विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् अपि “ततो यद् उत्तरम्” इत्य्-अत्र
पुरुषाद् अन्यस्य परतरत्वं प्रतीयत इत्य् अभ्यधायि
तद् अपि
यस्मात् परं नापरम् अस्ति किंचिद्
यस्मान् नाणीयो न ज्यायो ऽस्ति कश्चित्
यस्माद् अपरं, यस्माद् अन्यत् किंचिद् अपि परं नास्ति,
केनापि प्रकारेण पुरुष-व्यतिरिक्तस्य परत्वं नास्तीत्य् अर्थः ।
नीलमेघः
ಹ್ಹ್पूर्वपक्षी ने
“ततो यदुत्तरतरम् "
इस श्वेताश्वतर उपनिषद् के वचन का अवलम्ब लेकर
शिवजी को पुरुष अर्थात् नारायण से श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहा।
अब उस प्रसंग पर प्रकाश डाला जाता है ।
वहाँ “ततो यदुत्तरतरम्”
इस मन्त्र के पहले
“यस्मात् पर नापरमस्ति किंचित्”
यह मन्त्र पठित है ।
अर्थात् जिस पुरुष से भिन्न कोई भी पदार्थ श्रेष्ठ नहीं है ।
यहाँ पुरुषशब्द श्रीमन्नारायण का वाचक है ।
यह दोनों वादियों का सम्मत है ।
इस मन्त्र से यह सिद्ध होता है कि
पुरुषव्यतिरिक्त किसी भी पदार्थ की
किसी भी प्रकार से श्रेष्ठता नहीं।
मूलम्
यद् अपि “ततो यदुत्तरम्” इत्य्-अत्र
पुरुषाद् अन्यस्य परतरत्वं प्रतीयत इत्यभ्यधायि तद् अपि यस्मात् परं नापरम् अस्ति किंचिद् यस्मान् नाणीयो न ज्यायो ऽस्ति कश्चित् यस्माद् अपरं यस्माद् अन्यत् किंचिद् अपि परं नास्ति केनापि प्रकारेण पुरुषव्यतिरिक्तस्य परत्वं नास्तीत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अणीयस्त्वं सूक्ष्मत्वम् ।
ज्यायस्त्वं सर्वेश्वरत्वम् ।
सर्वव्यापित्वात् सर्वेश्वरत्वाद्
अस्य - एतद्-व्यतिरिक्तस्य कस्याप्य् अणीयस्त्वं ज्यायस्त्वं च नास्तीत्यर्थः ।
नीलमेघः
आगे यह मन्त्र खण्ड है कि
“यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्” ।
अर्थात्
जिस पुरुष को छोड़कर दूसरा कोई भी पदार्थ सूक्ष्म नहीं है तथा श्रेष्ठ नहीं हैं।
पुरुष ही सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ है ।
[[२१५]]
सर्वव्यापक होने के कारण पुरुष अत्यन्त सूक्ष्म है,
तथा सब पर शासन करने वाला होने के कारण सबसे श्रेष्ठ है ।
मूलम्
अणीयस्त्वं सूक्ष्मत्वम् ।
ज्यायस्त्वं सर्वेश्वरत्वम् ।
सर्वव्यापित्वात् सर्वेश्वरत्वाद् अस्यैतद्व्यतिरिक्तस्य कस्याप्य् अणीयस्त्वं ज्यायस्त्वं च नास्तीत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मान् नाणीयो न ज्यायो ऽस्ति कश्चिद्
इति
पुरुषाद् अन्यस्य
कस्यापि ज्यायस्त्वं निषिद्धम्
इति
तस्माद् अन्यस्य परत्वं न युज्यत
इति प्रत्युक्तम् ।
नीलमेघः
इस मन्त्रखण्ड से
यह बतलाया गया है कि
पुरुष को छोड़कर दूसरा कोई भी पदार्थ
किसी भी प्रकार से श्रेष्ठ नहीं होता।
मूलम्
यस्मान् नाणीयो न ज्यायो ऽस्ति कश्चिद् इति पुरुषाद् अन्यस्य कस्यापि ज्यायस्त्वं निषिद्धम् इति तस्माद् अन्यस्य परत्वं न युज्यत इति प्रत्युक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस् तर्ह्य् अस्य वाक्यस्यार्थः ?
नीलमेघः
इस प्रकार जिस पुरुष की सर्वश्रेष्ठता बतलायी गई है
उस पुरुष से श्रेष्ठ किसी वस्तु का वर्णन “ततो यदुत्तरतरम् " इस मन्त्र में हो ही नहीं सकता,
क्योंकि वेसा मानने पर पूर्वोत्तर विरोध उपस्थित होगा
जिसका समाधान हो नहीं सकता ।
ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता कि
“ततो यदुत्तरतरम्” इस मन्त्र का क्या अर्थ किया जाय ?
ऐसा अर्थ करना चाहिये जो पूर्व से विरोध न रक्खे ।
मूलम्
कस् तर्ह्य् अस्य वाक्यस्यार्थः ?
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य प्रकरणस्योपक्रमे
तम् एव विदित्वातिमृत्युम् एति
नान्यः पन्था विद्यते ऽयनाय
+इति पुरुषवेदनस्यामृतत्वहेतुतां
तद्व्यतिरिक्तस्यापथतां च प्रतिज्ञाय
यस्मात् परं नापरम् अस्ति किंचित् …
तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्
इत्य्-एतद्-अन्तेन सर्वस्मात् परत्वं प्रतिपादितम् ।
नीलमेघः
श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
वैसा अर्थ किया जा सकता है
जो आगे बतलाया जायगा ।
इस प्रकरण के उपक्रम में यह मन्त्र आया है कि-
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
अर्थात्
इस अर्थ को मैं जानता हूँ कि
प्रकृति के पार रहने वाले ज्योतिर्मय विग्रह वाले उस महापुरुष
श्रीमन्नारायण को जानकर ही
साधक संसार का अतिक्रमण करता है ।
उसे प्राप्त करने के लिये
दूसरा मार्ग है नहीं ?
इस मन्त्र में दोनों अर्थों की प्रतिज्ञा की गई है ।
(१) परमपुरुष का ज्ञान मोक्ष का साधन है ।
(२) उसको छोड़कर अन्य उपाय असन्मार्ग है,
उससे मोक्ष नहीं मिल सकता।
इन दोनों प्रतिज्ञाओं का समर्थन करने के लिये
" यस्मात् परं नापरमस्ति किंचित्”
से लेकर
“तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्”
तक के मन्त्र से यह बताया गया है कि
वह पुरुष सब तरह से
सबसे अत्यन्त श्रेष्ठ है ।
मूलम्
अस्य प्रकरणस्योपक्रमे
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय
+इति पुरुषवेदनस्यामृतत्वहेतुतां
तद्व्यतिरिक्तस्यापथतां च प्रतिज्ञाय
यस्मात्परं नापरमस्ति किंचित् तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्
इत्येतदन्तेन सर्वस्मात्परत्वं प्रतिपादितम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतः पुरुषतत्त्वम् एवोत्तरतरं
“ततो यद् उत्तरतरं” पुरुषतत्त्वं
तद् “एवारूपम् +++(=प्राकृत-कर्मज-रूप-रहितम्)+++ अनामयं”
य एतद् विदुर्
अमृतास् ते भवन्ति,
अथेतरे दुःखम् एवापियन्ति
+इति पुरुष-वेदनस्यामृतत्व-हेतुत्वं
तद्-इतरस्यापथत्वं प्रतिज्ञातं
स-हेतुकम् उपसंहृतम् ।
अन्यथोपक्रमगतप्रतिज्ञाभ्यां विरुध्यते ।
नीलमेघः
“ततो यदुत्तरतरम् "
यह मन्त्र उपर्युक्त प्रतिज्ञाओं का
जिनका सहेतुक समर्थन पूर्वमन्त्र से हो चुका है -
उपसंहार करता है ।
इसका अर्थ यह है कि
जिस हेतु से पुरुषतत्त्व सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो गया है,
उस हेतु से सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुआ पुरुषतत्त्व
कर्मकृत प्रकृतिसम्बन्ध से रहित होने से
प्राकृतरूप शून्य है,
तथा प्राकृत शरीरसम्बन्ध से होने वाले
सुख इत्यादि दोषों से रहित है।
इस पुरुषतत्त्व को जो जानते हैं,
वे मुक्त होते हैं
और दूसरे लोग दुःख को प्राप्त होते हैं ।
“ततो यद् उत्तरतरम् " का यह अर्थ नहीं है कि
उस पुरुष से श्रेष्ठ कोई तत्त्व रूपरहित है ।
किन्तु यही अर्थ है
कि उपर्युक्त हेतु से सर्वश्रेष्ठ बनने वाला पुरुष-तत्त्व ही
प्राकृत-रूपरहित एवं दोषरहित है,
इसको जानने वाले मोक्ष को,
दूसरे दुःखमय संसार को प्राप्त करते हैं ।
इस प्रकार यह मन्त्र
उपर्युक्त प्रतिज्ञाओं का उपसंहार करता है ।
यदि ऐसा अर्थ न किया जाय
तो पूर्व मन्त्र और उत्तर मन्त्र में
विरोध उपस्थित हो जायगा ।
पूर्वमन्त्र बतलाता है कि
पुरुषतत्त्व का ज्ञान ही
मोक्षसाधन है,
दूसरा कोई मार्ग नहीं ।
पूर्वपक्षी के मत के अनुसार
उत्तरमन्त्र यह बतलाता है कि
उस पुरुषतत्त्व से श्रेष्ठ बनने वाले शिवतत्त्व को
समझने वाले ही मुक्त होते हैं,
अन्य सभी दुःखमय संसार में पड़े रहते हैं ।
पूर्वपक्षी के मन्तव्य के अनुसार
पूर्वोत्तर मन्त्रों में अवश्य विरोध होगा ।
हमारे अर्थ के अनुसार पूर्वोत्तर मन्त्रों में
मेल हो जाता है।
इस प्रकार “ततो यदुत्तरतरम् "
यह मन्त्र पुरुष की श्रेष्ठता का वर्णन करता हुआ
[[२१६]]
उपर्युक्त प्रतिज्ञाओं का उपसंहार करता है ।
यही अर्थ समीचीन है ।
मूलम्
यतः पुरुषतत्त्वम् एवोत्तरतरं ततो यदुत्तरतरं पुरुषतत्त्वं तद् एवारूपम् अनामयं य एतद्विदुर् अमृतास् ते भवन्ति, अथेतरे दुःखम् एवापियन्तीति पुरुषवेदनस्यामृतत्वहेतुत्वं तदितरस्यापथत्वं प्रतिज्ञातं सहेतुकम् उपसंहृतम् ।
अन्यथोपक्रमगतप्रतिज्ञाभ्यां विरुध्यते ।
शिवाभिधानम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषस्यैव शुद्धि-गुण-योगेन शिव-शब्दाभिप्रायत्वं
शाश्वतं शिवम् अच्युतम्
इत्य्-आदिना ज्ञातम् एव ।
नीलमेघः
आगे “सर्वाननशिरोग्रीवः”
इस मन्त्र में जो शिवशब्द पड़ा है
वह नारायण का ही वाचक है ।
नारायण पुरुष
परमशुद्ध एवं मंगलकारी होने से
शिव कहलाते हैं ।
श्रीविष्णु सहस्रनाम में
“सर्वः शर्वः शिवः स्थातुः” कहकर
शिवशब्द श्रीविष्णु भगवान् का नाम माना गया है ।
नारायणानुवाक में “शाश्वतं शिवमच्युतम् " कहकर
नारायण में शिवशब्द का प्रयोग किया गया है ।
किंच, उस मन्त्र में “सर्वाननशिरोग्रीवः” कहकर
“सहस्रशीर्षा पुरुषः” इस पुरुषसूक्तवाक्य के अर्थ का संग्रह किया गया है
तथा “भगवान्” कहकर
पुरुष का वर्णन किया गया है ।
इन कारणों से सिद्ध होता है कि
शिव-शब्द-घटित यह मन्त्र श्रीभगवान् का ही वर्णन करता है ।
मूलम्
पुरुषस्यैव शुद्धिगुणयोगेन शिवशब्दाभिप्रायत्वं शाश्वतं शिवम् अच्युतम् इत्यादिना ज्ञातम् एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुष एव शिव-शब्दाभिधेय
इत्य् अनन्तरम् एव वदति
महान् प्रभुर् वै पुरुषः
सत्त्वस्यैष प्रवर्तक
इति ।
नीलमेघः
इस मन्त्र के बाद
“महान् प्रभुर् वै पुरुषः
सत्त्वस्यैष प्रवर्तकः”
कहकर सत्त्वनिधि होने के कारण
सत्त्वगुण का विकास करने वाले महाप्रभु पुरुष का वर्णन किया है ।
वह पुरुष श्रीमन्नारायण भगवान् ही हैं
क्योंकि वे ही सात्त्विक देवता माने जाते हैं,
शिवजी तामस देवता हैं ।
इस प्रकार पूर्वोत्तर मन्त्र में पुरुष का वर्णन होने से
शिवपदघटित मध्यम मन्त्र के विषय में
यही मानना उचित है कि
यह मन्त्र भी मंगलकारी पुरुष का ही वर्णन करता है ।
इस प्रकार श्वेताश्वतर उपनिषद् भगवत्परक सिद्ध हो जाती है ।
मूलम्
पुरुष एव शिवशब्दाभिधेय इत्यनन्तरम् एव वदति महान् प्रभुर् वै पुरुषः सत्त्वस्यैष प्रवर्तक इति ।