विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च +++(मीमांसकोक्त-“अपूर्व”-रूप-)+++कार्य-वाक्यार्थ-वादिभिः
“किम् इदं कार्यत्वं नामे"ति वक्तव्यम् ।
नीलमेघः - सङ्गतिः
श्रीरामानुजस्वामी जी ने
सिद्धार्थ में व्युत्पत्ति का समर्थन करके
तथा सिद्ध अर्थ में व्युत्पत्ति न होने पर भी
कार्य अर्थ में ही व्युत्पत्ति होने पर भी
उपासन विधि में प्राप्य फल के रूप में
अपेक्षित होने के कारण
ब्रह्म की सिद्धि का समर्थन करके
आगे उस कार्य का
जिसका वर्णन प्राभाकर मीमांसकों ने
नाना प्रकार से किया था
खण्डन किया है।
श्रीरामानुजस्वामी जी ने कहा कि
प्राभाकर मीमांसक यह जो कह रहे हैं कि
वाक्य का अर्थ कार्य ही है,
उन्हें इस प्रश्न का —
कि कार्य किसे कहते हैं,
कार्य का लक्षण क्या है—
उत्तर देना चाहिये ।
मूलम्
अपि च कार्यवाक्यार्थवादिभिः किम् इदं कार्यत्वं नामेति वक्तव्यम् ।
कृत्य्-उद्देश्यत्वम् इष्टत्वम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृति-भाव-भाविता कृत्य्+++(=प्रयत्न)+++-उद्देश्यता च
+इति चेत् -
किम् इदं कृत्य्-उद्देश्यत्वम्?
नीलमेघः - अपूर्वम्
इस प्रश्न के उत्तर में
वे यह कहते हैं कि
याग इत्यादि क्रिया नश्वर हैं,
वे शरीर त्यागने के बाद मिलने वाले स्वर्ग इत्यादि फल का कारण
नहीं हो सकती हैं
क्योंकि स्वर्ग शरीर त्यागने के बाद मिलने वाला है,
ये याग आदि क्रियायें
शरीर रहते समय ही नष्ट हो जाती हैं । स्वर्ग की उत्पत्ति के पूर्वक्षण में नहीं रहती हैं ।
इस लिये ये स्वर्ग का साक्षात् कारण नहीं हो सकती ।
इनको स्वर्ग का कारण कहा गया है
तदर्थ मानना पड़ता है कि
ये याग आदि क्रियायें उत्पन्न होने के बाद
एक अपूर्व को उत्पन्न करा देती हैं
वह अपूर्व स्थायी रहता है,
स्वर्ग आदि फलों को उत्पन्न करा करके ही
वह नष्ट होता है,
तब तक वह स्थायी रहता है ।
याग आदि क्रियायें
इस अपूर्व के द्वारा
स्वर्ग का साधन बनती हैं।
इस बातको वैशेषिक नैयायिक इत्यादि दार्शनिक
सिद्धान्तरूप में मानते हैं
तथा मीमांसकों में भाट्टमीमांसक भी
इस बात को मानते हैं ।
भाट्टमीमांसकों से
हम लोगों में अर्थात् प्राभाकर मीमांसकों में
यही अन्तर है कि
हम लोग उस अपूर्व को वाच्य मानते हैं
वे उसे वाच्य नहीं मानते हैं ।+++(5)+++
हमारा यह सिद्धान्त है कि
वह अपूर्व लिङ लोट् तव्य इत्यादि प्रत्ययों से अभिहित होता है,
अतएव वह वाच्य है ।
इस वाच्य अपूर्व को ही
हम पूर्व-कार्य और नियोग इत्यादि शब्दों से कहा करते हैं ।
नीलमेघः - कार्य-धर्माः
इस कार्य में तीन धर्म रहते हैं ।
(१) यह कार्य प्रयत्न से उत्पन्न होता है ।
प्रयत्न कृति कहलाता है ।
यह कार्य प्रयत्न साध्य होने से
कृति-साध्य कहा जाता है । कृति-साध्यत्व कार्य का एक धर्म है ।
(२) कार्य इष्ट होता है ।
इष्टत्व कार्य का दूसरा धर्म है। कृति-साध्यत्व और इष्टत्व
अन्य पदार्थ में भी विद्यमान रहते हैं ।
ये कार्य का असाधारण धर्म नहीं है -
याग आदि
क्रिया भी प्रयत्न-साध्य है ।
फल भी इष्ट होता है।
इससे सिद्ध होता है कि
उपर्युक्त दोनों धर्म
कार्य का असाधारण धर्म नहीं है
कार्य का असाधारण धर्म एक है।
[[२६१]]
वह कृत्य्-उद्देश्यत्व है।
कार्य कृति अर्थात् प्रयत्न का उद्देश्य है।
कार्य को सिद्ध करने के लिये ही
यजमान प्रयत्न करता है ।
प्रयत्न-साध्य होता हुआ
जो प्रयत्न का उद्देश्य बना हुआ है,
वह कार्य है ।
यही कार्य का लक्षण है ।
इस प्रकार प्राभाकर मीमांसकों ने
कार्य का लक्षण बतलाया है ।
इस पर यह प्रश्न उठता है कि
कृति का उद्देश्य किसे कहना चाहिये ?
मूलम्
कृतिभावभाविता कृत्युद्देश्यता चेति चेत् -
किम् इदं कृत्युद्देश्यत्वम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् +++(प्रयोजनस्य साधनम् →“अपूर्वम्”)+++ अधिकृत्य कृतिर्+++(=प्रयत्नः)+++ वर्तते
तत् कृत्य्-उद्देश्यत्वम्
इति चेत् -
पुरुष-व्यापार-रूपायाः कृतेः
को ऽयम् +++(अचेतनस्यापि प्रयत्नस्य)+++ अधिकारो नाम ।
नीलमेघः - उद्देश्य-निर्वचनम्
इस प्रश्न के उत्तर में
प्राभाकर मीमांसकों ने कहा है कि
जिसको अधिकार में लेकर प्रयत्न होता है,
वह कृति का उद्देश्य बनता है ।
मनुष्य अपने प्रयोजन का साधन होने के कारण
साधन को अपना समझता है ।
यह समझ ही
अधिकार कहा जाता है ।
इस प्रकार प्रयत्न
अपने प्रयोजन का साधन होने के कारण
जिसे अपना मानकर प्रवृत्त होता है,
वह प्रयत्न का उद्देश्य होता है ।
याग इत्यादि करने वालों का प्रयत्न
अपूर्व को अपने प्रयोजन का साधन होने के कारण
अपना मानकर प्रवृत्त होता है,
इसलिये अपूर्व प्रयत्न का उद्देश्य बन जाता है ।
यह पूर्वमांसकों का कथन है ।
नीलमेघः - अचेतनस्योद्देश्यम्
इसपर यह प्रश्न उठता है कि
किसी साधन को अपना मानना
या न मानना
मनुष्य का काम है,
मनुष्य चेतन है,
वह साधन को अपना मान सकता है ।
प्रयत्न चेतन नहीं है ।
ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जाता है कि
प्रयत्न अपने प्रयोजन का साधन होने के कारण
साधन को अपना मानकर उसमें प्रवृत्त होता है ?
मूलम्
यदधिकृत्य कृतिर्वर्तते
तत्कृत्युद्देश्यत्वम्
इति चेत् -
पुरुषव्यापाररूपायाः कृतेः
कोऽयमधिकारो नाम ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्-प्राप्तीच्छया कृतिम् उत्पादयति पुरुषः
तत् कृत्य्-उद्देश्यत्वम्
इति चेद् -
हन्त! तर्हीष्टत्वम् एव कृत्य्-उद्देश्यत्वम् +++(तच् च सर्ग-निभे फलेऽपि वर्तते,
ततो न भवद्भिर् अपूर्वाख्य-कार्य-लक्षणं वक्तुं शक्तम्)+++ ।
नीलमेघः - पुरुषेष्ट-फलम्
इस प्रश्न के उत्तर में पूर्व मोमांसक कहते हैं कि
जिसको प्राप्त करने की इच्छा से
चेतन प्रयत्न करता है
वह प्रयत्न का उद्देश्य होता है ।
अपूर्व को प्राप्त करने की इच्छा से
चेतन प्रयत्न करता है,
अपूर्व प्रयत्न का उद्देश्य होता है ।
इस प्रकार कृत्युद्देश्यत्व
कार्य में घट जाता है ।
यह मीमांसकों का कथन है ।
नीलमेघः - इष्टत्वम् अलक्षणम्
इस पर श्रीरामानुजस्वामी जी ने कहा कि
इष्टवस्तु को प्राप्त करने की इच्छा से
चेतन प्रयत्न करता है,
इष्टवस्तु ही प्रयत्न का उद्देश्य बनता है ।
इसलिये इष्टत्व और कृत्युद्देश्यत्व
ये धर्म एक हो जाते हैं ।
कार्य में इष्टत्व से अतिरिक्त
जो कृत्युद्देश्यत्व धर्म माना जाता है,
वह इष्टत्व से अतिरिक्त नहीं सिद्ध होता है।
उसका इष्टत्व में अन्तर्भाव हो जाता है,
इष्टत्व से व्यतिरिक्त कृत्युद्देश्यत्व धर्मं का प्रतिपादन अशक्य है ।
इस प्रकार श्रीरामानुजध्वामी जी ने कार्य के साधारण धर्म कृत्युद्देश्यत्व का खण्डन किया है ।
मूलम्
यत्प्राप्तीच्छया कृतिम् उत्पादयति पुरुषः तत् कृत्युद्देश्यत्वम् इति चेद् धन्त तर्हीष्टत्वम् एव कृत्युद्देश्यत्वम् ।
पुरुष-प्रेरकत्वम् इष्टत्वे सति श्रम-साध्यता
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैवं मनुषे -
इष्टस्यैव रूपद्वयम् अस्ति - इच्छा-विषयतया स्थितिः, पुरुष-प्रेरकत्वं च ।
तत्र प्रेरकत्वाकारः कृत्य्-उद्देश्यत्वम्
इति?
नीलमेघः
[[२६२]]
इस पर पूर्वमीमांसक कहते हैं कि
इष्टवस्तु के दो रूप हैं,
एक रूप इष्टत्व है -
इच्छा का विषय बनकर रहना ही इष्टत्व है ।
दूसरा रूप पुरुष प्रेरकत्व है ।
इष्टवस्तु अपने को उत्पन्न करने के लिये
पुरुष को प्रेरित करता है ।
यह प्रेरकत्व आकार ही कृत्युद्देश्यत्व कहा जाता है ।
यह आकार इष्टत्व से भिन्न है ।
इसलिये इस कृत्युद्देश्यत्व का इष्टत्व में
अन्तर्भाव नहीं होता ।
मूलम्
अथैवं मनुषे इष्टस्यैव रूपद्वयम् अस्ति । इच्छाविषयतया स्थितिः पुरुषप्रेरकत्वं च । तत्र प्रेरकत्वाकारः कृत्युद्देश्यत्वम् इति?
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो ऽयं स्व-पक्षाभिनिवेश-कारितो वृथा-श्रमः ।
नीलमेघः
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
मीमांसकों का उपर्युक्त कथन निरर्थक है,
वे अपने पक्ष में अभिनिवेश होने से ऐसा कहते हैं,
इसमें सार नहीं है,
यह व्यर्थ श्रम है ।
नीलमेघः - व्यर्थता-निरूपणम्
यह प्रेरकत्व-रूप कृत्य्-उद्देश्यत्व
कृति-साध्यत्व ही है,
यह कृतिसाध्यत्व से भिन्न नहीं बनता ।
मीमांसकों को इष्टत्व और कृति-साध्यत्व से व्यतिरिक्त रूप में
कृत्युद्देश्यत्व अभिमत है ।
वह मनोरथ सिद्ध नहीं होगा,
प्रेरकत्वरूप कृत्युद्देश्यत्व कृतिसाध्यत्व में अन्तर्भूत हो जाता है ।
मूलम्
सो ऽयं स्वपक्षाभिनिवेशकारितो वृथाश्रमः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हीच्छा-विषयतया प्रतीतस्य
स्व-प्रयत्नोत्पत्तिम् अन्तरेणासिद्धिर् एव प्रेरकत्वम् -
तत एव प्रवृत्तेः ।
नीलमेघः
इष्टवस्तु के विषय में
यदि यह ज्ञान हो
कि यह इष्टवस्तु प्रयत्न के बिना सिद्ध नहीं होगी
तब वह इष्टवस्तु प्रेरक बन जाती है,
इष्टवस्तु का प्रयत्न के बिना उत्पन्न न होना ही
उसका प्रेरकत्व है ।
मूलम्
तथा हीच्छाविषयतया प्रतीतस्य स्वप्रयत्नोत्पत्तिम् अन्तरेणासिद्धिर् एव प्रेरकत्वम् - तत एव प्रवृत्तेः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छायां जातायाम्
इष्टस्य स्व-प्रयत्नोत्पत्तिम् अन्तरेणासिद्धिः प्रतीयते चेत्
ततश् चिकीर्षा जायते
ततः प्रवर्तते पुरुष
इति तत्त्वविदां प्रक्रिया ।
नीलमेघः
तत्त्वज्ञों की यह मान्यता है कि
इष्टवस्तु को प्राप्त करने की इच्छा हो जाने पर
यदि यह विदित हो जाय कि
प्रयत्न के बिना इष्टवस्तु प्राप्त न होगी,
तब मनुष्य को उसके उपाय में प्रवृत्त होने की इच्छा होती है,
बाद में मनुष्य उपाय में प्रवृत्त होता है ।
जो इष्टवस्तु प्रयत्न से साध्य होती है,
वह प्रयत्न के द्वारा ही
स्वस्वरूप को प्राप्त करती है ।
मूलम्
इच्छायां जातायाम् इष्टस्य स्वप्रयत्नोत्पत्तिम् अन्तरेणासिद्धिः प्रतीयते चेत् ततश् चिकीर्षा जायते ततः प्रवर्तते पुरुष इति तत्त्वविदां प्रक्रिया ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् इष्टस्य कृत्य्+++(=प्रयत्न)+++-अधीनात्म-लाभत्वातिरेकि
कृत्य्-उद्देश्यत्वं नाम किम् अपि न दृष्यते ।
नीलमेघः
इष्टवस्तु को
प्रयत्न के द्वारा स्वस्वरूप को प्राप्त करना यही
कृत्युदेश्यत्व है,
इससे व्यतिरिक्त कृत्युद्देश्यत्व
प्रमाण से सिद्ध होता ही नहीं ।
प्रयत्नसाध्य प्रतीत होने पर ही
इष्टवस्तु प्रेरक बन सकती है,
प्रयत्न साध्यत्व ही प्रेरकत्व है ।
यदि प्रेरकत्व ही कृत्युद्देश्यत्व होता,
जैसा मीमांसकों ने कहा
तब तो कृतिसाध्यत्व ही कृत्युद्देश्यत्व सिद्ध होता है।
मीमांसकों के अभिमत
उस कृत्युद्देश्यत्व -
जो कृतिसाध्यत्व और इष्टत्व से भिन्न माना जाता है—
में कोई प्रमाण है नहीं ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
कार्य का असाधारणधर्म कृत्युद्देश्यत्व का खण्डन करके
कार्य खण्डन किया है ।
मूलम्
तस्माद् इष्टस्य कृत्यधीनात्मलाभत्वातिरेकि कृत्युद्देश्यत्वं नाम किम् अपि न दृष्यते ।
पुरुषानुकूलत्वम् = सुखत्वम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोच्यते -
इष्टताहेतुश् च पुरुषानुकूलता,
तत् पुरुषानुकूलत्वं कृत्य्-उद्देश्यत्वम्
इति चेत् - नैवम् ।
नीलमेघः
[[२६३]]
आगे कृत्युद्देश्यत्व का दूसरे प्रकार से परिष्कार करते हुये
पूर्वमीमांसकों ने कहा कि
कोई भी पदार्थ इसलिये ही इष्ट होता है कि
वह चेतनों को अनुकूल लगता है ।
चेतनों के प्रति अनुकूल होना ही
इष्ट होने का कारण है ।
यह अनुकूलत्व ही कृत्युद्देश्यत्व है ।
इसलिये कृत्युद्देश्यत्व को
इष्टत्व एवं कृतिसाध्यत्व से भिन्न मानना पड़ता है ।
अपूर्व कार्य चेतनों का अनुकूल है,
इसलिये वह कृत्युद्देश्य माना जाता है ।
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
मीमांसकों का उपर्युक्त कथन समीचीन नहीं,
क्योंकि अपूर्व कार्य चेतनों का अनुकूल
नहीं माना जा सकता ।
मूलम्
अथोच्यते इष्टताहेतुश् च पुरुषानुकूलता । तत्पुरुषानुकूलत्वं कृत्युद्देश्यत्वम् इति चेत् - नैवम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषानुकूलं सुखम् इत्य् अनर्थान्तरम् ।
तथा पुरुष-प्रतिकूलं दुःख-पर्यायम् ।
नीलमेघः
जो चेतनों को अनुकूल लगता है,
वह सुख कहलाता है ।
जो चेतनों को प्रतिकूल लगता है
वह दुःख कहलाता है ।
चेतनानुकूल और सुख
ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं ।
चेतनप्रतिकूल और दुःख
ये दोनों पद एक ही अर्थ के वाचक हैं ।
मूलम्
पुरुषानुकूलं सुखम् इत्य् अनर्थान्तरम् ।
तथा पुरुषप्रतिकूलं दुःखपर्यायम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः सुख-व्यतिरिक्तस्य कस्यापि पुरुषानुकूलत्वं न संभवति ।
+++(अतो नापूर्वम्/ कार्यम् / कृत्युद्देशः पुरुषानुकूलम् - असुखत्वात्। )+++
नीलमेघः
अपूर्व कार्य कोई सुख नहीं है
वह सुख से व्यतिरिक्त है ।
वह चेतनों का अनुकूल नहीं हो सकता ।
उसे चेतनों का अनुकूल मानकर
कृत्युद्देश्य कहना सर्वथा अयुक्त है ।
मूलम्
अतः सुखव्यतिरिक्तस्य कस्यापि पुरुषानुकूलत्वं न संभवति ।
न सुख-व्यतिरिक्तस्य पुरुषानुकूलता
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु च दुःख-निवृत्तेर् अपि
सुख-व्यतिरिक्तायाः पुरुषानुकूलता दृष्टा ।
+++(एवं सुख-व्यतिरिक्तम् अप्य् अपूर्वम्/ कार्यं / कृत्युद्देशः पुरुषानुकूलता-लक्षणम्।)+++
नैतत् ।
नीलमेघः
इसपर पूर्वमीमांसकों ने कहा कि वह दुःख की निवृत्ति -
जो सुख से व्यतिरिक्त है-
भी चेतनों को अनुकूल लगती है ।
यह सर्वानुभूत सत्य है ।
सुख ही अनुकूल हो,
ऐसी बात नहीं
क्योंकि सुख से भिन्न दुःख निवृत्ति भी अनुकूल लगती है ।
इसी प्रकार ही सुख लगती है ।
इसी प्रकार ही सुख से व्यतिरिक्त
अपूर्व कार्य भी
चेतनों का अनुकूल माना जा सकता है ।
मूलम्
ननु च दुःखनिवृत्तेर् अपि सुखव्यतिरिक्तायाः पुरुषानुकूलता दृष्टा । नैतत् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(स्वत)+++ आत्मानुकूलं सुखम्,
+++(स्वत)+++ आत्म-प्रतिकूलं दुःखम्
इति हि सुख-दुःखयोर् विवेकः ।
नीलमेघः
इसपर श्रीरामानुजश्वामी जी ने कहा कि
जो स्वतः इष्ट होता है,
वह अनुकूल है,
सुख स्वतः इष्ट होता है,
उसे अनुकूल मानना उचित है ।
जो स्वतः अनिष्ट है,
वह प्रतिकूल कहा जाता है ।
दुःख चेतनों को स्वतः अनिष्ट है,
उसे प्रतिकूल मानना उचित है ।
दुःख और सुख का
यही विवेचन है कि
जो चेतनों का अनुकूल है, वह सुख है,
जो चेतनों का प्रतिकूल है, वह दुःख है ।
यह सर्वमान्य सिद्धान्त है ।
मूलम्
आत्मानुकूलं सुखम् आत्मप्रतिकूलं दुःखम् इति हि सुखदुःखयोर् विवेकः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रात्मानुकूलं सुखम् इष्टं भवति ।
तत्प्रतिकूलं दुःखं चानिष्टम् ।
नीलमेघः
चेतनों का अनुकूल होने से
सुख इष्ट होता है,
चेतनों का प्रतिकूल होने से
दुःख अनिष्ट होता है ।
मूलम्
तत्रात्मानुकूलं सुखम् इष्टं भवति ।
तत्प्रतिकूलं दुःखं चानिष्टम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो दुःख-संयोगस्यासह्यतया
तन्-निवृत्तिर् अपीष्टा भवति ।
तत एवेष्टतासाम्याद् +++(स्वत-)+++अनुकूलता-भ्रमः ।
नीलमेघः
दुःख असह्य होता है,
इसलिये उसकी निवृत्ति इष्ट होती है,
वह स्वतः इष्ट नहीं होती है,
किंतु दुःख असह्य होने के कारण
तथा दुःख में द्वेष होने के कारण
वह इष्ट होती है ।
वह स्वतः इष्ट होने के कारण अनुकूल
नहीं मानी जा सकती ।
मूलम्
अतो दुःखसंयोगस्यासह्यतया
तन्निवृत्तिर् अपीष्टा भवति ।
तत एवेष्टतासाम्याद् अनुकूलताभ्रमः ।
चेतन दुःख निवृत्ति को अनुकूल समझें तो वह भ्रम ही है,
जिस प्रकार सुख इष्ट होता है,
उसी प्रकार दुःख द्वेष के कारण
दुःख निवृत्ति भी इष्ट होती है ।
इष्ट होने के कारण
चेतन सुख एवं दुःख निवृत्ति को अनुकूल मान लेते हैं।
वास्तव में दुःख निवृत्ति
स्वतः इष्ट न होने से
अनुकूल मानने योग्य नहीं है ।
इस अन्तर को न समझकर
चेतन इष्टत्व भर को समझकर
दुःखनिवृत्ति को भ्रम से
अनुकूल मान लेते हैं ।
[[२६४]]
दुःखनिवृत्ति और सुख
यदि एक पदार्थों हों,
तभी दुःखनिवृत्ति अनुकूल बन सकती है।
दुःखनिवृत्ति और सुख भिन्न २ पदार्थ हैं,
इसलिये दुःखनिवृत्ति अनुकूल
नहीं मानी जा सकती ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि प्रकृति-संसृष्टस्य संसारिणः पुरुषस्य
+अनुकूल-संयोगः, प्रतिकूल-संयोगः, स्व-रूपेणावस्थितिर्
इति च तिस्रो ऽवस्थाः । +++(5)+++
नीलमेघः
सुख निवृत्ति और दुःख को
तथा दुःखनिवृत्ति और सुख को
भिन्न पदार्थ मानना ही युक्तिसंगत है
क्योंकि लोक में देखा जाता है कि
प्रकृति से संबद्ध बद्ध जीवों की
तीन अवस्थायें होती हैं ।
(१) अनुकूल संबन्ध
(२) प्रतिकूल संबन्ध और
(३) स्वरूप में स्थिति ।
मूलम्
तथा हि प्रकृतिसंसृष्टस्य संसारिणः पुरुषस्यानुकूलसंयोगः प्रतिकूलसंयोगः स्वरूपेणावस्थितिर् इति च तिस्रो ऽवस्थाः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र प्रतिकूल-संबन्ध-निवृत्तिश् चानुकूल-संबन्ध-निवृत्तिश् च स्वरूपेणावस्थितिर् एव +++(निद्रादौ यथा)+++।
नीलमेघः
सुख भोगते समय जीव को
अनुकूल संबन्ध होता है ।
दुःख भोगते समय
जीव को प्रतिकूल संबन्ध होता है,
सुख दुःख रहित निद्रा आदि दशा में
जीव की स्वरूप में स्थिति होती है ।
निद्रा आदि अवस्था में जीव को
न अनुकूल संबन्ध होता है
न प्रतिकूल संबन्ध होता है,
उस समय चेतन स्वरूप में अवस्थित रहता है ।
यदि सुख निवृत्ति और दुःख को
एक पदार्थ मान लिया जाय
तथा दुःखनिवृत्ति और सुख को एक पदार्थ मान लिया जाय
तो निद्रा आदि अवस्था में
जीव को सुख दुःख मानना पड़ेगा
क्योंकि उस समय सुख निवृत्ति होने के कारण
दुःख मानना होगा
तथा दुःख निवृत्ति होने के कारण
सुख मानना होगा ।+++(5)+++
ऐसा मानना तो उचित नहीं है
क्योंकि निद्रा समय में
जीव सुख दुःख रहित होकर
स्वरूप में अवस्थित रहता है ।
अतः यही सिद्धान्त मानना होगा कि
दुःख निवृत्ति और सुख
भिन्न २ पदार्थ हैं
तथा सुख निवृत्ति और दुःख
भिन्न २ पदार्थ हैं।
तीसरी अवस्था में
अर्थात स्वरूप में अवस्थित रहते समय
अनुकूल संबन्ध और प्रतिकूल संबन्ध
दोनों निवृत्त हो जाते हैं ।
मूलम्
तत्र प्रतिकूलसंबन्धनिवृत्तिश् चानुकूलसंबन्धनिवृत्तिश् च स्वरूपेणावस्थितिर् एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् प्रतिकूल-संयोगे वर्तमाने
तन्-निवृत्ति-रूपा स्व-रूपेणावस्थितिर् अपीष्टा भवति ।
नीलमेघः
प्रतिकूल दुःख सम्बन्ध होने पर
जीव स्वरूप में अवस्थिति को
इस लिये चाहते हैं कि
उस समय दुःख संबन्ध की निवृत्ति हो जाती है ।
वह स्वरूप में स्थिति
अनुकूल नहीं है
क्योंकि उस समय सुख नहीं होता ।
सुख न होने पर भी
वह इस लिये इष्ट होती है कि
उस समय प्रतिकूल संबन्ध की निवृत्ति हो जाती है ।
मूलम्
तस्मात् प्रतिकूलसंयोगे वर्तमाने तन्निवृत्तिरूपा स्वरूपेणावस्थितिर् अपीष्टा भवति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रेष्टता-साम्याद् अनुकूलता-भ्रमः ।
नीलमेघः
इष्ट होने के
चेतन भ्रम से उसे
अनुकूल मान लेते हैं ।
वास्तव में वह अनुकूल नहीं है,
इष्ट होती है,
इतना ही है ।
मूलम्
तत्रेष्टतासाम्याद् अनुकूलताभ्रमः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः सुख-रूपत्वाद् अनुकूलतायाः,
+++(अपूर्व/कार्यापरनाम-)+++नियोगस्यानुकूलतां वदन्तं
प्रामाणिकाः परिहसन्ति ।
नीलमेघः
भाव यह है कि
स्वरूप में अवस्थिति अनुकूल नहीं बन सकती
तथा दुःख निवृत्ति भी
अनुकूल नहीं बन सकती है।
एकमात्र सुख ही अनुकूल हो सकता है ।
सुख व्यतिरिक्त अपूर्व कार्य, जो नियोग कहा जाता है,
को अनुकूल कहने वाले मीमांसकों को देखकर
प्रामाणिक सज्जन परिहास करते हैं
क्योंकि सुख व्यतिरिक्त
वह अपूर्व कार्य
अनुकूल बन ही नहीं सकता ।
इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने मीमांसक सम्मत अपूर्व कार्य की अनुकूलता का खण्डन किया है ।
मूलम्
अतः सुखरूपत्वाद् अनुकूलतायाः नियोगस्यानुकूलतां वदन्तं प्रामाणिकाः परिहसन्ति ।
इष्ट-साधनता, न सुखता
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(“पूर्वकार्यम् अपि सुखम् एवे"ति चेन् न -)+++
इष्टस्यार्थ-विशेषस्य +++(कालान्तरे)+++ निवर्तकतयैव हि
+++(“अपूर्व”/कार्यापरनाम-)+++नियोगस्य
नियोगत्वं+++(=प्रेरकत्वम्)+++ स्थिरत्वम् अपूर्वत्वं च प्रतीयते
+++(न तु स्वतः - तेन तन् न सुखम्)+++।
नीलमेघः
[[२६५]]
इसपर मीमांसकों ने यह कहा कि
पूर्व कार्य — जो नियोग कहलाता है - भी
एक सुख विशेष है,
इसलिये उसको अनुकूल मानना उचित है ।
इस अर्थ का खण्डन करते हुये श्रीरामानुजस्वामी जी ने कहा कि
नियोग अर्थात् अपूर्व कार्य सुखविशेष नहीं माना जा सकता
स्क्योंकि सुख स्वतः इष्ट होता है ।
नियोग इष्ट साधन होने के कारण इष्ट होता है, स्वतः नहीं ।
स्वर्ग इत्यादि सुख स्वतः इष्ट होता है,
उसका साधन होने के कारण
नियोग इष्ट होता है ।
इष्टसाधन होने के कारण ही
नियोग को स्थिर एवं अपूर्व माना जाता है
नियोग को नियोग मानने का कारण यही है कि
वह प्रेरक होता है ।
प्रेरक और नियोग ये दोनों पद समानार्थक हैं ।
नियोग को इष्ट साधन समझने पर
चेतन प्रवृत्त होता है ।
इष्ट साधन होने से ही
नियोग प्रेरक अर्थात् प्रवृत्ति का कारण होता है ।
अतः एव वह नियोग कहलाता है ।
कालान्तर में होने वाले स्वर्ग का साधन होने से ही
नियोग अर्थात् अपूर्व कार्य को
स्थिर मानना पड़ता है ।
अपूर्व कार्य को अपूर्व मानने का कारण यही है कि
वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विदित नहीं होता,
किन्तु शास्त्र के द्वारा ही विदित होता है,
क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से
याग आदि क्रिया ही विदित होती है,
ये क्रियायें नश्वर हैं
इन क्रियाओं से व्यतिरिक्त स्थिर साधन अपूर्व कहलाता है—शास्त्र से विदित होता है ।
साधन रूप में ही
वह शास्त्रों से बोधित होता है ।
इस प्रकार इष्ट साधन होने से अपूर्व कार्य का नियोगत्व अर्थात् प्रेरकत्व और अपूर्वत्व सिद्ध होता है ।
मूलम्
इष्टस्यार्थविशेषस्य निवर्तकतयैव हि नियोगस्य नियोगत्वं स्थिरत्वम् अपूर्वत्वं च प्रतीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“स्वर्ग-कामो यजेते"त्य्-अत्र
+++(अपूर्वाख्य-)+++कार्यस्य +++(नश्वर-)+++क्रियातिरिक्तता
स्वर्ग-काम-पद-समभिव्याहारेण
स्वर्ग-साधनत्व-निश्चयाद् एव भवति ।
+++(तेन सुख-साधनम्, न स्वतस् सुखम्।)+++
नीलमेघः
“स्वर्गकामो यजेत”
अर्थात् “स्वर्ग चाहने वाले याग करें ।”
इस वाक्य को सुनने पर
याग क्रिया ही प्रथमतः कार्य अर्थात कर्तव्य प्रतीत होती है ।
याग क्रिया स्वर्ग का साधन होने पर ही
कर्तव्य हो सकती है ।
“स्वर्गकामः” पद का साथ प्रयोग होने से
याग क्रिया स्वर्ग साधन प्रतीत होती है।
याग स्वर्ग चाहने वाला का कर्तव्य है । अतः वह स्वर्ग साधन माना जाता है ।
किन्तु कठिनाई यह है कि
याग नश्वर होने के कारण
कालान्तर में होने वाले स्वर्ग का कारण नहीं बन सकता है।
इस कठिनाई को दूर करने के लिये
यह मानना पड़ता है कि
याग क्रिया स्थिर अपूर्व के द्वारा
स्वर्ग का साधन होती है,
याग से उत्पन्न होने वाला
वह अपूर्व नश्वर नहीं है,
किंतु फलोत्पत्ति के पूर्व क्षण तक रहता है,
वह पूर्वं क्षण में रहकर
फल को उत्पन्न कर देता है।
इस प्रकार इष्ट साधन के रूप में ही
अपूर्व सर्व प्रथम बुद्ध्यारूढ होता है ।
इष्ट साधन बनने वाला अपूर्व
स्वतः इष्ट नहीं हो सकता,
अतएव उसे सुख विशेष मानना भी
उचित नहीं है ।
मूलम्
स्वर्गकामो यजेतेत्य् अत्र कार्यस्य क्रियातिरिक्ता स्वर्गकामपदसमभिव्याहारेण स्वर्गसाधनत्वनिश्चयाद् एव भवति ।
अप्रधानता
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च वाच्यं
“यजेते"त्य्-अत्र प्रथमं +++(“अपूर्व”/कार्यापरनाम-)+++नियोगः स्व-प्रधानतयैव प्रतीयते
+++(तेन तत् स्वत इष्टं सुखं च)+++।
+++(यतः)+++
“स्वर्ग-काम”–पद-समभिव्याहारात्
स्व-सिद्धये स्वर्ग-सिद्ध्य्-अनुकूलता च नियोगस्य
+इति +++(तेनाप्रधानता)+++।
नीलमेघः
[[२६६]]
इसपर पूर्वमीमांसकों ने कहा कि
जिस प्रकार
भृत्यों को इष्ट देने वाला राजा
प्रधान माना जाता है,
उसी प्रकार नियोग अर्थात् अपूर्व कार्य को
प्रधान मानना चाहिये ।
राजा की तरह प्रधान बना हुआ अपूर्व
याग आदि करने वालों को इष्ट फल देता है ।+++(5)+++
अपूर्व स्वयं प्रधानरूप में प्रतीत होता है ।
अतः वह स्वतः इष्ट हो सकता है,
उसे सुख-स्वरूप मानने में
किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिये ।
यह मीमांसकों का कथन है ।
मूलम्
न च वाच्यं यजेतेत्य् अत्र प्रथमं नियोगः स्वप्रधानतयैव प्रतीयते स्वर्गकामपदसमभिव्याहारात् स्वसिद्धये स्वर्गसिद्ध्यनुकूलता च नियोगस्येति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजेतेति हि
धात्व्-अर्थस्य पुरुष-प्रयत्न-साध्यता प्रतीयते । +++(5)+++
नीलमेघः
इस पर श्रीरामानुजस्वामी जी ने कहा कि
“यजेत” इस पद में लिङ्लकार से
स्वयं प्रधान अपूर्व कार्य बतलाया जाता है,
प्राभाकर मीमांसकों का यह कथन समीचीन नहीं है क्योंकि
“यजेत” इस पद से
यही बतलाया जाता है कि
याग क्रिया पुरुष प्रयत्न से साध्य है ।
धात्वर्थ को पुरुष प्रयत्न साध्य बतलाना
यही लिङलकार का काम है । +++(5)+++
मूलम्
यजेतेति हि धात्वर्थस्य पुरुषप्रयत्नसाध्यता प्रतीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्ग-काम–पद-समभिव्याहाराद् एव
धात्व्-अर्थातिरेकिणो नियोगत्वं+++(=प्रेरकत्वम्)+++ स्थिरत्वम् अपूर्वत्वं चेत्यादि ।
नीलमेघः
“स्वर्गकामः” इस पद के साथ प्रयोग होने से
यह फलित होता है कि
याग क्रिया स्वर्ग साधन है ।
याग क्रिया नश्वर होने से
स्वर्ग साधन नहीं बन सकती ।
इसलिये मानना पड़ता है कि
याग अपूर्व के द्वारा स्वर्ग साधन होता है ।
यह मन्तव्य तभी सही हो सकता है
यदि याग से उत्पन्न होने वाला अपूर्व
स्वर्ग साधन हो ।
तदर्थ अपूर्व को स्वर्ग साधन मानना पड़ता है ।
स्वर्ग साधन होने से ही
अपूर्व उस याग आदि धात्वर्थ—जो स्वर्ग का साधन नहीं बनता है - से भिन्न माना जाता है
तथा नियोग अर्थात प्रेरक, स्थिर एवं अपूर्व माना जाता है।
इन अर्थों का विवरण पहले एक बार किया गया है।
मूलम्
स्वर्गकामपदसमभिव्याहाराद् एव धात्वर्थातिरेकिणो नियोगत्वं स्थिरत्वम् अपूर्वत्वं चेत्यादि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच् च +++(स्थिरत्व-नियोगत्वापूर्वत्वादि)+++ स्वर्ग-साधनत्व-प्रतीति-निबन्धनम् ।
नीलमेघः
अपूर्व में स्वर्ग साधनत्व प्रतीत होने के कारण ही
अपूर्व में नियोगत्व स्थिरत्व एवं अपूर्वत्व सिद्ध होता है ।
मूलम्
तच् च स्वर्गसाधनत्वप्रतीतिनिबन्धनम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
समभिव्याहृत–स्वर्ग-काम–पदार्थान्वय-योग्यं स्वर्ग-साधनम् एव।
नीलमेघः
“यजेत स्वर्गकामः”
अर्थात्
स्वर्ग चाहने वाले पुरुष याग करें,
इस वाक्य को सुनने पर
यही प्रतीत होता है कि
स्वर्गकाम पदार्थ के साथ अन्वय पाने योग्य
तथा स्वर्ग साधन बनने वाले कार्य को ही लिङ्, आदि प्रत्यय बतलाते हैं ।
स्वर्ग साधन अपूर्व कार्य का यहां प्रतिपादन होता है,
स्वर्ग साधन बनने वाला अपूर्व कार्य
स्वर्गार्थ हो जाता है,
वह राजा की तरह प्रधान नहीं हो सकता है ।
[[२६७]]
मूलम्
समभिव्याहृतस्वर्गकामपदार्थान्वययोग्यं स्वर्गसाधनमेव।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++([प्रधानभूतं] अपूर्वाख्य-)+++कार्यं
लिङ्-आदयो ऽभिदधति
+इति लोक-व्युत्पत्तिर् अपि तिरस्कृता ।
नीलमेघः
मीमांसक यह जो कहते हैं कि
राजा की तरह प्रधान बनने वाला अपूर्व कार्य
लिङ आदि प्रत्ययों से अभिहित होता है,
वह कथन लोकव्युत्पत्ति के विरुद्ध है,
लोकव्युत्पत्ति का तिरस्कार करने का दोष
उनके मत में आ जाता है ।
मूलम्
कार्यं लिङादयो ऽभिदधतीति लोकव्युत्पत्तिर् अपि तिरस्कृता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् उक्तं भवति -
समभिव्यहृत-पदान्तर-वाच्यार्थ-+अन्वय-योग्यम् एवेतर-पद-प्रतिपाद्यम्
इत्य् अन्विताभिधायि–पद-संघात–रूप-वाक्य-श्रवण-समनन्तरम् एव प्रतीयते ।
नीलमेघः
भाव यह है कि
परस्पर में अन्वय पाने वाले अर्थों को
बतलाने वाले पदों का
समुदायरूप वाक्य को सुनने पर
यही प्रतीत होता है कि
साथ प्रयुक्त दूसरे पद के वाच्यार्थ के साथ अन्वय पाने योग्य अर्थ को ही
प्रथम पद बतलाता है ।
मूलम्
एतद् उक्तं भवति समभिव्यहृतपदान्तरवाच्यार्थान्वययोग्यम् एवेतरपदप्रतिपाद्यम् इत्यन्विताभिधायिपदसंघातरूपवाक्यश्रवणसमनन्तरम् एव प्रतीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच् च +++(“यजेत”-शब्दोक्तं अपूर्व-कार्यं)+++ स्वर्ग-साधनरूपम् ।
नीलमेघः
ऐसी स्थिति में यही मानना पड़ेगा कि
“स्वर्गकामः” इस पद के वाच्यार्थ के साथ अन्वय पाने योग्य अर्थ को ही
“यजेत” यह पद बतलाता है ।
वह अर्थ स्वर्गसाधन बनने वाला कार्य ही है ।
स्वर्ग साधन बनने वाला कार्य ही
स्वर्गेच्छुपुरुष का कर्तव्य हो सकता है ।
मूलम्
तच् च स्वर्गसाधनरूपम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः क्रियावद् अनन्यार्थता ऽपि
विरोधाद् एव परित्यक्तेति ।
नीलमेघः
स्वर्गसाधन बनने वाला अपूर्व कार्य
स्वर्गार्थ होने से
अन्यार्थ बन जाता है,
वह अनन्यार्थ एवं प्रधान बन ही नहीं सकता ।
यदि प्रथम प्रतीति में
अनन्यार्थ एवं प्रधान प्रतीत होवे
तो भी स्वर्ग काम पदार्थ के साथ अन्वय करते समय
अपूर्व कार्य की अनन्यार्थता एवं प्रधानता को त्यागना ही होगा,
तभी वह स्वर्ग साधन बनकर
स्वर्ग-काम पदार्थ के साथ अन्वय पा सकता है,
अन्यथा नहीं।
मूलम्
अतः क्रियावद् अनन्यार्थतापि विरोधाद् एव परित्यक्तेति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत एव
“गङ्गायां घोष” इत्यादौ
घोष-प्रतिवास-योग्यार्थोपस्थापन-परत्वं
गङ्गा-पदस्याश्रीयते ।
नीलमेघः
यहां पर यह उदाहरण ध्यान देने योग्य है ।
कोई कहता है कि
“गङ्गायां घोषः”
अर्थात्
गङ्गा में अहीरों की बस्ती है ।
यहां पर यह मानना पड़ता है कि
उस बस्ती का निवास करने के योग्य अर्थ को ही
गङ्गा पद बतलाता है ।
मूलम्
अत एव गङ्गायां घोष इत्यादौ घोषप्रतिवासयोग्यार्थोपस्थापनपरत्वं गङ्गापदस्याश्रीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमं गङ्गा-पदेन गङ्गार्थः स्मृत
इति गङ्गा-पदार्थस्य पेयत्वं
न वाक्यार्थान्वयी भवति ।
नीलमेघः
गङ्गापद का प्रसिद्ध अर्थ गंगा प्रवाह है
इस प्रवाह में बस्ती का निवास नहीं हो सकता है ।
इस लिये वहां वाच्यार्थ प्रवाह को त्याग कर
लक्षणा से गंगापद का तीर अर्थ माना जाता है,
गंगा तीर में बस्तीका निवास हो सकता है,
यह तीर ही उस वाक्यार्थ में अन्वय पाता है,
वहाँ सर्वप्रथम गंगापद से प्रवाह रूपी अर्थ उपस्थित होने पर भी
वह वाक्यार्थ में अन्य नहीं पाता है,
उसमें विद्यमान पान योग्यत्व धर्म भी
वाक्यार्थ में अन्वय नहीं पाता है,
इसमें कारण यही है कि
बस्ती जिसमें निवास कर सके,
वही अर्थ गंगापद से बोध्य होता है,
वह तीर ही है ।
इस लिये वहां प्रवाहरूपी अर्थ
एवं उसका पेयत्व अर्थात् पान योग्यरूपी अर्थ
त्याग दिया जाता है,
वह वाक्यार्थ में अन्वय नहीं पाता है ।
मूलम्
प्रथमं गङ्गापदेन गङ्गार्थः स्मृत इति गङ्गापदार्थस्य पेयत्वं न वाक्यार्थान्वयीभवति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् अत्रापि
“यजेते"त्य् एतावन्-मात्र-श्रवणे
कार्यम् अनन्यार्थं स्मृतम्
इति +++(“तुष्यतु दुर्जन” इति न्यायेन स्वीकृतं चेद् अपि)+++
वाक्यार्थान्वय-समये कार्यस्यानन्यार्थता नावतिष्ठते । +++(5)+++
नीलमेघः
उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिये ।
“यजेत” अर्थात् याग करें,
इतना सुनने पर “तुष्यतु” न्याय से
भले कार्य अनन्यार्थ एव प्रधान उपस्थित हो
तो भी “स्वर्गकामः” इस पद के साथ अन्वय पाते समय
वह कार्य अनन्यार्थ एवं प्रधान बनकर रह नहीं सकता,
उसे स्वर्गसाधनरूप में उपस्थित होना होगा
तभी उस वाक्यार्थ में उसका अन्वय होगा,
स्वर्ग साधन में उपस्थित होने पर
उसकी अनन्यार्थता एवं प्रधानता को त्यागना होगा।
मूलम्
एवम् अत्रापि यजेतेत्येतावन्मात्रश्रवणे कार्यम् अनन्यार्थं स्मृतम् इति वाक्यार्थान्वयसमये कार्यस्यानन्यार्थता नावतिष्ठते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्याभिधायि-पद-श्रवण-वेलायां
प्रथमं कार्यम् अनन्यार्थं प्रतीतम्
इत्य् एतद् अपि न संगच्छते -
व्युत्पत्ति-काले गवानयनादि-क्रियाया दुःख-रूपाया
इष्ट-विशेष-साधनतयैव कार्यता-प्रतीतेः । +++(5)+++
नीलमेघः
यहां पर कार्य की अनन्यार्थता एवं प्रधानता को त्यागने की जो बात कही जा रही है
वह मीमांसकों के इस सिद्धान्त -
कि कार्य को बताने वाले शब्दों को सुनने पर
कार्य अनन्यार्थ एवं प्रधान प्रतीत होता है -
को “तुष्यतु” न्याय से मानकर कही गई है
सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर
मीमांसकों का उपर्युक्त कथन गलत सिद्ध होता है ।
इस लिये यह बात— कि
कार्यवाचक पदको सुनते समय कार्य प्रधान एवं अनन्यार्थ प्रतीत होता है—
मान्य नहीं हो सकती !
[[२६८]]
लोक में “गामानय” और “अवं बधान” (गौ को लाओ, अश्व को बांधो ) इत्यादि कार्यों को बतलाने वाले शब्दों को सुनकर
मनुष्य की प्रवृत्ति को देखकर
शब्दार्थ का निर्णय करते समय
बालक भी यही जानता है कि
गौ को लाना इत्यादि क्रियायें -
जो क्लेशसाध्य होने से दुःखरूप हैं—
इष्ट-विशेष का साधन होने से कार्य प्रतीत होती हैं ।
अमुक शब्द का अमुक अर्थ है,
इस प्रकार शब्दशक्ति को समझते समय में
बालक भी क्रियाओं को
इष्टसाधन के रूप में ही कार्य समझते हैं ।
इष्टसाधन के रूप में समझा जाने वाला कार्य
आरम्भ में ही अन्यार्थ प्रतीत होता है ।
इस व्युत्पत्ति के अनुसार
वेद में लिङ् आदि शब्दों से प्रतीत होने वाला अपूर्व कार्य भी
इष्टसाधन रूप में ही प्रतीत होता है,
प्रधान रूप में नहीं ।
उसे अनन्यार्थ एवं प्रधान मानना सर्वथा असंगत है ।
मूलम्
कार्याभिधायिपदश्रवणवेलायां प्रथमं कार्यम् अनन्यार्थं प्रतीतम् इत्य् एतद् अपि न संगच्छते -
व्युत्पत्तिकाले गवानयनादिक्रियाया दुःखरूपाया इष्टविशेषसाधनतयैव कार्यताप्रतीतेः ।
नानुकूलता
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो +++(“अपूर्व”/कार्यापरनाम-)+++नियोगस्य पुरुषानुकूलत्वं सर्वलोक-विरुद्धं
नियोगस्य सुख-रूप-पुरुषानुकूलतां वदतः
स्वानुभव-विरोधश् च । +++(5)+++
नीलमेघः
मीमांसक यह जो कहते हैं कि
नियोग अर्थात् अपूर्व कार्य
चेतनों का अनुकूल एवं सुखरूप हैं,
यह कथन सर्वलोकानुभव से विरोध रखता है
क्योंकि किसी को भी
अपूर्वकार्य सुखरूप से प्रतीत नहीं होता
किंच यह कथन कहने वालों के अनुभव से भी
विरोध रखता है
क्योंकि कहने वाले मीमांसक भी
नियोग सुख का अनुभव नहीं करते हैं।
मूलम्
अतो नियोगस्य पुरुषानुकूलत्वं सर्वलोकविरुद्धं नियोगस्य सुखरूपपुरुषानुकूलतां वदतः स्वानुभवविरोधश् च ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“करीर्या वृष्टि-कामो यजेते"त्य्-आदिषु
सिद्धे ऽपि नियोगे
वृष्ट्य्-आदि-सिद्धि-निमित्तस्य वृष्टि-व्यतिरेकेण+++(=भेदेन)+++ नियोगस्यानुकूलता नानुभूयते ।
नीलमेघः
किंच, वेद यह आदेश देता है कि
“कारीर्या वृष्टिकामो यजेत”
अर्थात्- “वृष्टि चाहने वाला पुरुष कारीरी नामक याग करें।”
जब धान सूखते हैं
तब यह याग करने योग्य हैं,
शीघ्र वर्षा होने के लिये
यह याग किया जाता है ।
मूलम्
करीर्या वृष्टिकामो यजेतेत्यादिषु सिद्धे ऽपि नियोगे वृष्ट्यादिसिद्धिनिमित्तस्य वृष्टिव्यतिरेकेण नियोगस्यानुकूलता नानुभूयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्य् अप्य् अस्मिञ् जन्मनि वृष्ट्य्-आदि-सिद्धेर् अनियमस्
तथाप्य् अ-नियमाद् एव
नियोग-सिद्धिर् अवश्याश्रयणीया । +++(5)+++
नीलमेघः
याग करने पर
अवश्य उस जन्म में वर्षा हो
यह नियम नहीं है क्योंकि
कर्ता कर्म और साधन में
दोष उपस्थित होने पर
अथवा प्रबल प्रारब्ध से प्रतिबन्ध होने पर
वर्षा नहीं भी हो सकती है,
किन्तु वैसा प्रतिबन्ध और दोष न होने पर
इस योग से वर्षा अवश्य होती है ।
वहाँ याग सम्पन्न होते ही
अपूर्वकार्य उत्पन्न होता है
वह वर्षा होने तक स्थिर रहकर
वर्षा को उत्पन्न करता है।
मूलम्
यद्य् अप्य् अस्मिञ् जन्मनि वृष्ट्यादिसिद्धेर् अनियमस् तथाप्य् अनियमाद् एव नियोगसिद्धिर् अवश्याश्रयणीया ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्न् अनुकूलता-पर्याय-सुखानुभूतिर् न दृश्यते ।
नीलमेघः
यदि अपूर्वकार्य सुखरूप होता
तो यजमान को उस सुख का अनुभव होना चाहिये ।
किंतु अनुभव नहीं होता ।
इससे यही सिद्ध होता है कि
अपूर्वकार्य न सुखरूप है
न अनुकूल ही है ।
मूलम्
तस्मिन्न् अनुकूलतापर्यायसुखानुभूतिर् न दृश्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् उक्त-रीत्या कृति+++(=प्रयत्न)+++-साध्येष्टत्वातिरेकि कृत्य्-उद्देश्यत्वं न दृश्यते ।
नीलमेघः
[[२६६]]
इस विवेचन से यह स्पष्ट हो गया कि
मीमांसकों ने अपूर्वकार्य को
पुरुषों का अनुकूल मानकर जो उसे कृत्युद्देश्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया है,
वह निष्फल है ।
कार्य में कृतिसाध्यत्व और इष्टत्व
दो धर्म मानने योग्य हैं,
इनसे अतिरिक्त कृत्युद्देश्यत्व धर्म -
जिसे मीमांसकों ने कहा- सिद्ध नहीं होता ।
इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने
अपूर्वकार्य का असाधारण धर्मं कृत्युद्देश्यत्व का खण्डन किया है ।
मूलम्
एवम् उक्तरीत्या कृतिसाध्येष्टत्वातिरेकि कृत्युद्देश्यत्वं न दृश्यते (विद्यते) ।
न कृतिम् प्रति शेषत्वम्
नीलमेघः
कृति के प्रति शेषित्व ही कृत्युद्देश्यत्व है, इस लक्षण का खण्डन॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतिं+++(=प्रयत्नम्)+++ प्रति शेषित्वं
कृत्य्-उद्देश्यत्वम्
इति चेत्,
“किम् इदं शेषित्वं?
किं च शेषत्वम्?”
इति वक्तव्यम् ।
rAjagopAla
The Mimamsaka might now attempt another definition of “that which is aimed at by the mental effort or volition” and say, (4) “that which is aimed at by volition is seshin to the volition.: (seshin is one for whose purposes the sesha exists). We ask, “What is the definition of a seshin and what of a sesha?”
नीलमेघः
आगे मीमांसकों ने दूसरे प्रकार से
कृत्युद्देश्यत्व का परिष्कार करते हुये
यह कहा कि
जो प्रयत्न के प्रति शेषी होता है
वह कृत्युद्देश्य होता है,
प्रयत्न के प्रति शेषी होना ही
कृत्य्-उद्देश्यत्व है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
शेषी किसे कहना चाहिये,
शेष किसे कहना चाहिये ।
मूलम्
कृतिं प्रति शेषित्वं कृत्युद्देश्यत्वमिति चेत्।
“किमिदं शेषित्वं? किं च शेषत्वम्?” इति वक्तव्यम्।
शेषित्वे ऽयुक्त-लक्षणानि
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(मीमांसकोक्त-“अपूर्व”-रूप-)+++कार्यं प्रति संबन्धी शेषः ।
तत्–प्रति-संबन्धित्वं शेषित्वम्
इति चेत्,
एवं तर्हि “कार्यत्वम् एव शेषित्वम्” इत्य् उक्तं भवति ।
कार्यत्वम् एव विचार्यते
+++(यद्-विवरणे शेषत्वम् उच्यमानम्,
यद्-विवरणे पुनः कार्यत्वम्)+++।
rAjagopAla
When two terms are associated with each other, they are said to be mutually associated (pratisambandhi to each other);
(for instance, ‘father’ and ‘son’ are mutually associated terms; they are pratisambandhi to each other).
Hence, the Mimamsaka might reply:
“That which is mutually associated with karya or apurva as its pratisambandhi is sesha to it
and that which is pratisambandhi to the sesha is the seshin.”
Here, karya is certainly not defined,
for the karya is now called seshin
without the word seshin being defined clearly
and all along we have been asking for a definition of karya.
नीलमेघः
इस प्रश्न के उत्तर में मीमांसक कहते हैं कि
जो कार्य से सम्बन्ध रखता है
अर्थात जो कार्य के लिये रहता है
वह शेष कहलाता है।
उस शेष से सम्बन्ध रखने वाला कार्य
शेषी होता है।
मीमांसकों के उपर्युक्त कथन से यही सिद्ध होता है कि
कार्य से सम्बन्ध रखने वाले के साथ
सम्बन्ध रखने वाला कार्य शेषी है।
इससे यही फलित होता है कि
कार्यत्व ही शेषित्व है ।
हम लोग कार्यत्व पर ही विचार कर रहे हैं कि
कार्य किसे कहना चाहिये ।
इस प्रसंग में
कार्य का लक्षण करते समय
उस लक्षण में कार्य का समावेश करने पर
आत्माश्रय दोष उपस्थित होता है ।
इसलिये शेषित्व को
दूसरे ही प्रकार से परिष्कार करना चाहिये ।
वह दूसरा प्रकार क्या है ?
मूलम्
कार्यं प्रति संबन्धी शेषः ।
तत्प्रतिसंबन्धित्वं शेषित्वमिति चेत्,
एवं तर्हि “कार्यत्वमेव शेषित्वम्” इत्युक्तं भवति ।
कार्यत्वमेव विचार्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“परोद्देश-प्रवृत्त–कृति+++(=प्रयत्न)+++-+++(सम्बद्ध-उपफलत्वादि)+++व्याप्त्य्-अर्हत्वम् शेषत्वम्”
+++(अपूर्वोद्देशेन प्रवृत्ते यागरूपे प्रयत्ने यागाङ्गानि यथा)+++
इति चेत् +++(परिष्कारः)+++,
को ऽयं परोद्देशो नामेति ।
अयम् एव हि विचार्यते +++(तेनात्माश्रयदोषः)+++।
rAjagopAla
If now the Mimamsaka should amend the definition and say. (5)
“The sesha is one [[181]] which exists
invariably along with the volition
which has started with something else for its aim”,
we ask, “What is this something else for its aim?”.
It is just this aim which was required to be defined.
नीलमेघः - मीमांसकोक्तिः
इस पर पूर्वमीमांसक कहते हैं कि
शेषवाला शेषी होता है ।
उसे शेष कहना चाहिये
जो दूसरे के उद्देश से प्रवृत्त होने वाले प्रयत्न का
विषय बनने योग्य हैं।
उदाहरण-
याग के उद्देश से होने वाले प्रयत्न का विषय
अंगकर्म होते हैं ।
इस लिये अंग कर्मों को
याग का शेष कहा जाता है ।
उसी प्रकार ही
अपूर्वकार्य के उद्देश वाले प्रयत्न का विषय
याग होता है
इसलिये याग
अपूर्व कार्य का शेष होता है,
अपूर्वकार्य शेषी होता है ।
यह मीमांसकों का कथन है ।
नीलमेघः
[[२७०]]
इस पर यह प्रश्न उठता है कि
“दूसरे के उद्देश से होने वाला प्रयत्न”
ऐसा कहने पर
वह दूसरा उद्देश्य सिद्ध होता है ।
यहाँ कृत्युद्देश्यत्व में अन्तर्गत उद्देश्यत्व का लक्षण करते समय उन लक्षण में
उद्देश्यत्व का समावेश किया जाता है,
अतः आत्माश्रय दोष
अवश्य उपस्थित होगा ।
इसलिये दूसरे ही रूप से
उद्देश्यत्व का लक्षण करना चाहिये ।
वह रूप क्या है ?
मूलम्
“परोद्देशप्रवृत्तकृतिव्याप्त्यर्हत्वम्शेषत्वम्” इति चेत्,
कोऽयं परोद्देशो नामेति ।
अयमेव हि विचार्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“+++(कृत्य्-आदौ)+++ उद्देश्यत्वं नामेप्सितत्व-साध्यत्वम्”
इति चेत् -
किम् इदम् ईप्सितत्वम् ?
rAjagopAla
The definition of a word should not contain the word itself to be defined.
It may be said “aiming at is the accomplishment of a desire”.
We ask again, “What is this thing that is desired?”.
नीलमेघः
इस प्रश्न के उत्तर में पूर्वमीमांसक कहते हैं कि
जो साध्य प्राप्त करने के लिये इष्ट है
वह उद्देश्य होता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि
कौनसा साध्य
प्राप्त करने के लिये अभिमत होता हैं ?
मूलम्
“उद्देश्यत्वं नामेप्सितत्वसाध्यत्वम्” इति चेत् -
किम् इदम् ईप्सितत्वम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“+++(ईप्सितत्वम्)+++ कृति-प्रयोजनत्वम्”
इति चेत्
पुरुषस्य कृत्य्+++(=प्रयत्न)+++-आरम्भ-प्रयोजनम् एव हि कृति-प्रयोजनम्
+++(यतो न खल् कृतेर् जडस्य प्रयोजनं किञ्चिद् भवितुम् अर्हति)+++।
स चेच्छा-विषयः कृत्य्-अधीनात्म-लाभ इति पूर्वोक्त एव +++(स्वर्ग-निभः, न त्व् अपूर्वम्)+++ ।
rAjagopAla
The Minamsaka might reply,
“The benefit to be derived from the volition
is the benefit which stimulates a man at the beginning to make the mental effort or volition
and this is the object desired (namely svarga)
which can be attained only by the volition.
This we have already stated,
नीलमेघः
इस प्रश्न के उत्तर में
मीमांसक कहते हैं कि
जो प्रयत्न का प्रयोजन है,
वही प्राप्त करने का इष्ट होता है ।
इस पर यह प्रश्न उठता है कि
प्रयत्न जड पदार्थ है,
वह किसी प्रयोजन को चाह नहीं सकता ।
कोई पदार्थ प्रयत्न का प्रयोजन
कैसे बन सकता है ।
इस प्रश्न के उत्तर में
यही कहना होगा कि
जिस प्रयोजन की इच्छा से
पुरुष प्रयत्न करता है
वही प्रयत्न का प्रयोजन माना जाता है ।
पुरुष उसे ही प्रयोजन मानता है
जो इच्छा का विषय हो,
साथ ही प्रयत्न करने पर
सिद्ध होने वाला हो ।
इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि
कृत्युद्दे श्यत्व का पर्यवसान
इष्टत्व एवं कृतिसाध्यत्व में हो जाता है।
इनसे अतिरिक्त कृत्युद्देश्यत्व -
जो अपूर्व कार्य का असाधारण आकार है -
सिद्ध नहीं होता ।
इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने
कृत्युद्देश्यत्व का खण्डन कर
मीमांसक संमत कार्यस्वरूप
‘दुर्निरूप’ (निरूपण करने में अशक्य) सिद्ध किया है।
मूलम्
“कृतिप्रयोजनत्वम्” इति चेत्पुरुषस्य कृत्यारम्भप्रयोजनमेव हि कृतिप्रयोजनम्।
स चेच्छाविषयः कृत्यधीनात्मलाभ इति पूर्वोक्त एव ।
शेष-शेषिणोर् लक्षणम्
नीलमेघः
सिद्धान्त के अनुसार शेष और शेषी का लक्षण और उनका समन्वय॥
इस प्रसंग में श्रीरामानुजस्वामी जी ने
अपने सिद्धान्त के अनुसार
शेषशेषिभाव का लक्षण बतलाकर
इस जिज्ञासा -
शेष किसे कहना चाहिये
और शेषी किसे कहना चाहिये -
को शान्त किया है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयम् एव हि सर्वत्र शेष-शेषि-भावः -
पर-गतातिशय+++(→न प्रतिकूल!)++++आधानेच्छयोपादेयत्वम् एव यस्य स्वरूपं +++(=नित्य-धर्मः)+++,
स शेषः, परः शेषी । +++(5)+++
rAjagopAla
Everywhere the relationship between the sesha and the seshin is as follows:-
That whose whole existence, by its very nature,
serves to promote the interests of another is sesha
and the other is the seshin.
नीलमेघः
वह लक्षण यह है कि
दूसरे के अतिशय अर्थात विशेषता को
सिद्ध करने की इच्छा से
जो पदार्थ संग्राहय होता है,
ऐसा संग्राहय होना जिस पदार्थ का स्वरूप है,
वह पदार्थ शेष कहलाता है।
वह दूसरा पदार्थं शेषी कहलाता है
जिसका अतिशय कराना है।
मूलम्
अयमेव हि सर्वत्र शेषशेषिभावः ।
परगतातिशयाधानेच्छयोपादेयत्वमेव यस्य स्वरूपं,
स शेषः, परः शेषी ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(यथा -)+++ फलोत्पत्तीच्छया
यागादेस् तत्-प्रयत्नस्य चोपादेयत्वं,
यागादि-सिद्धीच्छया
ऽन्यत् सर्वम् उपादेयम् ।
rAjagopAla
Sacrifices and the like and the effort to perform them subserve solely the desire to attain the fruit. Owing to the desire to complete the sacrifices and the like properly, the rest is subservient (sesha).
English
याग फल का शेष माना जाता है,
फल शेषी माना जाता है । [[२७१]]
वहाँ पर यह लक्षण घट जाता है ।
फल को उत्पन्न होना
यही फल का अतिशय अर्थात् विशेषता है ।
फल को उत्पन्न करने की इच्छा से ही
याग संग्राहय होता है ।
इस लिये याग शेष
और फल शेषी
सिद्ध होता है ।
याग को सिद्ध करने की इच्छा से ही
व्रीहि आदि साधन संग्राहय होते हैं,
वहाँ व्रीहि आदि पदार्थ शेष
और याग शेषी माना जाता है।
मूलम्
फलोत्पत्तीच्छया
यागादेस्तत्प्रयत्नस्य चोपादेयत्वं,
यागादिसिद्धीच्छयाऽन्यत्सर्वमुपादेयम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं गर्भ-दासादीनाम् अपि
पुरुष-विशेषातिशयाधानोपादेयत्वम् एव स्वरूपम् । +++(5)+++
+++(उषःपुत्र-योद्धृषु (सामुराय्-आख्येषु) दृश्यते तत्। )+++
rAjagopAla
Those who are born slaves to others exist solely (and primarily) for promoting the highest interests of the others and are hence sesha.
नीलमेघः
ऐसे गर्भदास आदि के विषय में भी समझना चाहिये ।
जो गर्भ से लेकर दास बने हैं,
वे गर्भदास हैं,
वे स्वामी को सुख पहुँचाने की इच्छा से ही
संग्राह्य होते हैं ।
इसलिये वहाँ गर्भ-दास शेष
और स्वामी शेषी माने जाते हैं ।
मूलम्
एवं गर्भदासादीनाम् अपि
पुरुष-विशेषातिशयाधानोपादेयत्वम् एव स्वरूपम् ।
विश्वास-टिप्पनी
शेषवृत्तेः शेषतैकरसत्वस्य च परा काष्ठा काचिद् उषःपुत्र-योद्धृषु (सामुराय्-आख्येषु) दृश्यते (यद्य् अपि तत्र शेषी मानुषप्रभुः कश्चित्)। तद्-अवगत्यै हगाकुरे-ग्रन्थानुसन्धानं लाभाय स्यात्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् ईश्वर-गतातिशयाधानेच्छयोपादेयत्वम् एव
चेतनाचेतनात्मकस्य नित्यस्यानित्यस्य च
सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपम् इति,
सर्वम् ईश्वर-शेषत्वम् एव
सर्वस्य चेश्वरः शेषीति
“सर्वस्य वशी” “सर्वस्येशानः” “पतिं विश्वस्ये"त्य्-आद्य् उक्तम् ।+++(5)+++
rAjagopAla
Similarly, the essential nature (svarupa) of all things, sentient and non-sentient, eternal and non-eternal, is to subserve the highest purposes of Iswara: so, they are sesha and He is the seshin. The Śrutis therefore say. “He has all things under His sway”, “He rules over all”, “the Lord of the Universe” and so on.
नीलमेघः
ईश्वर शेषी
और ईश्वर व्यतिरिक्त सभी जढ चेतन पदार्थ शेष माने जाते हैं।
वहाँ पर भी यह लक्षण घट जाता है।
ईश्वर को लीलारस और भोग रस पहुँचाने की इच्छा से ही
लीलाविभूति और भोगविभूति में रहने वाले
नित्य और अनित्य, सभी जढ चेतन पदार्थ
ईश्वर के संग्राह्य होते हैं ।
इस प्रकार सङ्ग्राह्य होना
इन पदार्थों का स्वरूप है ।
अतएव जड चेतन पदार्थ शेष
एवं ईश्वर शेषी कहलाते हैं !
यह अर्थ शास्त्र से सिद्ध होता है ।
उपनिषद् में कहा गया है कि
“सर्वस्य वशी” “सर्वस्येशानः” और “पति विश्वस्य” इत्यादि ।
इन वचनों का यह अर्थ है कि
ईश्वर सबको वश में रखने वाले
सब पर शासन करने वाले
एवं सबके स्वामी हैं ।
इन वचनों से सबका शेषत्व
और ईश्वर का शेषित्व सिद्ध होता है ।
मूलम्
एवमीश्वरगतातिशयाधानेच्छयोपादेयत्वमेव
चेतनाचेतनात्मकस्य नित्यस्यानित्यस्य च
सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपम् इति,
सर्वमीश्वरशेषत्वमेव
सर्वस्य चेश्वरः शेषीति
“सर्वस्य वशी” “सर्वस्येशानः” “पतिं विश्वस्ये"त्याद्युक्तम्।
अपूर्वस्याशेषित्वम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृति+++(=प्रयत्न)+++-साध्यं प्रधानं+++(→शेषि)+++ यत्
तत् +++(स्वर्गादेः प्राग् वर्तमानम् “अपूर्वम्”)+++ कार्यम् अभिधीयत
इत्य् अयम् अर्थः +++(अपूर्वास्तित्वे)+++ श्रद्-दधानेष्व् एव शोभते ।
+++(यतः स्वर्गो हि शेषी, नापूर्वम्। )+++
rAjagopAla
Therefore, it is only the attainment of svarga that can be called seshin and not apurva or karya, for it is only the former that is the ultimate and supreme benefit derived from the volition.
The [[182]] Mimamsaka’s definition that
the primary and important entity which is brought into accomplishment by the volition is karya or apurva
will convince only those who have implicit and unquestioning faith in Mimamsa doctrine.
नीलमेघः
उपर्युक्त शेषि लक्षण
मीमांसक सम्मत अपूर्व कार्य में लगता नहीं,
किंतु शेष लक्षण ही लगता है ।
पूर्वकार्य को शेष मानना ही उचित है ।
शेषी मानना उचित नहीं है
क्योंकि स्वर्ग को सिद्ध करने की इच्छा से ही
पूर्वकार्य - जो स्वर्ग का साधन है - सङ्ग्राह्य होता है ।
अतः वह शेष ही बन सकता है,
शेषी नहीं ।
मीमांसकों ने
पूर्व कार्य को शेषी मानकर
यह जो कहा कि
“कृतिसाध्यं प्रधानं यत् तत्कार्यमभिधीयते”
अर्थात् - जो प्रयत्नसाध्य होता हुआ प्रधान बना है
वह कार्य कहलाता है ।
मीमांसकों का उपर्युक्त कथन
अन्ध श्रद्धा वालों के समक्ष ही शोभा पाता है,
विवेचकों के समक्ष नहीं -
अपूर्वकार्य प्रधान बन ही नहीं सकता,
वह स्वर्ग का शेष ही होगा ।
मूलम्
कृतिसाध्यं प्रधानं यत्तत्कार्यमभिधीयत
इत्ययमर्थः श्रद्दधानेष्वेव शोभते ।
rAjagopAla - Note
Note —
Seshin is defined by the Mimamsaka as
“that which is related to the sesha”
and when the question is asked
“what is meant by sesha”,
it is defined as that which is related to the seshin.
Here no real contribution is made
to a knowledge of what either of the two means.
If one of the words, say sesha, is defined without bringing in the other word,
then, the second word seshin may be defined as having a certain relation to sesha;
then, one could understand what the two words mean.