मनु-स्मृतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानवे च शास्त्रे
प्रा-दुर्+++(=द्वारम्)+++ आसीत् तमो-नुदः +++(अनिरुद्धः)+++
सिसृक्षुर् विविधाः प्रजाः ।
अप एव ससर्जादौ
तासु वीर्यम् अपासृजत् ।
तस्मिञ् जज्ञे स्वयं ब्रह्म
इति ब्रह्मणो जन्म-श्रवणात्
क्षेत्र-ज्ञत्वम् एवावगम्यते …
नीलमेघः
किंच, मानव धर्मशास्त्र में
जगत्कारण परमपुरुष को नारायण
एवं उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा आदि देवों को
जीव कहा गया है ।
मानवधर्म शास्त्र मनुस्मृति में
ये वचन कहे हैं कि
प्रादुरासीत् तमोनुदः,
सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ।
अप एव ससर्जादौ
तासु वीर्यमपासृजत् ।
तस्मिन् जज्ञे स्वयं ब्रह्मा ॥
अर्थात्
प्रलयकाल में प्रकृति पर अधिष्ठान करने वाले अनिरुद्ध भगवान ने
सृष्टिकाल उपस्थित होने पर
सृष्टि करने के लिये
प्रवृति को प्रेरित किया ।
उन अनिरुद्ध भगवान ने
नानाविध प्रजाओं की सृष्टि करने के लिये
इच्छा रखते हुये
जल इत्यादि तत्त्वों की सृष्टि करके
उनमें जीवतत्त्व को मिलाया ।
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उससे ब्रह्माण्ड बना,
उसमें ब्रह्मा उत्पन्न हुये ।
इससे ब्रह्मा जी का जन्म सिद्ध होता है ।
ब्रह्मा जी को श्री भगवान का अवतार सिद्ध करने वाला
कोई वचन शास्त्रों में है नहीं,
जन्म लेने से ब्रह्मा जी जीव सिद्ध होते हैं ।
बिना कर्म के जन्म नहीं होता,
इससे ब्रह्मा जी कर्म परवश जीव प्रमाणित होते हैं ।
यदि ब्रह्मा जी श्रीभगवान् का अवतार बतलाये गये होते
तो जन्म मात्र से
उनको जीव मानना अनुचित ठहरता
परन्तु कहीं भी ब्रह्मा जी श्रीभगवान का अवतार
नहीं कहे गये हैं ।
ऐसी स्थिति में जन्म होने से
ब्रह्मा जी को जीव मानने में
बाधा नहीं पड़ती है ।
इस विवेचन से यही फलित होता है कि
इस प्रकार जीवकोटि में आने वाले ब्रह्मा जी को
जगत्कारण ईश्वर मानना नितान्त अनुचित है ।
मूलम्
मानवे च शास्त्रे
प्रादुरासीत् तमोनुदः
सिसृक्षुर् विविधाः प्रजाः ।
अप एव ससर्जादौ
तासु वीर्यम् अपासृजत् ।
तस्मिञ् जज्ञे स्वयं ब्रह्म
इति ब्रह्मणो जन्म-श्रवणात्
क्षेत्र-ज्ञत्वम् एवावगम्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
… तथा च स्रष्टुः परमपुरुषस्य
तद्-विसृष्टस्य च ब्रह्मणः
अयनं+++(=गृहम्, गतिः)+++ तस्य +++(नरस्य)+++ ताः +++(नारः आपः)+++ पूर्वं
तेन नारायणः स्मृतः ।
तद्-विसृष्टः स पुरुषो
लोके ब्रह्मेति कीर्त्यते ।
इति नाम-निर्देशाच् च ।
नीलमेघः
किंच मनुस्मृति के निम्नलिखित वचनों में
यह कहा गया है कि
सृष्टि करने वाले परमपुरुष का नाम नारायण है,
उनके सर्व प्रथम उत्पन्न हुये जीव का नाम ब्रह्मा है ।
वे वचन ये हैं कि-
अयनं तस्य ताः पूर्वं
तेन नारायणः स्मृतः ।
तद्विसृष्टः स पुरुषो
लोके ब्रह्मति कीर्त्यते ॥
अर्थात्
जल की सृष्टि करके
परमात्मा ने उस जल में शयन किया था,
जल नार कहलाता है
क्योंकि वह नर अर्थात् भगवान से उत्पन्न हुआ है ।
उस नार जल में शयन करने वाले जगत्कारण परमपुरुष
जल में शयन करने के कारण
नारायण कहलाते हैं ।
सर्व प्रथम नारायण से उत्पन्न हुआ जीव
ब्रह्मा कहलाता है ।
इस प्रकार मनुस्मृति में जगत्कारण परमपुरुष को
नारायण नाम रक्खा गया है ।
सर्व प्रथम उनसे उत्पन्न जीव का नाम
ब्रह्मा रक्खा गया है
इससे सिद्ध होता है
नारायण ही जगत का आदि कारण हैं,
ब्रह्मा नहीं ।
इससे ब्रह्मा को जगत्कारण मानने वालों का पक्ष
खण्डित हो जाता है ।
मूलम्
… तथा च स्रष्टुः परमपुरुषस्य
तद्विसृष्टस्य च ब्रह्मणः
अयनं तस्य ताः पूर्वं
तेन नारायणः स्मृतः ।
तद्-विसृष्टः स पुरुषो
लोके ब्रह्मेति कीर्त्यते ।
इति नामनिर्देशाच् च ।
विष्णु-पुराणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च वैष्णवे पुराणे
हिरण्य-गर्भादीनां +++(कर्मणि, ईश्वरोपासनायां, उभयोश् चोद्यमः←)+++भावना-त्रयान्वयाद् अ-शुद्धत्वेन
शुभाश्रयत्वानर्हतोपपादनात्
क्षेत्रज्ञत्वं निश्चीयते ।
नीलमेघः
किंच, श्रीविष्णुपुराण में कहा गया कि
ब्रह्मा इत्यादि सभी देव
निम्नलिखित तीन भावनाओं में
किसी एक भावना से अवश्य संबद्ध रखते हैं
अतएव वे अशुद्ध हैं,
उनके ध्यान से कल्याण नहीं होता,
वे ध्यान के योग्य नहीं हैं,
इससे ब्रह्मा यदि देवगण जीव सिद्ध होते हैं।
तीन भावनायें ये हैं -
(१) कर्म अर्थात् कर्म करने में उद्योग
(२) ब्रह्म भावना अर्थात् ईश्वरोपसान करने में उद्योग
(३) उभय भावना अर्थात् कर्म करने में तथा ईश्वरोपासना में भी उद्योग ।
[[२५०]]
इनमें सनन्दन इत्यादि ब्रह्म भावना से संबद्ध है क्योंकि
वे सदा ब्रह्मोपासन में ही लगे रहते हैं ।
इन्द्रादि देवगण कर्मभावना से संबद्ध है
क्योंकि ये सदा कर्म में ही लगे रहते हैं ।+++(4)+++
ब्रह्मा आदि उभय भावना से संबद्ध है
क्योंकि ब्रह्मा आदि देव जगन्निर्वाह में अधिकृत होने के कारण
कभी कर्म करते हैं,
कभी ईश्वरोपासन करते रहते हैं ।
इस प्रकार तीनों भावनाओं से युक्त जीव
बद्ध कोटि में हैं,
इन बद्ध जीवों का ध्यान करने से
कल्याण नहीं होगा ।
परिशुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान कल्याणकारी होता है
परन्तु वह चित्त का आलम्बन नहीं बनता,
चित्त उसका आकलन करने में असमर्थ रहता है।
श्रीभगवान का दिव्य विग्रह चित्त का आलंबन
एवं कल्याणकारी होने से
शुभाश्रय कहलाता है।
उसके ध्यान से कल्याण होता है ।
इस प्रकार कहकर
श्री पराशर ब्रह्मर्षि ने ब्रह्मादि देवों को
बद्ध जीव कोटि में गणना की है ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
श्रीमन्नारायण ही परतत्त्व एवं परब्रह्म हैं ।
नीलमेघः - निगमनम्
यहां तक के ग्रन्थ से
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
अपने पक्ष को सिद्ध करने वाले
प्रमाण और तर्कों का वर्णन किया
तथा पर-मतावलम्बियों के द्वारा उठाई गई
शंकाओं का निराकरण किया है ।
इस प्रकार श्रुति वाक्यों के आधार पर
स्वपक्षस्थापन और परपक्ष का निराकरण किया गया है।
इतिहास और पुराण इत्यादि उपबृंहण ग्रन्थों के आधार पर
श्रीरामानुज स्वामी जी ने पहले
अपने पक्ष का समर्थन करने वाले वचनों का उल्लेख करके
परमत-स्थों के द्वारा उठाई गई शंका का भी निराकरण किया है ।
इस प्रकार प्रथम श्लोकस्थ अन्तिम पद
“विष्णवे” इस पद की व्याख्या करते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
श्रीविष्णु भगवान को सर्वश्रेष्ठ परतत्त्व
एवं परब्रह्म सिद्ध किया है।
ये ही यहाँ तक के ग्रन्थ का प्रधान प्रतिपाद्य अर्थ हैं ।
मूलम्
तथा च वैष्णवे पुराणे
हिरण्यगर्भादीनां भावनात्रयान्वयाद् अशुद्धत्वेन शुभाश्रयत्वानर्हतोपपादनात् क्षेत्रज्ञत्वं निश्चीयते ।