१४ निमित्त-मात्रो नेश्वरः

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमित्तोपादानयोस् तु भेदं वदन्तो वेदबाह्या एव स्युः -

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

[[२२८]]

आगे शैवों ने अपने निमित्तोपादानभेद सिद्धान्त को
इस प्रकार रक्खा कि
हमारे मत में यह कथन प्रसिद्ध है कि

“उपादानं तु भगवान्
निमित्तं तु महेश्वरः " ।

अर्थात् जगत् का उपादानकारण श्रीमन्नारायण भगवान् है,
निमित्तकारण शंकरजी हैं।

उपादानकारण निमित्तकारण के आधीन रहता है।
लोक में देखा जाता है कि
घट आदि का उपादान
मृत्पिण्ड निमित्तकारण कुलाल के आधीन रहता है
इसी प्रकार जगत् के उपादान नारायण
निमित्तकारण बनने वाले शिवजी के आधीन रहते हैं ।

इससे जगत् के उपादानकारण एवं निमित्तकारण भिन्न २ होते हैं ।
वेदिकों ने इनमें अभेद मानकर
अभिन्न निमित्तोपादान सिद्धान्त को स्थिर किया है
वह ठीक नहीं ।

जगत् उपादानकारण एवं निमित्तकारण में
भेद मानना चाहिये ।

यह शैवों का कथन है।

नीलमेघः

इसके विषय में श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
जगत् के उपादानकारण एवं निमित्तकारण में
भेद मानने वाले शैव
वेदबाह्य अर्थात् अवैदिक है
क्योंकि वेद और ब्रह्मसूत्रों में
उपादानकारण एवं निमित्तकारण में अभेद वर्णित है ।

मूलम्

निमित्तोपादानयोस् तु भेदं वदन्तो वेदबाह्या एव स्युः-

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(“यतो वा इमानि …” इत्यनेन)+++ जन्माद्य् अस्य +++(ब्रह्मणो)+++ यतः

नीलमेघः

सूत्रकार ने “जन्माद्यस्य यतः " इस सूत्र से
यह सिद्ध किया है इस जगत् के जन्म आदि का जो उपादानकारण एवं निमित्तकारण है वह ब्रह्म है ।
इस जगत् का उपादानकारण
सूक्ष्म चेतनाचेतनों से विशिष्ट है
क्योंकि यही जगत् के रूप में परिणत होता है ।

यही ब्रह्म संकल्पविशिष्ट होकर
जगत् का निमित्तकारण भी बनता है ।+++(5)+++
उपादानकारण को
जो कार्यरूप में परिणत करावे
वह निमित्तकारण बनता है ।
इस सूत्र से सूत्रकार ने
जगत् के उपादानकारण एवं निमित्तकारण में
अभेद को सिद्ध किया है।

मूलम्

जन्माद्यस्य यतः

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(ब्रह्मैव)+++ प्रकृतिश् च प्रतिज्ञा+++(←“एकज्ञानेन सर्वज्ञानम्”)+++-+++(मृद्-घटादि→)+++दृष्टान्तानुपरोधाद्

इत्यादि वेद-वित्-प्रणीत-सूत्र-विरोधात् …

नीलमेघः

किंच, प्रकृत्यधिकरण में

“प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात्”

इत्य्-आदि सूत्रों से
सूत्रकार ने उपर्युक्त कारणों में
ऐक्य को सिद्ध किया है।

अर्थात्

एक के ज्ञान से सबका ज्ञान होने की प्रतिज्ञा
एवं मृत्पिण्ड आदि दृष्टान्तों का बाध न होने के लिये
यह मानना
इस जगत् का निमित्तकारण बनने वाला ब्रह्म
उपादानकारण भी बनता है ।

उपादानकारण ही
कार्यरूप में परिणत होता है,
कार्य दूसरा कोई द्रव्य नहीं है,
उपादानकारण को समझने से
कार्य अनायास समझ में आ जाते हैं ।

[[२२६]]
जगत्कारण ब्रह्म को समझने से
उसके परिणामरूप सभी कार्य विदित हो जाते हैं ।
इस प्रतिज्ञा से
जगत् का उपादानकारण ब्रह्म सिद्ध होता है ।
मृत्पिण्ड दृष्टान्त के द्वारा
यही बतलाया गया है कि
मृत्पिण्ड को जानने से
उससे बनने वाले घट शराव इत्यादि कार्यपदार्थ
जाने जाते हैं ।
यदि जगत् का निमित्तकारण दूसरा होता
तो उपादानकारण को जानने से
वह नहीं जाना जा सकता ।
प्रतिज्ञा में बाधा पड़ेगी,
तदर्थ ब्रह्म को ही निमित्तकारण भी माना जाता है ।
यह इस सूत्र का अर्थ है।

इससे जगत् के निमित्तकारण एवं उपादानकारण में
अभेद सिद्ध होता है ।

निमित्तकारण एवं उपादानकारण में भेद को मानने वाला शैवसिद्धान्त
वेदज्ञप्रवर श्री वेदव्यास जी के
उपर्युक्त ब्रह्मसूत्रों से विरुद्ध होने के कारण
अनादरणीय है ।

मूलम्

प्रकृतिश् च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधाद् इत्यादि वेदवित्प्रणीतसूत्रविरोधात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद् +++(←उपादान-कारण-सूचनम्)+++
एकम् एवाद्वितीयम्+++(←निमित्तकारण-सूचकम्)+++

नीलमेघः

इतना ही नहीं,
कि उपादानकारण एवं निमित्तकारण में अभेद को सिद्ध करने वाले
श्रुतिगणों से विरुद्ध होने से भी अनादरणीय है ।
वे श्रुतिवचन ये हैं कि-

(१) “सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्”

अर्थात्

यह जगत् सृष्टि के पूर्व
सत् ही था
तथा एकत्वावस्था को प्राप्त हुआ था
जो अब बहुत्वावस्था को प्राप्त हुआ है,
साथ ही दूसरे निमित्तकारण से रहित था ।

यहाँ पर सद्द्ब्रह्म की प्रलयकाल में
एकत्वावस्था तथा सृष्टिकाल में बहुत्वावस्था सिद्ध होती है ।
इससे ब्रह्म उपादानकारण सिद्ध होता है,
तथा “अद्वितीयम्” पद से
निमित्तकारण भी सिद्ध होता है ।

मूलम्

सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद्
एकम् एवाद्वितीयम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् ऐक्षत
बहु स्यां प्रजायेयेति

मूलम्

तद् ऐक्षत
बहु स्यां प्रजायेयेति

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मवनं ब्रह्म स वृक्ष आसीद्
यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः
ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्

नीलमेघः

(२) “ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष प्रासीद्यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्” अर्थात् जिस प्रकार बन में रहने वाले वृक्ष को विविध स्तम्भादि के रूप में परिणत करके बढ़ई आदि शिल्पी के द्वारा गृह का निर्माण होता है उसी प्रकार ही द्यावापृथिवी इत्यादि इस सम्पूर्ण प्रपश्च का निर्माण हुआ है । यहाँ बन के समान आधारकारण बनने वाला ब्रह्म है, वृक्ष के समान उपादानकारण भी ब्रह्म है, बढ़ई के समान अधिष्ठाता निमित्तकारण भी वही ब्रह्म है जिससे गृह के समान इस प्रपञ्च का निर्माण हुआ है । इस श्रुति में ब्रह्म को सर्वविधकारण माना गया है ।

मूलम्

ब्रह्मवनं ब्रह्म स वृक्ष आसीद्
यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः
ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि
न तस्येशे कश्चन
तस्य नाम महद्यशः

नीलमेघः

(३) सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि ।
न तस्येशे कश्चन तस्य नाम महद्यशः ॥

अर्थात् विद्युत् के समान वर्णवाले कालविशिष्ट पुरुष से ये सब निमेष इत्यादि कालखण्ड उत्पन्न हुये हैं ।
इससे कालविशिष्ट ब्रह्म का
उपादानकारणत्व सिद्ध होता है ।
उस पुरुष के ऊपर शासन करने वाला कोई नहीं, उसका अपार यश है । इससे उस पुरुष का निमित्तकारणत्व सिद्ध होता है क्योंकि वह दूसरे के शासन में रहने वाला नहीं । दूसरे के शासन में रहे तो कोई दूसरा ही निमित्तकारण बनता ।

मूलम्

सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि
न तस्येशे कश्चन
तस्य नाम महद्यशः

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेह नानास्ति किंचन

सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः

नीलमेघः

(४) “नेह नानास्ति किंचन” “सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः” अर्थात् यहाँ अनेक पदार्थ कुछ भी नहीं है, सव ब्रह्म का कार्य होने से ब्रह्मात्मक हैं । इससे ब्रह्म उपादानकारण सिद्ध होता है । वह ब्रह्म सबको वश में रखने वाला एवं सब पर शासन करने वाला है । इससे ब्रह्म निमित्तकारण सिद्ध होता है ।
[[२३०]]

मूलम्

नेह नानास्ति किंचन

सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुष एवेदं सर्वं
यद् भूतं यच् च भव्यम्
उतामृतत्त्वस्येशानः

नान्यः पन्था अयनाय विद्यत

इत्य्-आदि-सर्व-श्रुति-विरोधाच् च ।

नीलमेघः

(५) “पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् उतामृतत्वस्येशानः "
" नान्यः पन्था अयनाय विद्यते”

अर्थात्

ये वर्तमान भूत और भविष्य सभी पदार्थ पुरुष ही हैं।
इससे पुरुष उपादान एवं निमित्तकारण सिद्ध होता है । अर्थात् यह पुरुष मोक्ष देने वाला है । इससे पुरुष परब्रह्म मोक्षदाता सिद्ध होता है । अर्थात् जगत् का उपादान एवं निमित्तकारण बनने वाले उस पुरुष को जानने वाला ही मुक्त होता है, ब्रह्मप्राप्ति के लिये
दूसरा मार्ग नहीं है । इन श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म का उभयविध कारणत्व सिद्ध होता है। उपर्युक्त सूत्र एवं श्रुतियों के विरुद्ध होने के कारण उपादानकारण एवं निमित्तकारण में भेद मानने वाला शैवमत त्याज्य सिद्ध होता है ।

मूलम्

पुरुष एवेदं सर्वं
यद् भूतं यच् च भव्यम्
उतामृतत्त्वस्येशानः

नान्यः पन्था अयनाय विद्यत

इत्यादिसर्वश्रुतिविरोधाच्च ।