०२ शब्दस्य साध्य-परत्वेऽपि सिद्ध-वस्त्व्-अपेक्षा

वेदान्तस्योपासना-विधानम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि च +++(“तुष्यतु दुर्जन” इति न्यायेन)+++
+++(मीमांसकोक्तापूर्व-रूप-)+++कार्यार्थ+++(य्)+++ एव व्युत्पत्तिर्+++(→शब्दार्थसम्बन्धः)+++ अस्तु ।

नीलमेघः

आगे श्रीरामानुजस्वामी जी ने
थोड़ी देर के लिये प्रतिपक्षी के पक्ष को मानकर
ब्रह्मविचार का समर्थन किया है ।
थोड़े समय के लिये प्रतिपक्षी के मत को मानकर उत्तर देना
“तुष्यतु” न्याय कहा जाता है ।
उस न्याय के अनुसार
श्रीरामानुजस्वामी जी ने यह उत्तर दिया है कि
थोड़ी देर के लिये मान लिया जाय कि
कार्य अर्थ के विषय में ही
शब्दों की शक्ति ज्ञात होती है,
सिद्धवस्तु के विषय में नहीं,
तो भी सिद्ध ब्रह्म का विचार युक्त ही सिद्ध होता है ।

मूलम्

अपि च कार्यार्थ एव व्युत्पत्तिर् अस्तु ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(सिद्धेऽपि फले शब्द-तात्पर्यम् अङ्गीकृतं खलु, तथैव)+++

वेदान्त-वाक्यान्य् अप्य्
उपासन-विषय-कार्याधिकृत–विशेषण-भूत–+++(मुमुक्षा-विशेषण-भूत-)+++फलत्वेन

+++(अ-विहित-फल-कर्मणि फल-भूत-)+++
दुःखासंभिन्न-देश-विशेष-रूप–स्वर्गादिवद्
रात्रि-सत्र–+++(अर्थवादोक्त-फल-भूत-)+++प्रतिष्ठानादिवद्

अपगोरण+++(=भायन)+++-शत-यातना–साध्य-साधन-भाववच् च

+++(मीमांसाभ्युपगत-नयेनैव)+++
कर्योपयोगितयैव सर्वं बोधयन्ति ।

नीलमेघः - उपासना-कर्म-फल-बोधः

उपनिषदों में यह विधान पाया जाता है कि
परब्रह्म की प्राप्ति चाहने वाला पुरुष
परब्रह्म की उपासना करे ।

पूर्वमीमांसकों ने यह माना है कि
विधान करने वाले लिङ्, लोट् और तव्य प्रत्यय इत्यादि शब्दों का अर्थ कार्य है
उपनिषदों में प्रतिपाद्य उपर्युक्त कार्य का विषय उपासन है,
उपासन विषय को लेकर कार्य होता है,
उस कार्य का अधिकारी
परब्रह्म की प्राप्ति को चाहने वाला साधक है ।
उस अधिकारी के प्रति विशेषण है
परब्रह्म प्राप्ति की कामना ।
परब्रह्म प्राप्ति एवं परब्रह्म कामना में विशेषण बनकर
परम्परा से अधिकारी के प्रति विशेषण सिद्ध होते हैं ।

[[२५७]]
उस अधिकारी का प्राप्य फल परब्रह्म है ।

इस प्रकार उपासना कार्य के प्रतिफल बनाने वाले पर ब्रह्म में
वेदान्त वाक्यों का तात्पर्य सिद्ध होता है ।

नीलमेघः - सिद्धे फले शब्द-तात्पर्यम्

कार्यार्थ में शक्ति मानने वाले प्राभाकर मीमांसक भी
फल में विधायक वाक्यों का तात्पर्य मानते हैं।

वह फल भले सिद्ध-वस्तु ही क्यों न हो,
उसमें भी उन लोगों ने
विधायक वाक्यों का तात्पर्य माना है-

क्योंकि यदि विधायक वाक्यों का फल में तात्पर्य नहीं होता
तो वे फल प्रामाणिक सिद्ध न होंगे।
उन फलों को चाहने वालों के लिये
साधनों का विधान करना भी
असंगत हो जायगा
यदि फल अप्रामाणिक हो।
एतदर्थं ही पूर्वमीमांसकों ने विधान का समर्थन करने के लिये
विधि वाक्यों का फल में तात्पर्य माना है ।

नीलमेघः - सिद्ध-फलाद्यङ्गीकारोदहरणानि

इस विषय में तीन उदाहरण प्रसिद्ध हैं ।

(१) विधिवाक्य से दर्शपूर्ण मास इत्यादि यागों का फल
स्वर्ग सिद्ध होता है।
वह स्वर्गं किस प्रकार का है,
ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर
अर्थवादवाक्य आकर
स्वर्ग के स्वरूप का वर्णन करते हैं कि
जहाँ दुःख बिल्कुल न हो ऐसे देश विशेष में जाकर
दुःख से अमिश्रित सुख का अनुभव करना ही स्वर्ग है ।
अर्थवाद के द्वारा वर्णित दुःखरहित देश इत्यादि विशेषतायें
स्वर्ग में मानी जाती हैं ।
यहाँ अर्थवाद के द्वारा वर्णित अर्थ उपयुक्त होने से तात्विक माना गया है ।

( २ ) विधिवाक्य में
फल का उल्लेख न होने पर
अर्थवाद वर्णित फल
वहाँ लिया गया है।
रात्रिसत्र नामक याग का विधान करने वाले वाक्य में
फल का उल्लेख नहीं,
निष्फल याग का विधान नहीं हो सकता।
क्या वहाँ स्वर्ग को ही फल मानना होगा,
क्योंकि विश्वजिन्-न्याय में कहा गया है कि
जिन कर्मों के विधायक वाक्यों में फल का उल्लेख न हो,
वहाँ स्वर्ग को फल मानना चाहिये
क्योंकि स्वर्ग सर्वाभीष्ट फल है ।+++(5)+++
क्या विश्वजिन्-न्याय के अनुसार
रात्रिसत्र में स्वर्ग को फल मानना चाहिये ।

ऐसा प्रसंग उपस्थित होने पर
जैमिनिमहर्षि ने यह सिद्धान्त स्थिर किया कि
किसी प्रकार भी
जहाँ वाचनिक फल प्राप्त न हो,
वहाँ स्वर्ग को फल मानना चाहिये ।

रात्रिसत्र के विषय में अर्थवाद से
प्रतिष्ठारूप फल प्राप्त होता है
क्योंकि अर्थवाद में प्रतिष्ठाफल का उल्लेख है ।

विधिवाक्य में फल का उल्लेख न होने पर भी
अर्थवाद में उल्लेख होने के कारण
रात्रिसत्र में प्रतिष्ठा को हो फल मानना चाहिये ।
इस प्रकार अर्थवाद वर्णित प्रतिष्ठा फल अपेक्षित होने से
रात्रिसत्र में मान लिया गया है ।

(३) उपर्युक्त दोनों उदाहरणों के अनुसार
विधिवाक्य के लिये अपेक्षित वह फल लिया गया है
जो अर्थवाद में वर्णित है ।
इतना ही नहीं,
किंतु निषेध वाक्य में
वह फल भी प्रामाणिक मान लिया गया है
जो अर्थवाद में निषेध्य कर्म के फल के रूप में वर्णित है।

वेद में कहा गया है कि

" तस्माद् ब्राह्मणाय नापगुरेत,
योऽपगुरुते तं शतेन यातयेत्”

अर्थात्-ब्राह्मण का वध करने के लिये उद्योग न करें,
जो उद्योग करेगा
उसे सौ वर्ष तक नरकयातना भोगनी पड़ेगी ।
यहाँ ब्राह्मण के वध के लिये किये जाने वाले उद्योग का निषेध है ।
वह उद्योग निषेध्य है,
उसका निषेध तभी हो सकता है,
यदि निषेध्य वह उद्योग अनर्थ हेतु हो ।
उपयुक्त निषेध का समर्थन करने के लिये
उस उद्योग एवं शतयातनामें
कार्यकारण भाव प्रामाणिक माना जाता है
क्योंकि वह निषेध के लिये उपयुक्त है।

नीलमेघः - निगमनम्

इन तोनों उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि
कार्य के प्रति उपयुक्त होने के कारण

  • अर्थवाद वर्णित स्वर्ग की विशेषतायें
  • रात्रिसत्र में प्रतिष्ठारूपी फल
  • तथा ब्राह्मणवधोद्योग एवं शतयातना में साध्य साधनभाव

[[२५८]]

प्रामाणिक माने जाते हैं ।

इसी प्रकार ही
प्रकृत में भी समझना चाहिये ।

मूलम्

वेदान्तवाक्यान्यप्युपासनविषयकार्याधिकृतविशेषणभूतफलत्वेन
दुःखासंभिन्नदेशविशेषरूपस्वर्गादिवद्रात्रिसत्रप्रतिष्ठा(नादि)वदपगोरणशतयातनासाध्यसाधनभाववच्च
कर्योपयोगितयैव सर्वं बोधयन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा हि

ब्रह्म-विद् आप्नोति परम्

इत्यत्र ब्रह्मोपासन-विषय-कार्याधिकृत–+++(मुमुक्षा-)+++विशेषण-भूत-फलत्वेन
ब्रह्म-प्राप्तिः श्रूयते।

नीलमेघः

उपनिषद् में यह वचन है कि
“ब्रह्मविदाप्नोति परम्”
अर्थात् ब्रह्म को जानने वाला परब्रह्म को प्राप्त करता है ।
इस वचन के अनुसार
यहाँ पर इस प्रकार विधि का स्वरूप सिद्ध होता है कि
ब्रह्म प्राप्ति को चाहने वाला पुरुष
ब्रह्मोपासन करे ।
यहाँ ब्रह्मोपासन विषय को लेकर होने वाले कार्य का अधिकारी
वह पुरुष है जो
ब्रह्म को प्राप्त करना चाहता है
उस पुरुष के प्रति
विशेषरूप में निर्दिष्ट होने वाले फल में ब्रह्म अन्तर्गत है ।

मूलम्

तथा हि

ब्रह्मविदाप्नोति परम्

इत्यत्र ब्रह्मोपासनविषयकार्याधिकृतविशेषणभूतफलत्वेन
ब्रह्मप्राप्तिः श्रूयते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर-प्राप्ति-कामो ब्रह्म विद्याद्

इत्य्-अत्र
प्राप्यतया प्रतीयमानं ब्रह्म-स्वरूपं
तद्-विशेषणं च
सर्वं +++(मीमांसकोक्त-“अपूर्व”-विशेष-रूप)+++कार्योपयोगितयैव सिद्धं भवति ।

नीलमेघः

इस प्राप्य फल
ब्रह्म के स्वरूप और अन्यान्य विशेषों का वर्णन करने वाले उपनिषद् वाक्य
कार्य के लिये अपेक्षित अर्थ का प्रतिपादक होते हैं ।

मूलम्

परप्राप्तिकामो ब्रह्म विद्याद् इत्यत्र प्राप्यतया प्रतीयमानं ब्रह्मस्वरूपं तद्विशेषणं च सर्वं कार्योपयोगितयैव सिद्धं भवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्-अन्तर्गतम् एव
जगत्-स्रष्टृत्वं, संहर्तृत्वम्, आधारत्वम्, अन्तरात्मत्वम्
इत्य्-आद्य् उक्तम् अनुक्तं च सर्वम्

इति न किंचिद् अनुपपन्नम् ।

नीलमेघः

उपासना के फलरूप में प्राप्त होने वाला ब्रह्म
किस प्रकार का है ?
इस प्रकार जिज्ञासा उपस्थित होने पर
विविध उपनिषद् वाक्य आकर बतलाते हैं कि
वह ब्रह्म जगत् की सृष्टि स्थिति और प्रलय करने वाला है,
जगत् का आधार एवं अन्तरात्मा है।

ऐसी २ अनन्त विशेषताओं को बतलाते हुये
सम्पूर्ण उपनिषद् वाक्य
उपर्युक्त कार्य के लिये
उपयुक्त अर्थों का वर्णन करते हुये प्रमाण बन जाते हैं,
ब्रह्म भी उस कार्य के द्वारा प्राप्त होने वाला फल बनकर
कार्य से संबद्ध हो जाता है ।

पूर्व मीमांसकों के मतानुसार
कार्यार्थ में वेदों का तात्पर्य होने पर भी
कार्योपयुक्त फल के रूप में ब्रह्म सिद्ध होता है,
उस ब्रह्म का विचार वेदतात्पर्य के अनुकूल होने के कारण
अवश्य कर्तव्य है ।

इस प्रकार " तुष्यतु " न्याय के अनुसार
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
मीमांसकमत के अनुसार
ब्रह्मविचार को कर्तव्य सिद्ध किया है ।

सिद्धार्थ के विषय में शब्दव्युत्पत्ति हो
या कार्यार्थ के विषय में हो,
दोनों पक्षों में भी ब्रह्म सिद्ध होता है,
उसका विचार भी कर्तव्य सिद्ध होता है ।

मूलम्

तदन्तर्गतम् एव जगत्स्रष्टृत्वं संहर्तृत्वम् आधारत्वम् अन्तरात्मत्वम् इत्याद्य् उक्तम् अनुक्तं च सर्वम् इति न किंचिद् अनुपपन्नम् ।

मन्त्रार्थवादोक्ति-सत्त्वेनैव कार्योपयोगिता

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं च सति
मन्त्रार्थवाद-गता ह्य् अविरुद्धा अपूर्वाश् चार्थाः सर्वे विधिशेषतयैव सिद्धा भवन्ति ।

नीलमेघः

उपनिषद् में
परब्रह्म की प्राप्ति के लिये
जो ब्रह्मोपासन का विधान है,
उस विधि का फल में तात्पर्य है,
प्राप्य फल के रूप में
ब्रह्म में तात्पर्य अवश्य सिद्ध होता है ।
इस प्रकार विधि में अपेक्षित होने से
ब्रह्म की सिद्धि फलित होती है ।
इस प्रकार उपासन विधि के अनुसार
ब्रह्मा की सिद्धि होती है ।

[[२५६]]
इतना ही नहीं,
किन्तु मन्त्र और अर्थवादों में वर्णित
वे सभी अर्थ -
जो दूसरे प्रमाणों से विरोध नहीं रखते
तथा दूसरे प्रमाणों से सिद्ध न होने से
अपूर्व माने जाते हैं -
विधि में अपेक्षित होने के कारण
प्रामाणिक सिद्ध होते हैं ।

उपासनविधि में
फल के रूप में अपेक्षित होने के कारण
जिस प्रकार ब्रह्म प्रामाणिक सिद्ध होता है
उसी प्रकार मन्त्रार्थवादों में वर्णित अन्यान्य अर्थ भी
विधि में किसी न किसी प्रकार से
अपेक्षित होने से
प्रामाणिक सिद्ध होते हैं ।

मूलम्

एवं च सति मन्त्रार्थवादगता ह्य् अविरुद्धा अपूर्वाश् चार्थाः सर्वे विधिशेषतयैव सिद्धा भवन्ति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं द्रमिड-भाष्ये

ऋणं हि वै जायत

इति श्रुतेर्

इत्य् उपक्रम्य

यद्य् अप्य् अवदान-स्तुति-परं वाक्यं
तथापि नासता स्तुतिर् उपपद्यत

इति ।

नीलमेघः

उपर्युक्त यह निर्णय द्रविड भाष्य में वर्णित है ।
द्रविड भाष्यकारने

“ऋणं हि (ह) वै जायते इति श्रुतेः "

ऐसा प्रारम्भ करके
यह कहा है कि
यद्यपि यह वाक्य अवदान की अर्थात हवि से भाग निकालने की
क्रिया की स्तुति करने में तात्पर्य रखता है
तथापि उन गुणों में भी
इस वाक्य का तात्पर्य मानना चाहिये
जिन गुणों को लेकर
स्तुति की जाती है।

यदि उन गुणों में श्रुति का तात्पर्य नहीं होता
तो वे गुण अप्रामाणिक एवं असत्य सिद्ध होंगे,
अप्रामाणिक असत्य गुणों से स्तुति नहीं बन सकती है
क्योंकि उन गुणों को अप्रामाणिक मानने वालों की दृष्टि में
वह स्तुति झूठी ही प्रतीत होगी
उस स्तुति से कर्म की प्रशंसा नहीं फलित होगी ।

यह द्रविड भाष्यकार का कथन है ।

मूलम्

यथोक्तं द्रमिडभाष्ये ऋणं हि वै जायत इति श्रुतेर् इत्य् उपक्रम्य यद्य् अप्य् अवदानस्तुतिपरं वाक्यं तथापि नासता स्तुतिर् उपपद्यत इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् उक्तं भवति -

सर्वो ह्य् अर्थ-वाद-भागो
देवताराधन-भूत-यागादेः साङ्गस्य
+आराध्य-देवतायाश् चादृष्ट-रूपान् गुणान्
सहस्रशो वदन्
सहस्रशः कर्मणि प्राशस्त्य-बुद्धिम् उत्पादयति

नीलमेघः

इसका यह तात्पर्य है कि
संपूर्ण अर्थवाद भाग
अनेक गुणों का वर्णन करता है ।
याग इत्यादि कर्म
देवता का आराधन है
इन कर्मों से देवता आराधित होते हैं
अर्थवादों में देवता का आराधन बनने वाले याग आदि कर्मों के
तथा उन कर्मों से आराधित होने वाले देवताओं के
ऐसे २ सहस्रगुणों का वर्णन मिलता है
जो गुण दूसरे किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकते ।

इस प्रकार अर्थवाद भाग
कर्म और देवता के गुणों का वर्णन करके
अनेक प्रकरों से श्रोताओं के मनमें
इस ज्ञान को उत्पन्न कराता है कि
कर्म अत्यन्त प्रशस्त है
अतः इसे अवश्य करना चाहिये ।

मूलम्

एतद् उक्तं भवति सर्वो ह्य् अर्थवादभागो देवताराधनभूतयागादेः साङ्गस्याराध्यदेवतायाश् चादृष्टरूपान् गुणान् सहस्रशो वदन् सहस्रशः कर्मणि प्राशस्त्यबुद्धिम् उत्पादयति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषाम् असद्-भावे
प्राशस्त्य-बुद्धिर् एव न स्याद्

इति कर्मणि प्राशस्त्य-बुद्ध्य्-अर्थं
गुण-सद्-भावम् एव बोधयतीति ।+++(5)+++

नीलमेघः

यदि वे सभी गुण अप्रामाणिक होते
तो श्रोताओं को कर्म में प्राशस्त्यज्ञान हो ही नहीं सकता ।

कर्म में प्राशस्त्यज्ञान को उत्पन्न करना
यही अर्थवाद का उद्देश्य है ।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये
अथवाद गुणों की सत्यता को भी सिद्ध करते हैं ।

मूलम्

तेषाम् असद्भावे प्राशस्त्यबुद्धिर् एव न स्याद् इति कर्मणि प्राशस्त्यबुद्ध्यर्थं गुणसद्भावम् एव बोधयतीति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनयैव दिशा
सर्वे मन्त्रार्थवादावगता अर्थाः
सिद्धाः ।

नीलमेघः

मन्त्र अनुष्ठान करने योग्य कर्मों को
बतलाने के लिये प्रवृत्त है ।
वे यह बतलाते हैं कि
यह कर्म इस प्रकार के देवता के लिये होता है ।
इन मन्त्रों का देवता-स्वरूप इत्यादि में भी तात्पर्य है
तभी उन २ देवताओं को लेकर
कर्म का प्रकाशन निभ सकता है ।
इस प्रकार मन्त्र और अर्थवादों के द्वारा वर्णित अनेक अपूर्व अर्थ
विधि में अपेक्षित होने से
प्रामाणिक सिद्ध होते हैं ।

केवल ब्रह्म ही नहीं
किन्तु उपर्युक्त अनेक अपूर्व अर्थ भी
प्रामाणिक होते हैं ।
ये सभी अर्थ सिद्ध पदार्थ हैं।

मूलम्

अनयैव दिशा सर्वे मन्त्रार्थवादावगता अर्थाः सिद्धाः ।

नीलमेघः - निगमनम्

इस प्रकार प्रतिपादन करके
श्रीरामानुजस्वामी जी ने “तुष्यतु " न्याय से
कार्यार्थ में व्युत्पत्ति को मानकर
यह सिद्ध किया है कि
पूर्वपक्षी के मत अनुसार विचार करने पर भी
ब्रह्मोपासन विधि में
अपेक्षित प्राप्य फल के रूप में ब्रह्म सद्ध होता है,
ऐसे ही मन्त्र और अर्थवादों से वर्णित अनेक अपूर्व अर्थ
विधि में अपेक्षित होने के कारण
प्रामाणिक सिद्ध होते
इसलिये प्राप्यफल परब्रह्म का विचार युक्त ही है ।

वास्तविक दृष्टि से विचार करने पर
यही मानना चाहिये कि
सिद्ध वस्तुओं में व्युत्पत्ति होने के कारण
सिद्धवस्तु ब्रह्म का विचार युक्त ही है ।
इस प्रकार दोनों दृष्टियों से
श्रीरामानुजस्वामी जी ने ब्रह्म की सिद्धि की व्याख्या की है । 1
[[२६०]]