१३ ब्रह्म-शिवान्तर्यामिता

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाभारते च ब्रह्म-रुद्र-संवादे
ब्रह्मा रुद्रं प्रत्याह

तवान्तरात्मा मम च
ये चान्ये देहि-संज्ञिताः ।

इति -

रुद्रस्य ब्रह्मणश् चान्येषां च देहिनां
परमेश्वरो नारायणो ऽन्तरात्मतयावस्थित

इति ।

नीलमेघः

[[२२७]]

परमात्मा रुद्र का अन्तर्यामी है ।
यह अर्थ महाभारत में ब्रह्म रुद्र संवाद में
रुद्र के प्रति ब्रह्माजी के वाक्य से स्पष्ट हो जाता है ।
ब्रह्माजी का वह वाक्य यह है
जो रुद्र के प्रति कहा गया है।
ब्रह्मा रुद्र से कहते हैं कि-

तवान्तरात्मा मम च ये चान्ये देहिसंज्ञिताः ।
सर्वेषां साक्षिभूतोऽसौ न ग्राह्यः केनचित् कश्चित् ॥

अर्थात

हे रुद्र ! तुम्हारे हमारे एवं अन्यान्य देहधारी जीवों के अन्तरात्मा अन्तर्यामी एक हैं,
वे सबके साक्षी हैं,
उनको कोई भी कहीं भी जान नहीं सकता ।

इस वचन से सिद्ध होता है कि
परमेश्वर नारायणदेव
ब्रह्मा रुद्र एवं अन्यान्य जीवों के अन्तर्यामी हैं ।

मूलम्

महाभारते च ब्रह्मरुद्रसंवादे
ब्रह्मा रुद्रं प्रत्याह

तवान्तरात्मा मम च
ये चान्ये देहिसंज्ञिताः ।

इति -

रुद्रस्य ब्रह्मणश् चान्येषां च देहिनां
परमेश्वरो नारायणो ऽन्तरात्मतयावस्थित

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तत्रैव

विष्णुर् आत्मा भगवतो
भवस्यामिततेजसः ।
तस्माद् धनुर्-ज्या-संस्पर्शं
स विषेहे महेश्वरः ।

इति ।

नीलमेघः

महाभारत में त्रिपुरसंहार के प्रसंग में
कहा गया है कि-

विष्णुरात्मा भगवतो
भवस्यामिततेजसः ।
तस्माद्धनुर्ज्यासंस्पर्शं
स विषेहे महेश्वरः ।।

अर्थात्

अपार तेज वाले भगवान् शंकरजी का आत्मा
श्रीविष्णु भगवान् हैं,
इसलिये महेश्वर शंकरजी
उस धनु की प्रत्यचा का स्पर्श करने में समर्थ हुये ।

इस वचन से भी
श्रीविष्णु भगवान् शंकरजी के अन्तरात्मा सिद्ध होते हैं।

मूलम्

तथा तत्रैव

विष्णुर् आत्मा भगवतो
भवस्यामिततेजसः ।
तस्माद्धनुर्ज्यासंस्पर्शं
स विषेहे महेश्वरः ।

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैव

एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ
प्रसाद-क्रोध-जौ स्मृतौ ।
तद्-आदर्शित-पन्थानौ
सृष्टि-संहार-कारकौ ।

इति -

अन्तरात्मतया ऽवस्थित-नारायण-दर्शित-पथौ ब्रह्म-रुद्रौ सृष्टि-संहार-कार्य-कराव्

इत्यर्थः ।

नीलमेघः

किंच, महाभारत में अन्यत्र
ब्रह्मा और शिवजी के विषय में
यह कहा गया है कि—

एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ
प्रसाद-क्रोध-जौ स्मृतौ ।
तद्-आदर्शित-पन्थानौ
सृष्टिसंहारकारकौ ।

अर्थात्

ब्रह्मा और शिवजी ये दोनों,
देवताओं में श्रेष्ठ है,
ब्रह्माजी श्रीभगवान् के प्रसाद से
एवं शिवजी श्रीभगवान् के क्रोध से उत्पन्न हुये हैं ।
ये दोनों श्रीभगवान् के द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलते हुये
सृष्टि और संहार के कर्ता हैं ।

इन वचनों से प्रमाणित होता है कि ब्रह्मा और शिव
श्रीभगवान् का शरीर हैं,
श्रीभगवान् इनके अन्तर्यामी हैं।
इस अन्तर्यामी परमात्मा पर ध्यान रखकर ही
अथर्व शिर में रुद्र ने अपने अन्तर्यामी की महिमा का वर्णन किया है ।

मूलम्

तत्रैव

एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ
प्रसाद-क्रोध-जौ स्मृतौ ।
तद्-आदर्शित-पन्थानौ
सृष्टिसंहारकारकौ ।

इति -
अन्तरात्मतयावस्थितनारायणदर्शितपथौ ब्रह्मरुद्रौ सृष्टिसंहारकार्यकराव् इत्यर्थः ।