - विषयवाक्यम्

ब्रह्मसूत्रकार श्रीवेदव्यासमहर्षि भी “अन्तस्तद्धर्मोपदेशात्” इस सूत्र से
श्रीभगवान के दिव्यविग्रह को सिद्ध करते हैं ।
यह अन्तरधिकरण का सूत्र है
“य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते”
इत्यादि उपनिषद्-वाक्य
उस अधिकरण का विषयवाक्य है ।
अन्तरादित्यविद्या एक ब्रह्म विद्या है।
सूर्यमण्डल में विराजने वाले श्रीभगवान की उपासना ही अन्तरादित्यविद्या है ।
इस विद्या का प्रतिपादन
इस वाक्य में वाक्य का यह अर्थ है कि
सूर्यमण्डल के अन्दर ये जो स्वर्णसमान विग्रहवाले पुरुष दिखाई देते हैं
उनका नेत्र सूर्यकिरण विकसित कमल-दलों के समान है इत्यादि ।
उपर्युक्त वाक्य को लेकर यह अधिकरण प्रवृत्त है।

इस विषयवाक्य के अर्थ के विषय में
यह संशय होता है कि
सूर्यमण्डल के अन्दर दिखाई देने वाले यह पुरुष
जीवात्मा है या परमात्मा है ।

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

पूर्वपक्षी ने कहा कि यह पुरुष जीवात्मा ही है
क्योंकि जीवात्मा ही कर्मानुसार पाणिपाद इत्यादि अंग वाले शरीर को धारण करता है।
परमात्मा का कर्मगन्ध तक नहीं है।
वे ऐसे शरीर को धारण नहीं कर सकते ।
इसलिये उपयुक्त पुरुष को जीव ही मानना चाहिये ।
यह पूर्वेपक्ष हैं ।

नीलमेघः - सूत्राशयः

इस पूर्वपक्ष का निराकरण करके
उपयुक्त पुरुष को परमात्मा सिद्ध करने के लिये
“अन्तस्तद्धर्मोपदेशात्” यह सिद्धान्त सूत्र प्रवृत्त है ।

मूलम्

परस्य ब्रह्मणो रूपवत्त्वं सूत्रकारश्च वदति “अन्तस्तद्धर्मोपदेशात्” (ब्र.सू.१.१.२१) इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(सूत्राभिप्रायो यत्)+++ -
योऽसाव् आदित्य-मण्डलान्तर्वर्ती तप्त-कार्तस्वर-गिरिवर-प्रभः
सहस्रांशु-शत-सहस्र-किरणो

नीलमेघः

ये जो सूर्यमण्डल के अन्दर पुरुष दिखाई देते हैं
वे शास्त्रोक्तरीति से
इस प्रकार के हैं कि
वे तपे हुये स्वर्ण से निर्मित पर्वतराज के समान शोभायुक्त हैं।
उनसे सहस्रों किरण निकलते रहते हैं
प्रत्येक किरण से सैकड़ों छोटे छोटे किरण निकलते रहते हैं,
ऐसे किरणों से वे संपन्न हैं ।

मूलम्

योऽसावादित्यमण्डलान्तर्वर्ती तप्तकार्तस्वरगिरिवरप्रभः सहस्रांशुशतसहस्रकिरणो

विश्वास-प्रस्तुतिः

गम्भीराम्भस्-समुद्भूत-सुमृष्ट-नाल–
रवि-कर–विकसित-पुण्डरीक-दलामलायतेक्षणः

नीलमेघः

“क-प्य्+++(=सूर्य)+++-आसं पुण्डरीकम् एवम् अक्षिणी”
श्रुति से सिद्ध होता है कि
उनका नेत्र उन कमलदलों के समान विशाल है
जो गहरे जल में प्रकट हुये हों

[[३०४]]
तथा सुदृढ़ नाल इण्ड पर विराजमान रहते हो
तथा सूर्य की किरणों से विकसित हुये हों ।
ऐसे कमल के दलों के समान विशाल नेत्रों से वे संपन्न हैं ।
कप्यास पुण्डरीक शब्द के तीन अर्थ हैं कि
(१) जल में विद्यमान कमल
(२) नाल दण्ड पर अवस्थित कमल और
(३) सूर्य से विकसित हुये कमल ।

इस प्रकार के कमलों के समान है श्रीभगवान का नेत्र ।

मूलम्

गम्भीराम्भस्-समुद्भूतसुमृष्टनालरविकरविकसितपुण्डरीकदलामलायतेक्षणः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सु-भ्रू-ललाटः, सु-नासः, सु-स्मिताधर-विद्रुमः,
सु-रुचिर-कोमल-गण्डः, कम्बु-ग्रीवः

नीलमेघः

वह पुरुष सुन्दर भ्रू एवं ललाट से युक्त हैं शोभन नासिका वाले हैं ।
वह पुरुष सुन्दर मन्दहास और मूंगे के समान सुन्दर अधर से सुशोभित हैं ।
उनके कोमल कपोल दिव्य कान्ति से युक्त हैं।
उनका कंठ शङ्ख के समान है ।

मूलम्

सुभ्रूललाटः सुनासः सुस्मिताधरविद्रुमः सुरुचिरकोमलगण्डः कम्बुग्रीवः

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुन्नतांस-विलम्बि–चारु-रूप–दिव्य-कर्ण-किसलयः

नीलमेघः

उन्नत भुजशिखरों में उनके सुन्दर दिव्य कर्णपाश लटक रहे हैं।

मूलम्

समुन्नतांसविलम्बिचारुरूपदिव्यकर्णकिसलयः

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीन-वृत्तायत-भुजश्
चारुतराताम्र-कर-तलानुरक्ताङ्गुलीभिर् अलंकृतः

नीलमेघः

उनकी भुजायें मोटी वर्तुलाकार एवं लम्बी हैं ।
वे सुन्दरतर लाल करतल एवं अंगुलियों से अलंकृत हैं ।

मूलम्

पीनवृत्तायतभुजश्चारुतराताम्रकरतलानुरक्ताङ्गुलीभिरलंकृतः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु-मध्यो, विशाल-वक्षस्-स्थलः, सम-विभक्त-सर्वाङ्गः,
अनिर्देश्य-दिव्य-रूप-संहननः, स्निग्ध-वर्णः

नीलमेघः

उनका मध्य भाग पतला है ।
उनका वक्षस्स्थल विशाल है ।
उनके सभी अंग समानरूप से विभक्त होकर
अलौकिक शोभा से अन्वित हैं ।
उनके सभी अंग उचित ढंग पर संघटित हैं ।
उनका यह अवयव सन्निवेश वर्णनातीत एवं परमदिव्य है ।
उनकी देह का वर्णं स्निग्धता को लेकर शोभा पा रहा है।

मूलम्

तनुमध्यो विशालवक्षस्स्थलः समविभक्तसर्वाङ्गः अनिर्देश्यदिव्यरूपसंहननः स्निग्धवर्णः

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रबुद्ध-पुण्डरीक-चारु-चरण-युगलः

नीलमेघः

उनके दोनों चरण खिले हुये कमल के समान सुन्दर हैं ।

मूलम्

प्रबुद्धपुण्डरीकचारुचरणयुगलः

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वानुरूप-पीताम्बरधरः

नीलमेघः

वे अपने लिये अनुरूप बनने वाले सुन्दर दिव्य पीताम्बर को पहने हुये हैं ।

मूलम्

स्वानुरूपपीताम्बरधरः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अ-मल–किरीट-कुण्डल-हार-कौस्तुभ-
केयूर-कटक-नूपुरोदर-बन्धनाद्य्-
अ-परिमिताश्चर्यानन्त-दिव्य-भूषणः

नीलमेघः

वे निर्मल किरीट कुण्डल हार केयूर कटक नूपुर और उदर बन्धनं इत्यादि अपरिमित प्रत्याश्चर्यमय अनन्त दिव्यभूषणों से भूषित हैं।

मूलम्

अमलकिरीटकुण्डलहारकौस्तुभ केयूरकटकनूपुरोदरबन्धनाद्यपरिमिताश्चर्यानन्त-दिव्यभूषणः

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्ख-चक्र-गदासि-श्रीवत्स–वन-मालालङ्कृतो

नीलमेघः

वे शंख चक्र गदा खड्ग और शाङ्ग ऐसे आयुध और श्रीवत्स एवं वनमाला से अलंकृत हैं

मूलम्

शङ्खचक्रगदासिश्रीवत्सवनमालालङ्कृतो

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनवधिकातिशय-सौन्दर्याहृताशेष–मनो-दृष्टि-वृत्तिर्

नीलमेघः

वे अपार उत्कर्षयुक्त सौन्दर्य से सबकी मनोवृत्ति और दृष्टि का हरण करते रहते हैं ।

मूलम्

ऽनवधिकातिशयसौन्दर्याहृताशेषमनोदृष्टिवृत्तिर्

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(समुदाय-शोभा←)+++लावण्यामृत-पूरिताशेष-चराचर-भूत-जातो

नीलमेघः

प्रत्येक अवयव की शोभा सुन्दर है ।
समुदाय शोभा लावण्य कहलाती है ।
वे लावण्यामृत से संपूर्ण चराचर प्राणि समूह को आप्लावित करते रहते हैं ।

मूलम्

लावण्यामृत-पूरिताशेषचराचरभूतजातो

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यद्भुताचिन्त्य-नित्य-यौवनः, पुष्प+++(-विकास-मन्द)+++-हास-सुकुमारः

नीलमेघः

वे अत्यद्भुत एवं अचिन्त्य नित्य यौवन से संपन्न हैं ।
वें इतने सुकुमार हैं कि जिस प्रकार धीरे-धीरे पुष्प विकसित होते हैं उसी प्रकार वे धीरे धीरे मन्दहास करते हैं ।

सौकुमार्य के कारण उनको ऐसे ही मन्दहास होते रहते हैं ।

मूलम्

अत्यद्भुताचिन्त्यनित्ययौवनः पुष्पहाससुकुमारः

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्य-गन्ध-वासितानन्त-दिग्-अन्तरालस्

नीलमेघः

वे अपने परमपावन सुगन्ध से अनन्त दिशावकाशों को सुगन्धित करते रहते हैं ।

मूलम्

पुण्यगन्धवासितानन्त-दिगन्तरालस्

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैलोक्याक्रमण-प्रवृत्त-गम्भीर-भावः

नीलमेघः

उनकी गम्भीरता को देखने पर प्रतीत होता है कि वह तीनों लोकों का आक्रमण करने के लिये प्रवृत्त हैं।

मूलम्

त्रैलोक्याक्रमण-प्रवृत्त-गम्भीर-भावः

विश्वास-प्रस्तुतिः

करुणानुराग-मधुर-लोचनावलोकिताश्रित-वर्गः पुरुष-वरो दरीदृश्यते ।

नीलमेघः

वे करुणा एवं अनुराग से परिपूर्ण मधुर लोचनों से आश्रित वर्ग को कटाक्षित करते रहते हैं ।

मूलम्

करुणानुरागमधुरलोचनावलोकिताश्रितवर्गः पुरुषवरो दरीदृश्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च
निखिल-जगद्-उदय-विभव-लय-लीलो
निरस्त-समस्त-हेयः
समस्त-कल्याण-गुण-गण-निधिः
स्वेतर-समस्त-वस्तु-विलक्षणः
परमात्मा, परं ब्रह्म, नारायण
इत्य् अवगम्यते -
तद्-धर्मोपदेशात्,

स एष सर्वेषां लोकानाम् ईष्टे
सर्वेषां कामानाम्,

स एष सर्वेभ्यः पापभ्य उदितः (छा.उ.१.६.७)

इत्य्-आदि-दर्शनात् ।

नीलमेघः

शास्त्र प्रमाण के अनुसार
इस प्रकार जो पुरुष प्रवर सूर्यमण्डल में दिखाई दे रहे हैं
वे परब्रह्म परमात्मा श्रीमन्नारायण भगवान ही हैं
जो संपूर्ण जगत की सृष्टि स्थिति और प्रलय की लीला करते रहते हैं,
नित्यनिर्दोष एवं समस्त कल्याण गुणों के निधि हैं
तथा वे स्वेतर समस्त वस्तुओं से अत्यन्त विलक्षण हैं ।

यह परब्रह्म श्रीमन्नारायण भगवान ही वह पुरुष हैं जो सूर्यमण्डल में दिखाई देते हैं।
ऐसा निर्णय करने का कारण यही है कि
परमात्मा के असाधारण धर्मों का वर्णन यहाँ पर विद्यमान है ।
इसमें इन्हें परमात्मा ही मानना चाहिये ।
वे धर्म निम्नलिखित वाक्यों में वर्णित हैं ।

वाक्य ये हैं कि -
" स एष सर्वेशां लोकानामीष्टे सर्वेषां कामानाम्"
“स एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्यः उदितः”

अर्थात् आदित्यमण्डल में विराजमान यह पुरुष
सब लोकों पर शासन करते हैं
तथा सब फलों को अपने आधीन में रखे हैं ।
यह पुरुष सब पापों के ऊपर उठे हुये हैं ।
सर्वेश्वरत्व और सर्वपाप रहितत्व इत्यादि
परमात्मा के धर्म हैं ।

मूलम्

स च निखिलजगदुदयविभवलयलीलो निरस्तसमस्तहेयः समस्तकल्याणगुण-गणनिधिः स्वेतरसमस्तवस्तुविलक्षणः परमात्मा परं ब्रह्म नारायण इत्यवगम्यते -
तद्धर्मोपदेशात्, स एष सर्वेषां लोकानामीष्टे सर्वेषां कामानाम्, स एष सर्वेभ्यः पापभ्य उदितः (छा.उ.१.६.७) इत्यादिदर्शनात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैते गुणाः सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः (बृ.उ.६.४.२२),

“अपहत-पाप्मा विजर” इत्यादि “सत्यसंकल्प” (छा.उ.८.१.५) इत्यन्तम्

विश्वतः परमं नित्यं
विश्वं नारायणं हरिम् (तै.ना.उ.११.२),

पतिं विश्वस्यात्मेश्वरम्

इत्य्-आदि-वाक्य-प्रतिपादिताः।

नीलमेघः

यह अर्थ अन्यान्य वाक्यों से प्रमाणित हैं ।
वे वाक्य ये हैं कि

(१) “सर्वस्य वशी सर्वस्येशातः”
अर्थात् परमात्मा सबको अपने वश में रखे हुये हैं
तथा सबपर शासन करने वाले हैं ।

[[३०५]]
(२)

“अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर् विशोको
विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः "

अर्थात
परमात्मा पाप जरामृत्यु शोक भूख और प्यास
इन दोषों से रहित हैं,
नित्य भोग्य पदार्थों से संपन्न हैं
तथा सत्यसंकल्प वाले हैं

(३)

“विश्वतः परमं नित्यं
विश्वं नारायणं हरिम्”

अर्थात् परमात्मा विश्व से श्रेष्ठ हैं, नित्य हैं,
विश्व शरीर वाले हैं,
तथा वे ही नारायण हैं एवं श्रीहरि हैं ।

( ४ ) " पति विश्वस्यात्मेश्वरम्” अर्थात् परमात्मा विश्व के स्वामी हैं ।
सब आत्माओं के ईश्वर हैं
अथवा अपने लिये ईश्वर हैं नियन्ता हैं ।

उपर्युक्त अनेक वाक्यों से सिद्ध होता है कि ये
गुण परमात्मा के असाधारण धर्म हैं ।

आदित्य मण्डल में विराजमान पुरुष में उपर्युक्त गुणों का वर्णन हैं।
इसलिये यही निर्णय होता है कि
वह पुरुष परमात्मा ही है ।
इस प्रकार सूत्रकार ने
सूर्यमण्डल में विराजमान दिव्यमंगल विग्रह वाले पुरुष को
परमात्मा सिद्ध किया है ।

मूलम्

तस्यैते गुणाः सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः (बृ.उ.६.४.२२), अपहतपाप्मा विजर इत्यादि सत्यसंकल्प (छा.उ.८.१.५) इत्यन्तम् विश्वतः परमं नित्यं विश्वं नारायणं हरिम् (तै.ना.उ.११.२), पतिं विश्वस्यात्मेश्वरम् इत्यादिवाक्यप्रतिपादिताः।

वाक्यकार-सम्मतिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्य-कारश् चैतत् सर्वं सु-स्पष्टम् आह –

“हिरण्यमयः पुरुषो दृश्यत”

इति

प्राज्ञः सर्वान्तरः स्याल्
लोक-कामेशोपदेशात्
तथोदयात् पाप्मनाम् (ब्र.न.वा +++(=ब्रह्मनन्दिवार्त्तिकम्)+++)

इत्य्-आदिना ।

नीलमेघः

वाक्यकार ने भी इस प्रसंग में निर्णय देते हुये यही कहा – कि
" हिरण्मयः पुरुषो दृश्यत इति प्राज्ञः सर्वान्तरः स्याल्लोककामेशोपदेशात् तथोदयात् पाप्मनाम्” इत्यादि ।

अर्थात्
अन्तरादित्यविद्या में कहा गया है कि
सूर्यमण्डल में स्वर्ण समान विग्रह वाले पुरुष दिखाई देते हैं ।
वह पुरुष सबके अन्दर अन्तर्यामी के रूप में विराजमान सर्वज्ञ परमात्मा ही है
दूसरा कोई नहीं है
क्योंकि वह पुरुषलोक एवं फलों का ईश्वर
तथा पापों से रहित बताये गये हैं ।

परमात्मा ही ऐसे होते हैं ।
इसलिये उस पुरुष को परमात्मा ही मानना चाहिये ।
परमात्मा का अप्राकृत दिव्यरूप है ।
उसी का ही वर्णन इस विद्या में है ।

शरीर-धारी होने मात्र से
इस पुरुष को जीव मानना उचित नहीं है
जीव में उपर्युक्त गुण धर्म घट नहीं सकते हैं ।

परमात्मा का भी रूप होता है ।
यह पुरुष परमात्मा ही है ।

मूलम्

वाक्यकारश्चैतत्सर्वं सुस्पष्टमाह – हिरण्यमयः पुरुषो दृश्यत इति प्राज्ञः सर्वान्तरः स्याल्लोककामेशोपदेशात्तथोदयात्पाप्मनाम् (ब्र.न.वा) इत्यादिना ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य च रूपस्यानित्यतादि वाक्य-कारेणैव प्रतिषिद्धम् –

स्यात् तद्-रूपं कृतकम् अनुग्रहार्थं
तच् चेतनानाम् ऐश्वर्याद्

इत्य्

उपासितुर् अनुग्रहार्थः परम-पुरुषस्य रूप-संग्रह (ब्र.न.वा)

इति पूर्वपक्षं कृत्वा,

रूपं वातीन्द्रियम् अन्तःकरण-प्रत्यक्षं तन्-निर्देशात् (ब्र.न.वा)

इति ।

नीलमेघः

वाक्यकार ने आगे यह भी कहा है कि
परमात्मा का वह रूप प्राकृत एवं अनित्य नहीं है
किन्तु अप्राकृत एवं नित्य हैं

उन्होंने “स्याद्रूपं कृतकमनुग्रहार्थं तच्चेन सामैश्वर्यात्”
ऐसा पूर्वपक्ष करके
“रूपं वाऽतीन्द्रियम् अन्तःकरणप्रत्यक्षं तन्निर्देशात् "
इस वाक्य से सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है ।

पूर्वपक्ष का भाव यह है कि
उपासकों पर अनुग्रह करने के लिये
ईश्वर स्वतन्त्र शक्ति से
अनित्य शरीर को अपनाते होंगे
यह शरीर भी वैसा ही होगा।

इस प्रकार पूर्वपक्ष करके
उन्होंने यह कहा कि
परमात्मा का विग्रह
प्राकृत एवं अनित्य नहीं है,
वह अप्राकृत दिव्य एवं नित्य है
वह अतीन्द्रिय है
विशुद्ध अन्तःकरण से ही वह प्रत्यक्ष होता है।
ऐसा परमात्मा का विग्रह है
यह अर्थ शास्त्र में वर्णित है ।

मूलम्

तस्य च रूपस्यानित्यतादि वाक्यकारेणैव प्रतिषिद्धम् – स्यात्तद्रूपं कृतकमनुग्रहार्थं तच्चेतनानामैश्वर्यादित्युपासितुरनुग्रहार्थः परमपुरुषस्य रूपसंग्रह (ब्र.न.वा) इति पूर्वपक्षं कृत्वा, रूपं वातीन्द्रियमन्तःकरणप्रत्यक्षं तन्निर्देशात् (ब्र.न.वा) इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ज्ञानादयः परस्य ब्रह्मणः स्वरूपतया निर्देशात्स्वरूपभूतगुणास्तथेदमपि रूपं श्रुत्या स्वरूपतया निर्देशात्स्वरूपभूतमित्यर्थः ।

नीलमेघः

भाव यह है कि
जिस प्रकार ज्ञान इत्यादि गुण
श्रीभगवान का स्वरूप निरूपक धर्म होने से
उनका स्वाभाविक गुण है
उसी प्रकार ही
यह दिव्यरूप भी श्रीभगवान का स्वरूप निरूपक है,
अतएव उनका स्वाभाविक है ।

मूलम्

यथा ज्ञानादयः परस्य ब्रह्मणः स्वरूपतया निर्देशात्स्वरूपभूतगुणास्तथेदमपि रूपं श्रुत्या स्वरूपतया निर्देशात्स्वरूपभूतमित्यर्थः ।

द्रमिडाचार्य-सम्मतिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाष्य-कारेणैतद् व्याख्यातम् -

अञ्जसैव विश्वसृजो रूपं,
तत्तु न चक्षुषा ग्राह्यं
मनसा त्व् अ-कलुषेण +++(ध्यानादि-)+++साधनान्तरवता गृह्यते,+++(4)+++

न चक्षुषा गृह्यते
नापि वाचा,…
मनसा तु विशुद्धेन

इति श्रुतेः।

नीलमेघः

वाक्यकार के इस वाक्य की व्याख्या करते हुए
द्रमिडभाष्यकार ने कहा कि
जगत्कारण परमात्मा का यह रूप स्वाभाविक है ।
यह लौकिक चक्षु इन्द्रिय से गृहीत नहीं हो सकता
किन्तु विशुद्ध एवं भक्ति ध्यान आदि साधनों से युक्त मन से ही गृहीत हो सकता है ।
इस विषय में वे वचन प्रमाण हैं कि—

“न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा”
“मनसा तु विशुद्धेन”

अर्थात वह रूप वाले ईश्वर चक्षु से गृहीत नहीं होते
न वाणी से बतलाये जा सकते हैं
किन्तु विशुद्ध मन से ही गृहीत होते हैं ।
परमात्मा के रूप का वर्णन उपनिषद में मिलता है।
इसलिये परमात्मा को साकार मानना चाहिये ।

मूलम्

भाष्यकारेणैतद्व्याख्यातम् अञ्जसैव विश्वसृजो रूपं तत्तु न चक्षुषा ग्राह्यं मनसा त्वकलुषेण साधनान्तरवता गृह्यते, न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा मनसा तु विशुद्धेन इति श्रुतेः

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्य् अरूपाया देवताया रूपम् उपदिश्यते,
यथाभूतवादि हि शास्त्रम् …

नीलमेघः

यह तो हो नहीं सकता कि
परदेवता परमात्मा रूपरहित हो,
शास्त्र उनके रूप का वर्णन करें।
ऐसा होने पर
शास्त्र अनमाण हो जायगा।
जो वस्तु जैसी है
वैसे उस वस्तु का प्रतिपादन करना
यही शास्त्र का काम है ।

[[३०७]]

तदर्थ ही शास्त्र का आविर्भाव हुआ है ।

मूलम्

न ह्यरूपाया देवताया रूपमुपदिश्यते, यथाभूतवादि हि शास्त्रम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

“माहारजनं वासः”,

नीलमेघः

अन्यान्य प्रकरणों में विद्यमान निर्देश भी यहाँ साक्षी बन जाते हैं ।
वे निर्देश ये हैं कि -“माहारजनं वासः”

अर्थात् श्रीभगवान का रूप सुन्दर है,
वह हरिद्रारञ्जित वस्त्र के समान है ।

मूलम्

माहारजनं वासः

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्
आदित्यवर्णं तमसः परस्ताद्

इति प्रकरणान्तर-निर्देशाच् च +++(←)+++साक्षिणः (द्र.भा)

इत्यादिना

नीलमेघः

“वेदाहमेत पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्” इत्यादि ।

हम प्रकृति के ऊपर रहने वाले
सूर्य समान वर्ण वाले महापुरुष को जानते हैं ।

इन प्रमाण वचनों से श्रीभगवान का दिव्य विग्रह सिद्ध होता है ।
इन प्रमाणों के अनुसार
आदित्य मण्डल स्थित पुरुष को परमात्मा ही मानना चाहिये।

मूलम्

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तादिति प्रकरणान्तरनिर्देशाच्च साक्षिणः (द्र.भा) इत्यादिना

विश्वास-प्रस्तुतिः

“हिरण्मय” इति रूपसामान्याच् चन्द्र-मुखवत् (ब्र.न.वा??),
न मयड् अत्र विकारम् आदाय प्रयुज्यते,
अनारभ्यत्वाद् आत्मनः (द्र.भा)

इति ।

नीलमेघः

आगे द्रमिडभाष्यकार ने कहा कि
इस अन्तरादित्य विद्या में पुरुष को जो “हिरण्मय” कहा गया है
उसका अर्थ यही है कि परमात्मा का श्रीविग्रह स्वर्ण के समान उज्ज्वल हैं ।
“चन्द्रमुख” कहने का भाव यही है कि मुख चन्द्र की तरह अह्लादकारी है ।
उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिये ।
श्रीभगवान का विग्रह स्वर्ण के समान उज्ज्वल है ।
यह नहीं समझना चाहिये कि
श्रीभगवान का विग्रह स्वर्ण से बना है
क्योंकि श्रीभगवान का दिव्यविग्रह उत्पन्न होने वाला पदार्थ नहीं,
वह नित्य है ।
इस प्रकार कहकर द्रमिदभाष्यकार ने श्रीभगवान के विग्रह को
नित्य एवं कृत सिद्ध किया है ।

मूलम्

“हिरण्मय” इति रूपसामान्याच्चन्द्रमुखवत् (ब्र.न.वा), न मयडत्र विकारमादाय प्रयुज्यते, अनारभ्यत्वादात्मनः (द्र.भा) इति ।