विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्व् अस्मिन्न् अपि
सृष्टि-स्थित्य्-अन्त-करणीं
ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मिकाम् ।
स संज्ञा याति भगवान्
एक एव जनार्दनः ।इति त्रि-मूर्तिसाम्यं प्रतीयते ।
नीलमेघः
[[२४१]]
आगे शैवों ने एक पूर्वपक्ष रक्खा ।
वह यह है कि
श्रीविष्णुपुराण के एक श्लोक से ब्रह्मा, विष्णु और शिव
इन त्रिमूर्तियों में समता सिद्ध होती है ।
श्रीविष्णुभगवान को सबसे श्रेष्ठ कैसे माना जाय ?
[[२४२]]
वह श्लोक यह है कि-
सृष्टिस्थित्यन्तकरणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ।
स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ॥
अर्थात्
एक जनार्दन भगवान सृष्टि स्थिति और संहार करने वाले
ब्रह्मा विष्णु और शिव ऐसे तीन नामों को प्राप्त होते हैं ।
इस श्लोक से ब्रह्मा विष्णु और शिव में साम्य प्रतीत होता है ।
श्रीविष्णु भगवान ब्रह्मा और शिव से
श्रेष्ठ नहीं हो सकते ।
यह शैवों का पूर्वपक्ष है।
मूलम्
नन्व् अस्मिन्न् अपि सृष्टिस्थित्यन्तकरणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ।
स संज्ञा याति भगवान् एक एव जनार्दनः । इति त्रिमूर्तिसाम्यं प्रतीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतद् एवम् ।
एक एव जनार्दन
इति जनार्दनस्यैव ब्रह्म-शिवादि-कृत्स्न-प्रपञ्च-तादात्म्यं विधीयते ।
नीलमेघः
इसके समाधान में श्रीरामानुजस्वामी जी ने कहा कि,
इस श्लोक से त्रिमूर्तियों में समता सिद्ध नहीं होती है।
यहां पर " एक एव जनार्दनः” कहकर
जनार्दन भगवान का ब्रह्मा और शिव इत्यादि
संपूर्ण प्रपञ्च के साथ तादात्म्य अर्थात् अभेद का वर्णन है ।
“ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम्” यह उक्ति
संपूर्ण जगत का प्रदर्शनार्थ है ।
मूलम्
नैतद् एवम् ।
एक एव जनार्दन
इति जनार्दनस्यैव ब्रह्मशिवादिकृत्स्नप्रपञ्चतादात्म्यं विधीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“जगच् च स”
इति पूर्वोक्तम् एव विवृणोति,
नीलमेघः
इस श्रीविष्णुपुराण के उपक्रम में ‘“जगच्च सः” कहकर
श्रोविष्णुभगवान का जगत के साथ तादात्म्य वर्णित है ।
उसका विवरण यहां पर हो रहा है।
मूलम्
“जगच् च स”
इति पूर्वोक्तम् एव विवृणोति,
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रष्टा+++(→ब्रह्मरूपो विष्णुः)+++, सृजति चात्मानं
विष्णुः पाल्यं च पाति च ।
+++(विष्णुर् एव)+++ उपसंह्रियते चान्ते
संहर्ता+++(→रुद्रः)+++ च स्वयं प्रभुः ।
इति च …
नीलमेघः
जगत के साथ श्रीभगवान के तादात्म्य का वर्णन आगे भी मिलता है ।
वह श्लोकयह है कि—
सृष्टा सृजति चात्मानं
विष्णुः पाल्यं च पाति च ।
उपसंह्रियते चान्ते
संहर्ता च स्वयं प्रभुः ॥
अर्थात्
श्रीविष्णुभगवान ही सृष्टि करने वाले हैं,
भाव यह है कि सृष्टि करने वाले ब्रह्मा विष्णु हैं ।
श्रीविष्णु अपनी ही सृष्टि करते हैं,
भाव यह है कि
सृष्टि को प्राप्त होने वाले सृज्य-पदार्थ भी श्रीविष्णु ही हैं ।
रक्षा करने वाले श्रीविष्णु हैं,
रक्षा को प्राप्त करने वाले पदार्थ भी श्रीविष्णु ही हैं ।
अन्त में उपसंहार को
प्राप्त होने वाला पदार्थ श्रीविष्णु हैं
तथा उपसंहार करने वाला रुद्र भी
स्वयं प्रभु श्रीविष्णु भगवान ही हैं ।
मूलम्
स्रष्टा सृजति चात्मानं
विष्णुः पाल्यं च पाति च ।
उपसंह्रियते चान्ते
संहर्ता च स्वयं प्रभुः ।
इति च …
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रष्टृत्वेनावस्थितं ब्रह्माणं, सृज्यं च,
संहर्तारं +++(रुद्रं)+++, संहार्यं च
युगपन् निर्दिश्य
सर्वस्य विष्णु-तादात्म्योपदेशात्
सृज्य-संहार्य-भूताद् वस्तुनः
स्रष्टृ-संहर्त्रोर् जनार्दन-विभूतित्वेनाविशेषो दृश्यते ।
नीलमेघः
इस श्लोक में सृष्टि करने वाले ब्रह्मा
सृष्टि को प्राप्त होने वाले सृज्यपदार्थ
संहार करने वाले रुद्र
तथा संहार को प्राप्त होने वाले संहार्यपदार्थ का
एक साथ निर्देश करके
इन सबका श्रीविष्णुभगवान के साथ अभेद का वर्णन है ।
सृज्य एवं संहार्य पदार्थों का
श्रीविष्णु के साथ जिस प्रकार का अभेद होगा
उसी प्रकार का ही अभेद
ब्रह्मा और शिवजी को विष्णु के साथ होगा ।
सृज्य एवं संहार्य पदार्थ श्रीभगवान् का शरीर है,
श्रीभगवान इनके अन्तर्यामी हैं,
इस शरीरात्मभाव को लेकर उनका विष्णु के साथ तादात्म्य वर्णित है,
इससे वे श्रीभगवान की विभूति (नियन्तव्य पदार्थ) सिद्ध होते हैं ।
उसी प्रकार ही ब्रह्मा और शिवजी श्रीभगवान के शरीर हैं,
श्रीभगवान इनमें अन्तर्यामी हैं ।
इनमें शरीरात्मभाव संबन्ध है,
इस संबन्ध के कारण
इनका श्रीविष्णुभगवान के साथ तादात्म्य वर्णित है ।
इससे ब्रह्मा और शिव
श्रीभगवान की विभूति सिद्ध होते हैं ।
अधीन रहने वाली वस्तु विभूति है।
इससे यह विशेष फलित हुआ कि
ब्रह्मा और शिव स्वतन्त्र नहीं हैं,
किन्तु श्रीभगवान के आधीन रहने वाले हैं।
इस विशेषता को -
ब्रह्मा और शिवजी भी अन्यान्य पदार्थों के समान
श्रीभगवान के आधीन रहने वाले हैं,
इस तत्त्व को बतलाने के लिये ही
यहाँ तादात्म्य वर्णित है ।
मूलम्
स्रष्टृत्वेनावस्थितं ब्रह्माणं सृज्यं च संहर्तारं संहार्यं च युगपन् निर्दिश्य सर्वस्य विष्णुतादात्म्योपदेशात् सृज्यसंहार्यभूताद् वस्तुनः स्रष्टृसंहर्त्रोर् जनार्दनविभूतित्वेन +++(अ)+++विशेषो दृश्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनार्दन-विष्णु-शब्दयोः पर्यायत्वेन
ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मिकाम् इति विभूतिमत एव स्वेच्छया लीलार्थं
विभूत्य्-अन्तर्भाव उच्यते । +++(5)+++
नीलमेघः
[[२४३]]
ब्रह्मा और शिवजी के साथ
विष्णु का जो नाम लिया गया है
वह अवतार के अभिप्राय से लिया गया है ।
उस श्लोक में विद्यमान विष्णु शब्द
और जनार्दन शब्द
एक अर्थ के वाचक हैं।
इनकी पर्यायता कोषसिद्ध हैं ।
चतुर्मुख ब्रह्मा का वाचक ब्रह्मशब्द
और शिव शब्द जनार्दन शब्द का पर्याय नहीं माने जाते हैं ।
विष्णु शब्द जनार्दन शब्द का पर्याय माना जाता है ।
इससे ही प्रमाणित होता है कि
संपूर्ण विभूति के स्वामी श्री जनार्दन भगवान ने ही
स्वेच्छा से लीला करने के लिये
विष्णु के रूप में
ब्रह्मा और शिवजी के मध्य में अवतार लिया है।
इस अवतार को व्यक्त करने के लिये
ब्रह्मा और शिवजी के मध्य में विष्णु भगवान अवतार हैं ।
यह अन्तर है ।
मूलम्
जनार्दनविष्णुशब्दयोः पर्यायत्वेन ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् इति विभूतिमत एव स्वेच्छया लीलार्थं विभूत्यन्तर्भाव उच्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथेदम् अनन्तरम् एवोच्यते -
पृथिव्य् आपस् तथा तेजो
वायुर् आकाश एव च ।
सर्वेन्द्रियान्तःकरणं
पुरुषाख्यं +++(=जीवः)+++ हि यज् जगत् । …
स एव सर्वभूतात्मा
+++(शरीरतो)+++ विश्वरूपो, यतो +++(आत्म-भावेन)+++ ऽव्ययः +++(तेन निर्दोषः)+++।
नीलमेघः - सर्वता
ऐसी स्थिति में उनमें समता हो नहीं सकती ।
ब्रह्मा और शिव इत्यादि संपूर्ण प्रपञ्च
परब्रह्म का शरीर एवं विभूति है,
शरीरात्म भाव के कारण अभेदनिर्देश होता है,
यह अर्थ अनन्तर श्लोकों से सुस्पष्ट हो जाता है ।
वे श्लोक यह हैं कि-
पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च ।
सर्वेन्द्रियान्तःकरणं पुरुषाख्यं हि यज्जगत् ॥
स एव सर्वभूतात्मा विश्वरूपो यतोऽव्ययः ।
सर्गादिकं ततोऽस्यैव भूतस्थमुपकारकम् ॥
…
अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश सभी इन्द्रिय अन्तःकरण और पुरुष अर्थात् जीवात्मा ये सब मिलकर जगत कहलाते हैं, यह जगत वह परब्रह्म परमात्मा श्री भगवान ही हैं। …
मूलम्
यथेदम् अनन्तरम् एवोच्यते -
पृथिव्यापस् तथा तेजो
वायुर् आकाश एव च ।
सर्वेन्द्रियान्तःकरणं
पुरुषाख्यं हि यज् जगत् ।
स एव सर्वभूतात्मा
विश्वरूपो यतो ऽव्ययः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गादिकं ततो ऽस्यैव
भूत-स्थम् उपकारकम् ।
नीलमेघः
“सर्गादिकम्” इत्यादि श्लोकों का
यह अर्थ है कि
सर्वप्राणियों में होने वाला सृष्टि इत्यादि व्यापार
इस परमात्मा के उपकार में आता है
क्योंकि उससे परमात्मा को
लीलारस मिलता है।
इसमें कारण यही है कि
यह विश्व परमात्मा का शरीर है,
शरीर से आत्मा को उपकार मिलना ही चाहिये ।
मूलम्
सर्गादिकं ततोऽस्यैव
भूतस्थमुपकारकम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव सृज्यः, स च सर्वकर्ता
स एव पात्य्, अत्ति च पाल्यते च ।
ब्रह्माद्य्-अवस्थाभिर् अ-शेष-मूर्तिर्
विष्णुर् वरिष्ठो वरदो वरेण्यः ॥
इति ।
नीलमेघः
इस प्रकार परमात्मा और जगत में
शरीरात्मभाव होने के कारण ही
यह कहा जाता है कि
सृष्टि करने वाले ब्रह्मा
और सृष्टि को प्राप्त होने वाले सृज्य पदार्थ
परमात्मा ही हैं
क्योंकि ये दोनों परमात्मा का शरीर हैं।
रक्षा करने वाले मनु आदि देवगण
और रक्षा को प्राप्त होने वाले जीवगण भी परमात्मा ही हैं
क्योंकि ये दोनों परमात्मा का शरीर हैं ।
संहार करने वाले रुद्र आदि देवगण और
संहार को प्राप्त होने वाले पदार्थ भी
परमात्मा ही हैं क्योंकि
ये दोनों परमात्मा का शरीर हैं ।
विश्वशरीरक परमात्मा विष्णु भगवान
परम्परा से ब्रह्मत्व और रुद्रत्व इत्यादि अवस्थाओं को प्राप्त हुए हैं,
वे ही वर देने वाले हैं,
वरेण्य अर्थात् सर्वश्रेष्ठ हैं
अतएव प्राप्य बनने की योग्यता उनमें हैं ।
इन श्लोकों में शरीरात्मभाव संबन्ध के कारण
परमात्मा और जगत का अभेदनिर्देश किया गया हैं ।
मूलम्
स एव सृज्यः स च सर्वकर्ता
स एव पात्य् अत्ति च पाल्यते च ।
ब्रह्माद्यवस्थाभिर् अशेषमूर्तिर्
विष्णुर् वरिष्ठो वरदो वरेण्यः ॥
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र
सामानाधिकरण्य-निर्दिष्टं
हेय-मिश्र-प्रपञ्च-तादात्म्यं
निरवद्यस्य निर्विकारस्य समस्त-कल्याण-गुणात्मकस्य ब्रह्मणः
कथम् उपपद्यत
इत्य् आशङ्क्य
स एव सर्वभूतात्मा
+++(शरीरतो)+++ विश्वरूपो, यतो +++(आत्म-भावेन)+++ ऽव्ययः +++(तेन निर्दोषः)+++।
इति स्वयम् एवोपपादयति ।
नीलमेघः - निर्दोषः
इस अभेदनिर्देश को सुनने पर यह शंका होती है कि परब्रह्म निर्दोष, निर्विकार एवं समस्त कल्याणगुणनिधि हैं,
ऐसे परब्रह्म का इस दोषों के भंडार प्रपञ्च के साथ अभेद कैसे हो सकता है ?
इस शंका का समाधान करने के लिये
“स एव सर्वभूतात्मा विश्वरूपो यतोऽव्ययः "
ऐसा कहा गया है ।
उसका अर्थ यह है कि सर्वेश्वरेश्वर परब्रह्म श्रीविष्णु भगवान ही यह जगत् है
इसमें सन्देह नहीं ।
इस अभेदनिर्देश का यह तात्पर्य नहीं है कि
जगत के साथ परब्रह्म का स्वरूपैक्य है ।
अपितु तात्पर्य यह है कि
परब्रह्म सर्व पदार्थों का अन्तरात्मा है,
सब पदार्थ परब्रह्म का शरीर हैं ।
स्वयं निर्दोष एवं निर्विकार होते हुये भी
वह परब्रह्म परमात्मा जगद्रूपी शरीर का धारण करके
विश्वरूप वाले बन गये हैं ।
मूलम्
अत्र सामानाधिकरण्यनिर्दिष्टं हेयमिश्रप्रपञ्चतादात्म्यं निरवद्यस्य निर्विकारस्य समस्तकल्याणगुणात्मकस्य ब्रह्मणः कथम् उपपद्यत इत्य् आशङ्क्य स एव सर्वभूतात्मा विश्वरूपो यतो ऽव्यय इति स्वयम् एवोपपादयति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव सर्वेश्वरः पर-ब्रह्म-भूतो विष्णुर् एव सर्वं जगद्
इति प्रतिज्ञाय,
सर्व-भूतात्मा
+++(शरीरतो)+++ विश्वरूपो
यतो +++(आत्म-भावेन)+++ ऽव्ययः
इति +++(अव्ययत्व-)+++हेतुर् उक्तः ।
मूलम्
स एव सर्वेश्वरः परब्रह्मभूतो विष्णुर् एव सर्वं जगद् इति प्रतिज्ञाय सर्वभूतात्मा विश्वरूपो यतो ऽव्यय इति हेतुर् उक्तः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतानाम् अयम् आत्मा +++(न तु शरीरम्, तानि हि शरीराणि)+++,
विश्व-शरीरो,
यतो ऽव्यय +++(न विकारि-भूत-जातवत्)+++
इत्य् अर्थः ।
मूलम्
सर्वभूतानाम् अयम् आत्मा विश्वशरीरो यतो ऽव्यय इत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वक्ष्यति च
तत्सर्वं वै हरेस् तनुर्
इति ।
नीलमेघः
यह लोक में प्रसिद्ध है कि
शरीर-वाचक शब्द आत्मा तक का बोध कराते हैं।
आत्म-वाचक शब्द और शरीर-वाचक शब्दों को लेकर
अ-भेद-निर्देश लोक में भी होता है ।
“आत्मा मनुष्य बन गया”
इत्य्-आदि व्यवहार सिद्ध हैं ।
उसी प्रकार प्रकृत में
यह अ-भेद-निर्देश है।
यह विश्व परमात्मा का शरीर है,
यह अर्थ
“तत् सर्वं वै हरेस् तनुः”
इत्यादि वचनों से भी सिद्ध होता है ।
अर्थात् - यह सब कुछ श्रीभगवान का शरीर हैं ।
मूलम्
वक्ष्यति च तत्सर्वं वै हरेस् तनुर् इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् उक्तं भवति -
अस्याव्ययस्यापि परस्य ब्रह्मणो विष्णोर्
विश्व-शरीरतया तादात्म्य-विरुद्धम् +++(विकारशीलत्वम्)+++
इत्य् आत्म-शरीरयोश् च +++(विरुद्ध-)+++स्वभावा +++(पृथक्त्वेन)+++ व्यवस्थिता एव ।
नीलमेघः - शरीरात्म-व्यवस्था
शरीरात्मभाव को लेकर
तादात्म्य मानने पर
ईश्वर निर्दोष ही रह जाते हैं ।
लोक में देखा गया है कि
शरीर आत्मा में स्वभाव व्यवस्थित रहते हैं,
शरीर का स्वभाव
आत्मा में नहीं पहुँचता
तथा आत्मा का स्वभाव
शरीर में नहीं पहुँचता । +++(5)+++
गौरवर्ण किसी शरीर का स्वभाव बना है,
वह शरीर में ही रहता है,
आत्मा में नहीं पहुँचता ।+++(5)+++
ज्ञान सुख और दुःख इत्यादि
आत्मा के धर्म हैं,
ये आत्मा में ही रहते हैं,
शरीर के धर्म नहीं होते हैं ।+++(5)+++
ऐसे ही विकार और दोष इत्यादि
उस चेतनाचेतन प्रपञ्च का
जो परमात्मा का शरीर है— धर्म हैं,
यह प्रपञ्च में ही रहने वाला है,
परमात्मा का स्पर्श नहीं करता ।
[[२४४]]
निर्विकारस्व निर्दोषत्व और कल्याणगुण
ये सब अन्तरात्मा परब्रह्म का स्वभाव है।
यह स्वभाव परब्रह्म में रहता है,
शरीर में नहीं पहुँचता ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
विश्व-शरीर-धारी होने से
परमात्मा जगत कहलाते हैं
तो भी परमात्मा और जगत के असाधारण स्वभाव व्यवस्थित रहते हैं,
एक का स्वभाव दूसरे में नहीं पहुँचता
इसलिये दोष प्रपञ्च में रह जाते हैं,
परमात्मा तक दोष नहीं पहुँचता,
वे निर्दोष रहते हैं ।
मूलम्
एतद् उक्तं भवति - अस्याव्ययस्यापि परस्य ब्रह्मणो विष्णोर् विश्वशरीरतया तादात्म्यविरुद्धम् इत्य् आत्मशरीरयोश् च स्वभावा व्यवस्थिता एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं-भूतस्य सर्वेश्वरस्य विष्णोः
प्रपञ्चान्तर्-भूत-नियाम्य-कोटि-निविष्ट
–ब्रह्मादि-देव–तिर्यङ्-मनुष्येषु
तत्-तत्-समाश्रयणीयत्वाय स्वेच्छावतारः पूर्वोक्तः ।+++(4)+++
नीलमेघः
सर्वान्तरात्मा सर्वेश्वर श्रीभगवान प्रपञ्च के अन्दर नियाम्य कोटि में रहने वाले
ब्रह्मा इत्यादि देवगण तिर्यक् और मनुष्यों में
उनको आश्रय देकर रक्षा करने के लिये
स्वेच्छा से अवतार लेते हैं ।
मूलम्
एवं-भूतस्य सर्वेश्वरस्य विष्णोः
प्रपञ्चान्तर्भूत-नियाम्य-कोटि-निविष्ट–ब्रह्मादि-देव–तिर्यङ्-मनुष्येषु
तत्-तत्-समाश्रयणीयत्वाय स्वेच्छावतारः पूर्वोक्तः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एतद्
ब्रह्मादीनां भावना-त्रयान्वयेन +++(=कर्मणि, ईश्वरोपासनायां, उभयोश् चोद्यमेन)+++ कर्म-वश्यत्वं,
भगवतः पर-ब्रह्म-भूतस्य वासुदेवस्य
निखिल-जगद्-उपकाराय
स्वेच्छया, स्वेनैव रूपेण,
देवादिष्व् अवतार
इति च षष्ठे ऽंशे शुभाश्रय-प्रकरणे सु-व्यक्तम् उक्तम् ।
नीलमेघः
वैसे ही ही एक अवतार
“ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम्” इस समास में विष्णु शब्द से निर्दिष्ट है ।
श्रीविष्णुपुराण में षष्ठ अंश में
शुभाश्रय अर्थात् मंगलकारी,
एवं चित्त का आलम्बन बनने वाले ध्येय
श्रीविग्रह की व्याख्या के प्रसंग में
यह बात कही गई है कि
ब्रह्मा इत्यादि देवगण कर्म-भावना ब्रह्म-भावना और उभय-भावना.
तीन भावनाओं में
किसी एक भावना से
सदा सम्बद्ध रहते हैं
अतएव वे कर्म के वश में रहने वाले हैं,
परब्रह्म वासुदेव भगवान
संपूर्ण जगत का उपकार करने के लिये
अपने अकृत दिव्यविग्रह को लेकर
स्वेच्छा से देव आदियों में अवतार लेते हैं
मूलम्
तदेतद्ब्रह्मादीनां भावनात्रयान्वयेन कर्मवश्यत्वं,
भगवतः परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य
निखिलजगदुपकाराय
स्वेच्छया, स्वेनैव रूपेण,
देवादिष्ववतार
इति च षष्ठेऽंशे शुभाश्रयप्रकरणे सुव्यक्तमुक्तम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य देवादि-रूपेणावतारेष्व् अपि
न प्राकृतो देह
इति महाभारते
न भूत-संघ-संस्थानो
देहो ऽस्य परमात्मनः ।
इति प्रतिपादितः …+++(5)+++
नीलमेघः
तब श्रीभगवान का विग्रह प्राकृत नहीं होता ।
महाभारत में कहा है कि
“न भूत-संघ-संस्थानो देहोऽस्य परमात्मनः”
अर्थात् —
इस परमात्मा का देह
पञ्चभूतों के समुदाय से बना नहीं है
किंतु अप्राकृत एवं शुद्ध सत्त्वमय है ।
मूलम्
अस्य देवादिरूपेणावतारेष्व् अपि न प्राकृतो देह इति महाभारते न भूतसंघसंस्थानो देहो ऽस्य परमात्मनः । इति प्रतिपादितः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतिभिश् च
अजायमानो बहुधा विजायते
तस्य धीराः परिजानन्ति योनिम्
इति ।
नीलमेघः
निम्न श्रुति में
श्रीभगवान का अवतार-ग्रहण वर्णित है
“+++(कर्म-वशेन)+++ अजायमानो बहुधा +++(स्वेच्छया)+++ विजायते
तस्य धी-राः परिजानन्ति योनिम् "
+++(अर्थोऽग्रे वक्ष्यते।)+++
मूलम्
श्रुतिभिश् च
अजायमानो बहुधा विजायते
तस्य धीराः परिजानन्ति योनिम्
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(ऋचो ऽर्थः -)+++
कर्म-वश्यानां ब्रह्मादीनाम्
अनिच्छताम् अपि तत्-तत्-कर्मानुगुण–
प्रकृति-परिणाम-रूप–
भूत-संघ-संस्थान-विशेष–
देवादि-शरीर-प्रवेश-रूपं जन्मावर्जनीयम् ।
नीलमेघः
अर्थात् —
कार्य के वश में रहने वाले ब्रह्मा इत्यादि जीवों को
न चाहने पर भी अवश्य जन्म लना पड़ता है,
प्रकृति-परिणाम-रूप पञ्च महाभूतों से बने हुये विलक्षण रचना वाले देव आदि शरीरों में
उनको प्रविष्ट होना पड़ता है।
यही उनका जन्म है,
ऐसा जन्मग्रहण उनको अनिवार्य रहता है ।
उनके जन्म का कारण कर्म है,
कर्मफल का अनुभव करना
यही जन्म का फल है,
तथा उनका शरीर प्राकृत होता है ।
मूलम्
कर्मवश्यानां ब्रह्मादीनाम् अनिच्छताम् अपि तत्तत्कर्मानुगुणप्रकृतिपरिणामरूपभूतसंघसंस्थानविशेषदेवादिशरीरप्रवेशरूपं जन्मावर्जनीयम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं तु सर्वेश्वरः सत्य-संकल्पो भगवान्
एवं-भूत-शुभेतर-जन्माकुर्वन्न् अपि
स्वेच्छया स्वेनैव निरतिशय-कल्याण-रूपेण
देवादिषु जगद्-उपकाराय बहुधा जायते,
नीलमेघः
[[२४५]]
उपर्युक्त जन्म अत्यन्त अशुभ है ।
सर्वेश्वर सत्यसंकल्प श्रीभगवान उपर्युक्त प्रकार के
अशुभ जन्मों को ग्रहण नहीं करते
किन्तु स्वेच्छा से
अपने अत्यन्त कल्याण दिव्य अप्राकृत श्रीविग्रह को लेकर
जगत का कल्याण करने के लिये
देव आदियों में नानाप्रकार से जन्म लेते हैं ।
उनके जन्म का कारण स्वेच्छा है,
उनके जन्म का फल जगत का उपकार है,
उनका देह अप्राकृत हैं ।
मूलम्
अयं तु सर्वेश्वरः सत्यसंकल्पो भगवान् एवंभूतशुभेतरजन्माकुर्वन्न् अपि स्वेच्छया स्वेनैव निरतिशयकल्याणरूपेण देवादिषु जगदुपकाराय बहुधा जायते,
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैतस्य शुभेतर-जन्माकुर्वतो ऽपि
स्व-कल्याण-गुणानन्त्येन
बहुधा योनिं बहु-विध-जन्म
धीराः - धीमताम् अग्रेसरा जानन्ति
+इत्य् अर्थः ।
नीलमेघः
इस प्रकार की विशेषता होने के कारण ही
श्रीभगवान का जन्म अवतार कहलाता है ।
जीवों की तरह अशुभ जन्म न लेते हुये
श्रीभगवान अपने अनन्त कल्याण गुणों के अनुसार
जो अनेक अवताररूपी जन्म लेते हैं
उन अवतार जन्मों के मर्म को
वे लोग जानते हैं
जो बुद्धिमानों में असर हैं ।
यह उपर्युक्त श्रुतिवाक्य का अर्थ है ।
ब्रह्मा और शिव के मध्य में
जो विष्णु हैं
वे इस प्रकार का प्रथम अवतार माने जाते हैं ।
मूलम्
तस्यैतस्य शुभेतरजन्माकुर्वतो ऽपि स्वकल्याणगुणानन्त्येन बहुधा योनिं बहुविधजन्म धीरा - धीमताम् अग्रेसरा जानन्तीत्यर्थः ।