११ अवतार-सामञ्जस्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पुनः कारणस्यैव
ध्येयता-प्रतिपादन-परे वाक्ये
विष्णोर् अनन्य-पर–वाक्य–प्रतिपादित–पर-तत्त्व-भूतस्य
+++(“ब्रह्म-विष्णु-रुद्रेन्द्रास् ते सर्वे संप्रसूयन्ते” इति)+++
कार्य-मध्ये निवेशः

स +++(निवेशः)+++ स्व-कार्य-भूत–+++(देव-राजादि-)+++तत्त्व-संख्या-पूरणं कुर्वतः
स्व-लीलया जगद्-उपकाराय स्वेच्छावतार इत्य् अवगन्तव्यः …

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

[[२२३]]

यहाँ पर शैवों ने
यह प्रश्न किया है कि

विष्णु और नारायण एक ही तत्त्व हैं ।
उनमें विष्णु की उत्पत्ति
अथर्वशिखोपनिषत् में वर्णित है ।
वह वाक्य यह है कि

“ब्रह्म-विष्णु-रुद्रेन्द्रास् ते सर्वे संप्रसूयन्ते” ।

अर्थात्

ब्रह्माजी, विष्णु भगवान् शंकरजी और इन्द्र
ये सब उत्पन्न होते हैं ।

विष्णु की उत्पत्ति कही गई है
नारायण की भी उत्पत्ति माननी होगी ।

नारायण परतत्त्व एवं परब्रह्म कैसे सिद्ध होंगे ?
यह शैवों का प्रश्न है ।

नीलमेघः

य्य् इस उत्तर में
श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
अथर्वशिखोपनिषत् " कारणं तु ध्येयः " कहकर
कारण का ध्यान करने के लिये
आदेश देती है ।
जगत्कारण कौन है ?
इस बात को बतलाने के लिये
वह प्रवृत्त नहीं हुई है ।+++(4)+++
वह यही कहती है कि
कारण का ध्यान करो ।
जगत्कारण कौन है
इस बात को हमें
दूसरे उपनिषदों से ही जानना होगा ।

तदर्थ दूसरे उपनिषदों पर दृष्टिपात करने पर
यह निर्णय प्राप्त होता हैं कि
नारायण ही जगत्कारण हैं ।
जगत्कारण को बतलाने वाले वाक्यों की एक वाक्यता करने पर
तथा परतत्त्व का निर्धारण करने के लिये ही प्रवृत्त
नारायणानुवाक पर ध्यान देने पर
नारायण ही जगत्कारण परतत्त्व परब्रह्म सिद्ध होते हैं ।
जगत्कारण नारायण का ध्यान करने के लिये
अथर्वशिखोपनिषत् विधान करता है
क्योंकि अनेक उपनिषदों का समन्वय करने पर
इसी निर्णय पर पहुँचना पड़ता है।

गीता इत्यादि प्रमाणों से
यह विदित होता है कि
जिस प्रकार जोव जन्म लेते हैं
उसी प्रकार भगवान् भी जन्म लेते हैं ।

अन्तर यह है कि
श्रीभगवान् अपने स्वभाव को न छोड़ते हुये
जन्म ग्रहण करते हैं,
जीव अपने स्वभाव को खोकर
जन्म लेता है ।+++(5)+++

श्रीभगवान् का शरीर अप्राकृत है,
जीव का शरीर प्राकृत है ।+++(5)+++
श्रीभगवान् स्वेच्छा से जन्म लेते हैं,
जीव कर्म से जन्म लेता है ।

श्रीभगवान् के जन्मग्रहण का प्रयोजन
लोककल्याण है,
जीव के जन्मग्रहण का प्रयोजन
कर्मफलानुभव है ।+++(5)+++

अतएव कहा गया है कि-

“जगताम् उपकाराय
न सा कर्म-निमित्तजा”

अर्थात्

श्रीभगवान् जगत् के उपकार के लिये जन्म लेते हैं,
उनके जन्म का कारण कर्म नहीं है ।

इस प्रकार वैशिष्ट्य रखने के कारण ही
श्रीभगवान् का जन्म
अवतार कहलाता है ।
भगवान् सर्वप्रथम ब्रह्मा और शिवजी के मध्य में
अवतार लेते हैं ।+++(5)+++
श्रीभगवान् का विष्णु रूप में अवतार हुआ,
अतएव ये तीनों त्रिमूर्ति कहे जाने लगे ।
इस प्रकार
तीन संख्या को पूर्ण करने के लिये
श्रीभगवान् ने स्वेच्छा से जगत् के कल्याणार्थ
उनके मध्य में अवतार लिया है ।

उनके मध्य अवतार लेकर
श्रीभगवान् ने अपने सौलभ्य को व्यक्त कराया
तथा उनको अपने समान बनाकर
उनकी प्रतिष्ठा बढ़ायी ।
श्रीभगवान् के इस अवतार का ही
उपर्युक्त श्रुति में वर्णन है ।

[[२२४]]
वहाँ ब्रह्मा और इन्द्र का
जो जन्म कहा गया है,
वह जन्म ही है ।
श्रीभगवान का जो जन्म कहा गया है
वह अवतार है ।+++(4)+++
यह अन्तर ध्यान देने योग्य है ।

मूलम्

यः पुनः कारणस्यैव
ध्येयताप्रतिपादनपरे वाक्ये
विष्णोरनन्यपरवाक्यप्रतिपादितपरतत्त्वभूतस्य कार्यमध्ये निवेशः
स स्वकार्यभूततत्त्वसंख्यापूरणं कुर्वतः
स्वलीलया जगदुपकाराय स्वेच्छावतार इत्यवगन्तव्यः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

… यथा लीलया देव-संख्या-पूरणं कुर्वत उपेन्द्रत्वं परस्यैव,
यथा च सूर्य-वंशोद्भव-राज-संख्या-पूरणं कुर्वतः परस्यैव ब्रह्मणो दाशरथि-रूपेण स्वेच्छावतारः,
यथा च सोम-वंश-संख्या-पूरणं कुर्वतो भगवतो
भू-भारावतारणाय स्वेच्छया वसुदेव-गृहे ऽवतारः ।

नीलमेघः

श्रीभगवान् ने त्रिदेवों में अवतार लिया,
इतना ही नहीं,
किन्तु श्रीभगवान् ने देवताओं की
संख्या को पूर्ण करने के लिये
देवों में उपेन्द्र के रूप में
लीला से अवतार लिया है
तथा सूर्यवंशी राजाओं की संख्या को
पूर्ण करने के लिये
परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान् ने
स्वेच्छा से दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्र जी के रूप में अवतार लिया,
तथा चन्द्रवंश में उत्पन्न क्षत्रियों में
एक संख्या को बढ़ाने के लिये
तथा भूभार को उतारने के लिये
स्वेच्छा से श्रीकृष्णचन्द्र जी के रूप में
वसुदेव जी के गृह में अवतार लिया ।

इस प्रकार श्रीभगवान् के अवतार अनेक हैं
जिनमें एक है श्रीविष्णु के रूप में अवतार ।
यही अवतार उपर्युक्त श्रुति में कहा गया है।
इससे मूलतत्त्व श्रीमन्नारायण भगवान् के परत्व में
बाधा नहीं होती ।

सृष्टि और प्रलय के प्रकरणों में
श्रीमन्नारायण ही परमकारण के रूप में
बतलाये गये हैं ।
यह बात पहले ही कही जा चुकी है ।

मूलम्

यथा लीलया देवसंख्यापूरणं कुर्वत उपेन्द्रत्वं परस्यैव,
यथा च सूर्यवंशोद्भवराजसंख्यापूरणं कुर्वतः परस्यैव ब्रह्मणो दाशरथिरूपेण स्वेच्छावतारः,
यथा च सोमवंशसंख्यापूरणं कुर्वतो भगवतो भूभारावतारणाय स्वेच्छया वसुदेवगृहे ऽवतारः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृष्टि-प्रलय-प्रकरणेषु
नारायण एव परम-कारणतया प्रतिपाद्यत

इति पूर्वम् एवोक्तम् ।

मूलम्

सृष्टिप्रलयप्रकरणेषु नारायण एव परमकारणतया प्रतिपाद्यत इति पूर्वम् एवोक्तम् ।