०९ नारायणानुवाके पर-तत्त्वोक्तिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैव “सहस्रशीर्षं देवम्”
इति केवल-पर-तत्त्व-विशेष–प्रतिपादन-परेण नारायणानुवाकेन
सर्वस्मात् परत्वं प्रपञ्चितम् ।

नीलमेघः

उपर्युक्त मन्त्र में
महेश्वर के रूप में वर्णित
नारायण के विषय में
आगे नारायणानुवाक आकर यह बतलाता है कि
श्रीमन्नारायण ही सर्वश्रेष्ठतत्त्व है ।

इस अर्थ को उस अनुवाक ने
नाना प्रकार से बतलाया है ।

मूलम्

तस्यैव सहस्रशीर्षं देवम् इति केवलपरतत्त्वविशेषप्रतिपादनपरेण नारायणानुवाकेन सर्वस्मात् परत्वं प्रपञ्चितम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेनानन्य-परेण प्रतिपादितम् एव पर-तत्त्वम्
अन्य-परेषु सर्व-वाक्येषु
केनापि शब्देन प्रतीयमानं
तद् एवेत्य् अवगम्य

इति

शास्त्र-दृष्ट्या तूपदेशो +++(मत्-त्वद्-आदि-शब्दैः)+++ वामदेववद्

इति सूत्रकारेण निर्णीतम् ।

नीलमेघः

यह अनुवाक परतत्त्व को निर्धारण करने के लिये प्रवृत्त है,
इसमें दूसरा कोई अर्थ प्रतिपाद्य नहीं है ।
यह बात पहले ही कही जा चुकी है ।
नारायणानुवाक दूसरे किसी अर्थ का
प्रतिपादन करने में तात्पर्य नहीं रखता,
किन्तु परतत्त्व का निर्धारण करने में ही तात्पर्य रखता है ।
इसलिये नारायणानुवाक से
प्रतिपादित नारायण ही
परतत्त्व मानने योग्य हैं
दूसरे देवता नहीं ।

स्तुति और प्रार्थना इत्यादि में
तात्पर्य रखने वाले दूसरे वाक्यों में
यदि दूसरे किसी देवता का उल्लेख हो,
साथ ही परब्रह्म के असाधारण धर्मों का भी उल्लेख हो
तो वहाँ पर ब्रह्मसूत्रकार ने

“शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेवत्”

इस सूत्र के द्वारा यही निर्णय दिया है कि
वहाँ देवतान्तरवाचक शब्द भी
किसी न किसी प्रकार से
परतत्त्व परब्रह्म का ही प्रतिपादन करते हैं
परब्रह्म के असाधारण धर्मों के वर्णन को देखने पर
यह अनायास विदित हो जाता है कि
वहाँ उन शब्दों से
जो लोक में दूसरे अर्थों का प्रतिपादक माने गये हैं
परब्रह्म ही बोधित होता है ।

नीलमेघः - ब्रह्म-वचन-प्रकारौ

वहाँ दो प्रकार हैं ।+++(5)+++

(१) वे शब्द व्युत्पत्ति से
परब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं ।
(२) वे शब्द
लोक प्रसिद्ध अर्थों को बतलाते हुये
उनके अन्तर्यामी परब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं ।

प्रथम प्रकार उन प्रसंगों में माना जाता है
जहाँ देवतान्तर इत्यादि
दूसरे अर्थों के असाधारण धर्मों का उल्लेख न हो
तथा परब्रह्म के असाधारण धर्मों का उल्लेख हो ।

दूसरा प्रकार वहाँ पर माना जाता है
जहाँ देवतान्तर इत्यादि दूसरे अर्थों के असाधारण धर्मों के साथ २
परब्रह्म के असाधारण धर्मों का भी उल्लेख हो ।

नीलमेघः - सूत्रार्थः

“शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत्"

इस सूत्र का यह अर्थ है कि
प्रतर्दनविद्या में
इन्द्र ने शास्त्र के द्वारा
अपने अन्तर्यामी को समझ कर
तथा “मैं” “तू” इत्यादि शब्दों के
अन्तर्यामिवाचकत्व को समझ कर
अपने अन्तर्यामी उपासना के विधान करने के उद्देश से
प्रतर्दन को यह उपदेश दिया कि
तुम मेरी उपासना करो ।

मेरी उपासना कहने का
यह भाव है कि
मेरे अन्तर्यामी परब्रह्म की उपासना करो ।

वामदेव ने भी इसी प्रकार ही
अपने अन्तर्यामी को “अहम् " समझ कर
अन्तर्यामी के भाव से
यह कहा है कि
हम मनु थे हम सूर्य थे इत्यादि ।

मूलम्

अनेनानन्यपरेण प्रतिपादितम् एव परतत्त्वम् अन्यपरेषु सर्ववाक्येषु केनापि शब्देन प्रतीयमानं तद् एवेत्य् अवगम्य इति शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववद् इति सूत्रकारेण निर्णीतम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् एतत् परं ब्रह्म
क्वचिद् ब्रह्म-शिवादि-शब्दाद् अवगतम् इति केवल-ब्रह्म-शिवयोर् न परत्व-प्रसङ्गः -
अस्मिन्न् अनन्य-परे ऽनुवाके
तयोर् इन्द्रादि-तुल्यतया तद्-विभूतित्व-प्रतिपादनात्,

क्वचिद् आकाश-प्राणादि-शब्देन
परं ब्रह्माभिहितम् इति
भूताकाश-प्राणादेर् यथा न परत्वम् । +++(5)+++

नीलमेघः

जहाँ परब्रह्म के असाधारण जगत्कारणत्व सर्वेश्वरत्व मुमुक्षूपास्यत्व और मोक्षप्रदत्व इत्यादि धर्मों का उल्लेख हो,
वहाँ “ब्रह्मा” और ““शव” इत्यादि शब्दों का प्रयोग होने पर
उन शब्दों से
परब्रह्म को ही बोध्य मानकर
उस प्रकरण को
परब्रह्म के विषय में लगाना ही न्यायानुमोदित है,
वहाँ परब्रह्म का परत्व ही सिद्ध होगा, केवल ब्रह्मा और शिवजी का परत्व सिद्ध नहीं होगा
क्योंकि केवल परत्व का निर्धारण करने के लिये प्रवृत्त इस नारायणानुवाक में
इन्द्र आदि की तरह ब्रह्मा और शिवजी परब्रह्म श्रीमन्नारायण की
विभूति अर्थात आधीन में रहने वाले कहे गये हैं ।+++(4)+++

जिस प्रकार उपनिषद् में जहाँ तहाँ आकाश और प्राण शब्द से
ब्रह्म का प्रतिपादन होने पर इस प्रसिद्ध आकाश एवं प्राण का परत्व सिद्ध नहीं होता,
उसी प्रकार उपनिषद् में जहाँ तहाँ ब्रह्मा और शिवजी के वाचक शब्दों से परब्रह्म का प्रतिपादन होने पर
इस ब्रह्मा और शिवजी का परत्व कभी सिद्ध नहीं होगा ।
वहाँ वर्णित परत्व परब्रह्म को ही प्राप्त होगा ।

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मूलम्

तद् एतत् परं ब्रह्म क्वचिद् ब्रह्मशिवादिशब्दाद् अवगतम् इति केवलब्रह्मशिवयोर् न परत्वप्रसङ्गः -
अस्मिन्न् अनन्यपरे ऽनुवाके तयोर् इन्द्रादितुल्यतया तद्विभूतित्वप्रतिपादनात् -
क्वचिद् आकाशप्राणादिशब्देन परं ब्रह्माभिहितम् इति भूताकाशप्राणादेर् यथा न परत्वम् ।