विश्वास-प्रस्तुतिः
किंच
न तस्येशे कश्चन
इति निरस्त-समाभ्यधिक-संभावनस्य पुरुषस्य
“+अणोर् अणीयान्” इत्य्
अस्मिन्न् अनुवाके
वेदाद्य्-अन्त-रूपतया वेद-बीज-भूत-प्रणवस्य प्रकृति-भूताकार-वाच्यतया
महेश्वरत्वं प्रतिपाद्य
दहर-पुण्डरीक-मध्य-स्थाकाशान्तर्-वर्तितयोपास्यत्वम् उक्तम् ।
नीलमेघः
“यः परः स महेश्वरः”
यह वाक्य भी नारायण को ही
महान् ईश्वर सिद्ध करता है ।
वह पूरा मन्त्र इस प्रकार है कि-
यद् वेदादी स्वरः+++(=प्रणवः)+++ प्रोक्तो
वेदान्ते च प्रतिष्ठितः ।
तस्य प्रकृतिलीनस्य
यः परः स महेश्वरः ॥ +++(5)+++
[[२१८]]
अर्थात्
प्रणव स्वर कहा जाता है क्योंकि वह स्वयं विराजमान स्वतः सिद्ध मन्त्र है ।
प्रणव के सम्बन्ध से
और सब मन्त्र बनते हैं ।
प्रणव दूसरों को मन्त्र बनाता हुआ स्वतन्त्र रूप से
स्वयं मन्त्र बना है ।
यह प्रणव वेद के आदि एवं अन्त में
प्रतिष्ठित रहने वाला कहा गया है ।
इससे सिद्ध होता है कि
प्रणव वेद का कारण है ।
प्रणव वेद के आविर्भाव के पूर्व रहता है,
तथा वेद का लय होने के बाद भी रहता है ।
प्रणव से वेदों की उत्पत्ति
एवं प्रणव में वेदों का लय
" ओंकारप्रभवाः वेदाः"
इत्यादि वचनों से सिद्ध होता है ।
वेदों का कारण होने से ही
प्रणव वेदबीज माना जाता है ।
इस प्रणव का कारण अकार है ।
इस कार में लीन होकर अकाररूप को धारण करने वाला
इस प्रणव का अर्थात् अकार का वाच्य जो अर्थ है
वह महान् ईश्वर है ।
यह इस मन्त्र का अर्थ है ।
अकार का वाच्य अर्थ श्रीविष्णु भगवान् हैं ।
“अकारो विष्णुवाचकः”
यह प्रमाणवचन प्रसिद्ध है ।+++(5)+++
श्रीविष्णु भगवान् एवं श्रीमन्नारायण एक ही पदार्थ हैं ।
इस प्रकार यह मन्त्र
नारायण को महान् ईश्वर बतलाता है ।
यदि शंकर को महान् ईश्वर और नारायण को छोटा ईश्वर माना जाय
तो “न तस्येशे कश्चन” कहकर यह जो बतलाया गया है कि
नारायण के ऊपर शासन करने वाला कोई नहीं है,
यह बात नहीं घटेगी ।
इसलिये यही मानना चाहिये कि
यह मन्त्र भी नारायण को ही
महान् ईश्वर सिद्ध करता है ।
मूलम्
किंच
न तस्येशे कश्चन
इति निरस्त-समाभ्यधिक-संभावनस्य पुरुषस्याणोर् अणीयानित्यस्मिन्न् अनुवाके वेदाद्यन्तरूपतया वेदबीजभूतप्रणवस्य प्रकृतिभूताकारवाच्यतया महेश्वरत्वं प्रतिपाद्य दहरपुण्डरीकमध्यस्थाकाशान्तर्वर्तितयोपास्यत्वम् उक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयम् अर्थः -
सर्वस्य वेद-जातस्य
प्रकृतिः प्रणव उक्तः ।
नीलमेघः
इस मन्त्र का तात्पर्यार्थ यह है कि
सम्पूर्ण वेदों का मूलकारण प्रणव है,
मूलम्
अयम् अर्थः सर्वस्य वेदजातस्य प्रकृतिः प्रणव उक्तः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणवस्य च प्रकृतिर् अकारः ।
नीलमेघः
प्रणव का मूलकारण अकार है,
मूलम्
प्रणवस्य च प्रकृतिर् अकारः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणव-विकारो वेदः
स्व-प्रकृति-भूते प्रणवे लीनः ।
नीलमेघः
प्रणव से उत्पन्न होने वाले वेद प्रणव में लीन होते हैं,
मूलम्
प्रणवविकारो वेदः स्वप्रकृतिभूते प्रणवे लीनः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणवो ऽप्य् अकार-विकार-भूतः
स्व-प्रकृताव् अकारे लीनः ।
नीलमेघः
अकार से उत्पन्न होने वाला प्रणव भी
अपने कारण अकार में लीन हो जाता है ।
मूलम्
प्रणवो ऽप्य् अकारविकारभूतः स्वप्रकृताव् अकारे लीनः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य प्रणव-प्रकृति-भूतस्याकारस्य
यः परो वाच्यः
स एव महेश्वर
इति सर्व-वाचक-जात–प्रकृति-भूताकार-वाच्यः सर्व-वाच्य-जात–प्रकृति-भूत–नारायणो
यः स महेशवर इत्यर्थः ।
नीलमेघः
अकारमात्र बचा रहता है ।
उस प्रकार का वाच्य जो अर्थ है
वह महेश्वर है ।
सभी वाचक शब्दों का
परममूलकारण अकार है,
सभी वाच्य अर्थों का परममूलकारण नारायण है ।+++(5)+++
इन दोनों मूलकारणों में
वाच्य-वाचक-भाव-सम्बन्ध है ।
सर्वशब्दकारण अकार वाचक है, सर्ववाच्यकारण नारायण उसका वाच्यार्थ है ।
मूलम्
तस्य प्रणवप्रकृतिभूतस्याकारस्य यः परो वाच्यः स एव महेश्वर इति सर्ववाचकजातप्रकृतिभूताकारवाच्यः सर्ववाच्यजातप्रकृतिभूतनारायणो यः स महेशवर इत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं भगवता
अहं कृत्स्नस्य जगतः
प्रभवः प्रलयस् तथा ।
मत्तः परतरं नान्यत्
किंचिद् अस्ति धनंजय ।
अक्षराणाम् अकारो ऽस्मि ।
इति ।
नीलमेघः
श्रीमन्नारायण भगवान्
शब्दवाच्य सभी पदार्थों का कारण है,
यह अर्थ गीता में वर्णित है ।
श्रीगीता सप्तमाध्याय में श्रीभगवान् कहते हैं कि-
अहं कृत्स्नस्य जगतः
प्रभवः प्रलयस् तथा ।
मत्तः परतरं नान्यत्
किंचिद् अस्ति धनंजय ।
अर्थात्
हे धनंजय !!
मैं ही इस सम्पूर्ण जगत् का
उत्पत्तिकारण एवं प्रलयकारण हूँ ।
मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ ।
मुझसे व्यतिरिक्त कोई पदार्थ श्रेष्ठ नहीं है ।
“अक्षराणामकारोऽस्मि "
अर्थात्
मैं अक्षरों में अकार हूँ
इस कथन द्वारा श्रीभगवान् ने
अकार एवं अपने में वाच्य-वाचक-भाव-सम्बन्ध को बतलाया है ।
मूलम्
यथोक्तं भगवता
अहं कृत्स्नस्य जगतः
प्रभवः प्रलयस् तथा ।
मत्तः परतरं नान्यत्
किंचिद् अस्ति धनंजय ।
अक्षराणाम् अकारो ऽस्मि ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“अ इति ब्रह्मे"ति च श्रुतेः ।
नीलमेघः
“अ इति ब्रह्म”
यह श्रुतिवाक्य भी
अकार एवं ब्रह्म में वाच्य-वाचक-भाव-सम्बन्ध बतलाता है ।
मूलम्
“अ इति ब्रह्मे"ति च श्रुतेः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकारो वै सर्वा वाग्
इति च ।
नीलमेघः
“अकारो वै वाक्”
यह वेदवाक्य अकार को
सर्वशब्दों का कारण बतलाता है ।
मूलम्
अकारो वै सर्वा वाग्
इति च ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचक-जातस्याकार-प्रकृतित्वं
वाच्यजातस्य ब्रह्म-प्रकृतित्वं च सुस्पष्टम् ।+++(5)+++
नीलमेघः
इस वाक्य में कार्यकारणभाव के बल से
अकार एवं सर्व शब्दों में अभेद
कहा गया है ।
मूलम्
वाचक-जातस्याकारप्रकृतित्वं
वाच्यजातस्य ब्रह्म-प्रकृतित्वं च सुस्पष्टम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो ब्रह्मणो ऽकार-वाच्यता-प्रतिपादनाद्
अकार-वाच्यो नारायण एव महेश्वर
इति सिद्धम् ।
नीलमेघः
इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि
अकारवाच्य ब्रह्म एवं अकारवाच्य नारायण
एक ही पदार्थ है ।
उस नारायण को
महेश्वर कहकर
उपर्युक्त मन्त्र नारायण को
दहरविद्या में उपास्य बतलाता है ।
[[२१६]]
हृदयकमल के मध्य में
विद्यमान आकाश के अन्दर रहने वाले परब्रह्म का उपासन ही दहरविद्या है ।
मूलम्
अतो ब्रह्मणोऽकारवाच्यताप्रतिपादनादकारवाच्यो नारायण एव महेश्वर
इति सिद्धम्।