कर्तृत्वोक्त्य्-औचित्यम्
नीलमेघः - सङ्गतिः
“स्वर्ग काम” इत्यादि पद नियोज्यविशेष समर्पक हैं, इस वाद का खण्डन॥
आगे श्रीरामानुजस्वामी जी ने
मीमांसकोक्त कार्य से संबन्ध रखने वाले
दूसरे अर्थ का भी खण्डन किया है ।
नीलमेघः - यजमानावस्थाः
वह अर्थ यह है कि
प्राभाकर मीमांसक कहते हैं कि
याग करने वाले यजमान की तीन अवस्थायें हैं ।
- (१) नियोज्यत्वावस्था है ।
यजमान “यजेत” (याग करें ) इत्यादि विधिवाक्य को सुनने पर
यह समझता है कि
यह कार्य अर्थात् अपूर्वकार्य मेरा है ।
अपूर्व-कार्य को अपना समझने वाला यजमान
उस समय नियोज्य कहा जाता है । - (२) अधिकारित्वावस्था है ।
अपूर्वकार्य को अपना समझ लेने के बाद
यजमान उस अपूर्व के साधन कर्म को अपना समझता है
तब वह अधिकारी कहलता है । - (३) कर्तृत्वास्था है ।
जब यजमान याग करने लगता है
तब वह कर्ता कहा जाता है ।
इस प्रकार यजमान की
तीन अवस्थायें हैं ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च “स्वर्ग-कामो यजेते"त्य्-आदिषु
+++(यत्र कर्तरि-प्रयोगे लकारः प्रथमा-विभक्त्यन्तं कर्तारं सूचयति,)+++
लकार-वाच्य–कर्तृ-विशेष–समर्पण-पराणां “स्वर्ग-कामा"दि-पदानां
नियोज्य+++(←नियोगः = अपूर्वम्)+++-विशेष–समर्पण-परत्वं शब्दानुशासन-विरुद्धं
केनावगम्यते +++(हेतुना)+++?
+++(यतो नियोज्य-काङ्क्षा नास्ति क्रियापदावयवे क्वचित्। )+++
rAjagopAla
Further, in instances like
“the man desirous of svarga shall perform the sacrifice”,
the termination of the tense form yajeta suggests an agent or (karta) in general
and “The man desirous of svarga” makes it refer to a special kind of agent or karta
and this is the explanation of grammarians.
The Mimamsaka contention that the words
“The man desirous of svarga” suggest
not a special kind of agent or doer
but a special kind of niyojya (or person who should understand in his mind that he should acquire apurva)
is opposed to the view of the grammarians
and we ask “Whence is it inferred?”.
नीलमेघः - नियोज्य-वाच्यता
“यजेत” अर्थात् “याग करें”
इस विधि पद से यह प्रतीत होता है कि
यहाँ नियोज्य कोई अवश्य है।
यहां प्रतिपादित होने वाले अपूर्व-कार्य को
अपना समझने वाला कोई अवश्य है।
इस प्रकार “यजेत” पद से नियोज्य-सामान्य प्रतीत होता है ।
वह नियोज्य कौन है ?
इस प्रकार नियोज्य विशेष की जिज्ञासा होने पर
स्वर्गकाम आदि पदों से
नियोज्यविशेष का बोध होता है ।
स्वर्ग चाहने वाला पुरुष
यहाँ नियोज्य है,
इस प्रकार नियोज्य विशेष प्रतीत होता है ।
स्वर्ग-काम आदि पद
नियोज्यविशेष के समर्पक हैं ।
इस प्रकार प्राभाकर मीमांसकों ने
पूर्वमीमांसा-षष्ठाध्याय के प्रथमाधिकरण में कहा है ।
नीलमेघः - प्रत्युक्तिः
इस अर्थ का खण्डन करते हुये
श्रीरामानुजस्वामी जी कहते हैं कि
“स्वर्गकामो यजेत” का यह अर्थ है कि
स्वर्ग चाहने वाला पुरुष याग करे ।
“यजेत” यह कर्तृ कारक में प्रयोग है ।
व्याकरणशास्त्र कहता है
कर्तृ कारक के प्रयोग में आये हुये
इस लिङ्-लकार का अर्थ
“कर्ता” है।
व्याकरणशात्र
नियोज्य को लिङ् लकार का अर्थ
नहीं बतलाता ।
उसे लिङलकार का अर्थ मानना
व्याकरण विरुद्ध है।
“याग का कर्ता कौन है ?”
ऐसी जिज्ञासा होने पर
“स्वर्गकाम” पद बतलाता है कि
स्वर्ग चाहने वाला पुरुष
याग का कर्ता है।
इस प्रकार “स्वर्गकाम” पदक विशेष का
समर्पक होता है ।
यह अर्थ व्याकरण से सिद्ध है ।
पूर्वमीमांसक “स्वर्गकाम” पद को
नियोज्य-विशेष का समर्पक मानते हैं,
उनका यह सिद्धान्त व्याकरण से विरुद्ध है ।
मूलम्
अपि च स्वर्गकामो यजेतेत्यादिषु
लकारवाच्यकर्तृविशेषसमर्पणपराणां स्वर्गकामादिपदानां
नियोज्यविशेषसमर्पणपरत्वं शब्दानुशासनविरुद्धं केनावगम्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध्य-स्वर्ग-विशिष्टस्य +++(जनस्य)+++स्वर्ग-साधने कर्तृत्वान्वयो न घटत
+++(यतो यागो न साक्षात् स्वर्ग-साधनम्)+++
+++(तेन “नियोज्य” उच्यते)+++
इति चेत् -
नियोज्यत्वान्वयो ऽपि न घटत
+++(तथापि लक्षणया अपूर्वापर-नाम-नियोगे ऽन्वयो भवद्भिः कृतश् च)+++
इति हि +++(अनुमानेन, परम्परया)+++ स्वर्ग-साधनत्व-निश्चयः +++(याग-कर्मणः)+++ ।
नीलमेघः - मीमांसकोक्तिः
इस दोष का समाधान करते हुये
पूर्वमीमांसक कहते हैं कि
यद्यपि व्याकरण से इस लिङ् लकार का अर्थ
कर्ता ही सिद्ध होता है,
स्वर्गकाम पद को
कर्तृविशेष का समर्पक ही मानना चाहियेपरन्तु यहां पर यह दोष होता है कि
स्वर्ग चाहने वाला पुरुष
उस कर्म का कर्ता नहीं बन सकता
जो स्वर्ग का साधन हो।
याग साक्षात् स्वर्ग का साधन नहीं बनता है,
याग क्रिया में
स्वर्ग कामना वाला पुरुष कर्ता नहीं बन सकता है
ऐसा दोष उपस्थित होता है ।
[[२७३]]
इस दोष से बचने के लिये
यह मानना पड़ता है कि यह लिङ लकार लक्षणा से
नियोज्य का वाचक है
और स्वर्गकाम पद नियोज्यविशेष का समर्पक है ।
यह मीमांसकों का कथन है ।
नीलमेघः - प्रत्युक्तिः
[[२७२]]
इस पर श्रीरामानुजस्वामी कहते हैं कि
मीमांसक मत में भी उपर्युक्त दोष आता है
क्योंकि स्वर्ग चाहने वाला पुरुष
उस कार्य में प्रेरित नहीं किया जा सकता
जो स्वर्ग का साधन न हो।
इस दोष का समाधान
मीमांसकों को इस प्रकार करना होगा कि
स्वर्ग चाहने वाला पुरुष
जब इस कार्य में प्रेरित किया जाता है
इससे ही विदित होता है कि
यह +++(अपूर्वाख्य-)+++कार्य स्वर्ग का साधन है।
स्वर्ग चाहने वाले पुरुष को
स्वर्गसाधन कार्य में ही नियुक्त करना उचित ही है।
मीमांसकों के इस समाधान को सुनकर
श्रीरामानुजस्वामी जी कहते हैं कि
कर्ता को लिङ्लकार का वाच्य मानने वाले
हम भी इस प्रकार समाधान कर सकते हैं कि
स्वर्ग चाहने वाला पुरुष
उस कर्म का ही कर्ता हो सकता है
जो स्वर्ग का साधन हो ।
यहाँ स्वर्गार्थी पुरुष
याग का कर्ता कहा गया है,
इससे सिद्ध होता है कि याग स्वर्ग का साधन है,
स्वार्थी पुरुष
परम्परा से स्वर्ग साधन बनने वाले याग का कर्ता बने
इसमें कोई दोष नहीं ।
मीमांसक जिस प्रकार
अपने पक्ष में आये हुए दोष का समाधान करते हैं,
उसी प्रकार हम भी
अपने पक्ष में आये हुए दोष का समाधान कर सकते हैं ।
मूलम्
साध्यस्वर्गविशिष्टस्य स्वर्गसाधने कर्तृत्वान्वयो न घटत
इति चेत् - नियोज्यत्वान्वयो ऽपि न घटत इति हि स्वर्गसाधनत्वनिश्चयः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स +++(→स्वर्ग-साधनत्व-निश्चयः)+++ तु
+++(व्याकरण-)+++शास्त्र-सिद्धे कर्तृत्वान्वये +++(सति)+++
+++(न भवतां नियोज्यान्वय इव शास्त्रासिद्धे)+++
+++(प्राग्-अ-ज्ञातः)+++ स्वर्ग-साधनत्व-निश्चयः क्रियते …
नीलमेघः
नियोज्य लकार का वाच्य नहीं हैं,
स्वर्ग काम पद को नियोज्यविशेष का समर्पक मानना
व्याकरण विरुद्ध है ।
यह दोष मीमांसक मत में बना रहता है,
लकार कर्ता का वाचक है,
स्वर्ग काम पद कर्तृविशेष का समर्पक है यह हमारा मत सिद्ध व्याकरण से अनुमोदित है ।
मूलम्
स तु शास्त्रसिद्धे
कर्तृत्वान्वये स्वर्गसाधनत्वनिश्चयः क्रियते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा
भोक्तु-कामो देव-दत्त-गृहं गच्छेद्
इत्य् उक्ते
भोजन-कामस्य देव-दत्त–गृह-गमने
कर्तृत्व-श्रवणाद् एव
प्राग् अज्ञातम् अपि भोजन-साधनत्वं देव-दत्त–गृह-गमनस्य +अवगम्यते ।
एवम् अत्रापि भवति ।
नीलमेघः
यह अर्थ लोकानुभव से सिद्ध है ।
लोक में यदि कोई कहे कि
भोजन चाहने वाला पुरुष देवदत्त के घर जाय,
वहाँ भोजनार्थी पुरुष का
देवदत्त के घर जाने में कर्तृत्व प्रतीत होने से
बालक भी यह समझ लेता है कि
देवदत्त गृहगमन भोजन का साधन हैं।
उसी प्रकार
प्रकृत में अनायास समझा जा सकता है ।
इसलिये, लकार को कर्तृवाचक
तथा स्वर्ग काम पद को कर्तृ विशेष समर्पक मानना ही
व्याकरण शास्त्र और युक्ति से संगत होता है।
मूलम्
यथा भोक्तुकामो देवदत्तगृहं गच्छेद् इत्युक्ते भोजनकामस्य देवदत्तगृहगमने कर्तृत्वश्रवणाद् एव प्रागज्ञातम् अपि भोजनसाधनत्वं देवदत्तगृहगमनस्यावगम्यते ।
एवम् अत्रापि भवति ।
बुद्धि-कर्तृत्व-कल्पनम् अयुक्तम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
न क्रियान्तरं प्रति कर्तृतया श्रुतस्य
क्रियान्तरे कर्तृत्व-कल्पनं युक्तम् +++(यथा मीमांसकैः बुद्धि-विशेष-कर्तृत्वम् उक्तम्)+++।
नीलमेघः
मीमांसकों का यह +++(वक्ष्यमाण)+++ मत समीचीन नहीं
क्योंकि जो किसी क्रिया का कर्ता कहा गया है,
उसे दूसरी क्रिया का कर्ता मानना अन्याय है ।
मूलम्
न क्रियान्तरं प्रति कर्तृतया श्रुतस्य क्रियान्तरे कर्तृत्वकल्पनं युक्तम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
“यजेते"ति हि याग-कर्तृतया श्रुतस्य
+++(वक्ष्यमाण-रीत्या)+++ बुद्धौ कर्तृत्व-कल्पनं क्रियते ।
नीलमेघः
“यजेत” शब्द याग क्रिया के कर्ता को बतलाता है,
मीमांसक कहते हैं कि
वह शब्द बुद्धि विशेष के कर्ता को बतलाता है,
मूलम्
“यजेते"ति हि यागकर्तृतया श्रुतस्य बुद्धौ कर्तृत्वकल्पनं क्रियते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धेः कर्तृत्व-कल्पनम् एव हि नियोज्यत्वम् ।
नीलमेघः
किंच, मीमांसक यह मानते हैं कि
+++(अपूर्वाख्य-)+++कार्य को अपना समझने वाला पुरुष
नियोज्य माना जाता है।
अपना समझना एक बुद्धि हैं,
उस बुद्धि में नियोज्य पुरुष कर्ता होता है।
मूलम्
बुद्धेः कर्तृत्वकल्पनम् एव हि नियोज्यत्वम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं
नियोज्यः स च +++(अपूर्वाख्य-)+++कार्यं यः
स्वकीयत्वेन बुध्यते ।
इति ।
नीलमेघः
उनका यह कथन प्रसिद्ध है कि
“नियोज्यः स च कार्यं यः
स्वकीयत्वेन बुद्ध्यते”
अर्थात्-
वही नियोज्य होता है
जो कार्य को अपना समझता हो ।
मूलम्
यथोक्तं
नियोज्यः स च कार्यं यः
स्वकीयत्वेन बुध्यते ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यष्टृत्वानुगुणं तद्-बोद्धृत्वम्
इति चेत् -
देवदत्तः पचेद्
इति पाके कर्तृतया श्रुतस्य देवदत्तस्य
पाकार्थ-गमनं +++(विपणम् प्रति)+++ पाकानुगुणम्
इति +++(विपण-)+++गमने कर्तृत्व-कल्पनं न युज्यते ।+++(5)+++
नीलमेघः
इसपर मीमांसक कहते हैं कि
याग क्रिया में कर्ता वही हो सकता है
जो उस +++(अपूर्वाख्य-)+++कार्य को अपना समझता है ।
वैसा समझने वाला नियोज्य होता है
इस लिये यहां नियोज्य को लकारार्थं मानना चाहिये ।
इसपर श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
नियोज्यत्व कितना ही उपयुक्त हो,
परन्तु उसे लकारार्थं मानना उचित नहीं
क्योंकि यह लोकानुभव विरुद्ध है।
लोक में कहा जाता है कि देवदत्त पाक करे ।
यहां देवदत्त
पाक क्रिया का कर्ता प्रतीत होता है,
पाक के लिये बाजार जाने की आवश्यकता होती है ।
[[२७४]]
इस लिये यदि कोई ये कहे कि
“देवदत्त पाक करे”
यह वाक्य देवदत्त को गमन क्रिया का कर्ता बतलाता है,
तो उसका कथन गलत ही माना जाता है
क्योंकि वह वाक्य
देवदत्त को पाक क्रिया का कर्ता ही बतलाता है,
गमन क्रिया का कर्ता नहीं बतलाता,
उसी प्रकार ही प्रकृत में भी समझना चाहिये ।
नीलमेघः - निगमनम्
याग क्रिया में कर्ता कहे जाने वाले पुरुष को
बुद्धि क्रिया में कर्ता मानना अनुचित है ।
इस प्रकार श्री रामानुजस्वामी जी ने
कार्य से सम्बन्ध रखने वाले नियोज्य का खण्डन करके
कार्य खण्डन उपसंहार किया है ।
मूलम्
यष्टृत्वानुगुणं तद्बोद्धृत्वम्
इति चेत् -
देवदत्तः पचेद्
इति पाके कर्तृतया श्रुतस्य देवदत्तस्य
पाकार्थगमनं पाकानुगुणम्
इति गमने कर्तृत्वकल्पनं न युज्यते ।