नीलमेघः - सङ्गतिः
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी
उपर्युक्त अर्थों को स्थिर करने के लिये
पूर्वमीमांसकों के इस वाद का - कि
सिद्ध अर्थ के विषय में
व्युत्पत्ति नहीं होती +++(साध्य अर्थ मेँ ही होती है)+++ -
खण्डन करते हैं ।
उपर्युक्त वाद का खण्डन करने पर ही
विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त स्थिर हो सकता है, अन्यथा नहीं ।
मीमांसकों के उपर्युक्त वाद का निराकरण
सभी वेदान्तियों को सम्मत है ।
उसका निराकरण आगे किया जायेगा ।
[[२५१]]
प्रथमतः मीमांसकों के उपर्युक्त पक्ष का प्रतिपादन किया जाता है ।
नीलमेघः - मीमांसक-विभागः
मीमांसकों में दो भेद हैं ।
कई मीमांसक भाट्ट हैं
जो कुमारिलभट्ट के द्वारा प्रतिपादित मत को मानते हैं ।
कुमारिलभट्ट का अनुयायी होने से
वे भाट्ट कहलाते हैं ।
दूसरे मीमांसक प्रभाकर मत को मानने वाले हैं,
वे गुरु प्रभाकर के द्वारा वर्णित मत को मानने के कारण
प्राभाकर कहलाते हैं ।
यहां पर प्राभाकर मीमांसक पूर्वपक्षी हैं।
पूर्वपक्षः - कार्य-पर एव शब्दः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् अपि कैश्चिद् उक्तम्
सर्वस्य शब्द-जातस्य विध्य्–अर्थ-वाद–मन्त्र-रूपस्य
+++(मीमांसकोक्त-“अपूर्व”-रूप-)+++कार्याभिधायित्वेनैव प्रामाण्यं वर्णनीयम् ।
नीलमेघः - कार्य-परता
वे कहते हैं कि
सभी वेदान्ती यह मानते हैं कि
वेदान्त अर्थात् उपनिषद्
परब्रह्म का प्रतिपादन करने के लिये प्रवृत्त हैं,
परब्रह्म के प्रतिपादन में ही
उनका तात्पर्य है
परब्रह्म उपनिषदों का प्रधान प्रतिपाद्य अर्थ है ।
वेदान्तियों का यह मत समीचीन नहीं है क्योंकि
परब्रह्म का प्रतिपादन करने में
उपनिषदों का तात्पर्य हो नहीं सकता,
अतः परब्रह्म उपनिषदों का प्रतिपाद्य अर्थं नहीं बन सकता
इसमें कारण यह है कि
लोक में प्रयुक्त होने वाले सभी शब्द
किसी न किसी कार्य अर्थात् कर्तव्य अर्थ का
प्रतिपादन करने में ही तात्पर्य रखते हैं,
कोई भी शब्द
सिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करने में तात्पर्य नहीं रखता है।
नीलमेघः - सिद्धः, साध्यः
लोक में अर्थ दो प्रकार के होते हैं - (१) सिद्ध और (२) कार्य ।
जो घट आदि पदार्थ पहले से बने रहते हैं
जिन्हें बनाना नहीं पड़ता,
वे घट आदि पदार्थ सिद्ध कहलाते हैं ।
जो पदार्थ प्रयत्न से साध्य हैं
वे कार्य कहलाते हैं।
गमन आदि क्रियायें
प्रयत्न के द्वारा साध्य होने से
कार्य कहलाती हैं।
नीलमेघः - न सिद्धार्थपरः
लौकिक और वैदिक सभी शब्द
कार्य अर्थ को बतलाने में ही तात्पर्य रखते हैं ।
सिद्ध अर्थ को बतलाने में
किसी शब्द का भी तात्पर्य नहीं होता है ।
“यत्परः शब्दः स शब्दार्थः”
यह न्याय सर्वसंमत है ।
इस न्याय का यह अर्थ है कि
शब्द जिस अर्थ को बतलाने में तात्पर्य रखता है
वही अर्थ शब्दार्थ माना जाता है ।
सभी शब्द कार्य को बतलाने में तात्पर्य रखते हैं,
सिद्ध वस्तु को बतलाने में तात्पर्य नहीं रखते हैं
इसलिये कार्य को ही शब्दार्थं मानना चाहिये ।
सिद्ध पदार्थ
शब्द का अर्थ नहीं बन सकता है ।
ब्रह्म सिद्ध वस्तु है
क्योंकि वह नित्यसिद्ध है,
वह प्रयत्न के द्वारा साध्य नहीं हैं,
उपनिषद् शब्द राशि है ।
सिद्ध वस्तु ब्रह्म
उपनिषद् शब्दों का प्रतिपाद्य अर्थ
नहीं हो सकता ।
वेदान्ती लोग
ब्रह्म को उपनिषद प्रतिपाद्य अर्थ मानकर
जो ब्रह्म विचार करते हैं
वह सर्वथा व्यर्थ है
क्योंकि उपनिषदों का सिद्ध वस्तु ब्रह्म के प्रतिपादन में
तात्पर्य है ही नहीं
ब्रह्म उपनिषत्प्रतिपाद्य अर्थ बन ही नहीं सकता ।
ब्रह्म विचार को निष्फल ही मानना चाहिये ।
नीलमेघः - विध्य्-अर्थवाद-मन्त्राः
वेद तीन प्रकार से विभक्त होता है । (१) विधि (२) अर्थवाद (३) मन्त्र ।
वेद के ये तीनों भाग
कार्य अर्थ का प्रतिपादन करने में ही तात्पर्यं रखते हैं ।
“यजेत स्वर्गकामः” इत्यादि वेदवाक्य
विधि कहे जाते हैं ।
ये स्वर्ग को प्राप्त करने के लिये
याग का विधान करते हैं ।
याग एवं उससे होने वाला अपूर्व -
जो कालान्तर में स्वर्ग देता है
ये दोनों प्रयत्न साध्य होने से कार्य कहलाते हैं ।
इनका विधान करने वाले विधि-वाक्य
कार्य का प्रतिपादन करने में तात्पर्य रखते हैं ।
यह स्पष्ट प्रतीत होता है ।
विधिवाक्य के द्वारा विहित याग आदि अर्थों की
स्तुति करने वाला अर्थवाद भाग भी
पर्यवसान में उस कार्य के प्रतिपादन में ही
तात्पर्य रखते हैं।
अनुष्ठान में आने वाले याग
और देवता आदि अर्थों का
स्मरण कराने वाले मन्त्र भाग भी पर्यवसान में कार्य अर्थ में ही तात्पर्य रखते हैं ।
[[२५२]]
इस प्रकार संपूर्ण वेद
कार्य के प्रतिपादन में
तात्पर्य रखते हैं
कार्य के विषय में
वेद प्रमाण बन सकता है ।
नीलमेघः - निगमनम्
सिद्ध वस्तु का प्रतिपादन करने में
किसी भी शब्द का तात्पर्य नहीं है,
विधि, अर्थवाद और मन्त्र के रूप में विभक्त
वैदिक शब्दों का सिद्ध वस्तु का प्रतिपादन करने में
तात्पर्य है ही नहीं ।
ब्रह्म सिद्ध वस्तु है
उसका प्रतिपादन करने में
उपनिषदों का तात्पर्य हो नहीं सकता ।
उपनिषद् अर्थवाद में आ जाती हैं
वे सिद्ध वस्तु ब्रह्म के विषय में
प्रमाण नहीं बन सकती,
न ब्रह्म ही उपनिषत्-प्रभाग से
सिद्ध हो सकता है।
ब्रह्म को उपनिषदों का प्रतिपाद्य अर्थ मानकर
वेदान्ती लोग जो ब्रह्म विचार करते हैं,
यह निरर्थक है ।
यह प्राभाकर मीमांसकों का पूर्वपक्ष है ।
मूलम्
यद् अपि कैश्चिद् उक्तम्
सर्वस्य शब्दजातस्य विध्यर्थवादमन्त्ररूपस्यकार्याभिधायित्वेनैव प्रामाण्यं वर्णनीयम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(“गाम् आनये"ति वचनात् परम् आनयनवद्)+++ व्यवहाराद् अन्यत्र
शब्दस्य बोधकत्व-शक्त्य्-अवधारणासंभवाद्
व्यवहारस्य च +++(गव्-आनयनीयता-निभ-)+++कार्य-बुद्धि-मूलत्वात्
कार्य-रूप एव शब्दार्थः ।
नीलमेघः - शब्द-शक्तिः
इस पूर्वपक्ष का निराकरण
सभी वेदान्तियों को संमत है ।
इसका निराकरण आगे किया जाता है ।
पहले यह देखना है कि
पूर्वमीमांसक अपने पक्ष के विरुद्ध
परवादियों के द्वारा उठाई जाने वाली शंका का परिहार
किस प्रकार करते हैं।
परिवादिगण मीमांसकों के पक्ष को काटने के लिये
यह प्रश्न रखते हैं कि
मीमांसकों ने यह जो सिद्धान्त माना है कि
सभी शब्द कार्य को बतलाने में ही तात्पर्य रखते हैं,
सिद्ध वस्तु को बतलाने में तात्पर्य नहीं रखते हैं ।
इस सिद्धान्त को मानने के लिये क्या प्रमाण है ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुये
पूर्वमीमांसक कहते हैं कि
प्रत्येक शब्द किसी न किसी अर्थ को बतलाने में
सामर्थ्य रखता है ।
यह सामर्थ्य ही शब्द की
शक्ति कहा जाता है ।
अमुकशब्द अमुक अर्थ को बतलाने में
शक्ति रखता है,
इस समझ को शक्तिग्रह कहते हैं ।
शब्द की उपर्युक्त शक्ति को
समझने वाला मनुष्य ही
उन शब्दों को सुनने पर
अर्थ को समझ सकते हैं,
जो मनुष्य शब्द की उपर्युक्त शक्ति को न समझते हों,
वे सौ बार उन शब्दों को सुनने पर भी
अर्थ को नहीं समझ सकते हैं ।
इस बात को सभी मानते हैं ।
नीलमेघः - व्यवहार-दर्शनाच् छक्ति-ग्रहणम्
शब्द में विद्यमान उस शक्ति को
किस प्रकार समझें ?
जो पुरुष किसी भी शब्द के अर्थ को नहीं जानता हो
वह सर्वप्रथम किसी भी शब्द के अर्थ को
किस प्रकार समझता है ?
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है ।
जो मनुष्य देशान्तर में पहुँच गया हो वहां की भाषा को बिल्कुल नहीं जानता हो,
वह वहाँ की भाषा के शब्दों के अर्थ को
सर्वप्रथम किस प्रकार समझ पाता है ?
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि
वह मनुष्यों की प्रवृत्ति को देखकर
शब्द शक्ति को जानता है ।+++(5)+++
प्रवृत्ति को व्यवहार कहते हैं ।
नीलमेघः - गवानयनोदाहरणम्
उदाहरण - प्रेरणा देने वाला एक मनुष्य है
जिसे प्रयोजक-वृद्ध कहते हैं ।+++(5)+++
प्रेरणा के अनुसार कार्य करने वाला दूसरा मनुष्य है
जिसे प्रयोज्य-वृद्ध कहते हैं ।+++(5)+++
दोनों भी ज्ञानवान् होने से
वृद्ध कहलाते हैं,
उनमें प्रयोजक-वृद्ध प्रयोज्यवृद्ध से कहता है कि “गामानय”
अर्थात् गौ को लाओ ।
उन दोनों के समीप
वह पुरुष रहता है
जो संस्कृत भाषा को बिलकुल नहीं जानता है ।
वहां प्रयोजकवृद्ध की प्रेरणा के अनुसार
प्रयोज्यवृद्ध जाकर
गोष्ठ से गौ को लाकर खड़ा कर देता है ।
वहाँ उपस्थित वह भाषानभिज्ञ पुरुष
इस घटना को देखकर
यह सोचता है कि प्रयोज्यवृद्ध की
गौ को लाने के लिये जो प्रवृत्ति हुई है
वह प्रवृत्ति कार्यता ज्ञान के कारण हुई है ।
हमको गौ को लाना कर्तव्य है
यह ज्ञान ही कार्यता-ज्ञान है ।
इस ज्ञान के कारण
वह गौ को लाने के लिये प्रवृत्त हुआ ।
प्रयोज्यवृद्ध का यह कार्यताज्ञान
प्रयोजक वृद्ध के
“गामानय” अर्थात् “गौ को लाओ”
इस वाक्य से उत्पन्न हुआ है
क्योंकि उस वाक्य को सुनने के बाद ही
इसको गौ को लाने में प्रवृत्ति हुई है ।
[[२५३]]
इस लिये वह वाक्य ही
इसके कार्यता ज्ञान का कारण है ।
उस वाक्य ने
कार्यता को बतलाकर ही
प्रयोज्यवृद्ध के कार्यता ज्ञान को
उत्पन्न कराया है।
इससे सिद्ध होता है कि
वह वाक्य “गवानयन” अर्थात् “गौ को लाना”
एवं रूप कार्य को बतलाता है ।
उसको बतलाने में
इन शब्दों की शक्ति है ।
नीलमेघः - कार्य
इस प्रकार उस भाषानभिज्ञ पुरुष को
सर्वप्रथम व्यवहार -
अर्थात् “शब्द सुनकर
होने वाली प्रवृत्ति”
को देखकर
यह धारणा बन जाती है कि
शब्द कार्य को बतलाने के लिये ही प्रयुक्त होते हैं,
कार्य को बतलाने में ही
शब्दों का तात्पर्य है ।
इस धारणा को परिवर्तित करने वाला कोई प्रसंग
उसके सामने उपस्थित नहीं होता है ।
यह धारणा उसको सदा बनी रहती है ।
इस विवेचन से यह सिद्ध होता है कि
शब्द शक्ति को सर्वथा न जाने वाले भाषानभिज्ञ पुरुष को
सर्वप्रथम कार्यपरक शब्दों के द्वारा होने वाले व्यवहार को देखकर ही
शब्द शक्ति का ज्ञान होता है ।
सभी शब्द कार्य को बतलाने के लिये प्रयुक्त होते हैं,
शब्दों का कार्य में ही तात्पर्य है,
कार्य ही शब्दार्थ है ।
इस प्रकार उसक ज्ञान हो जाता है ।
इस धारणा को उसे बदलना नहीं पड़ता है। इस प्रकार जब कार्य को बतलाने में
शब्दों का तात्पर्य है,
कार्य ही शब्दार्थ बन सकता है ।
मूलम्
व्यवहाराद् अन्यत्र शब्दस्य बोधकत्वशक्त्यवधारणासंभवाद् व्यवहारस्य च कार्यबुद्धिमूलत्वात् कार्यरूप एव शब्दार्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न परिनिष्पन्ने वस्तुनि शब्दः प्रमाणम्
इति, अत्रोच्यते …
नीलमेघः
सिद्ध अर्थ को बतलाने में शब्दों का तात्पर्य नहीं,
सिद्ध वस्तु शब्दार्थ नहीं बन सकता है,
तब सिद्ध वस्तु ब्रह्म उपनिषत्-शब्दों का तात्पर्यार्थ
कैसे हो सकता है ?
उपनिषत् सिद्धवस्तु ब्रह्म को बतलाने में
कैसे तात्पर्य रख सकती है,
सिद्धवस्तु ब्रह्म के विषय में
वे कैसे प्रमाण बन सकती हैं ?
यही निर्णय करना पड़ता है कि
सिद्धवस्तु ब्रह्म उपनिषदों का तात्पर्यार्थ नहीं बन सकता,
ब्रह्म के विषय
उपनिषत् प्रमाण नहीं बन सकती हैं
ब्रह्म को उपनिषदर्थ मानकर
वेदान्तियों के द्वारा किया जाने वाला ब्रह्मविचार निरर्थक है ।
यह प्राभाकर-मतानुयायी पूर्व मीमांसकों का पूर्वपक्ष है ।
सब वेदान्तियों को उपर्युक्त पूर्वपक्ष का निराकरण करके
ब्रह्मविचार का समर्थन करना अनिवार्य हो जाता है ।
मूलम्
न परिनिष्पन्ने वस्तुनि शब्दः प्रमाणम्
इति, अत्रोच्यते …
निराकृतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(क्रिया-)+++प्रवर्तक-वाक्य-व्यवहार एव
शब्दानाम् अर्थ-बोधकत्व-शक्त्य्-अवधारणं कर्तव्यम्
इति किम् इयं राजाज्ञा ।
नीलमेघः
इस पूर्वपक्ष के निराकरण में
श्रीरामानुजस्वामी जी कहते हैं कि
प्रेरक पुरुष के वाक्य के होने वाले व्यवहार को देखकर ही
शब्दशक्ति को समझना चाहिये -
यह क्या राजा की आज्ञा है ?
[[२५४]]
ऐसी राजाज्ञा तो है नहीं ।
यह बात अप्रामाणिक है ।
शब्दशक्ति को जानने के
अनेक उपाय हैं ।
उनके द्वारा भी
शब्दशक्ति जानी जा सकती है ।
मूलम्
प्रवर्तकवाक्यव्यवहार एव शब्दानाम् अर्थबोधकत्वशक्त्यवधारणं कर्तव्यम् इति किम् इयं राजाज्ञा ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्ध-वस्तुषु शब्दस्य बोधकत्व-शक्ति-ग्रहणम्
अत्यन्त–सु-करम् ।
नीलमेघः
सिद्ध-वस्तुओं के विषय में भी
शब्द-शक्ति अनायास विदित होती है ।
उसके लिये
साधन भी विद्यमान हैं।
मूलम्
सिद्धवस्तुषु शब्दस्य बोधकत्वशक्तिग्रहणमत्यन्तसुकरम्।
अपवरके दण्डः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि केनचिद् +धस्त-चेष्टादिना
ऽपवरके+++(=प्रकोष्ठे)+++ दण्डः स्थित
इति देवदत्ताय ज्ञापय
+इति प्रेषितः कश्चित् तज्-ज्ञापने प्रवृत्तो
ऽपवरके दण्डः स्थित
इति शब्दं प्रयुङ्क्ते ।
नीलमेघः
उदाहरण
एक मनुष्य मौन धारण करके बैठा रहता है ।
नौकर आकर उससे पूछता है कि
देवदत्त जानना चाहते है कि
दण्ड कहां रखा रहता है।
नौकर के इस प्रश्न को सुनकर
मौनी पुरुष हस्तचेष्टा से इस बात को सूचित करता है कि
इस कोटड़ी में दण्ड है देवदत्त से सूचित करदो ।
वह नौकर हस्तचेष्टा से
उपर्युक्त बात को जानकर
देवदत्त के समीप जाकर कहता है कि
अमुक कोठरी में दण्ड है ।
मूलम्
तथा हि केनचिद्धस्तचेष्टादिनाऽपवरके दण्डः स्थित
इति देवदत्ताय ज्ञापयेति प्रेषितः कश्चित्तज्ज्ञापने प्रवृत्तोऽपवरके दण्डः स्थित
इति शब्दं प्रयुङ्क्ते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूकवद् +धस्त-चेष्टाम् इमां जानन्
पार्श्वस्थो ऽन्यः प्राग्-अ-व्युत्पन्नो ऽपि
तस्यार्थस्य बोधनाय
“+अपवरके दण्डः स्थित” इत्य्-अस्य शब्दस्य प्रयोग-दर्शनाद्
अस्यार्थस्यायं शब्दो बोधक
इति जानातीति
किम् अत्र दुष्करम्?
+++(अभिनयमात्रेण शब्दार्था ज्ञायन्ते, ते च सिद्धार्थाः, न साध्याः।)+++
नीलमेघः
आरम्भ से लेकर
इस घटना को देखने वाला भाषानभिज्ञ कोई पुरुष
उस नोकर के शब्द को सुनकर जान लेता है कि
मौनी पुरुष ने हस्तचेष्टा से
यह जो सूचित किया था कि
इस कोठरी में दण्ड है
इसी अर्थ को यह नौकर बतला रहा है।
नौकर के मुख से निकला हुआ यह शब्द
उपर्युक्त अर्थ को बतलाता है ।
नौकर के वाक्य का यही अर्थ है कि
इस कोठरी में दण्ड है ।
इस प्रकार वह पुरुष
शब्दशक्ति को जान लेता है।
नीलमेघः - निगमनम्
इस उदाहरण में वर्णित दण्ड
सिद्धवस्तु है ।
उस सिद्धवस्तु के विषय में
दण्डशब्द की शक्ति को
वह पुरुष जान लेता है ।
इस प्रकार सिद्ध वस्तु के विषय में
सर्वप्रथम शब्दशक्ति जानी जा सकती है ।
यहां इस प्रकार सिद्धवस्तु में
कोई भी क्लेश नहीं होता है ।
कार्य के विषय में ही
शब्दशक्ति जानी जाती है
ऐसा निर्बन्ध करना निर्मूल है ।
मूलम्
मूकवद् धस्तचेष्टाम् इमां जानन् पार्श्वस्थो ऽन्यः प्रागव्युत्पन्नो ऽपि तस्यार्थस्य बोधनायापवरके दण्डः स्थित इत्यस्य शब्दस्य प्रयोगदर्शनाद् अस्यार्थस्यायं शब्दो बोधक इति जानातीति किम् अत्र दुष्करम् ।
बाल-बोधः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा बालस्
तातो ऽयम्,
इयं माता,
ऽयं मातुलो,
ऽयं मनुष्यो,
ऽयं मृगश्,
चन्द्रो ऽयम्,
अयं च सर्प
इति माता-पितृ-प्रभृतिभिः शब्दैः
शनैः शनैर् अङ्गुल्या निर्देशने
तत्र तत्र बहुशः शिक्षितस्
तैर् एव शब्दैस्
तेष्व् अर्थेषु स्वात्मनश् च बुद्ध्य्-उत्पत्तिं दृष्ट्वा
नीलमेघः
[[२५५]]
यहाँ दूसरा उदाहरण भी प्रस्तुत किया जा सकता है ।
वह यह है कि
लोक में देखा जाता है कि
छोटे बच्चों को सिखाने वाले माता और पिता इत्यादि बन्धुवर्ग
अंगुली से प्रत्येक वस्तु को दिखाकर
उसकी तरफ बच्चों के ध्यान को आकृष्ट करके
बतलाते हैं कि
यह पिता जी हैं,
यह माता जी है,
यह मामा जी हैं,
यह मनुष्य है,
यह मृग है,
यह चन्द्रमा है,
यह सर्प है इत्यादि । इस प्रकार
बारम्-बार अंगुलि से निर्देश करके
बन्धुगण छोटे बच्चों को सिखाते हैं ।
इस प्रकार शिक्षा को प्राप्त हुए बालक
उत्तरकाल में बिना अंगुलिनिर्देश के प्रयुक्त होने वाले
उन शब्दों से उन अर्थों को
अनायास समझ लेते हैं ।
मूलम्
तथा बालस्
तातो ऽयम्,
इयं माता,
ऽयं मातुलो,
ऽयं मनुष्यो,
ऽयं मृगश्,
चन्द्रो ऽयम्,
अयं च सर्प
इति माता-पितृ-प्रभृतिभिः शब्दैः
शनैः शनैर् अङ्गुल्या निर्देशने
तत्र तत्र बहुशः शिक्षितस्
तैर् एव शब्दैस्
तेष्व् अर्थेषु स्वात्मनश् च बुद्ध्य्-उत्पत्तिं दृष्ट्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेष्व् अर्थेषु तेषां शब्दानाम्
अङ्गुल्या निर्देश-पूर्वकः प्रयोगः
+++(वाच्य-वाचक-भावात्)+++ +++(कार्य-कारण-भाव-निभ-)+++सम्बन्धान्तराभावात्,
+++(नामकरणादि-)+++संकेतयितृ-पुरुष-+अज्ञानाच् च
बोधकत्व-निबन्धन
इति क्रमेण निश्चित्य
नीलमेघः - वाच्य-वाचक-भावः
वे सोचते हैं कि
इन शब्दों को सुनने पर
हमको उन अर्थों का ज्ञान क्यों होता रहता है ।
इसमें कुछ कारण होना चाहिये ।
कारण यही हो सकता है कि
शब्द और अर्थों में सहजरूप से बोध्य बोधक भाव संबन्ध है ।
अर्थ बोध्य होने की क्षमता रखता है,
शब्द में बोधक होने की क्षमता है ।
इनमें यह बोध्य बोधकभाव संबन्ध
अकृत्रिमरूप से विद्यमान रहता है ।
इस सम्बन्ध को सिखाने के लिये ही
बन्धुओं ने अंगुली से उन पदार्थों को दिखा दिखा कर
इन शब्दों का प्रयोग करके सिखाया है ।
शब्द अर्थों में यह संबन्ध नित्य सिद्ध है ।
+++(नामकरणादि-)+++संकेत के कारण
इनमें यह संबन्ध घटित नहीं हुआ है ।
नीलमेघः - सङ्केत-कृद्-अभावः
किसी बच्चे का नामकरण संस्कार करते समय
पिता ऐसा संकेत करता है कि
इस बच्चे का अमुक नाम है ।
वहां वह नाम संकेत के अनुसार
उस बच्चे का बोधक होता है ।
वैसी बात प्रकृत में नहीं घटती है क्योंकि
यहां इन अर्थों में इन शब्दों का संकेत करने वाला
कोई पुरुष है ही नहीं
न पुरुष संकेत के अनुसार
ये शब्द बोध कराते हैं।
इनमें बोध्य बोधक भावसंबन्ध
सहजरूप से विद्यमान रहता है।
नीलमेघः - शब्द-प्रयोगाद् बोधः
इनमें दूसरा कोई संबन्ध कार्यकारण भाव इत्यादि है ही नहीं ।
इस बोध्य बोधक भावसंबन्ध को समझाने के लिये ही
बन्धुओं ने इतना परिश्रम किया है ।
इस प्रकार विचार करके
बालक शब्द के बोधकत्व अर्थात् अर्थ बोध कराने वाली शक्ति को
समझ लेते हैं ।
इस उदाहरण से
यह सिद्ध होता है कि
उपर्युक्त सभी शब्द
सिद्धवस्तु उन २ पदार्थों को
बतलाने के लिये ही प्रयुक्त होते हैं
बालक भी सिद्धवस्तुओं में
शब्दशक्ति को समझ लेते हैं ।
मूलम्
तेष्व् अर्थेषु तेषां शब्दानाम्
अङ्गुल्या निर्देश-पूर्वकः प्रयोगः
सम्बन्धान्तराभावात्,
संकेतयितृ-पुरुषाज्ञानाच् च
बोधकत्व-निबन्धन
इति क्रमेण निश्चित्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनर् अप्य्
अस्य शब्दस्यायम् अर्थ
इति पूर्व-वृद्धैः शिक्षितः
सर्व-शब्दानाम् अर्थम् अवगम्य
स्वयम् अपि
सर्वं वाक्य-जातं प्रयुङ्क्ते ।
नीलमेघः
इस प्रकार माता पिता के द्वारा शिक्षित बालक
उत्तरकाल में वृद्धों के द्वारा शिक्षा प्राप्त कर
समझ लेते हैं कि
अमुक २ शब्द अमुक २ अर्थ का वाचक हैं ।
इस प्रकार सभी शब्दों के अर्थों को समझकर
वे बालक स्वयं सर्वविध वाक्यों का प्रयोग करने लगते हैं ।
मूलम्
पुनर् अप्य् अस्य शब्दस्यायम् अर्थ इति पूर्ववृद्धैः शिक्षितः सर्वशब्दानाम् अर्थम् अवगम्य स्वयम् अपि सर्वं वाक्यजातं प्रयुङ्क्ते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् एव
सर्व-पदानां स्वार्थाभिधायित्वं,
संघात-विशेषाणां च यथाऽवस्थित-संसर्ग-विशेष-वाचित्वं च जानातीति
कार्यार्थैव व्युत्तिपत्तिर्
इत्य्-आदि-निर्बन्धो निर्बन्धनः ।
नीलमेघः
इस प्रकार बालक यह भी समझ लेते हैं कि
ऐसे ही सभी पद अपने २ अर्थ के वाचक होते हैं,
ऐसे पदों के समुदाय से संपन्न होने वाले वाक्य
उन पदार्थों के पारस्परिक संबन्ध रूप वाक्यार्थ बोध कराते हैं ।
सिद्धवस्तु का प्रतिपादन करने के लिये
प्रयुक्त होने वाले वाक्य
सिद्धार्थ का प्रतिपादन करते हैं
तथा कार्य को बतलाने के लिये प्रयुक्त होने वाले वाक्य
कार्य को बतलाते हैं।+++(5)+++
ऐसी स्थिति में पूर्वमीमांसकों का ये निर्वन्ध - कि
सर्वप्रथम शब्द की शक्ति का ज्ञान
कार्य के विषय में हुआ करता है
शब्दों का कार्य में ही तात्पर्य है, संपूर्ण वेदों का प्रतिपाद्य अर्थ कार्य ही है-
निर्मूल सिद्ध होते हैं ।
[[२५६]]
सिद्ध के विषय में भी
शब्दशक्ति जानी जा सकती है ।
सिद्ध-वस्तु को बतलाने में भी शब्दों का तात्पर्य हो सकता है,
सिद्धवस्तु ब्रह्म वेदों का प्रधान प्रतिपाद्य अर्थ हो सकता है ।
इन अर्थों का समर्थन हो गया है
इससे पूर्वमीमांसकों के उपर्युक्त निर्बन्ध अप्रामाणिक सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
एवम् एव सर्वपदानां स्वार्थाभिधायित्वं संघातविशेषाणां च यथावस्थितसंसर्गविशेषवाचित्वं च जानातीति कार्यार्थैव व्युत्तिपत्तिर् इत्यादिनिर्बन्धो निर्बन्धनः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः परिनिष्पन्ने+++(=सिद्धे)+++ वस्तुनि
शब्दस्य बोधकत्व-शक्त्य्-अवधारणात्
सर्वाणि वेदान्त-वाक्यानि
स-कल–जगत्-कारणं सर्व-कल्याण-गुणाकरम् उक्त-लक्षणं ब्रह्म
बोधयन्त्य् एव ।
नीलमेघः
सिद्धवस्तु के विषय में
शब्द की बोधकत्व शक्ति जानी जा सकती है ।
वेदान्त वाक्य सकलजगत्कारण सर्वकल्याण गुणनिधि सिद्धवस्तु ब्रह्म को बतलाने में
पूर्ण क्षमता एवं तात्पर्य रखते हैं ।
उपर्युक्त लक्षण वाला ब्रह्म
वेदान्त प्रतिपाद्य हो सकता है ।
वेदान्तों का ब्रह्म में तात्पर्य होने के कारण
ब्रह्म वेदान्तों का प्रधान प्रतिपाद्य अर्थ बन जाता है ।
उसके विषय में विचार करना युक्त ही है ।
इस प्रकार अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करके श्रीरामानुज स्वामी जी ने
मीमांसकों के उपर्युक्त पूर्वपक्ष का निराकरण किया है ।
मूलम्
अतः परिनिष्पन्ने वस्तुनि शब्दस्य बोधकत्वशक्त्यवधारणात्सर्वाणि वेदान्तवाक्यानि
सकलजगत्कारणं सर्वकल्याणगुणाकरमुक्तलक्षणं ब्रह्म
बोधयन्त्येव ।