०७ शिव एव केवलः

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तेनैव न्यायेन

न सन् न चासच् छिव एव केवल

इत्यादि सर्वं नेयम् ।

नीलमेघः - पूर्व-पक्षः

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यहाँ पर शैववादियों का यह कथन है कि
जिस प्रकार जगत्-कारण-तत्त्व को बतलाने वाले
“एको ह वै नारायण आसीत्” इस कारणवाक्य में
नारायण को जगत् का कारण बतलाया गया है,
उसी प्रकार

“यदा तमस् तन् न दिवा न रात्रिर्
न सन् न चासच् छिव एव केवलः"

इस कारणवाक्य में
शिवजी को जगत् का कारण कहा गया है ।
इस मन्त्र का यह अर्थ है कि

जब केवल मूलप्रकृति ही थी,
दिन रात नहीं थे,
सत् मूर्त प्रपञ्च और असत् अमूर्तप्रपञ्च भी नहीं था ।
उस समय केवल शिवजी थे ।

इस मन्त्र से शिवजी जगत्कारण सिद्ध होते हैं
क्योंकि प्रलयकाल में रहने वाला पदार्थ ही तो
जगत्कारण बन सकता है।

किंच, नारायणोपनिषद् — जो तैत्तिरीयारण्यक का षष्ठ प्रश्न है - में
“यः परः स महेश्वरः " कहकर
महेश्वर शब्द से कहे जाने वाले शिवजी को
सभी ब्रह्मविद्याओं में उपास्य कहा गया है।
इससे शिवजी को सर्वश्रेष्ठ परतत्त्व परब्रह्म क्यों न माना जाय ?

यह शैवों का वाद है।

नीलमेघः

इस पर श्रीवैष्णव सम्प्रदायाचार्य
श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह कहा हैं कि

“न सन्न चासच्छिव एव केवलः”

इस वाक्य में शिव शब्द से
नारायण ही अभिहित होते हैं
शिवजी नहीं
क्योंकि सामान्यरूप से कारणतत्त्व को उपस्थित करने वाले सभी कारणवाक्य
परमविशेषरूप में कारणतत्त्व को उपस्थित करने वाले “एको ह वै नारायण आसीत्”
इस कारणवाक्य से सामान्यविशेषन्याय से
समन्वय प्राप्त करके
एकमात्र नारायण को ही
जगत्कारण बतलाते हैं,
नारायणानुवाक से
नारायण ही सबसे श्रेष्ठ
एवं सभी ब्रह्मविद्याओं में उपास्य सिद्ध किये गये हैं ।
नारायण के द्वारा
ब्रह्मा और रुद्र आदि की सृष्टि एवं संहार का वर्णन
शास्त्रों में उपलब्ध है।

शिव और महेश्वर इत्यादि शब्द
शास्त्रों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हैं ।
वे व्युत्पत्ति के अनुसार
शुभ और महान् ईश्वर
ऐसे अर्थों को बतलाने वाले होने के कारण
सामान्यवाचक हैं,
उनका नारायणरूपी विशेषार्थ में पर्यवसान उचित है ।
ये सभी कारण पहले ही बतलाये जा चुके हैं ।
इन हेतुओं से
“शिव एव केवलः”
इस शिव शब्द को
नारायणवाचक मानकर
इस वाक्य से
नारायण को जगत्कारण मानना ही युक्तियुक्त है ।

मूलम्

उक्तेनैव न्यायेन

न सन् न चासच् छिव एव केवल

इत्यादि सर्वं नेयम् ।