०५ भगवत्-फल-प्रदत्वम्

नीलमेघः - सिंहावलोकनम्

[[२७५]]

इस प्रकरण का सारांश यह है कि
मीमांसकों ने यह पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया है कि
सभी शब्द प्रयत्न - साध्य कार्य को बतलाने में ही तात्पर्य रखते हैं
क्योंकि प्रथमव्युत्पत्ति कार्य के विषय में ही होती है ।
बनी बनाई हुई सिद्धवस्तु को बतलाने में
शब्द का तात्पर्य नहीं होता ।
ब्रह्म सिद्धवस्तु है,
वह उपनिषत्प्रतिपाद्य नहीं हो सकता ।

इस पूर्वपक्ष का निराकरण करते हुये
श्री रामानुजस्वामी जी ने सिद्धवस्तु के विषय में
प्रथम व्युपत्ति का समर्थन करके
सिद्धब्रह्म को उपनिषत्प्रतिपाद्य सिद्ध किया
तथा उपासनादि कार्य में
फलरूप में अपेक्षित होने से
ब्रह्म सिद्धि का समर्थन किया
साथ ही नाना प्रकारों से कृत्युद्देश्यत्व का खण्डन करके
मीमांसकोक्त कार्य को दुर्निरूप अर्थात् निरूपण करने में अशक्य सिद्ध किया
उस कार्य से सम्बन्ध रखने वाले नियोज्य का भी खण्डन करके
यह दिखला दिया कि मीमांसकों का पक्ष कितना निःसार है।

नीलमेघः - प्रस्तावः

इस प्रसंग में आगे श्रीरामानुजस्वामी जी कहते हैं कि
ब्रह्म सब फल देने वाला है,
इस लिये फल साधन रूप में ब्रह्म सिद्ध होता है,
मीमांसकों ने जो कार्य को फलसाधन माना है वह समीचीन नहीं ।

अपूर्वकार्य का प्राधान्य सिद्ध नहीं होता
इतना ही नहीं,
किन्तु उसका स्वरूप भी
सिद्ध नहीं होता है।

अपूर्व-कल्पन-हेतुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं च लिङ्-आदि-शब्द-वाच्यं स्थायि-रूपं
किम् इत्य् अपूर्वम् आश्रीयते?

नीलमेघः

मीमांसकों ने माना है कि
याग आदि कर्मों से अपूर्व उत्पन्न होता है
वह स्थायी रहता है
वह लिङ आदि शब्दों से वाक्य होता है ।
उनसे यह पूछना चाहिये कि
इस प्रकार के अपूर्व में क्या प्रमाण है ?

मूलम्

किं च लिङादिशब्दवाच्यं स्थायिरूपं किम् इत्य् अपूर्वम् आश्रीयते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्ग-काम–पद-समभिव्याहारानुपपत्तेर्

इति चेत् -
कात्रानुपपत्तिः?

नीलमेघः

वे उसके उत्तर में कहते हैं कि “स्वर्गकाम” इत्यादि फलवाचक शब्दों का साथ प्रयोग है,
उसमें अनुपपत्ति लगती है
इसलिये अपूर्व को स्वर्गसाधन मानना चाहिये।
उनसे यह पूछना चाहिये कि
कौनसी अनुपपत्ति लगती है
जिसको दूर करने के लिये अपूर्वे मानना पड़ता है ?

मूलम्

स्वर्गकामपदसमभिव्याहारानुपपत्तेर् इति चेत् - कात्रानुपपत्तिः?

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिषाधयिषित-स्वर्गो हि स्वर्गकामः ।
तस्य स्वर्ग-कामस्य कालान्तर-भावि–स्वर्ग-सिद्धौ
क्षण-भङ्गिनी यागादि-क्रिया
न समर्था

+इति चेत् -

अन्-आघ्रात-वेद-सिद्धान्तानाम् इयम् अनुपपत्तिः । +++(5)+++

नीलमेघः - अनुपपत्तिः

इस प्रश्न के उत्तर में मोमांसक कहते हैं कि
वह पुरुष स्वर्गकाम कहा जाता है।

जो स्वर्ग को सिद्ध करना चाहता है,
ऐसे पुरुष के प्रति वेद ने याग का विधान किया है ।
[[२७६]]
यह विधान तभी समीचीन हो सकता है
यदि याग क्रिया स्वर्ग का साधन हो ।
याग क्रिया नश्वर है,
वह कालान्तर में प्राप्त होने वाले स्वर्ग का साधन नहीं बन सकती है ।
यही अनुपपत्ति है ।

नीलमेघः - प्रतिवचनम्

इसे दूर करने के लिये
याग से उत्पन्न होने वाले
तथा स्वर्ग को उत्पन्न करने वाले
स्थायी अपूर्व को मानना पड़ता है।

मीमांसकों का यह कथन समीचीन नहीं
जिन लोगों ने वेद सिद्धान्त को सूंघा तक नहीं
उनको ही ऐसी अनुपपत्ति सूफ सकती है। वैदिक सिद्धान्त को समझने वालों के समक्ष
ऐसी अनुपपत्ति सिर उठा ही नहीं सकती ।

मूलम्

सिषाधयिषित-स्वर्गो हि स्वर्गकामः । तस्य स्वर्गकामस्य कालान्तरभाविस्वर्गसिद्धौ क्षणभङ्गिनी यागादिक्रिया न समर्थेति चेत् -
अनाघ्रातवेदसिद्धान्तानाम् इयम् अनुपपत्तिः ।

सिद्धान्तः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वैः कर्मभिर् आराधितः परमेश्वरो भगवान् नारायणस्,
तत्-तद्-इष्टं फलं ददाति

+इति वेदविदो वदन्ति ।

नीलमेघः

वेद तत्वज्ञों ने
वेदों से यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि

सभी कर्मों से आराधित होने वाले परमेश्वर श्रीमन्नारायण भगवान
प्रसन्न होकर उनको इष्टफलों का प्रदान करते हैं ।

जिस प्रकार राजा सेवा से प्रसन्न होकर
भृत्य को अभिमत फल देते हैं
तथा अपराध से रुष्ट होकर अपराधी को दण्ड देते हैं
सेवा और अपराध नश्वर होने पर भी
राजा के मन में प्रसाद एवं शेष को उत्पन्न कराकर
उसके द्वारा फलप्रद होते हैं,
उसी प्रकार सत्कर्म प्रसन्न होकर
श्रीभगवान साधकों को अभिमत फल देते हैं
तथा दुष्कर्म से रुष्ट होकर दण्ड देते हैं । +++(5)+++

सत्कर्म और दुष्कर्म नश्वर होने पर
श्रीभगवान के मन में
प्रसाद एवं शेष को उत्पन्न कराकर
उनके द्वारा फलप्रद होते हैं ।
यह वेदज्ञों का सिद्धान्त है ।
इसमें अपूर्वकल्पना की आवश्यकता नहीं पड़ती।

मूलम्

सर्वैः कर्मभिर् आराधितः परमेश्वरो भगवान् नारायणस् तत्तदिष्टं फलं ददातीति वेदविदो वदन्ति ।

द्रामिडार्योक्तिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ऽहुर् वेद-विद्-अग्रेसरा द्रमिडाचार्याः -

फल-संबिभत्सया हि
कर्मभिर् आत्मानं पिप्रीषन्ति,
स प्रीतो ऽलं फलायेति शास्त्र-मर्यादा

इति ।

नीलमेघः

वेदज्ञों में अग्रेसर श्रीद्रविडाचार्य ने
अपने द्रविडभाष्य में कहा है कि-

फलसम्बन्त्सया हि कर्मभिरात्मानं पिप्रीषक्ति स प्रीतोऽलं फलायेति शास्त्रमर्यादा ।

मूलम्

यथाहुर् वेदविदग्रेसरा द्रमिडाचार्याः फलसंबिभत्सया हि कर्मभिर् आत्मानं पिप्रीषन्ति स प्रीतो ऽलं फलायेति शास्त्रमर्यादा इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फल-संबन्धेच्छया
कर्मभिर् याग-दान-होमादिभिर्
इन्द्रादि-देवता-मुखेन
तत्-तद्-अन्तर्यामि-रूपेणावस्थितम् इन्द्रादि-शब्द-वाच्यं
परमात्मानं भगवन्तं वासुदेवम् आरिराधयिषन्ति,

स हि कर्मभिर् आराधितस्
तेषाम् इष्टानि फलानि प्रयच्छतीत्य् अर्थः ।

नीलमेघः

अर्थात् —

जीव फल प्राप्त करने की इच्छा से
योग दान और होम इत्यादि कर्मों से
इन्द्र आदि देवताओं के द्वारा
उस परमात्मा वासुदेव भगवान का आराधन करना चाहते हैं
जो इन्द्रादि देवताओं के अन्तर्यामी हैं
तथा इन्द्रादि शब्दों का वाच्यार्थ हैं ।
वें भगवान कर्मों से आराधित होकर
आराधकों को इष्ट फलों का प्रदान करते हैं ।
यही शास्त्र का व्यवस्थित सिद्धान्त है ।

मूलम्

फलसंबन्धेच्छया कर्मभिर् यागदानहोमादिभिर् इन्द्रादिदेवतामुखेन तत्तदन्तर्यामिरूपेणावस्थितम् इन्द्रादिशब्दवाच्यं परमात्मानं भगवन्तं वासुदेवम् आरिराधयिषन्ति, स हि कर्मभिर् आराधितस् तेषाम् इष्टानि फलानि प्रयच्छतीत्यर्थः ।

श्रुतिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा च श्रुतिः

इष्टा-पूर्तं
बहुधा जातं, जायमानं
विश्वं बिभर्ति
भुवनस्य +++(रथ-चक्रस्येव)+++ नाभिर्

इति ।

नीलमेघः

इस अर्थ में
श्रुति वचन भी प्रमाण है । वह यह है कि -

इष्टापूर्त बहुधा जातं जायमानं विश्वं विभति भुवनस्य नाभिः ।

मूलम्

तथा च श्रुतिः इष्टापूर्तं बहुधा जातं जायमानं विश्वं बिभर्ति भुवनस्य नाभिर् इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टा-पूर्तम् इति
स-कल–श्रुति-स्मृति–चोदितं कर्मोच्यते ।

नीलमेघः

अर्थात् श्रुति प्रतिपादित कर्म इष्ट कहा जाता ।
स्मृति प्रतिपादित कर्म पूर्त कहा जाता है ।
संपूर्ण श्रुति और स्मृतियों के द्वारा प्रतिपादित कर्म
अनन्त हैं ।

मूलम्

इष्टापूर्तम् इति सकलश्रुतिस्मृतिचोदितं कर्मोच्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् विश्वं बिभर्ति

इन्द्राग्नि-वरुणादि-सर्व-देवता-संबन्धितया प्रतीयमानं

तत्-तद्-अन्तर्-आत्मतया ऽवस्थितः परमपुरुषः

स्वयम् एव बिभर्ति

स्वयम् एव स्वीकरोति ।

नीलमेघः

वे कार्य
इन्द्र अग्नि और वरुण इत्यादि सभी देवताओं के विषय में होते हैं,
अतएव वे कर्म विभिन्न देवता वाले प्रतीत होते हैं
ऐसा होने पर भी
एक देवता वाले माने जा सकते हैं
क्यों कि उन उन देवताओं में अन्तर्यामी के रूप में विराजमान
परमपुरुष श्रीभगवान
उन कर्मों से आधारित होते हैं ।
वे श्रीभगवान अपना आराधन समझकर
इन कर्मों को स्वीकार करते हैं ।

मूलम्

तद्विश्वं बिभर्ति इन्द्राग्निवरुणादिसर्वदेवतासंबन्धितया प्रतीयमानं तत्तदन्तरात्मतयावस्थितः परमपुरुषः स्वयम् एव बिभर्ति स्वयम् एव स्वीकरोति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(रथ-चक्रस्येव)+++ भुवनस्य नाभिः

ब्रह्म-क्षत्रादि–सर्व-वर्ण-पूर्णस्य भुवनस्य धारकः
तैस् तैः कर्मभिर् आराधितस्
तत्-तद्-इष्ट-फल-प्रदानेन
भुवनानां धारक इति
नाभिर् इत्य् उक्तः ।

नीलमेघः

जिस प्रकार नाभि रथचक्र का धारण करता है
(रथ चक्र का मध्य भाग नाभि कहलाता है)
उसी प्रकार श्रीभगवान ब्राह्मण और क्षत्रिय इत्यादि सभी वर्णों से पूर्ण
इस भुवन के धारक होते हैं
उन उन कर्मों से आराधित होकर
श्रीभगवान उन फलों का प्रदान कर
सुवन के धारक एवं सत्ताप्रद होते हैं।
इस लिये श्रीभगवान
रथनाभि के समान होने के कारण
इस मन्त्र में नाभि कहे गये हैं।

मूलम्

भुवनस्य नाभिः ब्रह्मक्षत्रादिसर्ववर्णपूर्णस्य भुवनस्य धारकः तैस् तैः कर्मभिर् आराधितस् तत्तदिष्टफलप्रदानेन भुवनानां धारक इति नाभिर् इत्युक्तः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नि-वायु-प्रभृति-देवतान्तरात्मतया
तत्-तच्-छब्दाभिधेयो ऽयम् एवेत्य् आह

तद् एवाग्निस्
तद् वायुस्
तत् सूर्यस्
तद् उ चन्द्रमा

इति ।

नीलमेघः

[[२०७]]
अग्नि और वायु इत्यादि देवताओं के
अन्तर्यामी होने के कारण
श्रीभगवान अग्नि और वायु इत्यदि शब्दों से अभिहित होते हैं । यह अर्थ मन्त्र के उत्तरार्ध में कहा गया है ।
वह उत्तरार्ध यह है कि-

तदेवाग्निस्तद्वायुस्तत्सूर्यस्तदु चन्द्रमाः ।

अर्थात् - वह परमात्मा ही अग्नि है, वायु है, सूर्य है एवं चन्द्रमा है क्योंकि वह इन देव का अन्तरात्मा है ।

मूलम्

अग्निवायुप्रभृतिदेवतान्तरात्मतया तत्तच्छब्दाभिधेयो ऽयम् एवेत्य् आह तद् एवाग्निस् तद्वायुस् तत्सूर्यस् तद् उ चन्द्रमा इति ।

स्मृतिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं भगवता

यो यो याम् यां तनुं भक्तः
श्रद्धया ऽर्चितुम् इच्छति
तस्य तस्याचलां श्रद्धां
ताम् एव विदधाम्य् अहम् ।

नीलमेघः

श्री गीता में भी
इन्द्रादि देवों का श्रीभगवान का शरीर कहा गया है
क्योंकि श्रीभगवान इनके अन्तरात्मा है ।
वे वचन ये हैं कि-

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्ध्याचितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचल श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥

अर्थात् - श्रीभगवान कहते हैं कि जो जो भक्त हमारे शरीर भूत जिस जिस देवता की अर्चना को श्रद्धापूर्वक करना चाहता है उस उस भक्त की उस श्रद्धा को हम अचल बना देते हैं।

मूलम्

यथोक्तं भगवता

यो यो याम् यां तनुं भक्तः
श्रद्धया ऽर्चितुम् इच्छति
तस्य तस्याचलां श्रद्धां
ताम् एव विदधाम्य् अहम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य श्रद्धया युक्तस्
तस्याराधनम् ईहते
लभते च ततः कामान्
मयैव विहितान् हि तान् ॥

इति ।

नीलमेघः

स तया
श्रद्ध्यायुक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान् मयैव विहितान् हि तान् ॥

वह उस श्रद्धा से युक्त होकर
उस देवता के आराधन में प्रवृत्त होता है
वह उस आराधन के कारण
मेरे द्वारा दिये गये फलों को प्राप्त करता है ।

मूलम्

स तस्य श्रद्धया युक्तस्
तस्याराधनम् ईहते
लभते च ततः कामान्
मयैव विहितान् हि तान् ॥

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यां यां तनुम्

इतीन्द्रादि-देवता-विशेषास् तत्-तद्-अन्तर्यामितया ऽवस्थितस्य भगवतस्
तनवः शरीराणीत्यर्थः ।

नीलमेघः

यहाँ पूर्व श्लोक में “तनुम् " शब्द से
इन्द्र इत्यादि देवगण
उनमें अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित श्रीभगवान का शरीर कहे गये हैं ।

मूलम्

यां यां तनुम्

इतीन्द्रादिदेवताविशेषास्तत्तदन्तर्यामितयाऽवस्थितस्य भगवतस्
तनवः शरीराणीत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि सर्वयज्ञानां
भोक्ता च प्रभुर् एव च ।

इत्यादि ।

नीलमेघः

श्रीगीता में श्रीभगवान ने यह भी कहा है कि

अहं हि स सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।

अथात् -

हम आराध्य होने से
सभी यज्ञों का भोक्ता है
तथा फलप्रद होने से प्रभु भी हैं।

मूलम्

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुर् एव च ।

इत्यादि ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

“प्रभुर् एव” चेति
सर्व-फलानां प्रदाता चेत्यर्थः ।

मूलम्

प्रभुर् एव चेति सर्वफलानां प्रदाता चेत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च

यज्ञैस् त्वम् इज्यसे नित्यं
सर्व-देवमयाच्युत ।
यैः स्व-धर्म-परैर् नाथ
नरैर् आराधितो भवान् ।

ते तरन्त्य् अखिलाम् एतां
मायाम् आत्म-विमुक्तये ।
(वि.पु.५.३०.१६)

इति ।

नीलमेघः

श्रीविष्णु पुरा में यह वर्णन मिलता है कि-

यज्ञस्त्वमिज्यसे नित्यं सर्वदेवमयोऽच्युत । यः स्वधर्मपरनाथ नरैराराधितो भवान् ॥
ते तरन्त्यखिलामेतां मायामात्मविमुक्तये ।।

अर्थात्

हे अच्युत !
सर्वदेवों में अन्तर्यामी के रूप में व्याप्त होकर
सर्वदेवमय रहने वाले आप
सदा सभी यज्ञों से आराधित होते हो ।
हे नाथ ? जिन स्वधर्मनिष्ठ मनुष्यों से
आप आराधित होते a
मुक्त होने के लिये
इस संपूर्ण माया का पार हो जाते हैं ।

मूलम्

यथा च

यज्ञैस्त्वमिज्यसे नित्यं
सर्वदेवमयाच्युत ।
यैः स्वधर्मपरैर्नाथ
नरैराराधितो भवान्।

ते तरन्त्यखिलामेतां
मायामात्मविमुक्तये ।

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेतिहास-पुराणेषु सर्वेष्व् एव वेदेषु
सर्वाणि कर्माणि सर्वेश्वराराधन-रूपाणि,
तैस् तैः कर्मभिर् आराधितः पुरुषोत्तमस्
तत्-तद्-इष्टं फलं ददातीति
तत्र तत्र प्रपञ्चितम् ।

नीलमेघः

इतिहास और पुराणों से युक्त सभी वेदों में
छानेक स्थलों में यह बात विस्तार से कही गई है कि
सभी शास्त्रविहीन कर्म सर्वेश्वर का आराधन रूप हैं,
उन कर्मों से आराधित होकर
श्री पुरुषोत्तम भगवान उन उन इष्टफलों को प्रदान करते हैं ।

मूलम्

सेतिहासपुराणेषु सर्वेष्वेव वेदेषु सर्वाणि कर्माणि सर्वेश्वराराधनरूपाणि, तैस्तैः कर्मभिराराधितः पुरुषोत्तमस्तत्तदिष्टं फलं ददातीति तत्र तत्र प्रपञ्चितम् ।

श्रुति-स्मृत्य्-अन्तरम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् एव हि
सर्व-ज्ञं सर्व-शक्तिं सर्वेश्वरं भगवन्तम्
इन्द्रादि-देवतान्तर्यामि-रूपेण याग-दान-होमादि-वेदोदित-सर्व-कर्मणां भोक्तारं
सर्वफलानां प्रदातारं च सर्वाः श्रुतयो वदन्ति -

चतुर्-होतारो+++(=यज्ञाः)+++ यत्र +++(=अन्तर्यामिणि)+++ संपदं गच्छन्ति देवैः
(तै.आ.११.३)

इत्य्-आद्याः +++(वक्ष्यमाणरीत्या)+++।

नीलमेघः

श्रीभगवान सर्वज्ञ है,
अतएव अपने आराधनों को वे जानते रहते हैं
तथा श्रीभगवान सर्वशक्ति संपन्न हैं
अतएव वे उन फलों के प्रदान करने की
शक्ति भी रखते हैं।

[[२७८]]
श्रीभगवान सर्वेश्वर हैं अर्थात् सबके स्वामी हैं अतएव उनकी आराधना करना
दास जीवों को उचित है ।

एवंविध श्री भगवान इन्द्र आदि देवताओं के अन्तर्यामी बनकर
याग दान और होम इत्यादि वेदविहित कर्मों का भोग लेते
तथा सर्वफलों को देते हैं ।

सभी श्रुतियां इस अर्थ का प्रतिपादन करती हैं।
वे “चतुर्होतारो यत्र संपदं गच्छन्ति देवः” इत्यादि हैं ।

मूलम्

एवमेव हि सर्वज्ञं सर्वशक्तिं सर्वेश्वरं भगवन्तम् इन्द्रादिदेवतान्तर्यामिरूपेण यागदानहोमादिवेदोदितसर्वकर्मणां भोक्तारं सर्वफलानां प्रदातारं च सर्वाः श्रुतयो वदन्ति
चतुर्होतारो यत्र संपदं गच्छन्ति देवैः (तै.आ.११.३) इत्याद्याः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्-होतारो यज्ञाः,
यत्र परमात्मनि
देवेष्व् अन्तर्यामिरूपेणावस्थिते, देवैः संपदं गच्छन्ति =
देवैः संबन्धं गच्छन्ति यज्ञा इत्यर्थः ।

नीलमेघः

अर्थात् चार होताओं से संपन्न होने वाले याग इत्यादि कर्म
देवों में अन्तर्यामी रूप में परमात्मा के विराजने के कारण ही
देवताओं से आराध्याराधनभाव संबन्ध को प्राप्त होते हैं ।

मूलम्

चतुर्-होतारो यज्ञाः,
यत्र परमात्मनि
देवेष्व् अन्तर्यामिरूपेणावस्थिते, देवैः संपदं गच्छन्ति =
देवैः संबन्धं गच्छन्ति यज्ञा इत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्यामि-रूपेणावस्थितस्य परमात्मनः
शरीरतया ऽवस्थितानाम् इन्द्रादीनां
यागादि-संबन्ध
इत्य्-उक्तं भवति।

नीलमेघः

अन्तर्यामी के रूप में विराजमान श्रीभगवान का शरीर बने हुये
इन्द्र आदि देवताओं का
याग आदि कर्मों से संबन्ध है ।

श्रीभगवान का शरीर होने से देवगण परतन्त्र बनकर कर्मों से संबन्ध रखते हैं,
परमात्मा श्रीभगवान स्वतंत्र होकर कर्मों से संबन्ध रखते हैं ।

मूलम्

अन्तर्यामिरूपेणावस्थितस्य परमात्मनः
शरीरतयाऽवस्थितानामिन्द्रादीनां
यागादिसंबन्ध
इत्युक्तं भवति।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं भगवता -

भोक्तारं यज्ञ-तपसां
सर्व-लोक-महेश्वरम् । (भ.गी.५.२९)

इति ।

नीलमेघः

श्री भगवान ने स्पष्ट कहा है कि-

“भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
अर्थात् - हम साक्षात् आराध्य होने से
यज्ञ और तप के भोक्ता
तथा सर्वलोकों के महेश्वर हैं ।

मूलम्

यथोक्तं भगवता

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । (भ.गी.५.२९)

इति ।

निगमनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् अग्न्य्-आदि-देवतान्तरात्म-भूत–
परम-पुरुषाराधन-रूप-भूतानि सर्वाणि कर्माणि,
स एव चाभिलषित-फल-प्रदातेति
किम् अत्रापूर्वेण व्युत्पत्ति-पथ-दूर-वर्तिना
वाच्यतया ऽभ्युपगतेन, कल्पितेन वा प्रयोजनम्?

नीलमेघः

इस विवेचन से यही सिद्ध होता है कि
सर्वकर्म इन्द्र आदि देवों के अन्तरात्मा बने हुये
परमपुरुष श्री भगवान के आराधन रूप हैं ।
वे ही अभिमत फलों के दाता हैं ।
ऐसी स्थिति में अपूर्व को मानने की क्या आव श्यकता है।

अपूर्व कार्य के विषय में
शब्दशक्ति का जानना ही असंभव है ।

उस अपूर्व को
प्राभाकर मीमांसकों ने वाच्य माना है,
भाट्ट मीमांसकों ने अनुपपत्तिसिद्ध माना है ।
ये दोनों पक्ष निर्मूल हैं ।
जब अपूर्व की आवश्यकता नहीं
तब उसे वाच्य अथवा कल्पय मानने की क्या आवश्यकता है ?

इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने
अपूर्व का खण्डन करके
श्रीभगवान को फलप्रद के रूप में शास्त्रवेद्य सिद्ध किया है ।

मूलम्

तस्मादग्न्यादिदेवतान्तरात्मभूतपरमपुरुषाराधनरूपभूतानि सर्वाणि कर्माणि, स एव चाभिलषितफलप्रदातेति किमत्रापूर्वेण व्युत्पत्तिपथदूरवर्तिना वाच्यतयाभ्युपगतेन कल्पितेन वा प्रयोजनम्।

लिङ्-आद्य्-अर्थः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं च सति
लिङ्-आदेः कोऽयम् अर्थः परिगृहीतो भवति ?

नीलमेघः

यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
लिङ आदि विधायक प्रत्ययों का
अपूर्व कार्य अर्थ नहीं हो सकता
तब विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में
लिङ आदि विधायक प्रत्ययों का
कौनसा अर्थ माना जाता है ?

मूलम्

एवं च सति
लिङादेः कोऽयमर्थः परिगृहीतो भवति ?

(इति चेत्)

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज् देव-पूजायां (पा.धा.१००२)

इति देवताराधन-भूत-यागादेः प्रकृत्य्-अर्थस्य
कर्तृ-व्यापार-साध्यतां व्युत्पत्ति-सिद्धां
लिङ्-आदयोऽभिदधतीति
न किंचिद् अनुपपन्नम् ।

नीलमेघः

इसके उत्तर में श्रीरामानुजस्वामी जी कहते हैं कि
“यजेत” इस पद में
“यज्” धातु प्रकृति है जिसका अर्थ है देव पूजा,
लिङ् प्रत्यय है ।
ये लिङ आदि प्रत्यय
प्रकृत्यर्थं याग आदि को
कर्ता के व्यापार के द्वारा
साध्य बतलाते हैं ।

[[२७६]]
धात्वर्थ की कर्तृ-व्यापार-साध्यता ही
लिङ आदि का अर्थ है ।

मूलम्

यज् देवपूजायां (पा.धा.१००२) इति देवताराधनभूतयागादेः प्रकृत्यर्थस्य कर्तृव्यापारसाध्यतां व्युत्पत्तिसिद्धां लिङादयोऽभिदधतीति न किंचिदनुपपन्नम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्तृ-वाचिनां प्रत्ययानां
प्रकृत्य्-अर्थस्य कर्तृ-व्यापार-संबन्ध-प्रकारो हि वाच्यः । +++(5)+++

नीलमेघः

यही लोकव्युत्पत्ति से सिद्ध है ।
जो लकार कर्तृ कारक का वाचक है
वे इस बात को बतलाते हैं कि
धात्वर्थ किस प्रकार
कर्तृ व्यापार से सम्बन्ध रखता है

मूलम्

कर्तृवाचिनां प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थस्य कर्तृव्यापारसंबन्धप्रकारो हि वाच्यः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूत-वर्तमानादिकम् अन्ये वदन्ति ।

नीलमेघः

लट् लकार धात्वर्थगत कर्तृ-व्यापार संबन्ध को
वर्तमान रूप में बतलाते हैं,
लिट् आदि प्रत्यय
भूतरूप में
लुट् आदि प्रत्यय भविष्यद्रूप में बतलाते हैं ।

मूलम्

भूतवर्तमानादिकमन्ये वदन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लिङादयस् तु कर्तृ-व्यापार-साध्यतां वदन्ति ।

नीलमेघः

लिङ और लोट्लकार
धात्वर्थ में साध्यरूप से
कर्तृव्यापार संबन्ध को बतलाते हैं ।

सारांश यह है कि
सभी लकार धात्वर्थ में होने वाली
किसी-किसी विशेषता को बतलाते हैं,
लट्धात्वर्थगत वर्तमानता को लट्,
भूतता को लिट् बतलाते हैं,
उसी प्रकार लिङ् आदि प्रत्यय
धात्वर्थगत कर्तृव्या पारसाध्यता को बतलाते हैं ।

नीलमेघः - निगमनम्

इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने
लिङ आदि विधायक प्रत्ययों के
अर्थ का निष्कर्ष किया है
तथा यह भी सिद्ध किया है कि
उपनिषद्वाक्य एवं इतिहास पुराणों के वचनों से
श्रीभगवान फलप्रद सिद्ध होते हैं
अपूर्व की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं ।

मूलम्

लिङादयस्तु कर्तृव्यापारसाध्यतां वदन्ति ।

देव-फल-प्रदत्व-प्रमाणानि

स एवैनं भूतिं गमयति

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि च कामिनः कर्तव्यतया कर्म विधाय
कर्मणो देवताराधन-रूपतां
तद्-द्वारा फल-संभवं च तत्-तत्-कर्म-विधि-वाक्यान्य् +++(अर्थ-वाद–रूप-वाक्य-शेषैर्)+++ एव वदन्ति -

नीलमेघः

आगे श्रीरामानुजस्वामी जी यह बतलाते हैं कि
कर्मकाण्ड के वाक्यों से
यह विदित होता है कि
कर्म से आरावित होने वाले देवता फल देते हैं
ऐसी स्थिति में
अपूर्व नामक पदार्थ की कल्पना करने की
आवश्यकता होती ही नहीं।

“यजेत स्वर्गकामः” इत्यादि विधिवाक्य
यह विधान करते हैं कि
स्वर्ग इत्यादि अमुक अमुक फल चाहने वाले पुरुषों को
अमुक अमुक कर्म कर्तव्य है ।
इन विहित कर्मों की स्तुति के द्वारा
इन कर्मों में फलार्थियों को उत्साहित करके
विधिवाक्यों की सहायता करने के लिये प्रवृत्त अर्थवादवाक्य
यह बतलाते हैं कि
प्रत्येक कर्म देवता का आराधनरूप है,
इन कर्मों से आराधित होने वाले देवता
इनसे प्रसन्न होकर फलार्थियों को फल देते हैं ।
अर्थवाद और विधि वाक्यों में
एक-वाक्यता होने से
यह मानना पड़ता है कि
अर्थवाद वर्णित अर्थ विधिवाक्य का आभमत है ।

मूलम्

अपि च कामिनः कर्तव्यतया कर्म विधाय कर्मणो देवताराधनरूपतां तद्द्वारा फलसंभवं च तत्तत्कर्मविधिवाक्यान्येव वदन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायव्यं श्वेतम् आलभेत भूति-कामो
वायुर् वै क्षेपिष्ठा देवता
वायुम् एव स्वेन भागधेयेनोपधावति
स एवैनं भूतिं गमयति (तै.सं.२.१.१.१)

इत्यादीनि ।

नीलमेघः

उदाहरण
" वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकामः”
यह विधिवाक्य है ।
इसका अर्थ यह है कि
संपत्ति चाहने वाला पुरुष
वायुदेवता श्वेत पशु से याग करें ।
याग क्लेशसाध्य होने से
फलार्थी पुरुष भी
उसे करने में हिचकता है,
उसे उत्साहित करने के लिये
एक अर्थवाद-वाक्य उपस्थित होकर
याग की स्तुति करता है ।
वह यह है कि-
[[२६१]]

वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता,
वायुमेव स्वेन भागधेयेनोपधावति
स एवैनं भूतिं गमयति ।

अर्थात्

वायु शीघ्र दौड़ने वाले देवता है,
यजमान अपने हव्य से उस वायुदेव की आराधना करता है,
वायुदेव शीघ्र ही उस यजमान के पास ऐश्वर्य पहुंचा देते हैं।

इस अर्थवाद से यह स्पष्ट हो जाता है कि
देवता याग से प्रसन्न होकर
फल देते हैं ।
याग देवता प्रसाद के द्वारा फलपर्यवसायी होता है ।

इस प्रकार मानने पर
फलसिद्धि में कोई अनुपपत्ति नहीं रहती ।
ऐसी स्थिति में मीमांसकों का यह कथन
असंगत सिद्ध होता है।

मूलम्

वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकामो वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता वायुमेव स्वेन भागधेयेनोपधावति स एवैनं भूतिं गमयति (तै.सं.२.१.१.१) इत्यादीनि ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फल-सिद्ध्य्-अनुपपत्तिः कापि दृश्यत

इति फल-साधनत्वावगतिर् औपादानिकी +++(यागः → अपूर्वम् → फलम् इत्य् अर्थापत्तिः/ अनुमानम्)+++

इत्य् अपि न संगच्छते;

नीलमेघः

मीमांसक कहते हैं कि
विधिवाक्य ने कर्म को फल साधन कहा।
यहां यह अनुपपत्ति होती हैं कि
नश्वर कर्म
कालान्तर में होने वाले फल का
साधन नहीं बन सकता ।
इस अनुपपत्ति के कारण
विधिवाक्य से यह भाव निकालना पड़ता है कि
कर्म अपूर्व के द्वारा साधन होता है
वह कर्मजन्य अपूर्व स्थायी है
वह फल को उत्पन्न करके ही
नष्ट होता है ।
यहां अपूर्व को माने बिना
कर्मों को फलसाधन कहा ही नहीं जा सकता है ।
यही उपादान प्रमाण है ।
इससे यह खुल जाता है कि
कर्म किस प्रकार फल देते हैँ।
यह मीमांसों का कथन है ।

यह कथन समीचीन नहीं

मूलम्

नात्र फलसिद्ध्यनुपपत्तिः कापि (/काचिदपि) दृश्यत इति फलसाधनत्वावगतिरौपादानिकीत्यपि न संगच्छते;

विश्वास-प्रस्तुतिः

विध्य्-अपेक्षितं यागादेः फल-साधनत्व-प्रकारं
+++(अर्थवाद-रूप)+++वाक्य-शेष एव बोधयतीत्य् अर्थः । +++(5)+++

नीलमेघः

क्योंकि वाक्यशेष के द्वारा
यदि कर्मों के फलसाधनत्व का प्रकार न खुले,
तब उपादान प्रमाण का आश्रय लेना उचित है
यहां तो अर्थवादरूपी वाक्यशेष से
कर्मों के फल साधनत्व का प्रकार
इस प्रकार खुल जाता है कि
कर्म देवता प्रसाद के द्वारा फल देते हैं ।

मूलम्

विध्यपेक्षितं यागादेः फलसाधनत्वप्रकारं वाक्यशेष एव बोधयतीत्यर्थः ।

अर्थवादस्य विधि-वाक्य-पूरकत्वम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(यथा मीमांसकैर् एव)+++

तस्माद् ब्राह्मणाय नापगुरेत (तै.सं.२.६.१०.१)

इत्य्-अत्रापगोरण-निषेध-विधि-पर–वाक्यशेषे श्रूयमाणं
निषेध्यस्यापगोरणस्य शत-यातना+++(-नरक)+++-साधनत्वं
निषेध-विध्य्-उपयोगीति हि स्वीक्रियते ।

नीलमेघः - सारः

कर्मों को फलसाधन बतलाने वाले विधिवाक्यों को
यह अर्थ अपेक्षित है कि
नश्वर कर्म किस प्रकार फल देते हैं,
यदि वह प्रकार वाक्य शेष से खुल जाता है
तो उसे स्वीकार करना चाहिये ।

मीमांसा में “संदिग्धे वाक्यशेषात् " इस अधिकरण में
यही बताया गया है कि
विधिवाक्य में अपेक्षित
कोई विशेष यदि वाक्यशेष में वर्णित हो
तो उसका स्वीकार करना चाहिये ।+++(5)+++

नीलमेघः - उदाहरणम्

मीमांसा में यहाँ तक कहा गया है कि
विधेय के विरोधी को
यदि कहीं किसी फल का साधन कहा गया हो
तो उसका स्वीकार करना चाहिये ।
उदाहरण - “तस्माद्ब्राह्मणाय नापगुरेत”
यह एक विधि-वाक्य है ।
अर्थात् “इसलिये कोई ब्राह्मण का वध करने के लिये उद्योग न करें”
यह एक निषेध वाक्य है,
इसमें ब्राह्मणवधोद्योग की निवृत्ति का विधान है।
यहाँ निवृत्तिविधेय है ।
इस निवृत्ति का विरोधी ब्राह्मणवधोद्योग है।
यहाँ आगे यह वाक्य है कि
“योऽपपुरते शतेन यातयात्”
अर्थात् ब्राह्मण के वध में उद्युक्त होगा,
उसे शतयातना भोगनी पड़ेंगी।
शतयातना नरकविशेष का नाम है,
जहाँ शतयातनाओं का भोग होता है ।
यहाँ ब्राह्मणवधोद्योग एवं शतयातना में
जो सध्यसाधनभाव सम्बन्ध बतलाया जाता है,
वह उपयुक्त निषेध विधि का अपेक्षित है
क्योंकि इस प्रकार वधोद्योग अनर्थ-पर्यवसायी सिद्ध होने पर ही
उससे मनुष्य निवृत्त होंगे ।

मूलम्

तस्मात् ब्राह्मणाय नापगुरेत (तै.सं.२.६.१०.१) इत्यत्रापगोरणनिषेधविधिपरवाक्यशेषे श्रूयमाणं निषेध्यस्यापगोरणस्य शतयातनासाधनत्वं निषेधविध्युपयोगीति हि स्वीक्रियते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र पुनः
कामिनः कर्तव्यतया विहितस्य यागादेः
काम्य-स्वर्गादि-साधनत्व-प्रकारं वाक्य-शेषावगतम् अनादृत्य
किम् इत्य् उपादानेन+++(→अर्थापत्ति/अनुमानेन)+++ यागादेः फलसाधनत्वं परिकल्प्यते?+++(5)+++

नीलमेघः

यहाँ विधेय ब्राह्मणवधोद्योग निवृत्ति के विरोधी वधोद्योग का फल साधनत्व
विधि में अपेक्षित होने के कारण
जब माना जाता हैं,
तब विधेय याग के
उस फलसाधनत्व प्रकार -
जो विधि में अपेक्षित है
एवं वाक्यशेष से प्रतिपादित है—
को स्वीकार करना
न्याययुक्त ही है।
ऐसी स्थिति में
अर्थवाद वर्णित फल साधनत्व प्रकार का अनादर करके
पूर्वमीमांसक उपादान अर्थात् अर्थापत्ति प्रमाण का आश्रय लेकर
अपूर्व के द्वारा कर्मों के फल साधनत्व की कल्पना क्यों करते हैं,
[[२८२ ]] वैसी कल्पना करना सर्वथा अन्याय्य है ।

वेद में ही जब फल साधनत्व का प्रकार बतलाया गया है,
उसका अनादर करना उचित नहीं,
तथा दूसरे प्रकार की कल्पना करना भी उचित नहीं ।

मूलम्

अत्र पुनः कामिनः कर्तव्यतया विहितस्य यागादेः काम्यस्वर्गादि-साधनत्वप्रकारं वाक्यशेषावगतमनादृत्य किमित्युपादानेन यागादेः फलसाधनत्वं परिकल्प्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्य-निधिम् अपवरके+++(=प्रकोष्ठे)+++ निधाय
याचते कोद्रवादि+++(=भिक्षाधान्यादि)+++-लुब्धः +++(अन्यं)+++ कृपणं जनम्
इति श्रूयते
तद् एतद् युष्मासु दृश्यते ।+++(5)+++

नीलमेघः

कहना पड़ता है कि
उन्होंने निम्नलिखित कहावत को
चरितार्थ किया है,
लोक में कहा जाता है कि
लोभी मनुष्य घर में स्वर्णनिधि को रखकर
दूसरे कृपण से कोद्रव मांगता है।
ऐसे ही मीमांसक
अपने वेद में वर्णित फलसाधनत्व प्रकार की उपेक्षा करके
दूसरे प्रमाण से
दूसरे प्रकार से फलसाधनत्व को सिद्ध करना चाहते हैं,
वह जमता भी नहीं ।
यह लोकोक्ति मीमांसकों में ठीक तरह से लगती है ।

मूलम्

हिरण्यनिधिमपवरके निधाय याचते कोद्रवादिलुब्धः कृपणं जनमिति श्रूयते तदेतद्युष्मासु दृश्यते ।

सुख-दुःखादीनि भगवत्-कृतानि

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत-यातना+++(-नरक)+++-साधनत्वम् अपि नादृष्ट-द्वारेण ।

नीलमेघः

अस्तु ।
यहाँ यह जो कहा गया है कि
ब्राह्मणवघोद्योग शतयातना का साधन है,
वह भी अपूर्व के द्वारा नहीं,
किन्तु ईश्वर के निग्रह संकल्प के द्वारा साधन बनता है ।

मूलम्

शतयातनासाधनत्वमपि नादृष्टद्वारेण ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोदितान्य् अनुतिष्ठतो,
विहितं कर्माकुर्वतो,
निन्दितानि च कुर्वतः
सर्वाणि सुखानि दुःखानि च परम-पुरुषानुग्रह-निग्रहाभ्याम् एव भवन्ति। +++(5)+++

नीलमेघः

यह शास्त्र का सिद्धान्त है कि
विहित कर्म करने वालों को
ईश्वर के अनुग्रह से सभी सुख प्राप्त होते हैं,
तथा विहित कर्म न करने वाले
एवं निषिद्धकर्म करने वालों को
ईश्वर के निग्रह से सभी दुःख प्राप्त होते हैं ।

मूलम्

चोदितान्यनुतिष्ठतो विहितं कर्माकुर्वतो निन्दितानि च कुर्वतः सर्वाणि सुखानि दुःखानि च परमपुरुषानुग्रहनिग्रहाभ्यामेव भवन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष ह्येवानन्दयाति (तै.उ.आ.७.१),

नीलमेघः

यह अर्थ विविध वैदिक वचनों से सिद्ध हैं ।
वे वचन, ये हैं कि-
" एष ह्येवानन्दयाति” …

अर्थात् -
-यह आनन्दमय परमात्मा ही
आनन्द देने वाले हैं ।

मूलम्

एष ह्येवानन्दयाति (तै.उ.आ.७.१),

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथो सोऽभयं गतो भवति (तै.उ.आ.७.२),

नीलमेघः

ब्रह्मोपासक अभय को प्राप्त होता है ।

मूलम्

अथो सोऽभयं गतो भवति (तै.उ.आ.७.२),

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ +++(उपासना-विच्छेदे)+++ तस्य भयं भवति (तै.उ.आ.७.२),

नीलमेघः

उपासना में विच्छेद करने वाला भय को प्राप्त होता है ।

मूलम्

अथ तस्य भयं भवति (तै.उ.आ.७.२),

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीषा ऽस्माद् वातः पवते
भीषोदेति सूर्यः,
भीषा ऽस्माद्-अग्निश् चन्द्रश् च
मृत्युर् धावति पञ्चमः (तै.उ.आ.८.१)

इति

नीलमेघः

इस परमात्मा से डर कर वायुदेव चलता रहता है,
डर के मारे सूर्य उदित होता रहता है ।
इस परमात्मा से डर कर अग्नि,
इन्द्र और मृत्यु अपने अपने कार्य में लगे रहते है ।

मूलम्

भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्यः, भीषास्मादग्निश्चन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः (तै.उ.आ.८.१)

इति

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि
सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः।
एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि
ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति, यजमानं देवा +++(प्रशंसन्ति)+++
दर्वीं+++(←दर्वी-होमान्)+++ पितरो ऽन्वायत्ताः (बृ.उ.५.८.८)

नीलमेघः

इस अक्षर ब्रह्म के शासन पर
सूर्य और चन्द्र टिके रहते हैं ।

इस अक्षर ब्रह्म की आज्ञा के अनुसार
दान देने वालों की प्रशंसा
मनुष्य करते हैं
क्यों कि भगवद्-आज्ञा के अनुसार
दिया जाने वाला दान
भगवद्-आराधन होने से
प्रशंसा का कारण बन जाता है ।

परमात्मा की आज्ञा के अनुसार
याग करने वाले अजमान की प्रशंसा
देवगण करते हैं ।

दर्वी-होम इत्यादि पैतृक कर्म करने वालों का अनुसरण करते हुये
पितृगण उनकी प्रशंसा करते हैं ।
यह भी भगवद्-आज्ञा के कारण होता है ।

मूलम्

एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति यजमानं देवा दर्वीं पितरोऽन्वायत्ताः (बृ.उ.५.८.८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्य्-आद्य्-अनेक-विधाः श्रुतयः सन्ति ।

नीलमेघः

इस प्रकार अनेक श्रुतियाँ
भगवद्-अनुग्रह से इष्ट फल प्राप्ति
एवं भगवन्निग्रह से निष्फल प्राप्ति का वर्णन करती हैं।

मूलम्

इत्याद्यनेकविधाः श्रुतयः सन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं द्रमिडभाष्ये

तस्याज्ञया धावति वायुर्
नद्यः स्रवन्ति
तेन च कृत-सीमानो जलाशयाः
समदा इव +++(तरङ्गैः)+++ मेष-विसर्पितं कुर्वन्ति (द्र.भा)

इति ।

नीलमेघः

वेदज्ञ प्रवर
ािचार्य ने भी अपने भाष्य में कहा है कि-

“तस्याज्ञया ….”

अर्थात्-उस श्रीभगवान की आज्ञा से
वायु दौड़ता रहता है,
नदियां चलती रहती हैं ।
उस श्रीभगवान के द्वारा
सीमा बचकर रक्खे गये समुद्र
मान मत्त होकर भेड़ों की तरह उछलते रहते हैं।

[[२८३]]

मूलम्

यथोक्तं द्रमिडभाष्ये तस्याज्ञया धावति वायुर्नद्यः स्रवन्ति तेन च कृतसीमानो जलाशयाः समदा इव मेषमेषविसर्पितंविर्सपितं कुर्वन्ति (द्र.भा) इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्-संकल्प-निबन्धना हीमे लोकाः न च्यवन्ते
न स्फुटन्ते;
स्व-शासनानुवर्तिनं ज्ञात्वा
कारुण्यात् स भगवान् +++(जन-विशेषान्)+++ वर्ध्ययेत विद्वान् कर्म-दक्षः (द्र.भा)

इति च ।

नीलमेघः

उस श्री भगवान के संकल्प के वशवर्ती होने के कारण
ये लोक च्युत नहीं होते
फूटते नहीं,
सर्वज्ञ एवं कर्म करने में दक्ष
वह भगवान मनुष्य को अपनी आज्ञा के अनुसार
कार्य करने वाला जानकर
करुणा से उसकी वृद्धि कराते हैं,
उसे बढ़ायेंगे ।

यह उपर्युक्त वचनों का अर्थ है ।

मूलम्

तत्संकल्पनिबन्धना हीमे लोकाः न च्यवन्ते न स्फुटन्ते; स्वशासनानुवर्तिनं ज्ञात्वा कारुण्यात्स भगवान् वर्ध्ययेत विद्वान् कर्मदक्षः (द्र.भा) इति च ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम-पुरुष–याथात्म्य-ज्ञान-पूर्वक–
तद्-उपासनादि-विहित-कर्मानुष्ठायिनः
तत्-प्रसादात्
तत्-प्राप्ति-पर्यन्तानि सुखान्य् अभयं च
यथाऽधिकारं भवन्ति ।

नीलमेघः

सारांश यह है कि
परमपुरुष श्री भगवान के तत्त्व को अच्छी तरह से समझकर
श्रीभगवद्-उपासन इत्यादि विहित कर्मों का अनुष्ठान करने वालों को
अपने-अपने अधिकार के अनुसार
श्री भगवान के प्रसाद से
श्री भगवत्प्राप्ति पर्यन्त सुख प्राप्त होते हैं
तथा उन्हें अभय मिलता है ।

मूलम्

परमपुरुष-याथात्म्यज्ञानपूर्वकतदुपासनादिविहितकर्मानुष्ठायिनः तत्प्रसादात्तत्प्राप्ति-पर्यन्तानि सुखान्यभयं च यथाधिकारं भवन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तज्-ज्ञान-पूर्वकं तद्-उपासनादि-विहितं कर्माकुर्वतो,
निन्दितानि च कुर्वतस्
तन्-निग्रहाद् एव
तद्-अ-प्राप्ति-पूर्वकापरिमित-दुःखानि भयं च भवन्ति ।+++(5)+++

नीलमेघः

जो मनुष्य भगवत्-तत्त्व को जानकर
उपासन इत्यादि विहित कर्मों को नहीं करते हैं
किन्तु निन्दित कर्म करते हैं,
उनको श्रीभगवान के निग्रह से श्री भगवत्प्राप्ति न होकर
अपरिमित दुःख होते हैं
तथा भय भी होता रहता है ।

मूलम्

तज्ज्ञानपूर्वकं तदुपासनादिविहितं कर्माकुर्वतो निन्दितानि च कुर्वतस्तन्निग्रहादेव तदप्राप्तिपूर्वकापरिमितदुःखानि भयं च भवन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं भगवता

नियतं कुरु कर्म त्वं
कर्म ज्यायो ह्य् अकर्मणः
(भ.गी.३.८)

इत्य्-आदिना
कृत्स्नं कर्म ज्ञान-पूर्वकम् अनुष्ठेयं विधाय,

नीलमेघः

इस अर्थ को श्रीभगवान ने स्पष्ट कहा है कि-

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।

अर्थात् —
प्रकृतियुक्त जीव से कर्म नित्य-संबद्ध है
अतएव उसका कर्म नियत है = अनिवार्य है ।
इसलिये तुम कर्म करते रहो
कर्मनिष्ठा अकर्म ज्ञान निष्ठा से श्रेष्ठ है ।

ऐसे श्लोकों से
श्रीभगवान ने ज्ञानपूर्वक कर्म करने के लिये
विधान किया है ।

मूलम्

यथोक्तं भगवता

नियतं कुरु कर्म त्वं
कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः
(भ.गी.३.८)

इत्यादिना
कृत्स्नं कर्म ज्ञानपूर्वकमनुष्ठेयं विधाय,

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य (भ.गी.३.३०)

इति सर्वस्य कर्मणः स्वाराधनताम्
आत्मनां स्व-नियाम्यतां च प्रतिपाद्य,

नीलमेघः

आगे
“मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य "
इस श्लोक से
यह बतलाया है कि
सभी विहित कर्म
श्रीभगवान का आराधन है
सभी जीव श्रीभगवान के परतन्त्र हैं ।

कर्म करते समय
इस भाव से कर्म करना चाहिये कि
श्रीभगवान का परतन्त्र
मैं श्रीभगवान की प्रेरणा से
श्रीभगवान को प्रमन्न करने के लिये
कर्म करता हूँ ।

मूलम्

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य (भ.गी.३.३०)

इति सर्वस्य कर्मणः स्वाराधनताम्
आत्मनां स्व-नियाम्यतां च प्रतिपाद्य,

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये मे मतम् इदं नित्यम्
अनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तो, ऽनसूयन्तो
मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥
(भ.गी.३.३१)

नीलमेघः

इस प्रकार कर्म करने के विषय में
अपने सिद्धान्त को बतलाकर
अन्त में श्रीभगवान ने कहा है कि-

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥

अर्थात्-शास्त्र के अधिकारी जो मनुष्य यह समझकर –
कि यही शास्त्रार्थं है—
मेरे मत को अच्छी तरह से समझकर
उसी प्रकार अनुष्ठान करते हैं,
जो मनुष्य अनुष्ठान न करने पर भी
इस शास्त्रार्थ श्रद्धा रखते हैं,
जो श्रद्धा न रखने पर भी
इस शास्त्रार्थ के विषय में असूया न रखते हों,
“इस प्रकार शास्त्रार्थ हो नहीं सकता”,
ऐसा कहकर
इस महागुण संपन्न शास्त्रार्थ में
दोषोद्घाटन नहीं करते -
हाँ ये सभी मनुष्य
अनादिकाल से किये गये बन्धकारण
सभी कर्मों से छूट जाते हैं ।

इस समय अनुष्ठान न करने पर भी
जो इस शास्त्रार्थ में श्रद्धा एवं अनसूया रखते हैं,
वे भी उस श्रद्धा एवं अनसूया से
पापों को नष्ट करके
शीघ्र इस शास्त्रार्थ का अनुष्ठान करके
मुक्त हो जाते हैं।+++(5)+++

मूलम्

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ (भ.गी.३.३१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये त्व् एतद् अभ्यसूयन्तो
नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्व-ज्ञान-विमूढांस् तान्
विद्धि नष्टान् अचेतसः ॥ (भ.गी.३.३२)

नीलमेघः

जो मनुष्य
मेरे इस मत को मानकर
ऐसा अनुष्ठान नहीं करते,
जो इस मेरे मत में श्रद्धा नहीं रखते,
असूयाभाव रखते हैं
उन्हें सब ज्ञानों में विशेष करके मूढ़ समझो,
उन्हें मन से रहित समझो।
मन का कार्य तत्त्व निश्चय है
वह उनमें नहीं है ।
[[२८४]]
इस लिये उन्हें मन से रहित समझो ।

मूलम्

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान् विद्धि नष्टानचेतसः ॥ (भ.गी.३.३२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति स्वाज्ञानुवर्तिनः प्रशस्य,
विपरीतान् विनिन्द्य
पुनर् अपि स्वाज्ञानुपालनम् अकुर्वताम्
आसुर-प्रकृत्य्-अन्तर्भावं अभिधाय
+अधमा गतिश् चोक्ता …

नीलमेघः

इस प्रकार
श्रीभगवान ने अपनी आज्ञा का अनुसरण करने वालों की प्रशंसा की
तथा विपरीत भाव रखने वालों की निन्दा की।
आगे भी एक बार श्रीभगवान ने यह बतलाया कि
हमारी आज्ञा का पालन न करने वाले मनुष्य
आसुर प्रकृति के माने जाते हैं,
तथा उनकी अथम गति होती हैं।

मूलम्

इति स्वाज्ञानुवर्तिनः प्रशस्य विपरीतान् विनिन्द्य पुनरपि स्वाज्ञानुपालनमकुर्वतामासुरप्रकृत्यन्तर्भावं अभिधायाधमा गतिश्चोक्ता ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् अहं द्विषतः क्रूरान्
संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्य् अजस्रम् अशुभान्
आसुरीष्व् एव योनिषु ॥ (भ.गी.१६.१९)

नीलमेघः

वे श्लोक ये हैं कि-

तानहं …

अर्थात् हमसे द्वेष रखने वाले
क्रूर एवं अशुभ नराधमों को
हम संसार में आसुर योनियों में बारम्बार डालते रहते हैं

मूलम्

तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ (भ.गी.१६.१९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसुरीं योनिम् आपन्ना
मूढा जन्मनि जन्मनि । माम् अप्राप्यैव कौन्तेय
ततो यान्त्य् अधमां गतिम् ॥ (भ.गी.१६.२०)

इति ।

नीलमेघः

आसुरयोनियों में पहुँचे हुये नराधम
जन्म जन्म में मूढ होते हुये
हमें न समझकर
उससे भी अधम गति को प्राप्त होते हैं।

मूलम्

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥ (भ.गी.१६.२०)

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व-कर्माण्य् अपि सदा
कुर्वाणो मद्-व्यपाश्रयः ।
मत्-प्रसादाद् अवाप्नोति
शाश्वतं पदम् अव्ययम् ॥ (भ.गी.१८.५६)

इति च स्वाज्ञानुवर्तिनां शाश्वतं पदं चोक्तम् ।

नीलमेघः

आगे श्रीभगवान ने यह भी कहा है कि
हमारी आज्ञा का पालन करने वालों को
शाश्वत पद प्राप्त होता है ।
वह श्लोक यह है कि-

सर्वकर्माण्यपि …

अर्थात् –
हमारा आश्रय लेता हुआ
सदा सर्व कर्मों को करने वाला पुरुष
हमारे प्रसाद से शाश्वत अव्यय पद को प्राप्त होता है ।

नीलमेघः - निगमनम्

इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि
श्री भगवान ही प्रसन्न होकर
फल देते हैं ।
तदर्थं अपूर्व कल्पना की आवश्यकता नहीं ।

मूलम्

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ (भ.गी.१८.५६)

इति च स्वाज्ञानुवर्तिनां शाश्वतं पदं चोक्तम् ।

कर्म-देव-काण्डैकशास्त्र्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रुत-वेदान्तानां कर्मण्य् अश्रद्धा मा भूद्
इति देवताधिकरणे +++(“कर्म प्रधानं, देवता गौणी"ति)+++ अतिवादाः कृताः
कर्ममात्रे यथा श्रद्धा स्याद्
इति
+++(उत्तर-मीमांसा-सहितम्)+++ सर्वम् एक-शास्त्रम् इति वेदवित्सिद्धान्तः ।

नीलमेघः

जैमिनिमहर्षि ने
पूर्वमीमांसा के देवताधिकरण में
कर्म को प्रधान
एवं देवता को गौण माना है
उसका भाव यही है कि
वेदान्तों को न सुनने वाले साधारण मनुष्य
देवता को प्रधान कर
कहीं कर्म में अश्रद्धा न रखें
उनको कर्म में श्रद्धा बढ़े,
तद्-अर्थ जैमिनि ने
आवश्यकता से अधिक कहकर
एक प्रकार से अतिवाद किया है ।

उनको देवता निराकरण में तात्पर्य नहीं,
क्योंकि पूर्वोत्तरमीमांसा एक शास्त्र है,
उनमें विरोध नहीं हो सकता है ।
वेदज्ञों ने
सिद्धान्त रूप में
पूर्वोत्तरमीमांसाओं को
एक शास्त्र माना है ।

नीलमेघः - निगमनम्

इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने पूर्वमीमांसकों के इस मत -
कि कार्य ही वेदार्थ है,
सिद्ध ब्रह्म वेदार्थं नहीं -
का खण्डन किया है
यह खण्डन सभी वेदान्तियों को अभिमत है ।

मूलम्

अश्रुतवेदान्तानां कर्मण्यश्रद्धा मा भूदिति देवताधिकरणे अतिवादाः कृताः कर्ममात्रे यथा श्रद्धा स्यादिति सर्वमेकशास्त्रमिति वेदवित्सिद्धान्तः ।