विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् पुनर् अथर्वशिरसि
रुद्रेण +++(“नान्यः कश्चिन् मत्तो व्यतिरिक्त” इति)+++ स्वसर्वैश्वर्यं प्रपञ्चितं
तत्
सो ऽन्तराद् अन्तरं प्राविशद्
इति परमात्म-प्रवेशाद् उक्तम्
इति श्रुत्यैव व्यक्तम् ।
नीलमेघः - पूर्वपक्षः
आगे शैवों ने अपने पक्ष का समर्थन करते हुये
यह कहा कि अथर्व
शिर उपनिषद् से
रुद्र का परत्व सिद्ध होता है ।
उस उपनिषद् में इस प्रकार वर्णन है कि-
“देवा ह वै स्वर्गं लोकम् अगमन्
ते देवा रुद्रम् अपृच्छन्को भवान्
इति,
सोऽब्रवीत्अहम् एकः प्रथमम् आसं
वर्तामि च भविष्यामि च
नान्यः कश्चिन् मत्तो व्यतिरिक्तइति”
[[२२५]]
अर्थात्
देव लोग स्वर्गलोक गये थे, उन देवों ने रुद्र से पूछा कि आप कौन हैं ।
रुद्र ने उत्तर में कहा किमैं अकेला ही पहले रहा,
अब भी रहता हूँ,
आगे भी रहूँगा,
मुझसे व्यतिरिक्त कोई नहीं हैं ।
इस प्रकार कहकर
रुद्र ने अपनी सर्वेश्वरता का विस्तार से वर्णन किया है ।
इससे रुद्र परतत्त्व परब्रह्म सिद्ध होते हैं ।
यह शैवों का वाद है ।
नीलमेघः
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
रुद्र ने यह जो ऐश्वर्य कहा,
वह निजी नहीं है ।
वह अन्तर्यामी परमात्मा का ऐश्वर्य है,
उसका रुद्र ने वर्णन किया ।
यह रहस्य
आगे के श्रुतिवाक्य से खुल जाता है ।
वह वाक्य यह है कि
" सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत्, दिशश्चान्तरं प्राविशत्" +++(5)+++
अर्थात् रुद्र कहते हैं कि
वह परमात्मा शरीर के अन्दर रहने वाले
प्राण आदि के भी अन्दर रहने वाले
जीवात्मा में प्रविष्ट होकर रहता है
तथा जगत् में रहने वाले दिशा इत्यादि सब जड़ पदार्थों के अन्दर रहने वाले
जीवात्मा में भी प्रवेश करके रहता है,
इसलिये सब पदार्थ परमात्मात्मक हैं ।
इस प्रकार रुद्र ने
यह रहस्य खोला कि
जगत् के अन्दर रहने वाले अन्तर्यामी परमात्मा
मेरे अन्दर भी रहते हैं,
जिस प्रकार जगत् ब्रह्मात्मक है,
उसी प्रकार मैं भी ब्रह्मात्मक हूँ ।
अन्तर्यामी ब्रह्मपर्यन्त बुद्धि को पहुँचाकर
यही समझना चाहिये कि
वह परब्रह्म ही विश्वरूप में अवस्थित है,
मैं भी ब्रह्मात्मक ही हूँ ।
इस प्रकार अपने को समझते समय
ब्रह्म तक को समझते रहना न्यायप्राप्त है ।
अपने अन्तर्यामी को न समझकर
अपने भर को समझना
अधूरी समझ है ।
इस वचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि
अपने अन्तर्यामीका अनुसन्धान करके ही
रुद्र ने इस प्रकार कथन किया है ।
रुद्रद्वारा वर्णित ऐश्वर्य
अन्तर्यामी परमात्मा का है,
रुद्र का निजी नहीं है ।
रुद्र के निजी रूप को
देवता लोग समझते ही हैं,
देवताओं का प्रश्न
रुद्र के अन्तर्यामी के विषय में ही था ।+++(4)+++
रुद्र ने अपने अन्तर्यामी की महिमा का वर्णन कर
देवप्रश्न का उत्तर दिया है ।
अपने अन्दर परमात्मा के प्रवेश को समझ कर
रुद्र ने यह उत्तर दिया है ।
इस अर्थ को श्रुति ने ही
स्पष्ट शब्दों में कहा है ।
मूलम्
यत् पुनर् अथर्वशिरसि रुद्रेण स्वसर्वैश्वर्यं प्रपञ्चितं तत् सो ऽन्तराद् अन्तरं प्राविशद् इति परमात्मप्रवेशाद् उक्तम् इति श्रुत्यैव व्यक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
शास्त्र-दृष्ट्या तूपदेशो +++(मत्-त्वद्-आदि-शब्दैः)+++ वामदेववद्
इति सूत्रकारेणैवं-वादिनाम् अर्थः प्रतिपादितः ।
नीलमेघः
ब्रह्मसूत्रकार ने
“शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत्”
इस सूत्र के द्वारा
उपर्युक्त अर्थ का प्रतिपादन किया है।
प्रतर्दन-विद्या में
इन्द्रदेव ने प्रतर्दन से यह जो कहा कि तुम मेरी उपासना करो
इस वाक्य का तात्पर्य इस अर्थ में ही है कि
तुम मेरे अन्तर्यामी की उपासना करो ।
प्रतर्दनविद्या में परमात्मा के
जीवों में अनुप्रवेश का वर्णन नहीं है
तथापि सूत्रकार ने
वहाँ यही निर्णय दिया है कि
अपने अन्तर्यामी की उपासना का विधान करने में ही
इन्द्र का तात्पर्य है ।
प्रकृत रुद्रवाक्य में
परमात्मा के अनुप्रवेश का वर्णन है
यहाँ उपर्युक्त सूत्र के अनुसार
यह निर्णय अनायास सिद्ध होता है कि
रूद्र ने अपने अन्तर्यामी के ऐश्वर्य का वर्णन किया है।
इससे रुद्र का परत्व सिद्ध नहीं हो सकता ।
मूलम्
शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववद्
इति सूत्रकारेणैवंवादिनाम् अर्थः प्रतिपादितः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
… यथोक्तं प्रह्लादेनापि
सर्व-गत्वाद् अनन्तरस्य
स एवाहम् अवस्थितः ।
मत्तः सर्वम् अहं सर्वं
मयि सर्वं सनातने ।
इत्यादि ।
नीलमेघः
जिस प्रकार अथर्व शिर उपनिषद् में
शंकरजी ने अपनी अहंबुद्धि में अन्तर्यामी तक को समझकर
अपने शब्दों में उनकी महिमा का वर्णन किया है,
उसी प्रकार भक्तराज प्रह्लाद जी ने भी कहा है ।
उनका यह वाक्य है कि—
सर्व-गत्वाद् अनन्तरस्य
स एवाहम् अवस्थितः ।
मत्तः सर्वम् अहं सर्वं
मयि सर्वं सनातने ।
[[२२६]]
अर्थात्
अनन्त भगवान् सर्वव्यापक हैं ।
इसलिये मैं भी वह भगवान् ही हूँ,
मुझसे ही सब उत्पन्न हुआ है,
मैं ही सब कुछ हूँ,
सनातन मुझमें सब निहित है ।
मूलम्
यथोक्तं प्रह्लादेनापि
सर्वगत्वाद् अनन्तरस्य स एवाहम् अवस्थितः ।
मत्तः सर्वम् अहं सर्वं मयि सर्वं सनातने । इत्यादि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र “सर्वगत्वाद् अनन्तस्ये"ति हेतुर् उक्तः
+++(“स एवाहम् अवस्थितः” इति वचनस्य)+++।
नीलमेघः
यहाँ इस हेतु का
कि अनन्त भगवान् सर्वव्यापक हैं—
उल्लेख करके
प्रह्लाद जी ने कहा कि
वह परमात्मा मैं हूँ ।
मूलम्
अत्र सर्वगत्वाद् अनन्तस्येति हेतुर् उक्तः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्व-शरीर-भूतस्य सर्वस्य चिद्–अ-चिद्–वस्तुन आत्मत्वेन
सर्व-गः परमात्मेति
सर्वे शब्दाः सर्व-शरीरं परमात्मानम् एवाभिदधतीत्य् उक्तम् ।
नीलमेघः
इस कथन का यह तात्पर्य है कि
सम्पूर्ण चेतनाचेतनपदार्थ परमात्मा का शरीर है,
परमात्मा उनका आत्मा है ।
इस प्रकार वह सबको व्याप कर रहता है ।
मूलम्
स्वशरीरभूतस्य सर्वस्य चिदचिद्वस्तुन आत्मत्वेन सर्वगः परमात्मेति सर्वे शब्दाः सर्वशरीरं परमात्मानम् एवाभिदधतीत्य् उक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो “ऽहम्” इति शब्दः
स्वात्म-प्रकार-प्रकारिणं परमात्मानम् एवाचष्टे ।+++(4)+++
नीलमेघः
इसलिये सभी शब्द सर्वशरीरधारी परमात्मा का प्रतिपादन करते हैं ।
“अहम् " अर्थात् “मैं”
यह शब्द भी वक्ता जीव के अन्तर्यामी तक का प्रतिपादन करता है ।
“मैं” ऐसा समझते समय
परमात्मा तक को अनुसन्धान में लेना चाहिये ।
परमात्मा तक को अनुसन्धान में लेकर
यदि “मैं” शब्द का प्रयोग किया जाय
तो यह कहना उचित ही है कि
मैं वह परमात्मा ही हूँ इत्यादि ।
मूलम्
अतो ऽहम् इति शब्दः स्वात्मप्रकारप्रकारिणं परमात्मानम् एवाचष्टे ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत इदम् उच्यते -
+++(ब्रह्मोपासनाय)+++ आत्मेत्य् एव तु गृह्णीयात् -
सर्वस्य तन्-निष्पत्तेर्
इत्य्-आदिना “ऽहं”-ग्रहणोपासनं
वाक्य-कारेण।
नीलमेघः
अहंबुद्धि में परमात्मा तक को लेकर उपासना करना
अहं-ग्रहोपासन कहा जाता है ।+++(5)+++
वाक्यकार ने भी
आत्मेत्य् एव तु गृह्णीयात्
सर्वस्य तन्-निष्पत्तेर्
कहकर यह सिद्ध किया है कि
परमात्मा को आत्मा अर्थात् अपना समझ कर
अहंबुद्धि से परमात्मा की उपासना करनी चाहिये
मूलम्
अत इदम् उच्यते -
आत्मेत्य् एव तु गृह्णीयात् सर्वस्य तन्निष्पत्तेर् इत्यादिनाहंग्रहणोपासनं
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यावस्थः कारणावस्थश् च
स्थूल-सूक्ष्म-चिद्–अ-चिद्–वस्तु-शरीरः परमात्मैवेति
सर्वस्य तन्-निष्पत्तेर्
इत्य् उक्तम् ।
नीलमेघः
क्योंकि सर्वावस्थाओं में अवस्थित पदार्थों में
अन्तर्यामी के रूप में परमात्मा रहते हैं,
परमात्मा कारणावस्था में
सूक्ष्म-चेतनाचेतनों का अन्तर्-यामी होकर रहता है
और कार्यावस्था में
स्थूल चेतनाचेतनों का अन्तर्यामी होकर
सब कुछ परमात्मा से ही उत्पन्न होकर परमात्मा में अवस्थित रहता है ।
मूलम्
कार्यावस्थः कारणावस्थश्च
स्थूलसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरः परमात्मैवेति
सर्वस्य तन्निष्पत्तेर्
इत्य् उक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च +++(ब्रह्मोपासनाय)+++”
- इति सूत्रकारेण च +++(तद् एवोक्तम्)+++।
नीलमेघः
परमात्मा ही विश्वरूप में विराजमान है ।
अपनी बुद्धि को
जीवमात्र में न रोककर
प्रत्युत जीवान्तर्यामी परमात्मा तक पहुँचा कर
अहंबुद्धि से परमात्मा की उपासना करनी चाहिये ।
इस अर्थ को वाक्यकार ने ही नहीं कहा
किन्तु ब्रह्मसूत्रकार ने भी
“आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च "
इस सूत्र से इस अर्थ का प्रतिपादन किया है।
सूत्र का अर्थ यह है कि
साधक परमात्मा को अहं समझ कर उपासना करें।
शास्त्र जीवात्मा और परमात्मा में शरीरात्मभावसम्बन्ध को बतलाकर
इस बात का समर्थन करते हैं कि
अहंबुद्धि में आत्मा अर्थात् परमात्मा तक का अनुसन्धान करके उपासना करनी चाहिये ।
इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि
अथर्वशिर उपनिषद् में
रुद्र ने अहं बुद्धि में परमात्मा तक का अनुसन्धान करके
उनकी महिमा का वर्णन किया है।
यह महिमा रुद्र की निजी नहीं है,
किन्तु परमात्मा की है ।
मूलम्
आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति चेति सूत्रकारेण च ।