विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः (सुबा.उ.६),
नीलमेघः
अर्थात् -श्रीविष्णु भगवान का प्रसिद्ध एक परमस्थान है,
नित्य-सूरिगण सदा जिसका साक्षात्कार करते रहते हैं।
इस वचन से श्रीभगवान का दिव्यस्थान
तथा श्रीभगवान के परिजन नित्यसूरिगण सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः (सुबा.उ.६),
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षयन्तम्+++(=वसन्तम्)+++ अस्य रजसः पराके (तै.सं.२.२.१२.१८),
नीलमेघः
अर्थात्-इस रजोगुणमय प्रकृति के ऊपर
श्रीभगवान निवास करते हैं ।
इस वचन से सिद्ध होता होता है कि वह परमपद प्रकृति के ऊपर है ।
मूलम्
क्षयन्तम् अस्य रजसः पराके (तै.सं.२.२.१२.१८),
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् एकम् अ-व्यक्तम् अ-नन्तरूपं
विश्वं पुराणं तमसः परस्तात् (तै.ना.उ.१.५),
नीलमेघः
अर्थात्–श्रीभगवान का एक नित्य नव अनन्त विश्वव्यापक दिव्यरूप,
तम अर्थात् प्रकृति के ऊपर है,
वह चक्षु आदि इन्द्रियों से व्यक्त नहीं होता है ।
मूलम्
यदेकमव्यक्तमनन्तरूपं विश्वं पुराणं तमसः परस्तात् (तै.ना.उ.१.५),
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् (तै.उ.आ.१.१),
नीलमेघः
परमाकाश परमपद में विराजमान श्रीभगवान
हृदयगुहा में अवस्थित हैं ।
ऐसा जो जानता है
वह परमात्मा के साथ
सर्वकल्याणगुणों का अनुभव करता है ।
मूलम्
यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् (तै.उ.आ.१.१),
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन् (तै.ब्रा.२.८.९.६),
मूलम्
योऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन् (तै.ब्रा.२.८.९.६),
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एव भूतं
तद् उ भव्यम्
आ इदं तद्-अक्षरे परमे व्योमन् (तै.ना.उ.१.२)+++(5)+++
नीलमेघः
अर्थात्-
भूत और भविष्य
यह सब जगत परमात्मा ही है
अर्थात् परमात्मा का शरीर है ।
वह परमात्मा अविनाशी परमाकाश परमपद में विराजमान हैं।
मूलम्
तदेव भूतं तदु भव्यमा इदं तदक्षरे परमे व्योमन् (तै.ना.उ.१.२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्य्-आदि-श्रुति-शत-निश्चितो ऽयम् अर्थः ।
नीलमेघः
इस प्रकार की सैकड़ों श्रुतियों से
उपर्युक्त सभी अर्थ सिद्ध होते हैं
इस प्रकार श्री भाष्यकारस्वामी जी ने
श्रुतियों के आधार पर
श्रीभगवान के दिव्यरूप, दिव्यमहिषी और दिव्यस्थान
इत्यादि अर्थों को सिद्ध किया है ।
मूलम्
इत्यादिश्रुतिशतनिश्चितोऽयमर्थः ।