०५ नित्य-सूरयः - "तद्विष्णोः"

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् विष्णोः परमं पदम् (सुबा.उ.५)

इति

विष्णोः परस्य ब्रह्मणः परं पदं
सदा पश्यन्ति सूरय

इति वचनात् सर्व-काल-दर्शनवन्तः परिपूर्ण-ज्ञानाः केचन सन्तीति विज्ञायते ।

नीलमेघः

आगे श्रीरामानुजस्वामी जी ने
“तद्विष्णोः परमं पदम्”
इस श्रुति के अर्थ के विषय में
परवादियों क द्वारा उठाये हुये विवादों का निराकरण करते हुये
यह कहा कि
यह मन्त्र बताता है कि
सूरिंगण परब्रह्म श्रीविष्णुभगवान के उस परमपद का
सदा दर्शन करते रहते हैं ।
इससे यह सिद्ध होता है कि
सदा देखने वाले तथा परिपूर्णज्ञान सम्पन्न
अनेक सूरिगण विद्यमान हैं ।

मूलम्

तद्विष्णोः परमं पदम् (सुबा.उ.५) इति विष्णोः परस्य ब्रह्मणः परं पदं सदा पश्यन्ति सूरय इति वचनात्सर्वकालदर्शनवन्तः परिपूर्णज्ञानाः केचन सन्तीति विज्ञायते ।

अनेकार्थ-बोधकता

विस्तारः (द्रष्टुं नोद्यम्)

तद्विष्णोः परमं पदम् इति श्रुतौ अनेकार्थविधानकृतवाक्यभेदशङ्का तत्परिहारौ

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये सूरयस् ते सदा पश्यन्तीति वचन-व्यक्तिः,
ये सदा पश्यन्ति ते सूरय इति वा । उभय-पक्षेऽप्य् +++(सूरित्व-सदावीक्षितृत्व→)+++अनेक-विधानं +++(एकेनैव वाक्येन)+++ न संभवति
+++(न चैकविधानम् - उद्देश्यस्य प्रमाणान्तरासिद्धत्वात्)+++

नीलमेघः - पूर्वपक्षः- सूरयो नोद्देश्याः

यहाँ पर कई विद्वान यह शंका करते हैं कि

यहाँ कैसे अर्थ किया जाता है ?
यदि ऐसा अर्थ किया जाय कि
जो सूरि हैं वे सदा परमपद को देखते रहते हैं ।
यह अर्थ तभी किया जा सकता है
जबकि सूरिगण प्रमाणान्तर से विदित हुये हों
उस परिस्थिति में प्रमाणान्तर से अवगत सूर्रियों का
“जो सूरि है” ऐसा अनुवाद करके
सदा दर्शन का विधान किया जा सकता है

परन्तु सूरिगण प्रमाणान्तर से विदित नहीं हैं
ऐसी स्थिति में उनका अनुवाद नहीं किया जा सकता,
इससे सिद्ध होता है कि उपर्युक्त अर्थ समीचीन नहीं ।

नीलमेघः - पूर्वपक्षः - सूरयो न विधेयः

यहाँ पर दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि
जो सदा देखने वाले हैं
वे सूरि हैं।
इस अर्थ में
सदा देखने वाले उद्देश्य हैं,
सूरिगण विधेय हैं ।
सदा देखने वाले
तभी उद्देश्य बन सकते हैं
जबकि प्रमाणान्तर से विदित हुये हैं।
प्रमाणान्तर से वैसे लोग सिद्ध नहीं होते ।
ऐसी स्थिति में सदा देखने वालों का अनुवाद नहीं हो सकता ।

अतएव सूरियों का विधान भी असंभव है । यह दोष इस अर्थ में आता है ।
इस प्रकार दोनों अर्थ दोषाक्रान्त हैं।

नीलमेघः - पूर्वपक्षः - अनेकार्थ-विधानम्

यदि यह कहा जाय कि दोनों पक्षों में दोनों का विधान माना जाय
तो वह भी युक्त नहीं
क्योंकि एक वाक्य
एक अर्थ का ही विधान हो सकता है,
अनेक अत्रों का नहीं
क्योंकि एक वाक्य
एक अर्थ का प्रतिपादन करने के लिये ही प्रवृत्त हो सकता है ।

यदि यहाँ “सदा देखने वाले”
और " सूरि"
ऐसे अपूर्व दोनों अर्थोँ का विधान माना जाय
तो अनेक विधान का दोष आता है
क्योंकि एक वाक्य अनेक अर्थों का विधान
नहीं कर सकता ।
ऐसी स्थिति में
यहाँ किस प्रकार अर्थ किया जाय ?

[[२९०]]
यह शंका उपस्थित होती है।

मूलम्

ये सूरयस्ते सदा पश्यन्तीति वचनव्यक्तिः, ये सदा पश्यन्ति ते सूरय इति वा । उभयपक्षेऽप्यनेकविधानं न संभवति

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति चेन् न,
अ-प्राप्तत्वात्
सर्वस्य सर्व-विशिष्टं परमं स्थानं विधीयते ।+++(5)+++

नीलमेघः

इस शंका के समाधान में
श्रीरामानुजस्वामी जी कहते हैं कि
यहाँ श्रीभगवान का परमस्थान, सूरिगण और उनका सदा दर्शन
ये तीनों अर्थ प्रतिपादित होते हैं,
यह तीनों अर्थ प्रमाणान्तर से अवगत नहीं हैं
इसलिये यहाँ सर्वविशेषण-विशिष्ट एक परम स्थान का विधान माना जाता है ।

मूलम्

इति चेन्न, अप्राप्तत्वात्सर्वस्य सर्वविशिष्टं परमं स्थानं विधीयते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं

तद्-गुणास् ते विधीयेरन्न्
अ-विभागाद् विधानार्थे
न चेद् अन्येन शिष्टाः (पू.मी.सू.१.४.९)

इति ।

नीलमेघः

सूरियों द्वारा सदा देखने योग्य परम पद -
ऐसा सर्वविशेषण विशिष्ट परम पद का
यहाँ विधान हो सकता है
क्योंकि पूर्वमीमांसा में कहा गया है कि

यदि एक वाक्य में ऐसे कर्म
और कर्मागों का वर्णन हो
जो दूसरे प्रमाण से विदित नहीं हो सकते
वहाँ अंग और कर्म को विशेषण-विशेष्यभाव संबन्ध से एक करके
अंगविशिष्ट कर्म का विधान मानना चाहिये,
विशिष्ट पदार्थ एक वस्तु है
इसलिये अनेकविधान दोष नहीं आता है ।

अंगों का विधान भी अर्थात् सिद्ध हो जाता है ।
इस अर्थ को श्रीजैमिनिमहर्षि ने

“तद्गुणास्तु विधीयेरन् प्रविभागाद्विधानार्थे न चेदन्येन शिष्टाः "

इस सूत्र से बतलाया है ।

मूलम्

यथोक्तं तद्गुणास्ते विधीयेरन्नविभागाद्विधानार्थे न चेदन्येन शिष्टाः (पू.मी.सू.१.४.९) इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा

“यदाग्नेयोऽष्टाकपालः +++(ऽमावास्यायां पौर्णमास्यां चाच्युतो भवेति)+++” (तै.सं.२.६.३.४)

इत्य्-आदि-कर्म-विधौ
कर्मणो गुणानां चाप्राप्तत्वेन
सर्व-गुण-विशिष्टं कर्म विधीयते,

नीलमेघः

उदाहरण - “यदाग्नेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां पौर्णमास्यां चाच्युतो भवेति”
ऐसा एक वाक्य है ।
इस वाक्य से एक याग का विधान होता है ।
उस याग का देवता अग्नि है ।
आठ कपालों में संस्कृत होने वाला पुरोडाश
उस याग का द्रव्य है,
वह याग अमावस्या और पौर्णमासी में किया जाता है ।
यह सब अर्थ इस वाक्य से ही अवगत होते हैं
दूसरे किसी प्रमाण से अवगत नहीं होते हैं।
यहां इन अनेक अर्थों का विधान मानने पर
वाक्यभेद दोष आता है ।
उस दोष से बचने के लिये
वहाँ उपर्युक्त सर्वविशेषणों से विशिष्ट
एक याग का विधान माना गया है ।

मूलम्

यथा यदाग्नेयोऽष्टाकपालः (तै.सं.२.६.३.४) इत्यादिकर्मविधौ
कर्मणो गुणानां चाप्राप्तत्वेन सर्वगुणविशिष्टं कर्म विधीयते,

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथात्रापि
सूरिभिः सदा दृश्यत्वेन
विष्णोः परम-स्थानम्
+++(प्रमाणान्तरैर्)+++ अप्राप्तं प्रतिपादयतीति
न कश्चिद्विरोधः।

नीलमेघः

उसी प्रकार प्रकृत में भी
सर्वविशेषणविशिष्ट परमपद का विधान मानने पर
वाक्यभेद इत्यादि कोई भी दोष नहीं होगा ।
सूरियों को सदा दीखने वाले परमपद का प्रतिपादन
यह श्रुति करती है ।
ऐसा मानने पर कोई विरोध उपस्थित नहीं होता ।

मूलम्

तथात्रापि सूरिभिः सदा दृश्यत्वेन विष्णोः परमस्थानमप्राप्तं प्रतिपादयतीति न कश्चिद्विरोधः।

नाना-मन्त्रा अविरुद्धार्थ-बोधकाः

विश्वास-प्रस्तुतिः

करण-मन्त्राः, क्रियमाणानुवादिनः,
स्तोत्र-शस्त्र-रूपा जपादिषु विनियुक्ताश् च
प्रकरण-पठिताश् च अ-प्रकरण-पठिताश् च
स्वार्थं सर्वं यथावस्थितम् एवाप्राप्तम् अ-विरुद्धं
ब्राह्मणवद् बोधयन्तीति हि वैदिकाः ।
+++(तेन “तद्विष्णोः परमं पदम्” इति मन्त्रतोऽप्य् अर्थो ग्राह्यः। )+++

नीलमेघः - आक्षेपः

[[३६१]]
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
“तद्विष्णोः परमं पदम्” इत्यादि एक मन्त्र है,
अनुष्ठान करने योग्य धर्म का प्रकाशन करने के लिये
मन्त्र प्रवृत्त होते हैं ।
उस अर्थप्रकाशन में ही मन्त्र का तात्पर्य है,
मन्त्र शब्दशक्ति से जिस अर्थ का प्रतिपादन करता है,
उसमें मन्त्र का तात्पर्य नहीं है,
इस सिद्धान्त के अनुसार
“तद्विष्णोः” इत्यादि मन्त्र का भी
स्वार्थ में तात्पर्य नहीं हो सकता
ऐसी स्थिति में
इस मन्त्र से सूरि-दृश्य-परमपद की सिद्धि
कैसे हो सकती है ?

नीलमेघः - मन्त्रविभागः

इस प्रश्न के उत्तर में श्रीरामानुजस्वामी जी कहते हैं कि
वैदिकों का यह सिद्धान्त है कि मन्त्र नाना प्रकार के हैं
कई मन्त्र करण मन्त्र हैं
जो होम आदि का साधन हैं ।
कई मन्त्र किये जाने वाले कर्म का अनुवाद करते हैं,
वे क्रियमाणानुवादि कहलाते हैं ।
उदाहरण - " बहिर् देवसदनं दामि”
यह मन्त्र
की जाने वाली बर्हिर् लवन (कुशाओं को काटना) क्रिया का
प्रतिपादन करता है ।
कई मन्त्र स्तोत्र एवं शस्त्र के काम में आते हैं।

कई मन्त्र जप एवं अध्ययन आदि में विनियुक्त हैं ।
मन्द स्वर से होने वाला उच्चारण जप कहा जाता है ।
उच्च स्वर से होने वाला उच्चारण अध्ययन कहलाता है।

नीलमेघः - प्रकरणपठितता

कई मन्त्र किसी-किसी कर्म के प्रकरण में पठित हैं ।
कई प्रकरण में पठित नहीं हैं ।
इस प्रकार मन्त्र नाना प्रकार के होते हैं ।

नीलमेघः - प्रमाणान्तराविरुद्ध-बोधकत्वम्

ये सब तरह के मन्त्र शब्दशक्ति से
किसी न किसी अर्थ का प्रतिपादन अवश्य करते हैं ।
यदि वे अर्थ इतर प्रमाणों से अवगत न होने पर भी
इतर प्रमाणों से विरुद्ध नहीं होते हों
तो उन अर्थों को तात्विक मानना चाहिये ।
शास्त्र उन अर्थों का प्रतिपादन करने के लिये ही प्रवृत्त है,
जो अन्य प्रमाणों से अवगत नहीं हुये हों
तथा अन्य प्रमाणों से खण्डित नहीं होते हों ।
अन्य प्रमाणों से अवगत होने वाले अर्थों को बतलाने से
शास्त्र का महत्व नहीं बढ़ता,
प्रत्युत घटता है
क्योंकि शास्त्र में अनुवादकत्व दोष आ जाता है ।+++(5)+++
अन्य प्रमाणों से काटे जाने वाले अर्थों का प्रतिपादन
शास्त्र कर नहीं सकते
क्योंकि अप्रमाण बन जायेंगे ।+++(4)+++
इसलिये मानना पड़ता है कि
अन्य प्रमार्णो से सिद्ध न होने वाले
तथा अन्य प्रमाणों से नहीं काटे जाने वाले अर्थों का प्रतिपादक होने से ही
वेद आदि शास्त्र का वैशिष्ट्य सिद्ध होता है ।

मूलम्

करणमन्त्राः क्रियमाणानुवादिनः स्तोत्रशस्त्ररूपा जपादिषु विनियुक्ताश्च प्रकरणपठिताश्च अप्रकरणपठिताश्च स्वार्थं सर्वं यथावस्थितमेवाप्राप्तमविरुद्धं ब्राह्मणवद्बोधयन्तीति हि वैदिकाः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगीत-मन्त्र-साध्य–गुणि-निष्ठ–गुणाभिधानं स्तोत्रम्

नीलमेघः

गाये जाने वाले मन्त्रों के द्वारा देवता इत्यादि गुणवान पदार्थों के गुणों का वर्णन करना स्तोत्र कहलाता है ।

मूलम्

प्रगीतमन्त्रसाध्यगुणिनिष्ठगुणाभिधानं स्तोत्रम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अ-प्रगीत-मन्त्र-साध्य–गुणि-निष्ठ–गुणाभिधानं शस्त्रम्

नीलमेघः

जो मन्त्र नहीं गाये जाते हैं
उन मन्त्रों के द्वारा गुणवान देवता आदि पदार्थों के गुणों का वर्णन करना शस्त्र कहलाता है ।
स्तोत्र के काम में आने वाले मन्त्र स्तोत्र
तथा शस्त्र के काम में आने वाले मन्त्र शस्त्र कहलाते हैं ।

मूलम्

अप्रगीतमन्त्रसाध्यगुणिनिष्ठगुणाभिधानं शस्त्रम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनियुक्तार्थ-प्रकाशिनां च
देवतादिष्व् अ-प्राप्ताविरुद्ध-गुण-विशेष–प्रतिपादनं
विनियोगानुगुणम् एव ।

नीलमेघः

जो मन्त्र किसी-किसी कर्म में विनियुक्त हैं,
वे मन्त्र उस कर्म के देवता का प्रतिपादन करते हुये
उस देवता के ऐसे ऐसे गुणों का प्रतिपादन करते हैं
जो प्रमाणान्तर से अवगत नहीं हैं
तथा विरुद्ध भी नहीं हैं ।
उन गुणोँ का प्रतिपादन
देवता स्मरण में उपयुक्त होने से
विनियोग के अनुकूल रहता है ।

नीलमेघः - दीपोदाहरणम्

जिस प्रकार मंगलार्थ जलाये जाने पर भी
दीप की अर्थ प्रकाशन शक्ति कुण्ठित नहीं होती,
उसी प्रकार किसी भी कर्म में विनियुक्त होने पर भी
मन्त्र की अर्थ प्रकाशन शक्ति कुण्ठित नही होती ।+++(5)+++

नीलमेघः - निगमनम्

मन्त्र प्रतिपाद्य अपूर्व अर्थों को
तात्विक मानना ही न्यायानुमोदित है ।
यह वैदिकों का सिद्धान्त है ।
इस सिद्धान्त के अनुसार यही कहना पड़ता है कि
“तद्विष्णोः परमं पदम्”
यह मन्त्र सूरियों को सदा दिखाई देने वाले परमपद का प्रतिपादन करता है ।
इससे सदा देखने वाले नित्यसूरिगण
और श्रीभगवान का परमपद से पूर्व अर्थ सिद्ध होते हैं
उन्हें मानना वैदिकों को शोभादायक है ।

[[२९२]]

मूलम्

विनियुक्तार्थप्रकाशिनां च देवतादिष्वप्राप्ताविरुद्धगुणविशेषप्रतिपादनं विनियोगानुगुणमेव ।

न मुक्त-परा

नीलमेघः

“तद्विष्णोः " यह मन्त्र मुक्त का प्रतिपादक नहीं

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेयं श्रुतिर् मुक्त-जन-विषया -
तेषां सदा-दर्शनानुपपत्तेः ।

नीलमेघः - जीव-विभागः

यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
श्रीविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में
जीव तीन प्रकार के माने जाते हैं ।
(१) बद्ध जीव - जो संसार बन्धन में पड़े हैं ।
(२) मुक्त जीवजो संसार से छूट कर मुक्त हो गये हैं ।
(३) नित्य जीवजो कभी संसार में नहीं आये हैं न आने वाले ही हैं ।

अनन्त, गरुढ और विष्वक्सेन इत्यादि जीव नित्यजीव माने जाते हैं ।
यह सदा से मुक्त हैं,
इसलिये नित्यमुक्त कहलाते हैं ।
यह नित्यजीव ही नित्यसूरि कहे जाते हैं ।
इनको सिद्ध करने वाला प्रमाण “तद्विष्णोः परमं पदम् " यह मन्त्र है ।

नीलमेघः - सन्देहः

यह मन्त्र मुक्त जीवों को बतलाकर भी सार्थक हो जाता है
क्योंकि मुक्तजीव भी श्रीभगवान के पर पद का दर्शन करते रहते हैं ।
इस मन्त्र को नित्यसूरियों का प्रतिपादक क्यों मानना चाहिये ?
यह प्रश्न है ।

नीलमेघः

इस प्रश्न का उतर यह है कि
इस मन्त्र में श्रीविष्णु भगवान के परमपद का
सदा दर्शन करने वालों का वर्णन है ।
सदा दर्शन करने वाले नित्नसूरि ही हैं
मुक्त नहीं हैं
क्योंकि मुक्तजीव मुक्तिपद में पहुँचने के बाद ही
परमपद का दर्शन करते हैं
पहले नहीं।

संसार में रहते समय
उनको परमपद दिखाई नहीं देता ।

नित्यसूरिगण कभी संसार बन्धन में नहीं आते,
सदा श्रीवैकुण्ठ में ही रहते हैं ।
इसलिये उनको सदा परमपद का दर्शन होता रहता है।
इस श्रुति में सदा दर्शन करने वालों का उल्लेख है ।
वे नित्यसुरि ही हो सकते हैं, मुक्त नहीं ।

मूलम्

नेयं श्रुतिर्मुक्तजनविषया - तेषां सदादर्शनानुपपत्तेः ।

न मुक्त-प्रवाह-परा

नीलमेघः

“तद्विष्णोः " यह मन्त्र मुक्त प्रवाह का प्रतिपादक नहीं हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापि मुक्त-प्रवाह-विषया -
“सदा पश्यन्ति” (सुबा.६) इत्य् एकैक-कर्तृक-विषयतया प्रतीतेः श्रुति-भङ्ग-प्रसङ्गात् ।

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

यहाँ पर दूसरा प्रश्न यह उठता है कि
यह श्रुति मुक्तों के प्रवाह को बतलाती है ।
ऐसा अर्थ किया जा सकता है ।
इस अर्थ में उपर्युक्त दोष नहीं रहता है ।
भले प्रत्येक मुक्त सदा दर्शन नहीं कर सके
परन्तु मुक्तों का प्रवाह तो
दर्शन कर सकता है।
ऐसा तो संभव नहीं कि
किसी समय में किसी भी मुक्त ने दर्शन न किया हो।
कोई न कोई मुक्त तो दर्शन करते ही रहते हैं ।
इस लिये इस मन्त्र को मुक्त प्रवाह का प्रतिपादक मानना चाहिये।
इस मन्त्र से नित्यसूरियों की सिद्धि कैसे होती है ?
यह प्रश्न है ।

नीलमेघः

[[२९३]]
इसका यह उत्तर है कि
यह मन्त्र सदा देखने वाले सूरि व्यक्तियों का प्रतिपादन करता है।
इस मन्त्र से सरल रीति से यही प्रतीत होता है कि
प्रत्येक सूरिव्यक्ति सदा दर्शन करते रहते हैं ।
प्रवाहरूप से भले मुक्तों का तांता मान लिया जाय
परन्तु उनमें कोई भी मुक्त पुरुष
सदा दर्शन करने वाले नहीं हैं
किन्तु सबके सब - मुक्त होने के बाद ही
दर्शन करते हैं ।
सदा दर्शन करने वाले सूरिव्यक्तियों को
मुक्तव्यक्तियों से भिन्न ही मानना चाहिये ।

यदि इस श्रुति को मुक्त प्रवाह का प्रतिपदक माना जाय
तो श्रुति के स्वारस्य का भंग हो जाता है ।
इस मन्त्र से स्वरस अर्थ के अनुसार
नित्यसूरी अवश्य सिद्ध होते हैं,
क्लिष्ट अर्थ करके
स्वरसार्थ को काटना वैदिक सम्मत नहीं है ।+++(5)+++

मूलम्

नापि मुक्तप्रवाहविषया -
सदा पश्यन्ति (सुबा.६) इत्येकैककर्तृकविषयतया प्रतीतेः श्रुतिभङ्गप्रसङ्गात् ।

मन्त्रैस् सिद्ध-वस्तु-सिद्धिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्र+अर्थवाद–गता ह्य् +++(ब्रह्मादि-सिद्ध-विषयका)+++ अर्थाः कार्य-परत्वेऽपि +++(तद्-उपयोगितया)+++ सिद्ध्यन्तीत्य् उक्तम्।+++(5)+++

नीलमेघः

पहले ही यह बात बता दी गई है कि
भले वेद कार्य पदार्थ को बतलाने के लिये प्रवृत्त हों
तो भी कार्योपयोगी होने के कारण
उन सिद्ध अर्थों की भी सिद्धि हो जाती है
जो मन्त्र और अर्थवादों से प्रतिपादित हैं ।+++(5)+++

इस दृष्टि से विचार करने पर यही कहना पड़ता है कि
कार्यवाक्यार्थवादी पूर्वमीमांसकों भी
मन्त्रार्थवाद प्रतिपादित परम-पद इत्यादि सिद्धार्थों को
मानना चाहिये ।

मूलम्

मन्त्रार्थवादगता ह्यर्थाः कार्यपरत्वेऽपि सिद्ध्यन्तीत्युक्तम्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पुनः सिद्ध-वस्तुन्य् एव तात्पर्ये व्युत्पत्ति-सिद्धय्?
+++(सुतरां सिद्ध-वस्तूनि ज्ञापयेयुस् तादृशानि वाक्यानि। )+++

इति सर्वम् उपपन्नम् ।

नीलमेघः

सिद्धान्त में सिद्धवस्तु में
शब्दों का तात्पर्य सिद्ध किया गया है ।
वेद सिद्ध अर्थ का प्रतिपादन कर सकता हैं ।
सिद्धान्त के अनुसार परमपद और नित्यसूरि इत्यादि सिद्ध अर्थों की सिद्धि में
कुछ भी बाधा नहीं पड़ती।
इसलिये परब्रह्म परमपद मौर नित्यसूरि इत्यादि सभी अर्थ
मान्य हो जाते हैं ।

मूलम्

किं पुनः सिद्धवस्तुन्येव तात्पर्ये व्युत्पत्तिसिद्ध इति सर्वमुपपन्नम् ।

परम-पद-शब्दार्थाः

नीलमेघः

परमपद की त्रिविधता तथा नित्यसूरियों के विषय में प्रमाण

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु चात्र “तद्विष्णोः परमं पदम्” (सुबा.उ.६)
इति पर-स्वरूपम् एव परम-पद-शब्देनाभिधीयते -

समस्त-हेय-रहितं
विष्ण्व्-आख्यं परं पदम् (वि.पु.१.२२.५३)

इत्यादिष्व् अव्यतिरेक-दर्शनात् ।

नीलमेघः

यहां पर यह पूर्वपक्ष उपस्थित होता है कि
" तद्विष्णोः परमं पदम् "
इस मन्त्र से दिव्यस्थान प्रतिपादित नहीं होता है
किन्तु श्रीविष्णुभगवान का दिव्यात्मस्वरूप ही प्रतिपादित होता है
क्योंकि वह परमप्राप्य होने से परमपद कहा जाता है ।
पदशब्द प्राप्य का वाचक है ।
श्रीविष्णुपुराण में श्रीविष्णुभगवान को परमपद कहा गया है ।
इसलिये इस मन्त्र में परमपद शब्द से
श्रीविष्णुभगवान के स्वरूप का प्रतिपादन ही उचित है।
विष्णुपुराण का वह वचन यह है कि-

“समस्त हेयरहितं विष्ण्वाख्यं परमं पदम् "

अर्थात्

विष्णु नाम वाला एक दोषरहित परमपद अर्थात् परमप्राप्य वस्तु हैं ।

[[२९५]]
इस श्लोक में विष्णु और परमपद में ऐक्य सिद्ध होता है क्योंकि परमपद की विष्णु नाम वाला कहा गया है।
इससे सिद्ध होता है कि
श्रीभगवत्स्वरूप ही परमपद कहा जाता है ।
उसी का इस मन्त्र में वर्णन है,
दिव्यस्थान का नहीं ।
यह पूर्वपक्ष है ।

मूलम्

ननु चात्र “तद्विष्णोः परमं पदम्” (सुबा.उ.६) इति परस्वरूपमेव परमपदशब्देनाभिधीयते - समस्तहेयरहितं विष्ण्वाख्यं परं पदम् (वि.पु.१.२२.५३) इत्यादिष्वव्यतिरेकदर्शनात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवम् ।

क्षयन्तम्+++(=वसन्तम्)+++ अस्य रजतः पराके (तै.सं.२.३,१२.१८),

नीलमेघः

इसका समाधान यह है कि
दिव्यस्थान का अपलाप तो हो नहीं सकता है
क्यों कि वह अनेक प्रमाण वचनों से प्रमाणित है ।
वे वचन चे हैं कि
“क्षयन्तमस्य रजसः पराके” “तदक्षरे परमे व्योमन्” “योऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन्” “यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्” इत्यादि ।
अर्थात् — इस रजोमय प्रकृतिमण्डल के ऊपर स्थान में श्रीभगवान निवास करते हैं ।

मूलम्

नैवम् ।
क्षयन्तमस्य रजतः पराके (तै.सं.२.३,१२.१८),

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदक्षरे परमे व्योमन् (तै.ना.उ.१.२),

नीलमेघः

अविनाशी परमाकाश में श्रीभगवान रहते हैं ।

मूलम्

तदक्षरे परमे व्योमन् (तै.ना.उ.१.२),

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो अस्याध्याक्षः परमे व्योमन् (तै.ब्रा.२.८.९.६),

नीलमेघः

इस विश्व के अध्यक्ष भगवान
परमाकाश में रहते हैं

मूलम्

यो अस्याध्याक्षः परमे व्योमन् (तै.ब्रा.२.८.९.६),

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् (तै.उ.आ.१.१)

नीलमेघः

जो साधक परब्रह्म को हृदय गुहा में अवस्थित समझकर ध्यान करता है,
वह परमाकाश में पहुँचकर
वहाँ कल्याणगुणों के साथ
परब्रह्म का अनुभव करता रहता है ।

मूलम्

यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् (तै.उ.आ.१.१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

… इत्यादिषु परमस्थानस्यैव दर्शनम् ।

नीलमेघः

इन वचनों से श्रीभगवान का निवासस्थान सिद्ध होता है ।
उसका अपलाप नहीं हो सकता ।

मूलम्

इत्यादिषु परमस्थानस्यैव दर्शनम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्विष्णोः परमं पदम् इति व्यतिरेकनिर्देशाच् च ।

नीलमेघः

“तद्विष्णोः परमं पदम्” यह श्रुति वाक्य कहता है कि
विष्णु का परमपद इससे विष्णु और परमपदं में भेद सिद्ध होता है
यह श्रुति परमपद शब्द से स्वरूप को नहीं बता सकती
क्योंकि वैसा मानने पर भेद खण्डित हो जाता है ।
इसलिये इस श्रुति से विष्णु के स्वरूप से अतिरिक्त
परमपद का प्रतिपादन मानना ही युक्त है ।

मूलम्

तद्विष्णोः परमं पदम् इति व्यतिरेकनिर्देशाच्च ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्ण्वाख्यं परमं पदम् (वि.पु.१.२२.५३)

इति विशेषणाद्
अन्यद् अपि +++(विष्णु-स्वरूपाद्/ विष्णु-वाच्याद् भिन्नम्)+++ परमं पदं विद्यत
इति च तेनैव ज्ञायते ।

नीलमेघः

किंच, विष्णुपुराण के श्लोक में विष्णु नाम वाले परमपद के उल्लेख से
यही प्रतीत होता है कि
दूसरा भी एक परमपद है
जिससे भेद दिखलाने के लिये “विष्णु नाम वाले” ऐसा विशेष दिया है।
दूसरे से भेद को बतलाने के लिये ही
विशेषण का प्रयोग हुआ करता है ।
वह दूसरा परमपद
दिव्यस्थान ही है
इससे सिद्ध होता है कि विष्णुपुराण को दिव्यस्थान अभिमत है ।

मूलम्

विष्ण्वाख्यं परमं पदम् (वि.पु.१.२२.५३) इति विशेषणादन्यदपि परमं पदं विद्यत इति च तेनैव ज्ञायते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् इदं परस्थानं सूरिभिः सदा दृश्यत्वेन प्रतिपाद्यते +++(विष्णु-पुराणय् एव)+++।

(‘एकान्तिनः सदा ब्रह्म-
ध्यायिनो योगिनो हि ये ।
तेषां तत् परमं स्थानं
यद्वै पश्यन्ति सूरयः ॥)

नीलमेघः

इतना ही नहीं
किन्तु विष्णुपुराण में दिव्यस्थान का स्पष्ट उल्लेख है ।
वह यह है कि-

‘एकान्तिनः सदा ब्रह्म-
ध्यायिनो योगिनो हि ये ।
तेषां तत् परमं स्थानं
यद्वै पश्यन्ति सूरयः ॥

अर्थात् अनन्य होकर
सदा ब्रह्म ध्यान करने वाले जो योगी हैं
उनको वह परमस्थान प्राप्त होता है,
जिसका दर्शन सूरिगण करते हैं ।
इस श्लोक में “यद्वै पश्यन्ति सूरयः” कहकर
श्रुति में अन्तर्गत “सदा पश्यन्ति सूरयः” की व्याख्या की गई है ।
इससे सिद्ध होता है कि
श्रीविष्णुपुराण उस श्रुति को दिव्यस्थाननरक मानकर व्याख्या करता है ।
विष्णुपुराण मत के अनुसार
यही मानना पड़ता है कि
" तद्विष्णोः परमं पदम् "
यह श्रुति दिव्यस्थान का ही वर्णन करती है ।

मूलम्

तदिदं परस्थानं सूरिभिः सदा दृश्यत्वेन प्रतिपाद्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् उक्तं भवति –
क्वचित् पर-स्थानं परम-पद-शब्देन प्रतिपाद्यते,
क्वचित् प्रकृति-वियुक्तात्म-स्वरूपं,
क्वचिद् भगवत्-स्वरूपम् ।

नीलमेघः

श्रीविष्णुपुराण में तीन परमपदों का वर्णन मिलता है।

मूलम्

एतदुक्तं भवति – क्वचित्परस्थानं परमपदशब्देन प्रतिपाद्यते, क्वचित्प्रकृतिवियुक्तात्म-स्वरूपं, क्वचिद्भगवत्स्वरूपम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्विष्णोः परमं पदं
सदा पश्यन्ति सूरयः (सुबा.उ.६)

इति परस्थानम् ।

नीलमेघः

(१) एक परमपद दिव्यस्थान है जिसका वर्णन “एकान्तिनः सदा ब्रह्म-ध्यायिनः” इस श्लोक में है
तथा “तद्विष्णोः परमं पदम् " इस श्रुति वाक्य में भी हैं।

मूलम्

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः (सुबा.उ.६) इति परस्थानम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्ग-स्थित्य्-अन्त-कालेषु
त्रि-विधैव प्रवर्तते
गुण-प्रवृत्त्या, परमं
पदं तस्यागुणं महत् ॥ (वि.पु.१.२२.४१)

इत्यत्र प्रकृति-वियुक्तात्म-स्वरूपम् ।

नीलमेघः

(२) दूसरा परमपद बह परिशुद्ध-जीवात्म-स्वरूप है
जो प्रकृति से परे है ।
उसका एक श्लोक में वर्णन है
वह यह है कि-

" सर्गस्थित्यन्तकालेषु त्रिधैव संप्रवर्तते ।
गुणप्रवृत्त्या परमं पदं तस्यागुणं महत् ॥२९६

अर्थात्-

सत्त्व रज और तम इन गुणों की प्रवृत्ति के अनुसार
सृष्टि स्थिति और प्रलय के कालों में इस प्रकार तीन प्रकार की प्रवृत्ति
जीवात्मा को होती रहती है ।
जीवात्मा का स्वपरिशुद्ध स्वरूप इन गुणों से रहित एवं महान है ।
वह भी परमपद है ।

मूलम्

सर्गस्थित्यन्तकालेषु त्रिविधैव प्रवर्तते । गुणप्रवृत्त्या परमं पदं तस्यागुणं महत् ॥ (वि.पु.१.२२.४१) इत्यत्र प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

समस्त-हेय-रहितं
विष्ण्व्-आख्यं परमं पदम् ॥ (वि.पु.१.२२.५३)

इत्यत्र भगवत्-स्वरूपम् ।

नीलमेघः

(३) तीसरा परमपद सर्व दोष रहित भगवत्स्वरूप है
जिसका विष्णु ऐसा नाम है ।
इस परमपद का वर्णन “समस्तहेयरहितम्” इस पूर्वोदाहृत श्लोक में है ।

मूलम्

समस्तहेयरहितं विष्ण्वाख्यं परमं पदम् ॥ (वि.पु.१.२२.५३) इत्यत्र भगवत्स्वरूपम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रीण्य् अप्य् एतानि परम-प्राप्यत्वेन परम-पद-शब्देन प्रतिपाद्यन्ते।

मूलम्

त्रीण्यप्येतानि परमप्राप्यत्वेन परमपदशब्देन प्रतिपाद्यन्ते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं त्रयाणां परम-प्राप्यत्वम् इति चेत् -
भगवत्-स्वरूपं परम-प्राप्यत्वाद् एव परमं पदम्,
इतरयोर् अपि भगवत्-प्राप्ति-गर्भत्वाद् एव परम-पदत्वम् ।

नीलमेघः

[[२९४]]

इस प्रकार परमपद तीन हैं।
ये तीनों परमप्राप्य होने से परमपद कहलाते हैं ।
भगवत्स्वरूप परमप्राप्य है ।
इसे सब मानते हैं, इसमें विवाद नहीं है ।
दिव्यस्थान में जाने पर ही
जीव अत्यन्त परिशुद्ध बनकर उस भगवत्स्वरूप को प्राप्त करता है ।
दिव्यस्थान प्राप्ति परिशुद्धात्मस्वरूप प्राप्ति और भगवत्स्वरूप प्राप्ति
तीनों एक साथ होती हैं ।
एक दूसरे को छोड़कर नहीं हो सकती ।
भगवत्प्राप्ति में
और दोनों प्राप्ति अन्तर्गत हो जाती हैं ।
सर्व-कर्म-बन्ध से छूटे हुये परिशुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति
भगवत्प्राप्ति को लेकर हुआ करती है ।
इसलिये ये तीनों एक साथ प्राप्य होने से
तथा श्रेष्ठ प्राप्य होने से
परमपद कहलाते हैं ।+++(4)+++

मूलम्

कथं त्रयाणां परमप्राप्यत्वमिति चेत् -
भगवत्स्वरूपं परमप्राप्यत्वादेव परमं पदम् ।
इतरयोरपि भगवत्प्राप्तिगर्भत्वादेव परमपदत्वम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व-कर्म-बन्ध-विनिर्मुक्तात्म–स्वरूपावाप्तिः भगवत्-प्राप्ति-गर्भा -

त इमे सत्याः कामा
अ-नृत+++(→कर्म)++++अपिधानाः (छा.उ.८.३.१)

इति भगवतो गुण-गणस्य तिरोधायकत्वेन
अनृत-शब्देन स्व-कर्मणः प्रतिपादनात् ।

नीलमेघः

परिशुद्धात्मस्वरूपप्राप्ति एवं भगवत्प्राप्ति का प्रतिबन्धक
कर्म हैं ।
सब कर्म जब नष्ट हो जाते हैं
तब परिशुद्धात्म-स्वरूप-प्राप्ति एवं भगवत्प्राप्ति दोनों साथ होती हैं
वह भी दिव्यस्थान में पहुँचने के बाद होती है ।

उपनिषद् में “त इमे सत्याः कामा अनृतापिधानाः” कहकर
यह बतलाया गया है कि
श्रीभगवान के ये सब सत्यकल्याणगुण
कर्म से तिरोहित रहते हैं
अतएव बद्धजीवों को
उनका अनुभव प्राप्त नहीं होता ।
श्रुति में अनृतशब्द से कर्म का वर्णन है ।

मूलम्

सर्वकर्मबन्धविनिर्मुक्तात्मस्वरूपावाप्तिः भगवत्प्राप्तिगर्भा “त इमे सत्याः कामा अनृतापिधानाः” (छा.उ.८.३.१) इति भगवतो गुणगणस्य तिरोधायकत्वेनानृतशब्देन स्वकर्मणः प्रतिपादनात् ।

अनृतम् = कर्म

विश्वास-प्रस्तुतिः

“अनृत-रूप–तिरोधानं क्षेत्र-ज्ञ-कर्मे"ति
कथम् अवगम्यत

इति चेत् …

नीलमेघः

यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि
तिरोधान करने वाला अनृत जीवों का कर्म ही हैं
यह कैसे विदित होता है ?
इसमें क्या प्रमाण है ?

मूलम्

अनृतरूपतिरोधानं क्षेत्रज्ञकर्मेति कथमवगम्यत इति चेत् …

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविद्या कर्मसंज्ञान्या
तृतीया शक्तिर् इष्यते । (वि.पु.६.७.६१) +++(5)+++
यया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा
वेष्टिता नृप सर्वगा ॥
संसार-तापान् अखिलान्
अवाप्नोत्य् अति-सन्ततान् । (वि.पु.६.७.६२)
तया तिरोहितत्वाच्च

इत्यादिवचनात्।

नीलमेघः

इस प्रश्न का उत्तर यह है कि
श्रीविष्णुपुराण के वचन से
उपर्युक्त अर्थ प्रमाणित होता है ।

वह यह है कि

अविद्या कर्मसंज्ञान्या
तृतीया शक्तिर् इष्यते । (वि.पु.६.७.६१) +++(5)+++
यया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा
वेष्टिता नृप सर्वगा ॥
संसार-तापान् अखिलान्
अवाप्नोत्य् अति-सन्ततान् । (वि.पु.६.७.६२)
तया तिरोहितत्वाच्च

अर्थात्

कर्म-नामवाली अविद्या
तीसरी शक्ति मानी जाती है ।
हे राजन् ! सर्वत्र रहने वाली आत्मशक्ति
जिस कर्मनामक अविद्या से वेष्टित होकर
लगातार होने वाले
सब तरह के संसार तापों को भोगती है।
कर्म नामक अविद्या से तिरोहित होने के कारण
यह सब होता है ।

इस वचन हैं सिद्ध होता है कि
संसार का कारण कर्म है ।
पूर्णरूप से कर्म नष्ट होने पर
परिशुद्धात्म–स्व-रूप–प्राप्ति एवं भगवत्-प्राप्ति अवश्य सिद्ध होगी ।

मूलम्

अविद्या कर्मसंज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते । (वि.पु.६.७.६१) यया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता नृप सर्वगा ॥
संसारतापानखिलान् अवाप्नोत्यतिसंततान् । (वि.पु.६.७.६२)
तया तिरोहितत्वाच्च (वि.पु.६.७.६३)

इत्यादिवचनात्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर-स्थान-प्राप्तिर् अपि
भगवत्-प्राप्ति-गर्भैवेति सुव्यक्तम् ।

नीलमेघः

परम-स्थान में पहुँचने पर ही
भगवत्-प्राप्ति होगी
अत एव परिशुद्धात्म-स्वरूप भगवत्-स्वरूप और दिव्य-स्थान
ये तीनों परमपद कहे गये हैं ।
इन तीनों की प्राप्ति एक दूसरे के साथ गुथी हुई हैं ।

मूलम्

परस्थानप्राप्तिरपि भगवत्प्राप्तिगर्भैवेति सुव्यक्तम् ।