विश्वास-प्रस्तुतिः
इतिहास–पुराणयोर् वेदोपबृंहणयोश् चायम् अर्थ उच्यते।
नीलमेघः
आगे श्रीरामानुजस्वामी जी ने कहा कि
इतिहास और पुराण
उन वेदशाखाओं के - जो अध्ययन में नहीं आयी है— के अर्थों को व्यक्त करने के लिये प्रवृत्त हैं ।
उन इतिहास और पुराणों में भी
उपर्युक्त दिव्यस्थान इत्यादि अर्थ सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
इतिहासपुराणयोर्वेदोपबृंहणयोश्चायमर्थ उच्यते –
रामायणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ तु मेधाविनौ दृष्ट्वा
वेदेषु परिनिष्ठितौ ।
वेदोपबृंहणार्थाय
ताव् अग्राहयत प्रभुः ॥
(वा.रा.बा.४.६)
इति वेदोपबृंहणतया प्रारब्धे श्रीमद्रामायणे –
नीलमेघः
श्री रामायण वेदार्थों को व्यक्त करने के लिये निर्मित हुआ है ।
श्रीरामायण में आरम्भ में ही कहा गया है कि-
तौ तु मेधाविनौ दृष्ट्वा
वेदेषु परिनिष्ठितौ ।
वेदोपबृंहणार्थाय
ताव् अग्राहयत प्रभुः ॥
अर्थात् वेदों में पारंगत बुद्धिमान उन कुश-लव को देखकर
प्रभु श्री वाल्मीकि महर्षि ने
वेदार्थों को स्पष्टरूप से बतलाने के लिये
उन्हें श्रीरामायण को कण्ठ कराया
इससे सिद्ध होता है कि श्रीरामायण वेदार्थों को व्यक्त करने के लिये ही निर्मित हुआ है ।
उस श्रीरामायण के निम्नलिखित वचनों में उन श्रुति वचनों -
जिनका अब तक उद्धरण किया गया -
का अर्थ स्पष्ट बतलाये गये हैं । वे वचन ये हैं कि-
मूलम्
तौ तु मेधाविनौ दृष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठितौ ।
वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः ॥ (वा.रा.बा.४.६)
इति वेदोपबृंहणतया प्रारब्धे श्रीमद्रामायणे –
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यक्तमेष महायोगी
परमात्मा सनातनः ।
अनादि-मध्य-निधनो
महतः परमो महान् ॥ (वा.रा.यु.११४.१४)
तमसः परमो धाता
शङ्ख-चक्र-गदा-धरः ।
श्रीवत्स-वक्षा नित्य-श्रीर्
अ-जय्यः शाश्वतो ध्रुवः ॥
नीलमेघः
अर्थात् स्पष्ट प्रतीत होता है कि
ये वे परमात्मा ही हैं
जो महाशक्ति संपन्न सनातन
एवं आदि मध्य और अन्त से रहित हैं।
ये परमात्मा महान् से भी अत्यन्त महान हैं ।
प्रकृति से भी परे हैं,
सबके भार और पोषण करने वाले हैं।
ये शंख चक्र और गदा धारण किये रहते हैं ।
[[३०१]]
इनके बचःस्थल में
श्रीवत्स विराजमान रहता है ।
ये सदा श्रीमहालक्ष्मी समेत हैं,
ये अजेय शाश्वत एवं ध्रुव हैं
इन श्लोकों में - “अनादिमध्यनिधनः " इस पद से
श्रीभगवान का स्वरूप नित्य कहा गया है ।
" शाश्वतः " शब्द से श्रीभगवान का गुणविशिष्ट स्वरूप नित्य कहा गया है ।
“ध्रुवः” इस शब्द से
वह स्वरूप विग्रहविशिष्ट रूप से
नित्य कहा गया है ।
इस प्रकार श्रीभगवान का स्वरूप विग्रह और गुण
नित्य कहे गये हैं ।
" तमसः परमः” इन शब्दों से
श्रीभगवान का वह दिव्यस्थान - जो प्रकृति के ऊपर है -
सूचित होता है ।
मूलम्
व्यक्तमेष महायोगी
परमात्मा सनातनः ।
अनादिमध्यनिधनो
महतः परमो महान्॥
तमसः परमो धाता शङ्खचक्रगदाधरः ।
श्रीवत्सवक्षा नित्यश्रीरजय्यः शाश्वतो ध्रुवः ॥
(वा.रा.यु.११४.१४, १५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
शारा नानाविधाश् चापि
धनुर् आयत-विग्रहम् । अन्वगच्छन्त काकुत्स्थं
सर्वे पुरुषविग्रहाः ॥
(उ.रा.१०९.७) … विवेश वैष्णवं तेजः
सशरीरः सहानुगः ॥ (उ.रा.११०.१२)
नीलमेघः
श्रीरामचन्द्र जी की वैकुण्ठयात्रा के प्रसंग में
ये श्लोक मिलते हैं कि-
शरा नानाविधाश्चापि
धनुरायतविग्रहम् ।
अन्वगछन्त काकुत्स्थं सर्वे पुरुषविग्रहाः ॥
विवेश वैष्णव धाम सशरीरः सहानुगः ॥
अर्थात् अनेकविध बाए और लम्बा आकार वाला धनु
जो पुरुषरूप लेकर श्रीरामचन्द्र जी के पीछे पीछे चलते थे,
श्रीरामचन्द्र जी के शरीर एवं अनुयाइयों के साथ
वैष्णवधाम में प्रवेश कर गये ।
इन श्लोकों से श्रीभगवान के आयुध एवं दिव्यधाम सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
शारा नानाविधाश्चापि
धनुरायतविग्रहम्।
अन्वगच्छन्त काकुत्स्थं
सर्वे पुरुषविग्रहाः ॥
(उ.रा.१०९.७)
…
विवेश वैष्णवं तेजः
सशरीरः सहानुगः ॥ (उ.रा.११०.१२)
वुष्णुपुराणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीमद्वैष्णवपुराणे
समस्ताः शक्तयश् चैता
नृप यत्र +++(विग्रहे ऽस्त्र-भूषादि-रूपेण)+++ प्रतिष्ठिताः । तद् विश्व-रूप-वैरूप्यं
रूपम् अन्यद्+धरेर् महत् ॥ (वि.पु.६.७.७०)
नीलमेघः
श्रीविष्णुपुराण में भी उपर्युक्त अर्थोँ का वर्णन है ।
वे वचन यह हैं कि-
समस्ताः शक्तयश्चैता नृप यत्र प्रतिष्ठिताः ।
तद्विश्वरूपवैरूप्यं रूपमन्यद्धरेर् महत् ॥
अर्थात्
हे राजन ! यह चेतनशक्ति अचेतनशक्ति और कर्मशक्ति इत्यादि सभी शक्तियां
श्रीभगवान के जिस विग्रह में
अस्त्र और भूषण के रूप में विराजमान हैं
वह श्रीभगवान का रूप अर्थात् विग्रह
लौकिक सब रूपों से विलक्षण है - आप्राकृत है
एवं अत्यन्त महान् है ।
मूलम्
श्रीमद्वैष्णवपुराणे
समस्ताः शक्तयश्चैता नृप यत्र प्रतिष्ठिताः । तद्विश्वरूपवैरूप्यं रूपमन्यद्धरेर्महत् ॥ (वि.पु.६.७.७०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्तं ब्रह्म महाभाग
सर्वब्रह्ममयो हरिः ॥ (वि.पु.१.२२.६३)
नीलमेघः
[[३००]]
वह मूर्त साकार रूप श्रीभगवान का है ।
श्रीभगवान परिशुद्ध-जीवस्वरूप के भी आत्मा हैं ।
इन वचनों से श्रीभगवान का दिव्यविग्रह सिद्ध होता है ।
मूलम्
मूर्तं ब्रह्म महाभाग सर्वब्रह्ममयो हरिः ॥ (वि.पु.१.२२.६३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यैवैषा जगन्माता
विष्णोः श्रीर् अनपायिनी ।
यथा सर्वगतो विष्णुस्
तथैवेयं द्विजोत्तम ॥ (वि.पु.१.८.१७)
नीलमेघः
श्रीमहालक्ष्मी के विषय में श्री विष्णुपुराण में यह वर्णन है कि–
नित्यैवैषा जगन्माता विष्णोः श्रीरनपायिनी ।
यथा सर्वगतो विष्णुस्तथैवेयं द्विजोत्तम ॥
अर्थात् यह जगन्माता महालक्ष्मी जी नित्या हैं यह कभी श्रीभगवान को नहीं छोड़ती हैं ।
मूलम्
नित्यैवैषा जगन्माता विष्णोः श्रीरनपायिनी ।
यथा सर्वगतो विष्णुस्तथैवेयं द्विजोत्तम ॥ (वि.पु.१.८.१७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवत्वे देव-देहेयं
मनुष्यत्वे च मानुषी ।
विष्णोर् देहानुरूपां वै
करोत्य् एषा ऽत्मनस् तनुम् ॥ (वि.पु.१.१०.१४५)
नीलमेघः
[[३०२]]
हे द्विजोत्तम ! जिस प्रकार श्रीभगवान
अवतार में देवों के समान रूप धारण करते हैं
तब श्रीमहालक्ष्मी जी भी देवशरीर वाली बन जाती हैं ।
जब श्रीभगवान मनुष्यों में अवतार लेते हैं
तब श्रीमहालक्ष्मी जी मनुष्य स्त्री के रूप को धारण करती हैं।
यह महालक्ष्मी
जो अपने देह को श्रीभगवान के देह के अनुरूप बना लेती हैं ।
इन श्लोकों से श्रीमहालक्ष्मी जी का स्वरूप
श्रीभगवान के साथ नित्यसंबन्ध सर्वव्यापकत्व
तथा श्रीभगवान के साथ अवतारग्रहण इत्यादि विशेषार्थं सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी ।
विष्णोर्देहानुरूपां वै करोत्येषात्मनस्तनुम् ॥ (वि.पु.१.१०.१४५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकान्तिनः सदा ब्रह्म-
ध्यायिनो योगिनो हि ये ।
तेषां तत्-परं स्थानं
यद् वै पश्यन्ति सूरयः ॥ (वि.पु.१.६.३८)
नीलमेघः
विष्णुपुराण के निम्नलिखित श्लोकों में दिव्यस्थान और नित्यसूरियों का वर्णन मिलता है ।
एकान्तिनः सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनो हि मे ।
तेषां तत्परमं स्थानं यद्वै पश्यन्ति सूरयः ॥
अर्थात् जो योगिगण अनन्य होकर सदा ब्रह्म ध्यान करते हैं
वे उस परमस्थान में पहुँच जाते हैं
जिसका दर्शन नित्यसूरियों को होता रहता है।
मूलम्
एकान्तिनः सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनो हि ये ।
तेषां तत्परं स्थानं यद्वै पश्यन्ति सूरयः ॥ (वि.पु.१.६.३८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलामुहूर्तादिमयश् च कालो
न यद्-विभूतेः परिणाम-हेतुः ॥ (वि.पु.४.१.३८)
नीलमेघः
‘कला मुहूर्तादिमयश्च कालो न यद्विभूतेः परिणामहेतुः "
अर्थात् कला और मुहूर्तं इत्यादि रूपों में परिणत होने वाला काल
श्रीभगवान की नित्य विभूति में परिणाम का कारण नहीं बन सकता ।
इन वचनों से दिव्यस्थान और नित्यसूरियों का सद्भाव
और इनकी नित्यता सिद्ध होती है ।
मूलम्
कलामुहूर्तादिमयश्च कालो न यद्विभूतेः परिणामहेतुः ॥ (वि.पु.४.१.३८)
महाभारतम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभारते च
दिव्यं स्थानम् अजरं चाप्रमेयं
दुर्विज्ञेयं चागमैर् गम्यम् आद्यम् ।
गच्छ प्रभो रक्ष चास्मान् प्रपन्नान्
कल्पे कल्पे जायमानः स्व-मूर्त्या ॥ (म.भा.भौ.५.२७)
नीलमेघः
महाभारत में नित्यविभूति और उसकी नित्यता के विषय में वर्णन है ।
अर्थात् हे प्रभो !
जरा हीन अप्रमेय दुर्ज्ञेय एवं शास्त्रों से ही विदित होने वाले
उस आद्य दिव्य स्थान में पहुँचने के लिये पधारिये ।
आप प्रतिकल्प अपने रूप से प्रकट होकर
आश्रित हम लोगों की रक्षा कीजिये ।
मूलम्
महाभारते च
दिव्यं स्थानमजरं चाप्रमेयं दुर्विज्ञेयं चागमैर्गम्यमाद्यम् ।
गच्छ प्रभो रक्ष चास्मान् प्रपन्नान् कल्पे कल्पे जायमानः स्वमूर्त्या ॥ (म.भा.भौ.५.२७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालः सम्पच्यते तत्र +++(वस्तु-परिणामादि-गति-भेदेन)+++
न कालस् तत्र वै प्रभुः । (म.भा.शान्ति.१९१.९)
इति ।
नीलमेघः
“कालः संपचते क्षेत्र नं कालस्तत्र वै प्रभुः "
अर्थात् श्रीभगवान
नित्यविभूति में काल को परिणत कर देते हैं,
पचा देते हैं ।
काल वहाँ कुछ भी नहीं कर सकता।
इन वचनों से दिव्यस्थान एवं उसकी नित्यता सिद्ध होती है ।
मूलम्
कालः सम्पच्यते तत्र न कालस्तत्र वै प्रभुः । (म.भा.शान्ति.१९१.९)
इति ।