विश्वास-प्रस्तुतिः
इतिहास-पुराणेषु च
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-प्रकरणयोर्
इदम् एव पर-तत्त्वम्
इत्य् अवगम्यते ।
नीलमेघः
[[२३१]]
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
इतिहास और पुराणों के वचनों से
श्रीमन्नारायण भगवान को
परतत्त्व परब्रह्म सिद्ध करते हुए
यह कहा कि इतिहास और पुराणों में
सृष्टि और प्रलय के प्रकरणों से
श्रीमन्नारायण ही परतत्त्व सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
इतिहासपुराणेषु च सृष्टिस्थितिप्रलयप्रकरणयोर् इदम् एव परतत्त्वम् इत्य् अवगम्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
… यथा महाभारते
कुतः सृष्टम् इदं सर्वं
जगत् स्थावर-जङ्गमम् ।
प्रलये च कम् अभ्येति
तन् तो ब्रूहि पितामह ।
इति पृष्टो
नारायणो जगन्मूर्तिर्
अनन्तात्मा सनातन ।
इत्यादि च वदति …
नीलमेघः
उदाहरण
श्रीमन्महाभारत में यह प्रश्न किया गया है कि-
केन सृष्टमिदं सर्वं जगत् स्थावरजङ्गमम् ।
प्रलये च कमभ्येति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥
अर्थात्
हे पितामह भीष्माचार्य जी ! इस स्थावरजंगमात्मक सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि किसने की ? प्रलय में यह जगत् किसमें जाकर लीन होता है ? इस बात को हमें बतायें।
इस प्रकार युधिष्ठिर जी के द्वारा पूछे जाने पर भीष्माचार्य ने कहा कि-
नारायणो जगन्मूर्तिरनन्तात्मा सनातनः ॥
ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ।।
अर्थात्
अपरिच्छिन्न स्वरूप वाले सनातन नारायण ही विश्वरूप लेकर विराजमान हैं ।
इत्यादि कहकर
मूलम्
… यथा महाभारते
कुतः सृष्टम् इदं सर्वं
जगत् स्थावर-जङ्गमम् ।
प्रलये च कम् अभ्येति
तन् तो ब्रूहि पितामह ।
इति पृष्टो
नारायणो जगन्मूर्तिर्
अनन्तात्मा सनातन ।
इत्यादि च वदति …
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयः पितरो देवा
महाभूतानि +++(चर्मादि-सप्त-)+++धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं
जगन् नारायणोद्भवम् ।
इति च ।
नीलमेघः
भीष्माचार्य ने
अन्त में कहा कि
ऋषय इत्यादि -
अर्थात्
धर्म का उपदेश एवं अनुष्ठान करने वाले ऋषिगण,
धर्म से आराध्य होने वाले पितृगण एवं देवगण,
आकाश आदि पंचमहाभूत,
उनसे होने वाले चर्म इत्यादि सात धातु अर्थात् देह धारक द्रव्य -
जो धर्मफल के भोग में उपकरण बनते हैं -
तथा स्थावर जंगमात्मक भोक्तृवर्ग
यह सम्पूर्ण जगत् नारायण से उत्पन्न हुआ है ।
जगत् के अन्तर्गत उपर्युक्त सभी पदार्थ नारायण से उत्पन्न हुये हैं
महाभारत के इन वचनों से
नारायण परतत्त्व एवं परब्रह्वा सिद्ध होते हैं।
मूलम्
ऋषयः पितरो देवा
महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं
जगन् नारायणोद्भवम् ।
इति च ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राच्योदीच्य-दाक्षिणात्य-पाश्चात्य–सर्व-शिष्टैः
सर्व-धर्म–सर्व-तत्त्व-व्यवस्थायाम्
इदम् एव पर्याप्तम् इत्य् अविगान-परिगृहीतं वैष्णवं च पुराणं
जन्माद्य् अस्य यत
इति जगज्-जन्मादि-कारणं ब्रह्मेत्य् अवगम्यते ।
नीलमेघः
[[२३२]]
श्रीविष्णुपुराण से भी यही अर्थ सिद्ध होता है ।
श्रीविष्णुपुराण परमप्रमाण ग्रन्थ है ।
प्राच्य औत्तर दाक्षिणात्य और पश्चिम देशीय सभी भारतीय शिष्ट विद्वन्-महानुभावों ने
सर्वधर्म और सर्वतत्त्वों की व्यवस्था देने के विषय में
इस विष्णुपुराण को पर्याप्त प्रमाण माना है ।
एक देशीय विद्वानों ने नहीं,
किन्तु सर्वदेशीय विद्वानों ने माना है,
एकाध+++(=१ उत २)+++ शिष्टों ने नहीं,
किन्तु सभी शिष्टों ने माना है,
एकाध व्यवस्था में इसे प्रमाण नहीं माना,
किन्तु सर्व धर्म एवं सर्वतत्त्वों की व्यवस्था के विषय में
इस विष्णुपुराण को परमप्रमाण माना ।
यह श्रीविष्णुपुराण का वैशिष्ट्य है ।
इसके प्रामाण्य के विषय में किसी का भी मतभेद नहीं है ।
इस प्रकार सर्वमान्य होकर यह पुराण
सर्वशिष्टों के द्वारा समाहत है ।
मूलम्
प्राच्योदीच्यदाक्षिणात्यपाश्चात्यसर्वशिष्टैः सर्वधर्मसर्वतत्त्वव्यवस्थायाम् इदम् एव पर्याप्तम् इत्य् अविगान+++(अविगीत)+++परिगृहीतं वैष्णवं च पुराणं जन्माद्य् अस्य यत इति जगज्जन्मादिकारणं ब्रह्मेत्य् अवगम्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तज्-जन्मादि-कारणं किम्
इति प्रश्न-पूर्वकं
विष्णोः सकाशाद् भूतम्
इत्य्-आदिना ब्रह्म–स्व-रूप–विशेष-प्रतिपादनैक-परतया प्रवृत्तम्
इति सर्वसंमतम् ।
नीलमेघः - मैत्रेय-प्रश्नः
इस विष्णुपुराण में श्रीमैत्रेय जी प्रश्न कर्ता
एवं श्री पराशरब्रह्मर्षि उत्तरदाता हैं ।
मैत्रेय जी ने श्रीपराशरब्रह्मर्षि से
वेद वेदाङ्ग और वेदान्त उपनिषदों का अध्ययन करके
सब कुछ जान लिया है ।
तथापि अन्यान्य शाखाओं का अध्ययन न होने के कारण
मैत्रेय जी के मन में यह सन्देह है कि
हमने अधीत शाखा से यह जाना है कि
जगत् के जन्म आदि का कारण ब्रह्म है,
यदि दूसरी शाखाओं में - जिनका अध्ययन हमको नहीं हुआ है -
दुसरी ही कुछ बात वर्णित हो तो क्या किया जाय ।
उसे पूछकर जानना चाहिये ।
इस अभिप्राय से मैत्रेय जी ने
सामान्यरूप से यह प्रश्न पराशर ब्रह्मर्षि के सामने रक्खा कि
जगत् के जन्म आदि का कारण क्या है,
सब शाखाओं के मर्म को समझकर हमको उत्तर दिया जाय ।
मैत्रेय जी का यह प्रश्न
सामान्यरूप को लेकर हुआ है ।
मैत्रेय जी ने ऐसा प्रश्न नहीं रक्खा कि
श्रीविष्णु के परतत्त्व के विषय में कहिये
या शिवजी के बड़प्पन के विषय में कहिये इत्यादि ।
यदि इस प्रकार प्रश्न रक्खे होते तो
वह प्रश्न अवश्य विशेषविषयक माना जाता ।
मैत्रेय जी ने विशेषविषयक प्रश्न न रखकर
सामान्यविषयक प्रश्न ही रखा।
यदि मैत्रेय जी का प्रश्न
एवं पराशर जी का उत्तर विशेषविषयक होते
तो यह कहा जा सकता कि प्रश्न करने वाले के
अभिमत अर्थ के विषय में
उत्तर दिया गया है,
इससे वह अर्थ सर्वशास्त्रसंमत सिद्ध नहीं हो सकता ।
विष्णुपुराण में मैत्रेय जी के द्वारा
सामान्यरूप को लेकर प्रश्न इस प्रकार रखा गया है कि
जगत् के जन्म आदि का कारण कौन है ?
नीलमेघः - उत्तरम्
उत्तरदाता श्रीपराशर ब्रह्मर्षि ने
“विष्णोः सकाशाद् उद्भूतम्” इत्यादि श्लोकों से
यह उत्तर दिया कि
यह जगत् श्रीविष्णु भगवान् से उत्पन्न हुआ है इत्यादि ।
श्रीविष्णु भगवान को
जगत्कारण सिद्ध करने वाला
यह उत्तर विशेष रूप को लेकर
प्रवृत्त हुआ है ।
सामान्यविषयक प्रश्न के विषय में
विशेष रूप को लेकर प्रवृत्त इस उत्तर से
श्रीपराशर जी का यह भाव व्यक्त होता है कि
जगत् के जन्म आदि का कारण श्रीविष्णु भगवान् ही हैं,
उसे कह देना चाहिये
जगत्कारण तत्त्व को
हम विशेष रूप से समझते हैं,
सच्छिष्य को उसे अवगत कराना ही चाहिये ।
तत्त्व-स्थिति ऐसी है,
उसे क्यों छिपाया जाय ।
इसलिये श्रीपराशर ब्रह्मर्षि ने
विशेष रूप को लेकर उत्तर दिया ।
जगत्कारणतत्त्व के विषय में प्रश्न किया गया ।
श्रीविष्णु भगवान् को जगत्कारणतत्त्व कहकर
उत्तर दिया गया ।
इन प्रारम्भिक प्रश्न प्रतिवचनों से सिद्ध होता है कि
श्रीविष्णुपुराण ब्रह्म के स्वरूपविशेष का प्रतिपादन करने के लिये ही
प्रवृत्त हुआ है ।
यह अर्थ सर्वमान्य है ।
इस विष्णुपुराण के प्रारम्भ में वर्णित प्रश्न एवं उत्तर से
श्रीविष्णु भगवान् जगत्कारण परतत्त्व सिद्ध होते हैं ।
[[२३३]]
उपक्रम और उपसंहार से
ग्रन्थ का तात्पर्य समझ में आता है ।
उपर्युक्त उपक्रम से सिद्ध होता है कि
श्रीविष्णु भगवान् को परतत्त्व सिद्ध करने में
श्रीविष्णुपुराण का तात्पर्य है ।
मूलम्
तज्जन्मादिकारणं किमिति प्रश्नपूर्वकं
विष्णोः सकाशाद्भूतमित्यादिना ब्रह्मस्वरूपविशेषप्रतिपादनैकपरतया प्रवृत्तमिति सर्वसंमतम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तत्रैव
प्रकृतिर् या मया ख्याता
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी । पुरुषश् चाप्य् उभाव् एतौ
लीयेते परमात्मनि ।
नीलमेघः
उपसंहार भी इसके अनुकूल है ।
उपसंहार में श्रीपराशरब्रह्मर्षि कहते हैं कि –
प्रकृतिर्या मयाऽऽख्याता
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी ।
पुरुषश्चाप्युभावेतौ
लीयेते परमात्मनि ॥
अर्थात्
व्यक्त ओर अव्यक्त स्वरूप वाली प्रकृति -
जिसे मैंने कहा था —
और पुरुष ये दोनों प्रलयकाल में
परमात्मा में लीन हो जाते है ।
मूलम्
तथा तत्रैव
प्रकृतिर् या मया ख्याता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी ।
पुरुषश् चाप्य् उभाव् एतौ
लीयेते परमात्मनि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमात्मा च सर्वेषाम्
आधारः परमेश्वरः ।
विष्णुनामा स वेदेषु
वेदान्तेषु च गीयते ।
इति ।
नीलमेघः
परमात्मा च सर्वेषाम्
आधारः परमेश्वरः ।
विष्णुनामा स वेदेषु
वेदान्तेषु च गीयते ॥
वह परमात्मा सब के आधार एवं परमेश्वर हैं ।
उसका नाम विष्णु है ।
विष्णु नाम वाले वह परमात्मा
वेद और वेदान्तों में वर्णित हैं ।
अग्नि इत्यादि सभी शब्द
अग्नि आदि देवताओं के अन्तर्यामी बने हुये परमात्मा
श्री विष्णु भगवान् के वाचक हैं।
इस प्रकार वह परमात्मा
सभी शब्दों के वाच्यार्थ हैं ।
मूलम्
परमात्मा च सर्वेषाम्
आधारः परमेश्वरः ।
विष्णुनामा स वेदेषु
वेदान्तेषु च गीयते ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व-वेद-वेदान्तेषु
सर्वैः शब्दैः
परम-कारणतया
ऽयम् एव गीयत
इत्य् अर्थः ।
नीलमेघः
वेद और वेदान्तों में
परमकारणतत्त्व को बतलाने वाले सभी शब्द
श्री विष्णु भगवान को ही परम कारण बतलाते हैं ।
इस उपसंहारस्थ वचन से
श्री विष्णु पुराण का श्री विष्णु को
परतत्त्व सिद्ध करने में तात्पर्य अभिव्यक्त होता है।
मूलम्
सर्ववेदवेदान्तेषु सर्वैः शब्दैः परमकारणतयायम् एव गीयत इत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सर्वासु श्रुतिषु
केवल–पर-ब्रह्म–स्व-रूप–विशेष-प्रतिपादनायैव प्रवृत्तो नारायणानुवाकस्
तथेदं वैष्णवं च पुराणम् …
नीलमेघः
किंच, जिस प्रकार संपूर्ण श्रुतियों में
एक नारायणानुवाक
केवल परतत्त्व का प्रतिपादन करने के लिये प्रवृत्त है
उसी प्रकार
यह विष्णु पुराण भी
केवल परतत्त्व का प्रतिपादन करने के लिये प्रवृत्त है ।
यह अर्थ उपक्रम उपसंहार से
व्यक्त होता है ।
मूलम्
यथा सर्वासु श्रुतिषु
केवलपरब्रह्मस्वरूपविशेषप्रतिपादनायैव प्रवृत्तो नारायणानुवाकस्तथेदं वैष्णवं च पुराणम्…
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो ऽहम् इच्छामि धर्मज्ञ
श्रोतुं त्वत्तो यथा जगत् ।
बभूव भूयश् च यथा
महाभाग भविष्यति ।यन्मयं च जगद् ब्रह्मन्
यतश् चैतच् चराचरम् ।
लीनम् आसीद् यथा यत्र
लयम् एष्यति यत्र च ।
इति
परं ब्रह्म किम्
इति प्रक्रम्य
नीलमेघः - उत्पत्ति-प्रश्नः
उपक्रम में मैत्रेय जी का प्रश्न इस प्रकार वर्णित है कि-
सो ऽहम् इच्छामि धर्मज्ञ
श्रोतुं त्वत्तो यथा जगत् ।
बभूव भूयश् च यथा
महाभाग भविष्यति ।यन्मयं च जगद् ब्रह्मन्
यतश् चैतच् चराचरम् ।
लीनम् आसीद् यथा यत्र
लयम् एष्यति यत्र च ।
अर्थात्
हे धर्मज्ञ ! मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ कि
यह चराचर जगत्
पूर्व काल में किस से उत्पन्न हुआ,
इस जगत का उत्पादन कारण एवं निमित्त कारण कौन था,
क्या दोनों कारण एक ही था,
या भिन्न २ था ?
यह जगत किस प्रकार उत्पन्न हुआ,
क्या यह जगत शून्य है,
अथवा भ्रम से दिखाई देने वाला विवर्त पदार्थ है,
अथवा किसी का स्वरूप परिणाम है,
अथवा किसी का सद्वारक परिणाम है ?
भाव यह है कि
जगत्कारणतत्व ने
दूसरे किसी के द्वारा इस जगत को उत्पन्न किया हो
तो यह जगत सद्वारक
किसी के द्वारा होने वाला
परिणाम सिद्ध होता है।
उपर्युक्त प्रकारों में किस प्रकार से
यह जगत उत्पन्न हुआ ?
उत्तरकाल में भी यह जगत
किससे किस प्रकार उत्पन्न होने वाला है ?
[[२३४]]
मैंने जिन वेद शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है,
यदि उन शाखाओं में विभिन्न कालों में
विभिन्न कारणों से
विभिन्न प्रकारों से
जगत की उत्पत्ति बतलाई गई हो
तो कृपया उसे भी बतला दिया जाय ।
नीलमेघः - स्थिति-प्रश्नः
" यन्मयं च जगद् ब्रह्मन्"
अर्थात्
हे ब्रह्मन् ! इस जगत की स्थिति का कारण कौन है ?
स्थिति कारण दो प्रकार का हो सकता है ।
(१) बाहर रह कर
स्थिति को सम्हालता है ।
(२) दूसरा अन्दर कण २ में व्याप्त रह कर
धारण करता हुआ
स्थिति का कारण बनता है ।
इन दोनों स्थिति कारणों को
मैं जानना चाहता हूँ।
नीलमेघः - लय-प्रश्नः
यह जगत पूर्वकाल में
किस में लीन था,
कैसे लीन था,
उत्तर काल में किसमें लीन होगा,
किस प्रकार लीन होगा।
इन सब बातों को मैं जानना चाहता हूँ ।
यदि अनधीत शाखाओं में
विभिन्न कालों में विभिन्न लयकारण तथा लय के विभिन्न प्रकार बतलाये गये हों
तो उनको भी बता दिया जाय ।
इस प्रकार शिष्य मैत्रेय जी ने
जगत्कारण परब्रह्म के विषय में प्रश्न किया है ।
मूलम्
सो ऽहम् इच्छामि धर्मज्ञ
श्रोतुं त्वत्तो यथा जगत् ।
बभूव भूयश् च यथा
महाभाग भविष्यति ।यन्मयं च जगद् ब्रह्मन्
यतश् चैतच् चराचरम् ।
लीनम् आसीद् यथा यत्र
लयम् एष्यति यत्र च ।
इति परं ब्रह्म किम् इति प्रक्रम्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोः सकाशाद् उद्भूतं
जगत् तत्रैव च स्थितम् ।
स्थिति-संयम-कर्ता ऽसौ
जगतो ऽस्य जगच् च सः ।
नीलमेघः - विशेषोत्तर-हेतुः
इस प्रश्न को लेकर विष्णु पुराणका प्रारम्भ होता है ।
यह प्रश्न सामान्य रूप को लेकर प्रवृत्त हुआ है ।
अमुक देवता के विषय में कहिये,
इस प्रकार विशेष रूप को लेकर यह प्रश्न प्रवृत्त नहीं है ।
इस सामान्य प्रश्न का उत्तर
सामान्य रूप को लेकर भी दिया जा सकता है ।
परन्तु गुरु श्री पराशर ब्रह्मर्षि ने
यह विचार किया कि
सामान्य रूप से उत्तर देने पर भी
फिर शिष्य को विशेष जिज्ञासा होगी ही,
इस लिये विशेष रूप को लेकर हा उत्तर देना उचित है, +++(5)+++
उससे विशेष जिज्ञासा भी शान्त हो जायगी ।
नीलमेघः - जगत्-कारणता
यह सोचकर श्री पराशर ब्रह्मर्षि ने
शिष्यवात्सल्य से प्रेरित होकर
इस प्रकार विशेष रूप को लेकर उत्तर दिया कि-
विष्णोः सकाशाद् उद्भूतं
जगत् तत्रैव च स्थितम् । स्थिति-संयम-कर्ता ऽसौ
जगतो ऽस्य जगच् च सः ।
अर्थात्
जगत् श्री विष्णु भगवान से उत्पन्न हुआ है।
आज कल का जगत ही नहीं
किन्तु अतीत ब्रह्मकल्पों में जितने जगत उत्पन्न हुये हैं,
वे सभी श्री विष्णु भगवान से ही उत्पन्न होंगे।
यह बात नहीं कि
विभिन्न कालों में विभिन्न जगत्कारण होते हों।
सभी कालों में एकमात्र श्री विष्णु भगवान ही
जगत् का आदि कारण हैं ।
विष्णु शब्द में विद्यमान अर्थप्रतिपादिका शक्ति
दो प्रकार की है
(१) योग शक्ति और
(२) रूढ़ि शक्ति ।
विष्णु शब्द में अन्तर्गत प्रकृति और प्रत्यय के अर्थों के अनुसार
अर्थ करना योग शक्ति है ।
उस योग शक्ति के अनुसार
विष्णु शब्द व्यापक तत्त्व को बतलाता है।
रूढ़ि शक्ति के अनुसार
विष्णु शब्द व्यापक नारायण भगवान को बतलाता है ।
इससे सिद्ध होता है कि
श्री नारायण भगवान से
जगत उत्पन्न हुआ है ।
श्रीमन्नारायण भगवान जगत्कारण तत्त्व को
विशेष रूप में उपस्थित करके
श्री पराशर ब्रह्मर्षि ने
शिष्य की सामान्य जिज्ञासा
एवं विशेष जिज्ञासा को शान्त किया है ।
किंच व्यापक होने से
विष्णु भगवान चेतनाचेतन तत्त्वों के
अन्दर बाहर व्याप्त होकर रहते हैं,
इसके यह सिद्ध होता है कि
व्यापक विष्णु भगवान जब रहते हैं,
तथ व्याप्य चेतनाचेतन पदार्थ भी रहते हैं ।
व्याप्य से बिना
व्यापक कैसे रह सकता है ।
व्यापक निर्विकार विष्णु भगवान,
साथ रहने वाले चेतना चेतन पदार्थों के द्वारा
इस जगत की सृष्टि करते हैं ।
[[२३५]]
यह जगत श्री विष्णु भगवान् का सद्वारक
अर्थात् चेतनाचेतनों के द्वारा होने वाला परिणाम है ।
यह जगत शून्य नहीं है, विवर्त नहीं,
न ब्रह्म का स्वरूपपरिणाम ही है,
अपितु परब्रह्म विष्णु भगवान का ही
सद्वारक परिणाम है।+++(5)+++
सृष्टि का यह प्रकार
ध्यान देने योग्य है ।
नीलमेघः - लयः
" जगत् तत्रैव च स्थितम्"
जगत् कहाँ लीन होगा, जगत के लय का स्थान कौनसा है ?
इस प्रश्न का यह उत्तर है कि
जगत् उस श्री विष्णु भगवान में ही लीन होगा,
वह भी चेतनाचेतनों में लोन होकर उनके द्वारा श्री विष्णु भगवान में लय को प्राप्त होगा ।
नीलमेघः - स्थितिः
" स्थितिसंयमकर्ताऽसौ जगतः "
यह विष्णु भगवान ही जगत का संहार करते हैं,
तथा बाहर रहकर स्थिति का कारण बनते हैं ।
इससे सिद्ध हुआ कि बाह्य स्थितिकारण
एवं लय कारण श्री विष्णु भगवान हैं ।
आन्तरस्थितिकारण के विषय में
जो प्रश्न किया गया है
उसका उत्तर यह है कि
“जगच्च सः” यह जगत श्री विष्णु भगवान ही है
क्योंकि वे इस जगत के अन्दर अन्तर्यामी के रूप में विराजमान होकर,
अन्दर रहकर,
स्थिति को सम्हालते हुए जगद्रूप को धारण किये हुए हैं ।
मूलम्
विष्णोः सकाशाद् उद्भूतं
जगत् तत्रैव च स्थितम् । स्थिति-संयम-कर्ता ऽसौ
जगतो ऽस्य जगच् च सः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परः पराणां परमः
परमात्मात्म-संस्थितः ।
+++(इति देश-काल-वस्तुभिर् अपरिच्छिन्नतया/ अनन्ततया)+++
रूप-वर्णादि-निर्देश-
विशेषण-विवर्जितः ।
नीलमेघः - अपरिच्छिन्नता
इस प्रकार शिष्य के
सब प्रश्नों के उत्तर इस श्लोक में दिये गये हैं ।
इससे स्पष्ट हो जाता हैं कि
श्री विष्णु पुराण श्री विष्णु भगवान को
जगत्कारण परतत्त्व परब्रह्म सिद्ध करने में तात्पर्य रखता है ।
श्री विष्णु पुराण में,
नमस्कार श्लोकों के बाद जो श्लोक कहे गये है,
उनसे श्री विष्णु भगवान का जगत्कारणत्व पुष्ट हो जाता है
तथा श्री भगवान के स्वरूप का तात्त्विक विवेचन भी सिद्ध हो जाता है ।
वे श्लोक ये हैं-
परः पराणां परमः
परमात्मात्मसंस्थितः ।
रूपवर्णादिनिर्देश-
विशेषण विवर्जितः ॥
अर्थात् पूर्वोदाहृत “विष्णोः सकाशात्” इस श्लोक से
श्री विष्णु भगवान को जगत्कारण कहा गया है ।
अपरिच्छिन्न होने पर ही
श्री विष्णु भगवान इस विशाल जगत का कारण बन सकते हैं ।
परिच्छिन्न होने पर
परिमित कार्यों का ही कारण बन सकते हैं
अपरिमित कार्यों का नहीं ।
परिच्छिन्न कारण से
अपरिमित काय उत्पन्न नहीं हो सकते ।
श्री भगवान के सर्वकारणत्व सिद्ध करने के लिये
उनकी अपरिच्छिन्नता का वर्णन करना चाहिये ।
वह अपरिच्छिन्नता " परः पराणाम्" इत्यादि श्लोकों से कही जाती है ।
श्रुति ने भी “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” कह कर
परब्रहा को अनन्त कहा है ।
अनन्त शब्द का अर्थ है अपरिच्छिन्न ।
जिसमें परिच्छेद न हो
वह पदार्थ अपरिच्छिन्न कहा जाता है ।
परिच्छेद तीन प्रकार का है ।
(१) कालपरिच्छेद
किसी काल में होना
और किसी काल में न होना
यही पदार्थ का कालपरिच्छेद है ।
यह परिच्छेद ब्रह्म में नहीं
क्योंकि वह सभी कालों में रहता है ।
(२) देशपरिच्छेद -
किसी देश में होना
और अन्य देशों होना
यही पदार्थ का देशपरिच्छेद है ।
यह परिच्छेद ब्रह्म में नहीं
क्योंकि वह सभी देश में रहता है
[[२३६]]
(२) वस्तु परिच्छेद –
किसी वस्तु के रूप में होना
और अन्य वस्तुओं के रूप में न होना
यह वस्तुपरिच्छेद हैं,
यह परिच्छेद ब्रह्म में नहीं
क्योंकि वह सवन्तिर्यामी होने के कारण
सर्व रूपों को धारण करता हुआ
सर्व वस्तुओं के रूप में विद्यमान रहता है ।
सर्व वस्तुओं के वाचक शब्दों के अभिहित होने से
अन्तर्यामितत्त्व वस्तुपरिच्छेद रहित हो जाता है ।
परब्रह्म में उपर्युक्त तीनों प्रकार का
परिच्छेद नहीं लगता ।
इस लिये वह श्रुतियों में अनन्त कहा गया है ।
नीलमेघः - प्रथमार्धः
उसी प्रकार “परः पराणाम्”
यह विष्णु-पुराण-श्लोक श्री विष्णु भगवान को
त्रि-विध-परिच्छेद-रहित बतलाता है ।
इससे श्री विष्णु भगवान
परब्रह्म सिद्ध होते हैं ।
“परः पराणां परमः”
ब्रह्मादि देवगण अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक काल तक जीवित रहते हैं ।
अत एव ब्रह्मा जी की आयु पर
अर्थात् सबसे बड़ी कहलाती है ।
अधिक आयु वाले ब्रह्मा आदियों से भी
श्री भगवान अधिककालजीवी होने से बड़े हैं।
श्री भगवान सभी कालों में विद्यमान रहते हैं ।
उनके विषय में
यह नहीं कहा जा सकता कि
वे अमुक काल में रहते हैं
अमुक काल में नहीं ।
इससे श्री भगवान का
कालापरिच्छेद कहा गया है ।
“परमात्मा" श्री भगवान
सर्वत्र व्याप्त होकर रहते हैं
वे सभी देशों में रहते हैं,
इससे देशापरिच्छेद कहा गया है ।
“आत्मसंस्थितः " श्री भगवान
अपने बल पर टिके हुये हैं,
अन्य सभी चेतनाचेतन पदार्थ
श्री भगवान का आश्रय लेकर सत्ता प्राप्त करते हैं ।
सर्व वस्तुओं के अन्दर रहकर
श्री भगवान सर्व वस्तुओं को धारण करते हैं ।
वे सर्वान्तर्यामी हैं,
बहुरूपिये की तरह
विश्वरूप से वे ही प्रकट हैं ।
इससे वस्तुपरिच्छेदाभाव कहा गया है ।
इस प्रकार पूर्वार्ध से
त्रि-विध-परिच्छेदाभाव वर्णित हुआ है।
नीलमेघः - द्वितीयार्धः
आगे इन तीनों परिच्छेदों का अभाव
विस्तार से बतलाया जाता है ।
उसमें काल-परिच्छेदाभाव को
विस्तार से बतलाते हुये
श्री भगवान को काल-परिच्छन्न पदार्थों से व्यावृत
अर्थात् भिन्न कहते हैं ।
लोक में जो पदार्थ कालपरिच्छिन्न रहता है
अर्थात किसी काल में रहता है
तथा अन्य कालों में नहीं रहता है
उस कालपरिच्छिन्न पदार्थ में
ये स्वभाव देखने में आते हैं ।
उस पदार्थ में
गुण और क्रिया इत्यादि रहते हैं ।
ये उस पदार्थ में
विशेषण बनकर रहते हैं ।
इन धर्मो को बतलाने वाले शब्द
उस धर्मी पदार्थ तक को बतलाते हैं ।
इस प्रकार कालपरिच्छिन्न घटादि पदार्थ
उपर्युक्त धर्मों से युक्त
एवं उन धर्मों के वाचक शब्दों का वाच्य बन कर रहता है ।
कालपरिच्छिन्न पदार्थ
इस प्रकार के होते हैं ।
श्री भगवान कालापरिच्छिन्न हैं
अतएव जाति गुण और क्रिया इत्यादि विशेषणों से रहित हैं
तथा उन विशेषणों को बतलाने वाले शब्दों के द्वारा
नहीं बतलाये जा सकते हैं ।
यह श्री भगवान की विशेषता है
क्योंकि वे कालपरिच्छेदरहित हैं।
मूलम्
परः पराणां परमः
परमात्मात्म-संस्थितः ।
रूप-वर्णादि-निर्देश-
विशेषण-विवर्जितः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपक्षय-विनाशाभ्यां परिणाम-र्द्धि-जन्मभिः ।
वर्जितः शक्यते वक्तुं
यः “सद् अस्ती"ति केवलम् ।
+++(अपरिच्छिन्नत्वाद् रूपादीयत्ताभावात्)+++
नीलमेघः
किंच, कालपरिच्छिन्न पदार्थों में
६ भावविकार होते रहते हैं ।
श्री भगवान में वे विकार नहीं होते हैं
छः भावविकार ये हैं
(१) जन्म ले लेना,
(२) विद्यमान होना,
(३) बढना,
(४) एक रूप से परिणाम को प्राप्त होते रहना,
(५) घटना और
(६) नष्ट होना ।
ये कालपरिच्छिन्न पदार्थो में हुआ करते हैं ।
श्री भगवान में ये विकार नहीं हैं।
श्री भगवान के विषय में
इतना ही कहा जा सकता है कि
वे सदा रहते हैं ।
सारांश यह है कि
कालपच्छिन्न पदार्थो में
जात्यादि स्वभाव रहते हैं
वे जात्यादि वाचक पदार्थों से अभिहित होते हैं
तथा उनमें छः भावविकार होते हैं
श्री भगवान में ये सब बातें नहीं हैं ।
वे सदा एक रूप से विद्यमान रहते हैं।
अतएव वे कालापरिच्छिन्न माने जाते हैं।
मूलम्
अपक्षयविनाशाभ्यां परिणाम-र्द्धि-जन्मभिः ।
वर्जितः शक्यते वक्तुं
यः सद् अस्तीति केवलम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वत्रासौ +++(वसति)+++, समस्तं च
वसत्य् अत्रेति+++(=अस्मिन्निति)+++ वै यतः ।
ततः+++(=व्युत्पत्तिद्वयात्)+++ स वासुदेवेति
विद्वद्भिः परिपठ्यते ।+++(5)+++
नीलमेघः
आगे दो श्लोक
श्री भगवान को
देशापरिच्छेदरहित बतलाते हैं ।
वे ये हैं कि-
सर्वत्रासौ समस्तं च वसत्यत्रेति वै यतः ।
ततः स वासुदेवेति विद्वद्भिः परिपठ्यते ॥
[[२३७]]
अर्थात् श्री भगवान वासुदेव कहलाते हैं ।
वासुदेव शब्द की व्युत्पत्ति पर ध्यान दिया जाये तो प्रतीत होगा
श्री भगवान देशपरिच्छेद से रहित है ।
वासुदेव शब्द " वासु” और “देव” इन शब्दों के समास से बना है
" वासु” शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार की है ।
(१) वसतीति वासुः
(२) वसत्यस्मिन्निति वासुः +++(5)+++
प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार
यह अर्थ निकलता है कि
श्री भगवान सर्वत्र निवास करते हैं
इस लिये " वासु" कहलाते हैं ।
द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार
यह अर्थ निकलता है कि
श्री भगवान में
सब पदार्थों का निवास होता है ।
इस लिये श्री भगवान " वासु" कहलाते हैं ।
इस प्रकार श्री भगवान
सब में निवास करते हुये
तथा सबका निवासस्थान बनते हुये
लीला करते रहते हैं
इस लिये वे वासुदेव कहलाते हैं ।
इस वासुदेव शब्द की दो शक्तियां हैं ।
(१) योगशक्ति और
(२) रूढ़िशक्ति ।
यह वासुदेव शब्द
योगशक्ति के अनुसार
सर्वत्र निवास करने वाले
तथा सबको अपने में निवास देने वाले
लीलारसिक भगवान को बतलाता है ।
यह शब्द रूढ़िशक्ति से
श्रीमन्नारायण भगवान को बतलाता है ।
इस प्रकार योगरूढ़ यह वासुदेव शब्द
श्रीमन्नारायण भगवान को सर्वत्र निवास करने वाला
तथा अपने में सबको निवास देने वाला बतलाता है ।
श्री भगवान का सर्वत्र देशों में निवास होने के कारण
इस शब्द से
श्री भगवान की देशपरिच्छेदरहितता बतलायी जाती है।
इससे श्री भगवान देशापरिच्छिन्न सिद्ध हुये ।
मूलम्
सर्वत्रासौ समस्तं च
वसत्य् अत्रेति वै यतः ।
ततः स वासुदेवेति
विद्वद्भिः परिपठ्यते ।+++(5)+++
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्+++(=वासुदेवाख्यम्)+++ ब्रह्म परं नित्यम्
अजम् अक्षयम् अव्ययम् ।
एकस्वरूपं च सदा
हेयाभावाच् च निर्मलम् ।
नीलमेघः - तद् ब्रह्म परमम्
यहाँ पर एक प्रश्न होता है कि
श्रुति ने “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” कहकर
परब्रह्म को अनन्त अर्थात् त्रिविधपरिच्छेदरहित कहा गया है ।
यहाँ वासुदेव भगवान को
त्रिविध-परिच्छेदरहित कहा जाता है ।
यह कैसे संगत है ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुये श्रीपराशर ब्रह्मर्षि
" तद् ब्रह्म परमम्" इस श्लोक से कहते हैं कि
वह वासुदेव ही परब्रह्म है ।
नीलमेघः
परब्रह्म है “अजम्” अर्थात् उसका जन्म नहीं होता,
जन्म के बाद जो अस्तित्व प्राप्त होता है वैसा अस्तित्व भी उसमें नहीं ।
वह परब्रह्म “अक्षयम्” है उसका नाश नहीं होता ।
वह परब्रह्म “अव्ययम्” है अर्थात् चढता भी नहीं ।
“एकस्वरूपम्” वह परब्रह्म एक स्वरूप से रहता है
न उसमें वृद्धि होती है
और न विपरिणामावस्था होती हैं ।
इसप्रकार परब्रह्म नित्य है
सदा रहने वाला है।
इन विशेषणों से सिद्ध होता है कि
परब्रह्म जन्म इत्यादि छः भावविकारों से युक्त
अचेतन पदार्थ से सर्वथा विलक्षण है ।
नीलमेघः - हेयाभावः
वह परत्रह्म “निर्मलम्” हैं उसमें मलिनता स्थान नहीं पाती ।
बद्धजीव मलिन हैं ।
इस विशेषण से परब्रह्म
बद्धजीवों से विलक्षण सिद्ध होता है ।
किंच पर कभी भी दोष न होने से
सदा निर्मल रहता है ।
मुक्त जीव भी पूर्वावस्था में
मलिन रहते हैं ।
इस विशेषण से परब्रह्म मुक्त जीवों से
विलक्षण सिद्ध होता है ।
नीलमेघः - निगमनम्
किंच परब्रह्म “परमम्” है,
उससे बढ़कर कोई नहीं होता ।
[[२३८]]
नित्यसूरियों से बढ़कर ईश्वर होते हैं इस विशेषण से सिद्ध होता है कि
परब्रह्म नित्यसूरियों से विलक्षण है ।
इस प्रकार जो परब्रह्म
अचेतन एवं बद्ध मुक्त नित्य चेतनों से अत्यन्त विलक्षण है
वह परब्रह्म वासुदेव ही है ।
“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इस श्रुति ने
“अनन्त” पद से योगशक्ति के द्वारा
परब्रह्म को त्रिविध-परिच्छेदरहित बतलाया,
साथ ही रूढ़िशक्ति से उस परब्रह्म को विष्णु भगवान कहा है ।
“अनन्त " ऐसा विष्णु भगवान का नाम है ।
विष्णु भगवान को परब्रह्म कहने में ही
श्रुति का तात्पर्य है ।
उस तात्पर्य को समझ कर
यहाँ श्री वासुदेव भगवान को परब्रह्म कहा गया है ।
वासुदेव विष्णु और नारायण इत्यादि शब्द
एक ही अर्थ के वाचक हैं ।
मूलम्
तद्ब्रह्म परं नित्यम्
अजम् अक्षयम् अव्ययम् ।
एकस्वरूपं च सदा
हेयाभावाच् च निर्मलम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एव सर्वम् एवैतद्
व्यक्ताव्यक्त-स्व-रूपवत् ।
तथा पुरुष-रूपेण
काल-रूपेण च स्थितम् । +++(5)+++
नीलमेघः
आगे श्री पराशर ब्रह्मर्षि ने
विष्णु भगवान की वस्तुपरिच्छेदरहितता का विवरण करते हुये
कहा है कि-
तद् एव सर्वम् एवैतद्
व्यक्ताव्यक्त-स्व-रूपवत् ।
तथा पुरुष-रूपेण
काल-रूपेण च स्थितम् ।
अर्थात्
वह परब्रह्म व्यक्त एवं अव्यक्त स्वरूप वाले
इस जढप्रपञ्च के रूप में,
पुरुष के रूप में एवं काल के रूप में अवस्थित हैं ।
चेतनाचेतन एवं काल
परब्रह्म का शरीर है।+++(5)+++
परब्रह्म इन शरीरों को धारण कर
इन पदार्थों के रूप में विद्यमान है ।
सर्वान्तर्यामी होने के कारण
विश्वरूप को लेकर विराजमान रहता है।
यही परब्रह्म का वस्तुपरिच्छेदाभाव है ।
इस प्रकार श्रीरामानुजस्वामी जी ने
श्री विष्णुपुराण के प्रारम्भ में पठित श्लोकों का उद्धरण देकर कहा है कि
श्री विष्णु भगवान को परतत्त्व सिद्ध करने में
इस पुराण का तात्पर्य है ।
मूलम्
तदेव सर्वमेवैतद्
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपवत्।
तथा पुरुषरूपेण
कालरूपेण च स्थितम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सर्व-भूत-प्रकृतिं +++(महत्-तत्त्वादि-)+++विकारान्
+++(प्राकृत-रजस्-तम-निभ-)+++गुणादि-दोषांश् च मुने व्यतीतः ।
अतीत-सर्वावरणो ऽखिलात्मा
तेनास्तृतं यद् भुवनान्तराले ।
नीलमेघः
आगे श्री विष्णुपुराण के उपसंहार में विद्यमान श्लोकों से यह सिद्ध करते हैं कि
श्रीविष्णुपुराण का भगवान के परत्व में तात्पर्य है ।
वे श्लोक ये हैं कि-
स सर्व-भूत-प्रकृतिं विकारान् गुणादि-दोषांश् च मुने व्यतीतः । अतीत-सर्वावरणो ऽखिलात्मा
तेनास्तृतं यद् भुवनान्तराले ।
अर्थात् -
मुने, वह ईश्वर सर्व भूतों का मूल कारण बनने वाली प्रकृति,
महत्तत्त्व इत्यादि विकार, सत्त्व रज और तमोगुण
एवं उनसे होने वाले राग द्वेष और दुःख
इत्यादि दोषों से विशेष करके दूर रहने वाला है ।
वह सब तरह के ज्ञान के आवरणों से रहित हैं।
वह सर्व जगत का अन्तरात्मा है ।
इस जगत के मध्य में विद्यमान सभी पदार्थ उससे व्याप्त हैं ।
इस प्रकार इस श्लोक से सर्वेश्वर सर्व दोषों से रहित बतलाये गये ।
मूलम्
स सर्वभूतप्रकृतिं विकारान्गुणादिदोषांश्च मुने व्यतीतः । अतीतसर्वावरणोऽखिलात्मा
तेनास्तृतं यद्भुवनान्तराले ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
समस्त-कल्याण-गुणात्मको ऽसौ
स्व-शक्ति-लेशोद्धृत-भूत-वर्गः ।
इच्छा-गृहीताभिमतोरु-देहः
संसाधिताशेष-जगद्-धितो ऽसौ ।
नीलमेघः
अर्थात्
सबको अनुकूल होना
तथा सबको मंगलकारी होना
यही सर्वेश्वर के दिव्यात्मस्वरूप का स्वभाव है।
इस प्रकार के उत्तम स्वभाव से संपन्न
दिव्यात्म स्वरूप को
सर्वेश्वर अपनाये हुये हैं।
[[२३६]]
सर्वेश्वर का यह दिव्यात्मस्वरूप अपनी शक्ति के लेशमात्र से
विविध कार्य वर्गों को धारण करता रहता है ।
इस प्रकार वह अनायास ही
सबका धारक बना है ।
सर्वेश्वर का दिव्य मंगल विग्रह भी
अत्यन्त विलक्षण है ।
वे अपनी इच्छा से
बड़े २ अभीष्ट, अप्राकृत एवं दिव्य मंगल विग्रहों को धारण करते रहते हैं ।
इन दिव्य मंगल विग्रहों से
संपूर्ण जगत के हितों को साधते रहते हैं ।
जगत के हितों का साधना ही
दिव्य मंगल विग्रह का प्रयोजन है ।
इस प्रकार इस श्लोक से
श्री भगवान का दिव्यात्मस्वरूप
समस्त कल्याणों का निधि बतलाया गया है ।
मूलम्
समस्तकल्याणगुणात्मको ऽसौ
स्वशक्तिलेशोद्धृतभूतवर्गः ।
इच्छागृहीताभिमतोरुदेहः
संसाधिताशेषजगद्धितोऽसौ ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजो-बलैश्वर्य-महावबोध-
सुवीर्य-शक्त्य्-आदि-गुणैक-राशिः ।
परः पराणां स-कला न यत्र
क्लेशादयः सन्ति परावरेशे ।
नीलमेघः
तेजोबलैश्वर्यमहावबोधसुवीर्यशक्त्यादिगुणैकराशिः
परः पराणां सकला न यत्र क्लेशादयः सन्ति परावरेशे ॥
अर्थात्
श्री भगवान् में अनन्त कल्याण गुण विद्यमान हैं।
उनमें छः गुण प्रधान हैं, अन्यान्य गुण इनका विस्तार रूप है ।+++(5)+++
वे छः गुण ये हैं कि (१) तेज (२) बल (३) ऐश्वर्य (४) ज्ञान (५) वीर्य और (६) शक्ति ।
- सब पदार्थों को अपने अधीन रखें,
किसी से दबे नहीं - इस गुण को तेज कहते हैं । - सबको धारण करने की सामर्थ्य बल है ।
- सबका नियमन करना ऐश्वर्य है ।
- सबको एक साथ प्रत्यक्ष में सदा स्वयं जानना यही ज्ञान है ।
ईश्वर का ज्ञान महान् है,
इससे वे सर्वज्ञ कहलाते हैं। - अविकृत रहना वीर्य है ।
- जगतका उपादान कारण बनने की क्षमता
एवं अघटित घटनाशक्ति शक्ति है ।
ऐसे २ कल्याणगुणों की
एक महती राशि श्रीभगवान में विद्यमान है ।
श्रीभगवान सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मा आदि देवों से
तथा नित्यसूरियों से भी अत्यन्त श्रेष्ठ हैं ।
वे छोटे बड़े सब पर शासन करने वाले हैं ।
उनमें क्लेश कर्म, उनका फलभोग और संस्कार इत्यादि दोष
सर्वथा नहीं रहते हैं ।
इस प्रकार इस श्लोक से
श्रीभगवान सर्वकल्याणगुणसंपन्न बतलाये गये हैं ।
मूलम्
तेजो-बलैश्वर्य-महावबोध-
सुवीर्य-शक्त्य्-आदि-गुणैक-राशिः ।
परः पराणां सकला न यत्र
क्लेशादयः सन्ति परावरेशे ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ईश्वरो व्यष्टि+++(←अशू व्याप्तौ)+++-समष्टि-रूपो
+++(कारणावस्थायां)+++ ऽव्यक्त-स्वरूपः +++(कार्यावस्थायां)+++ प्रकट-स्वरूपः ।
सर्वेश्वरः सर्व-दृक् सर्व-वेत्ता
समस्त-शक्तिः परमेश्वराख्यः ।
नीलमेघः
स ईश्वरो व्यष्टि समष्टिरूपोऽव्यक्तस्वरूपः
प्रकटस्वरूपः ।
सर्वेश्वरः सर्वदृक् सर्ववेत्ता समस्तशक्तिः परमेश्वराख्यः ॥
अर्थात्
परब्रह्म वह ईश्वर ही है,
वह ईश्वर से अतिरिक्त नहीं है ।
कार्यावस्था में रहनेवाले जीव
व्यष्टि जीव कहलाते हैं ।
कारणावस्था में रहने वाले जीव
समष्टि जीव कहलाते हैं ।
ये सभी जीव ईश्वर का शरीर हैं,
ईश्वर इनका अन्तरात्मा है ।
कारणावस्था में रहने वाला अचेतन पदार्थ
अव्यक्त कहलाता है,
कार्यावस्था में आया हुआ अचेतन द्रव्य
प्रकट कहलाता है ।
यह दोनों प्रकार का अचेतन श्रीभगवान का शरीर है,
इसलिये वे सर्वेश्वर कहे जाते हैं।
किंच, श्रीभगवान सामान्यरूप से तथा विशेष रूप से
सब पदार्थों को जानते रहते हैं ।
श्रीभगवान सर्वशक्ति-संपन्न हैं ।
श्रीभगवान से बढ़कर कोई ईश्वर नहीं है
जो श्रीभगवान के ऊपर शासन कर सके
इसलिये श्रीभगवान परमेश्वर कहे जाते हैं ।
इस श्लोक से चेतनाचेतन प्रपञ्च
श्रीभगवान का शरीर
तथा श्री भगवान इस प्रपञ्च का आत्मा कहे गये हैं ।
मूलम्
स ईश्वरो व्यष्टिसमष्टिरूपो
ऽव्यक्तस्वरूपः प्रकटस्वरूपः ।
सर्वेश्वरः सर्वदृक्सर्ववेत्ता
समस्तशक्तिः परमेश्वराख्यः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संज्ञायते येन तद् अस्त-दोषं
+++(कर्मसम्बन्धाभावतः)+++ शुद्धं परं निर्मलम् एक-रूपम् +++(तत्समाभावात्)+++ ।
संदृश्यते वाप्य् अधिगम्यते वा
तज् ज्ञानम्, अज्ञानम् अतो ऽन्यद् उक्तम् ।
इति पर-ब्रह्म–स्व-रूप-विशेष-निर्णयायैव प्रवृत्तम् ।
नीलमेघः - श्लोकार्थः
संज्ञायते येन तद् अस्त-दोषं
शुद्धं परं निर्मलम् एक-रूपम् ।
संदृश्यते वाप्य् अधिगम्यते वा
तज् ज्ञानम्, अज्ञानम् अतो ऽन्यद् उक्तम् ।
[[२४०]]
अर्थात्
वह परब्रह्म परमात्मा श्रीविष्णु भगवान
निर्दोष हैं,
उनमें विकाररूप कोई दोष नहीं होता ।
विकाररूपी दोष प्रकृति में होते हैं,
निर्दोष भगवान प्रकृति से विलक्षण हैं ।
परब्रह्म शुद्ध हैं,
कर्मवश्यता ही बड़ी अशुद्धि है,
वह बद्ध जीवों में होती हैं,
शुद्ध भगवान
बद्ध जीवों से विलक्षण हैं ।
परब्रह्म निर्मल है ।
कर्मसम्बन्ध होने की योग्यता ही मल है,
यह मल मुक्त जीवों में भी रहता है,
वे कर्मसम्बन्ध होने के योग्य हैं
अतएव उनमें पूर्वावस्था अर्थात् संसारावस्था में
कर्मसंबन्ध रहता है,
यह योग्यता श्रीभगवान में नहीं है
इससे श्रीभगवान मुक्तों से विलक्षण सिद्ध होते हैं ।
श्रीभगवान एकरूप हैं,
उनके सम कोई नहीं,
अधिक तो है ही नहीं,
वे सदा प्रधान बनकर रहते हैं ।
यह योग्यता नित्यसूरियों में भी नहीं
क्योंकि उनसे भी श्रेष्ठ श्रीभगवान विराजमान हैं ।
इससे श्रीभगवान नित्यसूरियों से विलक्षण होते हैं ।
इस प्रकार अचेतन पदार्थ
एवं बद्ध मुक्त और नित्यचेतनों से
अत्यन्त विलक्षण परब्रह्म
जिस शास्त्रजन्य ज्ञान से जाना जाता है,
जिस यौगिक ज्ञान से साक्षात्कृत होता है
तथा जिस परमभक्तिरूपापन्न ज्ञान से प्राप्त होता है,
वे ज्ञान ही ज्ञान हैं
और अन्य अज्ञान ही कहा गया है ।
नीलमेघः - ब्रह्मस्वरूपवाचकता
इस प्रकार उपक्रम एवं उपसंहार के प्रसंगों को देखने पर
यही निर्णय करना पड़ता है कि
श्रीविष्णुपुराण परब्रह्मस्वरूपविशेष का निर्णय करने के लिये
अर्थात् श्रीविष्णु भगवान को परब्रह्म एवं परतत्त्व सिद्ध करने के लिये ही प्रवृत्त हुआ है ।
मूलम्
संज्ञायते येन तदस्तदोषं
शुद्धं परं निर्मलमेकरूपम्।
संदृश्यते वाप्यधिगम्यते वा
तज्ज्ञानम्, अज्ञानमतोऽन्यदुक्तम्।
इति परब्रह्मस्वरूपविशेषनिर्णयायैव प्रवृत्तम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यानि सर्वाणि पुराणान्य् एतद्-अ-विरोधेन नेयानि ।
नीलमेघः
सामान्यरूप से प्रश्न
एवं विशेषरूप से उत्तरों का उल्लेख होने से
यही सिद्ध होता है कि
इस पुराण का उपर्युक्त अर्थ को बतलाने में ही तात्पर्य है ।
अन्य पुराण
विशेष प्रश्नों को लेकर ही प्रवृत्त हैं ।+++(5)+++
इससे सिद्ध होता है कि
प्रश्न करने वाले के अभिमत अर्थ को बतलाने के लिये
वे पुराण प्रवृत्त हैं,
यथार्थ रीति से तत्त्वस्थिति को बतलाने में उनका तात्पर्य नहीं ।
श्रीविष्णुपुराण के अविरुद्ध रीति से
उन पुराणों का निर्वाह करना ही उचित है ।
मूलम्
अन्यानि सर्वाणि पुराणान्य् एतदविरोधेन नेयानि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्य+++(=जगत्कारणमात्रेतर)+++-परत्वं च +++(विशेष-प्रश्न-रूप–)+++तत्-तद्-आरम्भ-प्रकारैर् अवगम्यते ।
मूलम्
अन्यपरत्वं च तत्तदारम्भप्रकारैर् अवगम्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वात्मना विरुद्धांशस् तामसत्वाद् अनादरणीयः ।
नीलमेघः
यदि अत्यन्त विरुद्ध अर्थ वर्णित हो
तो उसका अनादर ही करना चाहिये
क्योंकि वे पुराण तामस हैं,
रज एवं तमोगुण उनका मूल है,
वे पुराण श्रुतियों से विरोध रखते हैं ।
इसलिये उन विरुद्ध अर्थों का अनादर ही करना चाहिये जो तामसपुराणों में वर्णित हैं ।
मूलम्
सर्वात्मना विरुद्धांशस् तामसत्वाद् अनादरणीयः ।