०१ वर्णनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैतस्य परस्य ब्रह्मणो नारायणस्य

नीलमेघः

नित्य विभूति को सिद्ध करते हुये
श्रीरामानुजस्वामी जी ने कहा कि
यहाँ तक के विचारों से
यह सिद्ध हो गया है कि
एक परब्रह्म प्रामाणिक है
वह श्रीमन्नारायण ही है ।

मूलम्

तस्यैतस्य परस्य ब्रह्मणो नारायणस्य

विश्वास-प्रस्तुतिः

+अ-परिच्छेद्य-ज्ञानानन्दामलत्व–स्व-रूपवज्–

नीलमेघः

परब्रह्म श्रीमन्नारायण का स्वरूप
अपरिच्छेद्य निर्मल एवं ज्ञानानन्दमय है ।

मूलम्

+अपरिच्छेद्यज्ञानानन्दामलत्वस्वरूपवज्

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञान-शक्ति-बलैश्वर्य-वीर्य-तेजः-प्रभृत्य्-
अनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण-गुणवत्–

नीलमेघः

परब्रह्म श्रीमन्नारायण में
ज्ञान, शक्ति, बल ऐश्वर्य, वीर्य, तेज इत्यादि
अपारमहिमसंपन्न अनन्त असंख्य कल्याण गुण विद्यमान हैं,

मूलम्

ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजःप्रभृत्यनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणवत्

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्व-संकल्प-प्रवर्त्य–स्वेतर-समस्त-चिद्–अ-चिद्-वस्तु-जातवत्–

नीलमेघः

एकमात्र परब्रह्म श्रीमन्नारायण को छोड़कर
सभी चेतन एवं अचेतन पदार्थों का समूह
श्री परब्रह्म के संकल्प से ही
सत्ता स्थिति और प्रवृति को पाते हुये
उनके अत्यन्त परतन्त्र बन कर रहते हैं ।

इस प्रकार
परब्रह्म उसका स्वरूप गुण और चेतनाचेतन प्रपञ्चमय विभूति
दिव्यभूषण दिव्यायुध दिव्यमहिषी दिव्यपरिजन उपकरण एवं दिव्यविभूति ये पदार्थ भी परम प्रामाणिक हैं।

ये पदार्थ प्रमाणिक हो जाते हैं।
ये जिस प्रकार प्रामाणिक हैं
वैसे ही श्रीमन्नारायण भगवान का दिव्यरूप
इनका स्वीकार करना ही वैदिक आस्तिकों को शोभा देता है ।

मूलम्

स्वसंकल्पप्रवर्त्यस्वेतरसमस्तचिदचिद्वस्तुजातवत्

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाभिमत-स्वानुरूपैक-रूप–दिव्य-रूप–

नीलमेघः

श्रीभगवान का साकार दिव्यरूप इस प्रकार है कि
वह श्रीभगवान को अत्यन्त अभिमत रहता है
तथा श्रीभगवान का अनुरूप भी है ।
लोक में देखा जाता है कि
कोई पदार्थ किसी को अभिमत रहता है
किंतु वह उसका अनुरूप नहीं रहता है,
कोई पदार्थ अनुरूप रहता है,
वह अभिमत नहीं है ।
परन्तु वहाँ वैसी बात नहीं ।
श्रीभगवान का दिव्यरूप अभिमत एवं अनुरूप है ।

यहाँ दिव्य-रूप
सदा एक रूप से रहता है,
वह किसी भी अवस्था में
अपनी निर्दोषता एवं कल्याणगुणाकारता को नहीं छोड़ता है।

मूलम्

स्वाभिमतस्वानुरूपैकरूपदिव्यरूप

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्-उचित-निरतिशय-कल्याण-विविधानन्त-भूषण–

नीलमेघः

श्री भगवान के दिव्य भूषण
इस प्रकार के हैं कि
वे श्रीभगवान के अत्यन्त अनुरूप हैं,
उनसे श्रीभगवान शोभा पाते हैं
तथा श्रीभगवान से वे शोभा पाते हैं,
वे अत्यन्त मंगलमय हैं
क्योंकि वे अप्राकृत हैं।
वे नाना प्रकार के हैं
ऐसे अनन्त भूषण हैं ।

मूलम्

तद्-उचित-निरतिशय-कल्याण-विविधानन्त-भूषण

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्व-शक्ति-सदृशापरिमितानन्ताश्चर्य-नानाविधायुध-

नीलमेघः

श्रीभगवान के दिव्यायुध इस प्रकार के हैं कि
वे श्रीभगवान की दिव्यशक्ति के समान कार्य करने वाले हैं, अपरिमित हैं,
अनन्त आश्चर्य देने वाले हैं ऐसे नानाविध आयुध हैं ।

मूलम्

स्वशक्तिसदृशापरिमितानन्ताश्चर्यनानाविधायुध

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाभिमतानुरूप–स्व-रूप–गुण-विभवैश्वर्य-शीलाद्य्–
अनवधिक-महिम-महिषी–
स्वानुरूप-कल्याण-ज्ञान-क्रियाद्य्–
अ-परिमेय-गुणानन्त-परिजन-परिच्छेद–

नीलमेघः - महिषी

श्रीभगवान की प्रधान महिषी श्रीमहालक्ष्मी जी हैं,
वे इस प्रकार की हैं कि श्रीमहालक्ष्मी जी के
स्वरूप रूप गुण विभूति और ऐश्वर्य एवं शील इत्यादि अपार महिमा
एवं सभी विशेष श्रीभगवान के अभिमत हैं तथा अनुरूप हैं ।
इस प्रकार महालक्ष्मी इत्यादि महिषी हैं ।

नीलमेघः - परिजन-परिच्छदाः

श्रीभगवान के अनन्त परिजन हैं,
वे इस प्रकार के हैं कि
वे श्रीभगवान के अनुरूप हैं,
उनमें मंगलमय ज्ञान और क्रिया इत्यादि
अनन्त गुण पूर्ण रहते हैं ।
ऐसे अनन्त परिजन हैं,
ये ही नित्यसूरि कहलाते हैं।
ऐसे श्री भगवान की सेवा के उपकरण भी अनन्त हैँ
ये परिच्छद कहलाते हैं ।

मूलम्

स्वाभिमतानुरूपस्वरूपगुणविभवैश्वर्यशीलाद्यनवधिकमहिममहिषी- स्वानुरूपकल्याणज्ञानक्रियाद्यपरिमेयगुणानन्तपरिजनपरिच्छेद

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वोचित-निखिल-भोग्य-भोगोपकरणाद्य्-
अनन्त-महा-विभव+

नीलमेघः

श्रीभगवान का एक दिव्य स्थान भी है ।
यह त्रिपाद्-विभूति भोग-विभूति नित्य-विभूति परम-पद और श्री-वैकुण्ठ लोक
ऐसे इत्यादि शब्दों से शास्त्रों में वर्णित है ।
उसका स्वरूप इस प्रकार हैं कि
वह श्रीभगवान के अनुरूप ही
दिव्य-स्थान में श्रीभगवान को विराजना चाहिये ।

उसे देखते सबको यही अनुभव होता है।
वह स्थान
नाना प्रकार के भोग्य और भोगोपकरण इत्यादि
अनन्त वैभवों से संपन्न है ।

मूलम्

स्वोचितनिखिलभोग्यभोगोपकरणाद्यनन्तमहाविभव+

विश्वास-प्रस्तुतिः

अ-वाङ्-मनस-गोचर–स्व-रूप-
स्व-भाव–दिव्य-स्थानादि–

नीलमेघः

वाक् और मन से
उस स्थान के स्वरूप और स्वभाव का वर्णन एवं आकलन नहीं हो सकता।
ऐसे दिव्य स्थान और दिव्य उद्यान इत्यादि हैं ।

मूलम्

अवाङ्मनसगोचरस्वरूपस्वभावदिव्यस्थानादि

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यता-निरवद्यता-गोचराश् च
सहस्रशः श्रुतयः सन्ति ।

नीलमेघः

श्रीभगवान के
दिव्यरूप दिव्यभूषण दिव्यायुध दिव्यमहिषी दिव्य-परिजन और दिव्यस्थान इत्यादि
सभी पदार्थ नित्य हैं
तथा निर्दोष हैं।
ये सभी अर्थ सहस्र संख्याक श्रुति वाक्यों से प्रमाणित हैं ।
इनका प्रतिपादन करने के लिये सहस्र श्रुतिवाक्य प्रवृत्त हैं वे ये हैं कि-

मूलम्

नित्यतानिरवद्यतागोचराश्च
सहस्रशः श्रुतयः सन्ति ।