०७ नित्य-सूरिषु श्रुत्यन्तराणि

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः

नीलमेघः

अन्य कई वचन में भी
नित्यसूरियों का वर्णन मिलता है ।
उनसे भी नित्यसूरि सिद्ध होते हैं ।

वे वचन ये हैं कि

( १ ) " यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः"

अर्थात् जहाँ परम प्राचीन साध्यदेव अर्थात् नित्यसूरिगण रहते हैं
वह नाक अर्थात् दुःख रहित दिव्यलोक है ।

मूलम्

यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्रर्षयः प्रथमजा ये पुराणाः (तै.सं.४.७.१३.२)

इत्यादिषु च त एव सूरय इत्यवगम्यते ।

नीलमेघः

(२) “यत्रर्षयः प्रथमजा ये पुराणाः”

जहाँ पहले से ही विराजमान पुराने द्रष्टा नित्यसूरि विराजते हैं ।

मूलम्

यत्रर्षयः प्रथमजा ये पुराणाः (तै.सं.४.७.१३.२) इत्यादिषु च त एव सूरय इत्यवगम्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् विप्रासो विपन्यवो+++(=स्तुतिशीलाः)+++ जागृवांसः समिन्धते
विष्णोर् यत् परं पदम् (सुबा.उ.६) +++(5)+++

इत्यत्रापि विप्रासो – मेधाविनः, विपन्यवः – स्तुतिशीलाः, जागृवांसः – अस्खलित-ज्ञानाः।
त एवास्खलितज्ञानास्
तद् विष्णोः परमं पदं सदा स्तुवन्तः
समिन्धत इत्यर्थः ।

नीलमेघः

तद् विप्रासो विपन्यवो+++(=मेधाविनः)+++ जागृवांसः समिन्धते
विष्णोर् यत् परं पदम् (सुबा.उ.६)

सदा जागने वाले अर्थात ज्ञान लोप रहित मेघावी नित्यसूरिगण
श्रीविष्णुभगवान के उस परमपद की स्तुति करते हुये
देदीप्यमान रहते हैं ।

इन सब प्रमाणों से दिव्यस्थान और नित्यसूरिगण सिद्ध होते हैं
तथा इनकी नित्यता भी सिद्ध होती है ।

मूलम्

तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते विष्णोर्यत्परं पदम् (सुबा.उ.६)
इत्यत्रापि विप्रासो – मेधाविनः, विपन्यवः – स्तुतिशीलाः, जागृवांसः – अस्खलितज्ञानाः।
त एवास्खलितज्ञानास्तद्विष्णोः परमं पदं सदा स्तुवन्तः समिन्धत इत्यर्थः ।

“सद् एव” श्रुत्या अविरोधह्

नीलमेघः

“सदेव” इत्यादि श्रुतिवाक्य से दिव्यस्थान और नित्यसूरि इत्यादि का अभाव सिद्ध नहीं होता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषां परिजन-स्थानादीनां

सदेव सोम्येदम् अग्र आसीत् (छा.उ.६.२.१)

इत्य्-अत्र ज्ञान-बलैश्वर्यादि-कल्याण-गुण-गणवत् पर-ब्रह्म–स्व-रूपान्तर्-भूतत्वात्
सद् एवैकम् एवाद्वितीयम्
इति ब्रह्मान्तर्भावो ऽवगम्यते।+++(4)+++

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

[[२९८]]

आगे यह प्रश्न उठता है कि
उपनिषदों में
“सदेव सोम्येदमग्र आसीद् एकम् एवाद्वितीयम्”
इत्यादि कारण वाक्यों से
यही सिद्ध होता है कि सृष्टि के पूर्व
अर्थात् प्रलयकाल में
एक अद्वितीय ब्रह्म ही था,
प्रपञ्च सर्वथा नहीं था ।
ऐसी स्थिति में परमपद को नित्य कैसे माना जा सकता है
वहाँ रहने वाले सूरियों को भी अनित्य ही मानना चाहिये ।
इनकों नित्य मानने पर
कारणवाक्यों से विरोध उपस्थित होता है ।
उसे कैसे शान्त किया जाय ?
यह प्रश्न है ।

नीलमेघः - समाधानम्

इसका उत्तर यह है कि
प्रलयकाल में ब्रह्म ही था
यह प्रपञ्च नहीं था ।
यह बात ठीक है।
इससे यह नहीं मानना चाहिये कि
उस समय परब्रह्म में ज्ञान, बल और ऐश्वर्यं इत्यादि कल्याणगुण भी नहीं थे ।
प्रलयकाल में उन कल्याणगुणों का सद्भाव मानना ही होगा
क्योंकि वे ब्रह्मस्वरूप मैं अन्तर्गत हैं,
उनका निषेध नहीं हो सकता है ।
प्रलयकाल में भी ब्रह्म कल्याणगुण
एवं मंगलमय विशेषण युक्त होकर ही रहता है ।
कल्याणगुणों के समान
दिव्यस्थान और नित्यसूरिगण इत्यादि भी परब्रह्म के मंगलमय विशेषण है ।

मूलम्

एतेषां परिजनस्थानादीनां सदेव सोम्येदमग्र आसीत् (छा.उ.६.२.१) इत्यत्र ज्ञानबलैश्वर्यादि-कल्याणगुणगणवत् परब्रह्मस्वरूपान्तर्भूतत्वात्सदेवैकमेवाद्वितीयमिति ब्रह्मान्तर्भावोऽवगम्यते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषाम् अपि कल्याण-गुणैक-देशत्वाद् एव

सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीत् (छा.उ.६.२.१)

इत्य्-अत्रेदम् इति शब्दस्य
कर्म-वश्य-भोक्तृ-वर्ग-मिश्र–तद्-भोग्य-भूत-प्रपञ्च-विषयत्वाच् च

सदा पश्यन्ति सूरयः (सुबा.उ.६)

इति सदा-दर्शित्वेन च तेषां कर्म-वश्यानन्तर्भावात् ।

नीलमेघः

“सदेव सोम्येदमग्र आसीत् " इस वाक्य से
यही सिद्ध होता है कि
प्रलयकाल में वह प्रपञ्च ही नहीं रहता है
जो कर्मवश्य बद्धजीवों से युक्त हैं
तथा उन जीवों का भोग्य है ।+++(5)+++
इससे प्रलयकाल में बद्धजीव और उनके भोग्य इस प्राकृत प्रपञ्च का अभाव ही सिद्ध होता है ।
नित्यसूरियों का अभाव सिद्ध नहीं होता है
क्योंकि वे कर्मबद्ध नहीं है ।

वे “सदा पश्यन्ति सूरयः” के अनुसार
सदा सर्वज्ञ रहते हैं ।
कर्मवश्यों में वे अन्तर्गत नहीं है ।
इनका अभाव उपर्युक्त “सदेव” इत्यादि वचन का विवक्षित नहीं है ।

जिस प्राकृत प्रपञ्च की सृष्टि
आगे कही जाने वाली है
उस प्राकृत प्रपञ्च का अभाव ही प्रलयकाल में
उस वाक्य से सिद्ध होता है ।
उस वाक्य से
अप्राकृत दिव्यलोक इत्यादि का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है।

मूलम्

एषामपि कल्याणगुणैकदेशत्वादेव सदेव सोम्येदमग्र आसीत् (छा.उ.६.२.१) इत्यत्रेदमिति शब्दस्य कर्मवश्यभोक्तृवर्गमिश्रतद्भोग्यभूतप्रपञ्चविषयत्वाच्च सदा पश्यन्ति सूरयः (सुबा.उ.६)इति सदादर्शित्वेन च तेषां कर्मवश्यानन्तर्भावात् ।

सत्य-कामः

विश्वास-प्रस्तुतिः

(” अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर् विशोको
विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः “)

अपहत-पाप्मा (छा.उ.८.१.५) इत्य्-आदि अपिपासः (छा.उ.८.१.५) इत्य्-अन्तेन
स–लीलोपकरण-भूत–त्रिगुण-प्रकृति–प्राकृत–तत्-संसृष्ट-+++(बद्ध-)+++पुरुष–गतं हेय-स्वभावं सर्वं प्रतिषिध्य
सत्य-काम इत्य्-अनेन स्व-भोग्य-भोगोपकरण-जातस्य सर्वस्य सत्यता प्रतिपादिता ।

नीलमेघः

किंच

" अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर् विशोको
विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः "

यह वाक्य श्रीभगवान के नित्य भोग्य और भोगोपकरण इत्यादि को सिद्ध करता है।
इस वचन में " अपहतपाप्मा” से लेकर “अपिपासः” तक के भाग से यह कहा गया है कि
परमात्मा में पाप जरा मृत्यु शोक भूख और प्यास इत्यादि दोष नहीं होते हैं ।
यह दोष परमात्मा की लोला में उपकरण बनने वाले प्रकृति प्राकृत पदार्थ और उनसे संबन्ध रखने वाले बद्धजीवों में रहा करते हैं ।
परमात्मा में इन सभी दोषों का निषेध करके
यह वचन “सत्यकामः” इस पद से यह बताता है कि
परमात्मा के यहाँ ऐसे भोग्य और भोगोपकरण इत्यादि पदार्थ भी हैं
जो नित्य हैं ।

मूलम्

अपहतपाप्मा (छा.उ.८.१.५) इत्यादि अपिपासः (छा.उ.८.१.५) इत्यन्तेन सलीलोपकरणभूतत्रिगुण-प्रकृतिप्राकृततत्संसृष्टपुरुषगतं हेयस्वभावं सर्वं प्रतिषिध्य सत्यकाम इत्यनेन स्वभोग्यभोगोपकरणजातस्य सर्वस्य सत्यता प्रतिपादिता ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्याः कामा यस्यासौ सत्य-कामः
“काम्यन्त” इति कामाः
तेन परेण ब्रह्मणा स्व-भोग्य–तद्-उपकरणादयः स्वाभिमता ये काम्यन्ते
ते सत्याः नित्या इत्यर्थः ।

नीलमेघः

परब्रह्म जिन जिन भोग्य और भोगोपकरण इत्यादि पदार्थों को चाहता है
वे सभी सत्य अर्थात नित्य बने रहते हैं ।

मूलम्

सत्याः कामा यस्यासौ सत्यकामः।
काम्यन्त इति कामाः ।
तेन परेण ब्रह्मणा स्वभोग्यतदुपकरणादयः स्वाभिमता ये काम्यन्ते ते सत्याः नित्या इत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यस्य लीलोपकरणस्यापि वस्तुनः
प्रमाण-संबन्ध-योग्यत्वे सत्य् अपि
विकारास्पदत्वेन +अस्थिरत्वात्
तद्-द्विपरीतं स्थिरत्वम् एषां सत्य-पदेनोच्यते।

नीलमेघः

इस संसार में विद्यमान प्राकृत भोग्य और भोगोपकरण इत्यादि पदार्थ भी सत्य हैं
मिथ्या नहीं है,
क्योंकि ये प्रमाणों से सिद्ध हैं ।
ये सत्य होने पर भी नित्य नहीं है किन्तु नश्वर हैं।
जो स्थायी नित्यपदार्थ हैं वे भी सत्य कहे जाते हैं।
ऐसे स्थिर एवं निभोग्य और भोगोपकरण इत्यादि पदार्थ परमात्मा के यहाँ बहुत हैं ।
इस लिये श्रुति ने परमात्मा को “सत्यकाम” कहा ।

मूलम्

अन्यस्य लीलोपकरणस्यापि वस्तुनः प्रमाणसंबन्धयोग्यत्वे सत्यपि विकारास्पदत्वेनास्थिरत्वाद्तद्विपरीतं स्थिरत्वमेषां सत्यपदेनोच्यते।

सत्य-सङ्कल्पः

विश्वास-प्रस्तुतिः

“सत्यसंकल्पः” (छा.उ.८.१.५) इत्य्
एतेषु भोग्य–तद्-उपकरणादिषु नित्येषु
निरतिशयेष्व् अनन्तेषु सत्स्व् अप्य्
अ-पूर्वाणाम् अ-परिमितानाम् अर्थानाम् अपि
संकल्प-मात्रेण सिद्धिं वदति ।

नीलमेघः

परमात्मा सत्य संकल्प वाले होने से “सत्यसंकल्पः” कहे जाते हैं ।
इस प्रकार परमात्मा के यहाँ अत्युत्कृष्टं नित्य अनन्त भोग्य और भोगोपकरण इत्यादि पदार्थ विद्यमानं होने पर भी
परमात्मा संकल्पमात्र से
अपरिमित अपूर्व पदार्थों को प्राप्तं करने में समर्थ हैं ।
यह सत्यसंकल्प शब्द का अर्थ है।

मूलम्

सत्यसंकल्पः (छा.उ.८.१.५) इत्येतेषु भोग्यतदुपकरणादिषु नित्येषु निरतिशयेष्वनन्तेषु सत्स्वप्यपूर्वाणामपरिमितानामर्थानामपि संकल्पमात्रेण सिद्धिं वदति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषां च +++(नित्यविभूतौ)+++ भोगोपकरणानां +++(लीलाविभूतौ विशिष्य)+++ लीलोपकरणानां
चेतनानाम् अचेतनानां
स्थिराणाम् अस्थिराणां च
तत्-संकल्पायत्त–स्व-रूप–स्थिति-प्रवृत्ति-भेदादि सर्वं वदति “सत्यसंकल्पः” (छा.उ.८.१.५) इति ।

नीलमेघः

सत्यसंकल्प शब्द से यह सिद्ध होता है कि

त्रिपाद्-विभूति में वैकुण्ठलोक इत्यादि अचेतन पदार्थ हैं
नित्यसुरि और मुक्तगण चेतन पदार्थ हैं ।
उनमें कई पदार्थ स्थिर हैं
कई श्रीभगवत्संकल्प के अनुसार उत्पन्न एवं नष्ट होते रहते हैं।
ये वहाँ के अस्थिर पदार्थ हैं।
ये सब श्रीभगवान के भोग के वर्धक हैं ।
इसलिये भोगोपकरण कहलाते हैं ।

लीलाविभूति में भी चेतन एवं अचेतन पदार्थ हैं
इनमें कई स्थिर हैं, कई अस्थिर हैं
ये श्रीभगवान की लीला के उपकरण हैं।

ये दोनों प्रकार के सभी पदार्थों के स्वरूप, स्थिति, प्रवृति और उनमें होने वाले अवान्तर भेद इत्यादि सब कुछ
श्रीभगवान के संकल्प के आधीन है।
यह सत्यसंकल्प शब्द का अर्थ है ।

इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने
श्रुति वचनों के आधार पर दिव्यस्थान और दिव्यसूरि इत्यादि पदार्थों को
सिद्ध किया है।

मूलम्

एषां च भोगोपकरणानां लीलोपकरणानां चेतनानामचेतनानां स्थिराणामस्थिराणां च तत्संकल्पायत्तस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिभेदादि सर्वं वदति सत्यसंकल्पः (छा.उ.८.१.५) इति ।