१० दहराकाशे विज्ञेयम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् पुनर् इदम् आशङ्कितम्

अथ यद् इदम् अस्मिन् ब्रह्म-पुरे
दहरं+++(=अल्पं)+++ पुण्डरीकं वेश्म,
दहरो+++(=अल्पो)+++ ऽस्मिन्न् अन्तराकाशस्
तस्मिन् यद् अन्तस् तद् अन्वेष्टव्यं
तद् वाव विजिज्ञासितव्यम्

इत्य् अत्राकाश-शब्देन जगद्-उपादान-कारणं प्रतिपाद्य

तद्-अन्तर्-वर्तिनः कस्यचित् तत्त्व-विशेषस्यान्वेष्टव्यता प्रतिपाद्यते ।

नीलमेघः

आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
शैवों की एक शंका का समाधान किया है ।
शंका यह है कि दहरविद्या में
शिवजी श्रीमन्नारायण से श्रेष्ठ एवं उपास्य सिद्ध होते हैं।
दहरविद्या में यह कहा गया है कि-

“अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म,
दहरोऽस्मिन्नन्तर आकाशस्
तस्मिन् यद् अन्तस् तद् अन्वेष्टव्यं
तद् वाव विजिज्ञासितव्यम्” ।

अर्थात्

[[२२१]]

परब्रह्म उपास्य बनने के लिये
शरीर में विराजमान है ।
यह शरीर पर ब्रह्म का बासस्थान होने से ब्रह्मपुर कहलाता है।
किंच, इसमें नौ द्वार होने से यह पुर के समान है।
इस शरीर में छोटा सा हृदयकमल हैं,
यह ब्रह्म का निवास करने का गृह है ।
इस हृदयकमल के अन्दर
छोटा सा आकाश है।
इस आकाश के अन्दर जो तत्त्व निहित है,
उसका श्रवण एवं मनन करना चाहिये, तथा उस वर्णित परमपुरुष तत्त्व की उपासना करनी चाहिये।

मूलम्

यत्पुनरिदमाशङ्कितम्

अथ यदिदमस्मिन्ब्रह्मपुरे
दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरो
ऽस्मिन्नन्तराकाशस्तस्मिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं
तद्वाव विजिज्ञासितव्यम्

इत्यत्राकाशशब्देन जगदुपादानकारणं प्रतिपाद्य
तदन्तर्वर्तिनः कस्यचित्तत्त्वविशेषस्यान्वेष्टव्यता प्रतिपाद्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्याकाशस्य नाम-रूपयोर् निर्वोढृत्व-श्रवणात्
पुरुष-सूक्ते पुरुषस्य नाम-रूपयोः कर्तृत्व-दर्शनाच् च
+आकाश-पर्याय-भूतात् पुरुषाद्
अन्यस्यान्वेष्टव्यतयोपास्यत्वं प्रतीयत

इत्य् अनधीत-वेदानाम् अ-दृष्ट-शास्त्राणाम् इदं चोद्यं -
यतस् तत्र श्रुतिर् एवास्य परिहारम् आह ।

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

यह आकाश परमपुरुष नारायण है
क्योंकि वे “आ समन्तात्काशते इत्याकाशः”।
इस व्युत्पत्ति के अनुसार
सर्वव्यापक होकर
प्रकाशमान होने के कारण
आकाश कहे जाते हैं ।
किंच, आगे इस आकाश के विषय में
यह वर्णन आता है कि

“आकाशो ह वै नामरूपयोनिर् वहिता” ।

अर्थात् आकाश नाम और रूप का निर्वाहक है ।
पुरुषसूक्त में

“सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो
नामानि कृत्वाऽभिवदन् यदास्ते”

कहकर परमपुरुष नारायण नामरूपों के
कर्ता धर्ता कहे गये हैं ।
यहाँ आकाश नामरूपों का निर्वाहक कहा जा रहा है ।
इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह आकाश और पुरुषसूक्त वर्णित नारायण
एक ही तत्त्व है।

इस विवेचन से सिद्ध हो गया कि
यहाँ वर्णित आकाश परमपुरुष नारायण है ।
आगे श्रुति कहती है कि
इस आकाश के अन्दर रहने वाले पदार्थ का श्रवण मनन और ध्यान करना चाहिये ।
यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि
आकाश-शब्द-वाच्य नारायण के अन्दर रहने वाला सूक्ष्मतत्त्व क्या है ।
उत्तर यह है कि वह शिवतत्त्व है ।
यह दहरविद्या
नारायण के अन्दर रहने वाले
नारायण के नियामक शिवतत्त्व की उपासना है,
इसका यहाँ विधान है ।
इससे शिवतत्त्व नारायण से भी श्रेष्ठ सिद्ध होता है ।
यह शैवों की शंका है ।

नीलमेघः

इसके समाधान में श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
यह शंका उनके मुख से ही निकल सकती है
जिन्होंने उपनिषत् का अध्ययन न किया हो
तथा पूर्वाचार्यों के द्वारा निर्मित वेदान्तशास्त्र ग्रन्थ को न देखा हो
क्योंकि आगे की श्रुति
एवं वाक्यकार ने इस शंका का
पहले ही परिहार कर दिया है ।
उस श्रुति एवं वाक्यकार वाक्य को न समझ कर ही
पूर्वपक्षियों ने यह शंका की है ।

अस्तु ।

मूलम्

अस्याकाशस्य नामरूपयोर् निर्वोढृत्व(निर्वाहकत्व)श्रवणात् पुरुषसूक्ते पुरुषस्य नामरूपयोः कर्तृत्वदर्शनाच् चाकाशपर्यायभूतात् पुरुषाद् अन्यस्यान्वेष्टव्यतयोपास्यत्वं प्रतीयत इत्यनधीतवेदानाम् अदृष्टशास्त्राणाम् इदं चोद्यं यतस् तत्र श्रुतिर् एवास्य परिहारम् आह ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्यकारश् च -

दहरो+++(=अल्पो)+++ ऽस्मिन्न् अन्तर आकाशः -
किं तद् अत्र विद्यते +++(अत्यल्पत्वात्)+++
यद् अन्वेष्टव्यं
यद् वाव विजिज्ञासितव्यम्

इति +++(अग्रय् उपनिषदि)+++ चोदिते

नीलमेघः

देखें, आगे श्रुति ने क्या कहा है।
आगे उपनिषद् ने

“दहरोऽस्मिन्नन्तर आकाशः किं तदत्र विद्यते यदन्वेष्टव्यं यद्वाव विजिज्ञासितव्यम्”

इस वाक्य से एक प्रश्न का उल्लेख किया है ।
अर्थ यह है कि हृदयकमल के अन्दर रहने वाला यह आकाश
अत्यन्त छोटा है,
इसके अन्दर क्या रह सकता है
जिसका श्रवण मनन और ध्यान किया जा सके ।
इस क्षुद्र आकाश के अन्दर
कुछ भी रह नहीं सकता ।
यह प्रश्न का तात्पर्य है ।

मूलम्

वाक्यकारश्च

दहरोऽस्मिन्नन्तर आकाशः
किं तदत्र विद्यते
यदन्वेष्टव्यं
यद्वाव विजिज्ञासितव्यम्

इति चोदिते

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावान् वा अयम् आकाशस्
तावान् एषो ऽन्तर्-हृदय आकाश
+++(तेनानल्पः)+++

इत्य्-आदिना +++(अग्रिम-श्रुति-वचनेन)+++
ऽस्याकाश-शब्द-वाच्यस्य परम-पुरुषस्यानवधिक-महत्त्वं स-कल–जगद्-आधारत्वं च प्रतिपाद्य

नीलमेघः

इस प्रश्न का उत्तर देती हुई आगे श्रुति ने कहा कि

“यावान् वाऽयमाकाशस्
तावानेषोऽन्तर्हृदय आकाशः "

अर्थात् हृदयकमल के अन्दर रहने वाले आकाश को
छोटा नहीं समझना चाहिये।

बाहर दिखाई देने वाला यह आकाश
जितना बड़ा है,
उतना बड़ा है हृदयकमल में रहने वाला आकाश भी।
क्योंकि हृदय-कमल में रहने वाला आकाश
परमपुरुष श्रीमन्नारायण है ।
वे विभु होने से बहुत बड़े हैं,
उनको छोटा नहीं समझना चाहिये ।
इस प्रकार इस श्रुति ने श्रीभगवान् की
अपार महत्ता का वर्णन किया है ।

आगे श्रुति ने

“उभे अस्मिन् द्यावापृथिवी”

इत्यादि वाक्यों से
यह कहा है कि यह आकाशशब्दवाच्य परमपुरुष
सकलजगत्कारण होने से
द्यावापृथिवी इत्यादि सम्पूर्ण जगत् का आधार हैं,
सम्पूर्ण जगत् उनमें निहित है ।

मूलम्

यावान्वा अयमाकाशस्तावानेषोऽन्तर्हृदय आकाश

इत्यादिनाऽस्याकाशशब्दवाच्यस्य परमपुरुषस्यानवधिकमहत्त्वं सकलजगदाधारत्वं च प्रतिपाद्य

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् +++(दहराकाशे)+++ कामाः समाहिता

इति काम-शब्देन
+++(“एष आत्माऽपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर् विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः " इत्य् अग्रय् उक्तं)+++ +अपहत-पाप्मत्वादि–
सत्य-संकल्प-पर्यन्त-गुणाष्टकं +++(तस्मिन् दहराकाशे)+++ निहितम्

इति

परम-पुरुषवत् परम-पुरुष-गुणाष्टकस्यापि पृथग्-विजिज्ञासितव्यता-प्रतिपादयिषया

तस्मिन् यद् अन्तस् तद्-अन्वेष्टव्यम्

इत्य् उक्तम्

इति श्रुत्यैव सर्वं परिहृतम् ।

नीलमेघः

इन विशेषताओं का वर्णन करके
आगे श्रुति ने इस प्रश्न का —

कि इस आकाश में क्या निहित है

उत्तर देती हुई यह कहा है कि
“अस्मिन् कामाः समाहिताः”
अर्थात् इस दहराकाशशब्दवाच्य श्री नारायण भगवान् में
वे कल्याणगुण निहित है
जो भक्तों का अभीष्ट हैं ।
वे गुण कौन २ हैं

इस प्रश्न का उत्तर देती हुई
आगे श्रुति ने कहा है कि

[[२२२]]

“एष आत्माऽपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर् विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः "

अर्थात्

यह परमात्मा पाप जरा मृत्यु शोक
ये बुभुक्षा और पिपासा
इन दोषों से रहित है
तथा नित्य भोग्यपदार्थ वाले हैं,
एवं सत्यसंकल्प वाले हैं ।

इस प्रकार इस श्रुति ने
अपहतपाप्मत्व अर्थात् पापरहितत्व इत्यादि आठ गुणों का वर्णन करके
बता दिया है कि
कल्याणगुण परमात्मा में निहित हैं ।

जिस प्रकार दहराकाश-शब्द-वाच्य परमात्मा का ध्यान करना चाहिये,
उसी प्रकार
इन कल्याणगुणों का भी अलग २ ध्यान करना चाहिये ।

इस बात को बतलाने के लिये श्रुति ने

“तस्मिन् यद् अन्तस् तद् अन्वेष्टव्यम्”

कहकर यह बतलाया है कि
इस दहराकाशशब्दवाच्य परमात्मा में निहित
कल्याणगुणों का ध्यान करना चाहिये ।

मूलम्

तस्मिन् कामाः समाहिता

इति काम-शब्देनापहतपाप्मत्वादिसत्यसंकल्पपर्यन्तगुणाष्टकं निहितम् इति परमपुरुषवत् परमपुरुषगुणाष्टकस्यापि पृथग्विजिज्ञासितव्यताप्रतिपादयिषया तस्मिन् यद् अन्तस् तदन्वेष्टव्यम् इत्युक्तम् इति श्रुत्यैव सर्वं परिहृतम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् उक्तं भवति -

किं तद् अत्र विद्यते यद् अनेष्टव्यम्

इत्य् अस्य चोद्यस्य

तस्मिन् सर्वस्य जगतः स्रष्टृत्वम् आधारत्वं नियन्तृत्वं शेषित्वम् अपहतपाप्मत्वादयो गुणाश् च विद्यन्त

इति परिहार

इति ।

नीलमेघः

भाव यह है कि

इस दहराकाश परमात्मा में क्या निहित है ?

इस शंका का
श्रुति ने इस प्रकार परिहार किया कि
इस दहराकाश परमात्मा में
जगत्स्रष्टृत्व जगदाधारत्व जगन्नियन्तृत्व जगत्स्वामित्व और अपहतपाप्मत्व इत्यादि कल्याणगुण रहते हैं ।

मूलम्

एतदुक्तं भवति

किं तदत्र विद्यते यदनेष्टव्यम्

इत्यस्य चोद्यस्य

तस्मिन्सर्वस्य जगतः स्रष्टृत्वमाधारत्वं नियन्तृत्वं शेषित्वमपहतपाप्मत्वादयो गुणाश्च विद्यन्त

इति परिहार

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा च वाक्य-कार-वचनम्

तस्मिन् यद् अन्तर्

इति +++(“तस्मिन् कामाः समाहिता” इत्युक्तत्वात्)+++ काम-व्यपदेश

इति ।

काम्यन्त इति कामाः -
अपहतपाप्मत्वादयो गुणा इत्यर्थः ।

नीलमेघः

वाक्यकार ने भी

" तस्मिन् यदन्तरिति कामव्यपदेशः”

कहकर यह सिद्ध किया कि
दहराकाश परमात्मा में विद्यमान वस्तु के रूप में
काम अर्थात् कल्याणगुणों को कहा गया है।
इच्छा का विषय होने के कारण
कल्याणगुणों का काम शब्द से
वाक्य ग्रन्थ में निर्देश किया गया है ।

विश्वास-टिप्पनी

सृष्टि-लयादि-कामा हि देवाः।
काम-शब्द-वाच्यं तद् एव भवतु -
सृष्ट्यादिभिस् सिसाधयिषिता भगवत्-कामा हि वेदनीयाः। +++(5)+++

मूलम्

तथा च वाक्यकारवचनम् तस्मिन् यद् अन्तर् इति कामव्यपदेश इति ।

काम्यन्त इति कामाः -
अपहतपाप्मत्वादयो गुणा इत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् उक्तं भवति -

यद् एतद् दहराकाश-शब्दाभिधेयं निखिल-जगद्-उदय-वैभव-लय-लीलं परं ब्रह्म
तस्मिन् यद् अन्तर् निहितम्
अनवधिकातिशयम् अपहत-पाप्मत्वादि-गुणाष्टकं
तद् उभयम् अप्य् अन्वेष्टव्यं विजिज्ञासितव्यम्

इति ।

नीलमेघः

सारांश यह है कि
दहराकाश-शब्द-वाच्य पदार्थ
वह परब्रह्म हैं
जो लीला रूप में
सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि स्थिति और प्रलयों को करता है।
उसके अन्दर रहने वाले
अपहतपाप्मत्व इत्यादि आठ गुण हैं
जो उत्कर्ष की चरमसीमा में पहुँचे हुये हैं,
दहराकाश परमात्मा एवं उनके कल्याणगुण
इन दोनों की उपासना करनी चाहिये,
इस बात को बतलाने में
श्रुति का तात्पर्य पूर्वोत्तर वाक्यों से अवगत होता है ।
यहाँ शिवजी का प्रस्ताव तक नहीं है ।

श्रुति को उपर्युक्त अर्थ को बतलाने में तात्पर्य है ।

मूलम्

एतद् उक्तं भवति -

यद् एतद् दहराकाशशब्दाभिधेयं निखिलजगदुदयवैभवलयलीलं परं ब्रह्म तस्मिन् यद् अन्तर् निहितम् अनवधिकातिशयम् अपहतपाप्मत्वादिगुणाष्टकं तद् उभयम् अप्य् अन्वेष्टव्यं विजिज्ञासितव्यम् इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाह

अथ य इहात्मानम् अनुविद्य व्रजन्त्य्
एतांश् च सत्यान् कामांस्,
तेषां सर्वेषु लोकेषु
काम-चारो भवति

+इति ।+++(5)+++

नीलमेघः

यह अर्थ आगे के श्रुतिवचन से स्पष्ट हो जाता है ।
वह वचन यह है कि

अथ य इहात्मानम् अनुविद्य व्रजन्त्य्
एतांश् च सत्यान् कामांस्,
तेषां सर्वेषु लोकेषु
कामचारो भवति

अर्थात्

जो साधक इस दहराकाश परमात्मा
एवं इन सत्यकल्याणगुणों की उपासना करके
परलोक चले जाते हैं,
उनको सभी लोकों में
इच्छानुसार संचार होता है,
उनकी इच्छा का
कहीं भी विघात नहीं होता ।

इस वाक्य में दहराकाश परमात्मा
एवं उनके कल्याणगुणों की उपासना का
स्पष्ट उल्लेख है ।
इस श्रुतिवाक्य के अनुसार
उपर्युक्त श्रुतिवाक्य का भी
ऐसे ही अर्थ करना चाहिये ।
समाधान का सार यह है कि
यहाँ दहराकाश परब्रह्म नारायण ही है,
उसमें निहित तत्त्व कल्याणगुण हैं,
शिवजी नहीं हैं ।

इस दहरविद्या से
शिवजी की नारायण से श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती ।

मूलम्

यथाह अथ य इहात्मानम् अनुविद्य व्रजन्त्य् एतांश् च सत्यान् कामांस् तेषां सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवतीति ।