नीलमेघः
जगत्कारण परब्रह्म श्रीमन्नारायण से श्रेष्ठ कोई तत्त्व नहीं यह अर्थ ब्रह्मसूत्रों से सिद्ध होता है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एतन् निखिल-जगन्–निमित्तोपादान-भूताज्
“जन्माद्य् अस्य यतः”
+++(ब्रह्मैव)+++ प्रकृतिश् च प्रतिज्ञा+++(←“एकज्ञानेन सर्वज्ञानम्”)+++-+++(मृद्-घटादि→)+++दृष्टान्तानुपरोधाद्
इत्य्-आदि-सूत्रैः प्रतिपादितात् परस्माद् ब्रह्मणः परम-पुरुषाद्
अन्यस्य कस्यचित् परतरत्वं
परमतः “सेतून् +++(तीर्त्वा)+++”-+++(ब्रह्म-परिमित-)+++मान–+++(अ-मृत-तत्त्व-)+++संबन्ध-भेद+++(→“ततो यद् उत्तरतरम्”)+++-व्यपदेशेभ्य
इत्य् आशङ्क्य …
नीलमेघः - शैव-मत-त्रयम्
शैवों में तीन मत हैं ।
पूर्व दो मत खण्डित होने पर
वे उत्तर दो मत को उपस्थित करते हैं ।
वे तीन मत ये हैं कि
(१) जगत का उपादान कारण प्रकृति है,
शिवजी जगत का निमित्त कारण हैं।
श्रुतियों के द्वारा
नारायण का जगत्कारणत्व सिद्ध होने पर
वे कहते हैं कि
(२) नारायण जगत का उपादान कारण हैं,
शिवजी जगत का निमित्त कारण हैं ।
यहाँ पर भी निमित्त कारण एवं उपादान कारण में एकत्व को सिद्ध करके
जगत के प्रति नारायण का उपादानत्व एवं निमित्तत्व को सिद्ध करने पर
वे कहते हैं कि
(३) जगत का निमित्त कारण एवं उपादान कारण बनने वाले नारयण मोक्षदाता हैं,
वे मुक्तों के प्राप्य नहीं हैं
मुक्तों के प्राप्य तो
वे शिवजी ही हैं
जो नारायण से बड़े हैं ।
नीलमेघः - मत-द्वय-निराकृतिः
इन तीनों मतों में
प्रथम वर्णित दोनों मतों का खण्डन
अब तक श्री भाष्यकार स्वामी जी ने कहा है कि
“जन्माद्यस्य यतः,”
“प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात् "
इत्यादि ब्रह्मसूत्रों से
तथा इन सूत्रों का विषयवाक्य बनने वाले श्रुतिवचनों से
यह सिद्ध हो गया है कि
श्रीमन्नारायण भगवान ही
जगत का उपादान कारण
एवं निमित्त कारण बनने वाले परब्रह्म हैं ।
इस परमपुरुष नारायण भगवान से बढ़कर
कोई तत्त्व नहीं है
नीलमेघः - श्रेष्ठ-तत्त्व-शङ्का
[[२४६]]
ब्रह्म-सूत्रों में
परमतः सेतून् मान-संबन्ध-भेद-व्यपदेशेभ्य
इस ब्रह्मसूत्र के द्वारा
इस शंका का —
कि श्रीमन्-नारायण भगवान से बढ़कर कोई तत्त्व होगा -
उल्लेख करके
“सामान्यात्त,” “बुद्ध्यर्थः पादवत्” “स्थानविशेषात् प्रकाशादिवत्” “उपपत्तेश्च” “तथाऽन्यप्रतिषेधात् " और “अनेन सर्वगतश्वमायामशब्दादिभ्यः” इन ब्रह्मसूत्रों से उपर्युक्त शंका का निराकरण किया गया है ।
इन सूत्रों का अर्थ यह है कि
पूर्वपक्षी कहता है कि
जगत का कारण बनने वाले ब्रह्म से भी बढ़कर
एक तत्त्व है ऐसा मानना चाहिये ।
इसमें चार कारण हैं ।
नीलमेघः - सेतुत्वम्
प्रथम हेतु यह है कि उपनिषद में जगत्कारण ब्रह्म के विषय में कहा गया है कि
“अथ य आत्मा स सेतुः”
अर्थात् -
जगत्कारण परमात्मा सेतु है
अर्थात् पुल है,
पुल एक तीर से दूसरे तीर में पहुँचाने वाला होता है,
परमात्मा को सेतु कहने से
यह व्यक्त होता है कि
परमात्मा साधक को दूसरे के समीप पहुँचा देते हैं
वह दूसरा तत्त्व -
जो परमात्मा को प्राप्त करने के बाद प्राप्त होता है -
परमात्मा से श्रेष्ठ ही होगा ।
किंच उपनिषद में “एतं सेतुं तीर्त्वा” कहकर
पुल बनने वाले जगत्कारण ब्रह्म को पार करने के लिये कहा गया है।
इससे सिद्ध होता है कि
दूसरा ही तत्त्व प्राप्य है ।
इस प्रकार जगत्कारण ब्रह्म को
सेतु कहने से
दूसरा प्राप्यतत्त्व सिद्ध होता है ।
यह प्रथम हेतु है ।
नीलमेघः - परिमितता
द्वितीय हेतु यह है कि
जगत्कारण ब्रह्म को
“चतुष्-पाद् ब्रह्म षोडश-कलम्”
कहकर चार पाद वाला
एवं सोलह कला वाला कहा गया है ।
इससे जगत्कारण ब्रह्म
परिमित सिद्ध होता है
इससे सिद्ध होता है कि
अपरिमित दुसरा है ।
यह द्वितीय हेतु हैं।
नीलमेघः - अमृतत्व-प्रापकता
तृतीय हेतु यह है कि
उपनिषद में
“अमृतस्यैष सेतुः” कहकर
परब्रह्म साधकों को
अमृततत्त्व के यहाँ पहुँचाने वाला कहा गया है,
परब्रह्म के द्वारा प्राप्त होने वाला अमृततत्त्व
परब्रह्म से श्रेष्ठ सिद्ध होता है ।
अमृततत्व की प्राप्ति का साधन ब्रह्म है,
अतएव वह प्रापक है ।
अमृततत्त्व प्राप्य है,
इनमें प्राप्य प्रापक संबन्ध है,
इससे परब्रह्म से श्रेष्ठ अमृततत्त्व सिद्ध होता है ।
यह तृतीय हेतु है ।
नीलमेघः - उत्तरतरम्
चतुर्थ हेतु यह है कि
उपनिषद् में
“ततो यद् उत्तरतरम्” कहकर
परब्रह्म परमपुरुष से श्रेष्ठ बनने वाले एक तत्त्व का
स्पष्ट वर्णन है
वह तत्त्व उपर्युक्त
चार हेतुओं से
परब्रह्म से श्रेष्ठ सिद्ध होता है ।
उस तत्त्व को मानना चाहिये ।
यह पूर्वपक्ष है,
इसका वर्णन “परमतः सेतुन्मानसंबन्धभेदव्यपदेशेभ्यः "
इस सूत्र में किया गया है । "
मूलम्
तदेतन्निखिलजगन्निमित्तोपादानभूताज्
“जन्माद्यस्य यतः”
प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधाद्
इत्यादिसूत्रैः प्रतिपादितात्परस्माद्ब्रह्मणः परमपुरुषादन्यस्य कस्यचित्परतरत्वं
परमतः सेतून्मानसंबन्धभेदव्यपदेशेभ्य
इत्याशङ्क्य …
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(“वेदान्तं तरती"ति प्राप्त्यर्थेऽपि तरतेः, सेतोः लोक-पृथक्करणे च)+++ सामान्यात् तु
+++(“एतं सेतुं तीर्त्वे"ति न परतरतत्त्वसूचकम्)+++
नीलमेघः
‘सामान्यात् तु’ इत्यादि सूत्र
सिद्धान्त का प्रतिपादक है ।
उपयुक्त पूर्वपक्ष उपस्थित होने पर
सिद्धान्ती कहते हैं कि
“सामान्यात् तु”
अर्थात् उपर्युक्त पूर्वपक्ष समीचीन नहीं है ।
पूर्वपक्ष में यह जो कहा गया है
कि उपनिषद् में परब्रह्म को सेतु अर्थात् पुल कहा गया है,
इससे सिद्ध होता है कि
परब्रह्म के द्वारा प्राप्त होने वाला दूसरा तत्त्व है,
वह परब्रह्म से श्रेष्ठ है ।
पूर्वपक्ष की यह युक्ति समीचीन नहीं
क्योंकि यहाँ पर
परब्रह्म किसी दूसरी वस्तु को प्राप्त कराने वाला सेतु
नहीं कहा गया है
किन्तु
“एष सेतुर् विधृतिर्
एषा लोकानाम् असंभेदाय”
कहकर
यह बतलाया गया है कि
परब्रह्म इन लोकों में
तथा इन प्रापञ्चिक पदार्थों में
संकर होने नहीं देता है,
सब पदार्थों को अपने २ व्यवस्थित स्वभावों में
कायम रखता है,
सभी चेतनाचेतन पदार्थों को
बिना संकर के
अपने में व्यवस्थित रूप में बांधे रखता है
इसलिये परब्रह्म सेतु कहलाता है ।
यही अर्थ वहाँ प्रतिपाद्य है ।
“एतं सेतुं तीर्त्वा”
का जो यह अर्थ किया गया है कि
परब्रह्म को पार करके
दूसरी वस्तु को साथ प्राप्त करता है,
यह अर्थ भी समीचीन नहीं ।
यहाँ परब्रह्म को प्राप्त करने का वर्णन है
पार करने का नहीं।
[[२४७]]
जिस प्रकार “वेदान्तं तरति” कहने पर
यह अर्थ निकलता है कि
वेदान्त को प्राप्त करता है ।
उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिये।
इस प्रकार पूर्वपक्ष के प्रथम हेतु का
निराकरण किया गया है ।
मूलम्
सामान्यात् तु
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्ध्य्+++(=उपासना)+++-अर्थः +++(“ब्रह्म-चतुष्पाद्” इति)+++ पादवत्
+++(न परिमितता-वाचि)+++
नीलमेघः
“बुद्ध्यर्थः पादवत्”
इस सूत्र से द्वितीय हेतु का निराकरण किया जाता है ।
इस सूत्र का यह अर्थ है कि
“चतुष्पादं ब्रह्म” “षोडशकलम्” कहकर
जो परब्रह्म को चार पाद वाला और षोडश कला वाला कहा गया है,
इससे परब्रह्म को परिमित न समझना चाहिये
क्योंकि जगत्-कारण परब्रह्म
“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” इस वाक्य से
अनन्त अर्थात् अपरिमित कहा गया है ।
वह स्वतः परिमित नहीं हो सकता है ।
उपासना के लिये वह चार पादवाला एवं षोडशकला वाला कहा गया है
क्योंकि उस प्रकार ब्रह्म का उपासन करना चाहिये
उससे विलक्षण फल प्राप्त होता है ।
जिस प्रकार
“वाक् पादः, प्राणः पादः, चक्षुः पादः, श्रोत्रं पादः "
कहकर उपासना के लिये
परब्रह्म का वाक इत्यादि पाद कहे गये हैं,
उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिये ।+++(5)+++
“चतुष्पात्” कहने मात्र से परब्रह्म को
स्वतः परिमित न मानना चाहिये ।
न अपरिमित किसी दूसरी वस्तु की
कल्पना ही करनी चाहिये ।
इस सूत्र से पूर्वपक्ष के
द्वितीय हेतु का निराकरण हो जाता है।
यहां पर यह शंका होती है कि
ब्रह्म स्वतः अपरिच्छिन्न है,
मूलम्
बुद्ध्य्-अर्थः पादवत्
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(ब्रह्म-परिच्छिन्नत्वम् वाग्-आदिभिर् उपासने)+++
स्थान-विशेषात् +++(गवाक्ष-गत-)+++प्रकाशादिवत्
नीलमेघः
उपासना के लिये भी
वह परिच्छिन्न कैसे बन सकता है ?
इस शंका का समाधान करने के लिये
यह सूत्र प्रवृत्त है कि
“स्थान-विशेषात् प्रकाशादिवत्” ।
अर्थात्
ब्रह्म स्वतः अपरिच्छिन्न होने पर
वाग् इत्यादि स्थान-विशेष-रूपी उपाधियों के संबन्ध के अनुसार
परिच्छिन्न रूप में
उसका अनुसन्धान हो सकता है
जिस प्रकार प्रकाश और आकाश इत्यादि पदार्थ
अत्यन्त विस्तृत होने पर भी
वे गवाक्ष के छिद्र
और घट आदि स्थानों के अनुसार
परिच्छन्न समझे जाते हैं,
गवाक्ष के छिद्र से आने वाला प्रकाश
परिच्छिन्न समझा जाता है
तथा घट आदि उपाधियों से संबद्ध आकाश परिच्छिन्न प्रतीत होता है ।
इसी प्रकार स्वतः अपरिच्छिन्न ब्रह्म भी
वाग् आदि उपाधि संबन्ध से
परिच्छिन्न प्रतीत होता है ।
ब्रह्म का अपरिच्छिन्नत्व स्वाभाविक धर्म है
परिच्छिन्नत्व औपाधिक धर्म है ।
स्वाभाविक धर्म और औपाधिक धर्म में विरोध नहीं होता है ।+++(5)+++
मूलम्
स्थान-विशेषात् प्रकाशादिवत्
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(प्राप्यस्य प्रापकत्वेन)+++ उपपत्तेश् च +++(“अमृतस्यैष सेतुर्” इति नान्य-तत्त्व-वाचि)+++
नीलमेघः
पूर्वपक्ष में तृतीय हेतु यह कहा गया है कि
“अमृतस्यैष सेतुः” इत्यादि वाक्यों से
जगत्-कारण-ब्रह्म अमृततत्त्व को प्राप्त करने वाला
तथा अमृततत्त्व उसके द्वारा प्राप्य कहा गया है
इस प्रकार इनमें प्राप्य प्रापकभाव संबन्ध प्रतिपादन होने से
यह मानना पड़ता है कि
जगत्कारण ब्रह्म से अमृततत्त्व श्रेष्ठ है ।
इस तृतीय हेतु का निराकरण करने के लिये
यह सूत्र प्रवृत्त है कि “उपपत्तेश्च”
जगत्कारण ब्रह्म अपनी प्राप्ति कराने में
साधन होने से
उपाय कहा गया है ।
प्राप्य अमृततत्व जगत्-कारणब्रह्म ही है,
प्रापक भी जगत्कारण ब्रह्म ही है,
जगत्कारण ब्रह्म
अपनी प्राप्ति करा देता है
इस लिये उसे प्रापक कहा गया है ।
यह अर्थ “नायमात्मा”
इत्यादि श्रुति वाक्य से समर्थित है ।
वहाँ “यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः” कहकर
परब्रह्म अपनी प्राप्ति में साधन कहा गया है ।
इस प्रकार इस सूत्र से
पूर्वपक्ष के तृतीय हेतु का निराकरण हो जाता है ।
मूलम्
उपपत्तेश् च
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा +++(“यस्मात् परं नापरम् अस्ति” इति)+++ ऽन्य-प्रतिषेधाद्
+++(“ततो यद् उत्तरतरम्” इत्यनेन नान्यवचनम्)+++
नीलमेघः
पूर्वपक्ष में “ततो यद् उत्तरतरम्”
इस श्रुति वाक्य को प्रमाणरूप में उपस्थित करके
चतुर्थ हेतु का वर्णन
इस प्रकार किया गया है कि
जगत्कारण परमपुरुष से भी
श्रेष्ठ बनने वाला एक तत्त्व का
इस वाक्य में वर्णन है ।
[[२४८]]
इस चतुर्थ हेतु का निराकरण
करने के लिये यह सूत्र प्रवृत्त है कि “तथाऽन्यप्रतिषेधात्”
अर्थात् वहाँ “यस्मात् परं नापरम् अस्ति” कहकर
यह बतलाया गया है कि
जगत्कारण परमपुरुष से बढ़कर
कोई तत्त्व नहीं है।
उससे विरोध उपस्थित होगा ।
इसलिये “ततो यदुत्तरतरम्” का यह अर्थ करना ही युक्त है कि
उपर्युक्त कारण से
सर्व सिद्ध होने वाले जो परमपुरुष हैं
वे प्राकृत रूप रहित एवं निर्दोष हैं,
उनको जानने वाले मुक्त होते हैं ।
इस वाक्य का विचार
इस ग्रन्थ में विस्तार से किया गया है
इसलिये यहाँ विस्तार नहीं किया जाता ।
मूलम्
तथान्य-प्रतिषेधाद्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेन सर्व-गतत्वम् +++(“तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्”→)+++ आयाम-शब्दादिभ्यः
नीलमेघः
अनेन सर्व-गतत्वम् आयाम-शब्दादिभ्यः
अर्थात्
जगत्कारण परमपुरुष परमात्मा
सर्वव्यापक होकर रहते हैं,
यह अर्थ उनकी सर्वव्यापकता को सिद्ध करने वाले
“तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्”
इत्यादि वाक्यों से सिद्ध होता है
इससे यही फलित होता है कि
जगत्कारण ब्रह्म से बढ़कर
कोई तत्त्व नहीं है ।
इन दोनों सूत्रों से
पूर्वपक्ष के चतुर्थ हेतु का
निराकरण हो जाता है ।
मूलम्
अनेन सर्वगतत्वमायामशब्दादिभ्यः
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सूत्र-कारः स्वयम् एव निराकरोति ।
नीलमेघः
इस प्रकार ब्रह्म सूत्रकार ने
पराधिकरण में
प्रथम सूत्र से जगत्कारण ब्रह्म से
श्रेष्ठ सिद्ध होने वाले
किसी तत्त्व के विषय में
पूर्वपक्ष को उपस्थित करके
उत्तर सूत्रों से
उस पूर्वपक्ष का निराकरण करके
जगत्कारण परम-पुरुष परमात्मा परब्रह्म श्रीमन्नारायण भगवान् को ही
सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया है ।
मूलम्
इति सूत्र-कारः स्वयम् एव निराकरोति ।