विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाहम् एतं पुरुषं महान्तम्
आदित्य-वर्णं तमसः परस्तात्
(तै.आ.पु.३.१३.२),
नीलमेघः
प्रकृति के ऊपर रहने वाले
तथा सूर्य के समान वर्ण वाले
इस महापुरुष श्रीभगवान को
हम जानते हैं ।
यहां आदित्यवर्णं शब्द से श्रीभगवान का दिव्यरूप वर्णित है ।
मूलम्
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् (तै.आ.पु.३.१३.२),
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एषो ऽन्तर् आदित्ये हिरण्मयः पुरुषः ।
नीलमेघः
अर्थातये जो सूर्यमण्डल के अन्दर स्वर्ण समान विग्रह वाले पुरुष दिखाई देते हैं ।
मूलम्
य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य यथा क-प्य्+++(→सूर्य)+++-आसं पुण्डरीकम्
एवम् अक्षिणी । (छा.उ.१.६.६.७)
नीलमेघः
सूर्य से विकसित कमल जिस प्रकार शोभा पाता है
उस प्रकार के उनके नेत्र हैं ।
इस वाक्य से सूर्यमण्डल में विद्यमान नारायण भगवान का रूप वर्णित है ।
मूलम्
तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी । (छा.उ.१.६.६.७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एषो ऽन्तर् हृदय आकाशस्
तस्मिन्न् अयं पुरुषो मनोमयो+++(=विशुद्ध-मनो-ग्राह्यो)+++ ऽमृतो हिरण्मयः ।
(तै.उ.शी.६.१)
नीलमेघः
[[२८७]]
अर्थात् - यह जो हृदय के अन्दर आकाश है
उसमें वह पुरुष विराजमान हैं
जो विशुद्ध मन से ही
गृहीत हो सकते हैं ।
वे अमृत हैं तथा स्वर्ण के समान विग्रह वाले हैं।
इस वाक्य में “हिरण्मय” शब्द से श्रीभगवान का दिव्यविग्रह वर्णित है ।
मूलम्
य एषो ऽन्तर् हृदय आकाशस्तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयोऽमृतो हिरण्मयः । (तै.उ.शी.६.१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
“मनोमय” इति
“मनसैव विशुद्धेन गृह्यत” इत्यर्थः
मूलम्
मनोमय इति मनसैव विशुद्धेन गृह्यत इत्यर्थः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे निमेषा जज्ञिरे
विद्युतः पुरुषाद् अधि (तै.ना.उ.११.११)
नीलमेघः
अर्थात् — विद्युत् के समान वर्ण वाले पुरुष से
सभी निमेष इत्यादि उत्पन्न हुये हैं ।
मूलम्
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि (तै.ना.उ.११.११)
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्युद्-वर्णात् पुरुषाद् इत्य् अर्थः
नीलमेघः
यहाँ “विद्युतः " इस शब्द से श्रीभगवान का दिव्यरूपं वर्णित है ।
मूलम्
विद्युद्-वर्णात् पुरुषाद् इत्य् अर्थः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नील-तोय-द-मध्यस्था
विद्युल्-लेखेव भास्वरा (तै.ना.उ.११.११)
नीलमेघः
अर्थात् - हृदय कमल के मध्य में विद्यमान आकाश में
एक वह्निज्वाला है
जिसके मध्य में
नील मेघ के समान विग्रह से युक्त
परमात्मा विराजमान है
मूलम्
नील-तोय-द-मध्यस्था
विद्युल्-लेखेव भास्वरा (तै.ना.उ.११.११)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्य-स्थ–नील–तोय-दा
विद्युल्-लेखेव सेयं दहर-पुण्डरीक-मध्य-स्थाकाश-वर्तिनी वह्नि-शिखा,
स्वान्तर्-निहित–नील-तोयदाभ–परमात्म-स्वरूपा
स्वान्तर्-निहित-नील-तोयदा
विद्युद् इवाभातीत्य् अर्थः ।
नीलमेघः
ऐसे परमात्मा को
मध्य में धारण करने वाली वह वह्नि-ज्वाला
उस विद्युत् के समान चमकती है
जिसके अन्दर नीलमेघ विराजमान हो ।
नीलमेघः - अभूतोपमा
यह अभूतोपमा है
क्योंकि मेघ में विद्यत् का विराजना प्रसिद्ध है,
विद्युत में मेघ की स्थिति असंभावित है ।+++(5)+++
यदि मेघ को अन्दर लेती हुई कोई विद्युत हो
तो वह इस वह्निशिखा -
जो नीलमेघ के समान विग्रह वाले परमात्मा को
अन्दर धरण करती है -
का उपमान हो सकता है ।
ऐसे भाव को लेकर
यहाँ उपमान कहा गया है ।
अतएव यह अभूतोपमा कहलाती है ।
इस मन्त्र में
“नीलतोयद” शब्द से
नीलमेघश्यामल श्रीभगवद्-विग्रह का वर्णन है ।
मूलम्
मध्यस्थनीलतोयदा विद्युल्लेखेव सेयं दहरपुण्डरीकमध्यस्थाकाशवर्तिनी वह्निशिखा, स्वान्तर्निहित-नीलतोयदाभपरमात्मस्वरूपा स्वान्तर्निहितनीलतोयदा विद्युदिवाभातीत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोमयः+++(=विशुद्ध-मनो-ग्राह्यो)+++, प्राण-शरीरो, भा-रूपः,
सत्य-कामः, सत्य-संकल्पः,
आकाशात्मा,
सर्व-कर्मा, सर्व-कामः,
सर्व-गन्धः, सर्व-रसः,
सर्वम् इदम् अभ्यात्तो +++(तत एव)+++ ऽवाक्य् अनादरः (छा.उ.३.१४.२),
नीलमेघः
(६) “मनोमयः प्राणशरीरो भारूपः सत्यसंकल्प प्राकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः सर्वमिदम् अभ्यातोऽवाक्यनादरः”
अर्थात् — उपासक इस प्रकार
परमात्मा की उपासना करें कि
परमात्मा विशुद्ध मन से प्राप्य होने वाले हैं,
प्राणों के धारक हैं,
भास्वर रूप वाले हैं,
अ-प्रतिहत संकल्प वाले हैं।
आकाश के समान
सूक्ष्म एवं स्वच्छ स्वरूप वाले हैं,
यद्वा आकाश के अन्तरात्मा हैं
अथवा सर्वत्र स्वयं प्रकाशित होने वाले हैं
साथ ही दूसरों को भी प्रकाशित करने वाले हैं ।
यह संपूर्ण जगत उनकी कृति है
अथवा सभी कर्म उनका आराधन हैं,
उनसे वे आराधित होने वाले हैं ।
सर्वविध अभीष्ट भोग्य और भोगोपकरण इत्यादि से संपन्न हैं ।
अपने असाधारण निर्दोष अत्युत्तम अप्राकृत मंगलमय गन्ध एवं रसों से संपन्न हैं।
इस प्रकार इन सभी कल्याणगुणों को वे अपनाये हुये हैं ।
वे सापेक्ष हो कर
कुछ भी नहीं बोलते हैं
क्योंकि परिपूर्ण होने से
उनको किसी से कोई प्रयोजन नहीं है ।
अतएव वे परिपूर्ण ऐश्वर्य से संपन्न होने के कारण
ब्रह्मा से लेकर स्तम्ब-पर्यन्त
संपूर्ण अगत को तृण समझकर
चुपचाप विराजमान रहते हैं ।
इस प्रकार उपासक परमात्मा की उपासना करें ।
इस वचन में “भारूपः” इत्यादि शब्दों से
श्रीभगवान के अप्राकृतरूप
एवं रसगन्ध वर्णित हैं ।
मूलम्
मनोमयः प्राणशरीरो भारूपः, सत्यकामः सत्यसंकल्पः, आकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः सर्वमिदम् अभ्यात्तोऽवाक्यनादरः (छा.उ.३.१४.२),
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य … माहा-रजनं वास (बृ.उ.४.३.६)
इत्य्-आद्याः ।
नीलमेघः
(७) “तस्य माहारजनं वासः”
संपूर्ण श्रुतिवाक्य इस प्रकार है कि
“तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपं
यथा माहारजनं वासो
यथा पाण्ड्व्-आविकं
यथेन्द्रगोपो
यथाग्न्य्-अर्चिर्
यथा पुण्डरीकं
यथा सकृद् विद्युत्तं"
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अर्थात् -
उस परमात्मा का
एक सुन्दर रूप अर्थात दिव्यविग्रह है,
वह हरिद्रा-रञ्जित वस्त्र के समान है
अथवा श्वेत-कम्बल के समान है,
अथवा इन्द्रगोप कृमि के समान है,
यद् वा अग्नि-ज्वाला के समान है,
अथवा कमल के समान है,
यद्वा एक-दम चमकने वाली विद्युत् के समान है ।
इस प्रकार विविध दृष्टान्तों को कहकर
इस श्रुति ने
श्रीभगवान के दिव्यरूप का वर्णन किया है ।
इन सब श्रुतियों से
श्री भगवान का दिव्य मंगलविग्रह सिद्ध किया है ।
मूलम्
तस्य … माहारजनं वास (बृ.उ.४.३.६) इत्याद्याः ।