विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः “प्राणं मनसि सह करणैर् +++(… ध्यायीतेशानं)+++ " इत्यादि वाक्यं
सर्वकारणे परमात्मनि
करण-प्राणादि सर्वं विकार-जातम् उपसंहृत्य
तम् एव परमात्मानं सर्वस्येशानं ध्यायीतेति
पर-ब्रह्म-भूत-नारायणस्यैव ध्यानं विदधाति ।
नीलमेघः
अथर्वशिखोपनिषद् में अन्तर्गत
कतिपय वाक्यों का उल्लेख
पूर्वपक्ष में किया गया है।
उन वाक्यों के वास्तविक अर्थ पर
प्रकाश डाला जाता है।
वे वाक्य ये हैं कि
“प्राणं मनसि सह करणर्
नादान्ते परमात्मनि संप्रतिष्ठाप्य
ध्यायीतेशानं प्रध्यायितव्यम्”
अर्थात्
मन में लीन हुये इन्द्रियों के साथ
प्राण को मुख्य प्राण को अथवा जीवात्मा को
परमात्मा में प्रतिष्ठित करे ।
परमात्मा में प्रतिष्ठित करना
दो प्रकार का है ।
(१) करण और प्राण इत्यादि विकारों का
परमात्मा में लय होता है
इस अर्थ का अनुसन्धान करना
एक प्रकार है ।
(२) इन सब पदार्थों को परमात्मा का शेष समझना
दूसरा प्रकार है ।
इस प्रकार इन सबको नादान्त में अर्थात् अर्धमात्रा के अवसान में
परमात्मा में प्रतिष्ठित करके
ध्येयतत्त्व ईशान का ध्यान करें ।
यह ध्येयतत्त्व ईशान उपर्युक्त परमात्मा ही है ।
“सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः” कहकर उपनिषद् ने
परमात्मा को सबका ईशान अर्थात् ईश्वर कहा है ।
वह परमात्मा नारायण है,
क्योंकि “आत्मा नारायणः परः” कहकर
नारायणानुवाक ने नारायण को ही
परमात्मा कहा है।
मूलम्
अतः “प्राणं मनसि सह करणैर्” इत्यादि वाक्यं
सर्वकारणे परमात्मनि
करणप्राणादि सर्वं विकारजातमुपसंहृत्य
तमेव परमात्मानं सर्वस्येशानं ध्यायीतेति
परब्रह्मभूतनारायणस्यैव ध्यानं विदधाति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“पतिं विश्वस्ये"ति
“न तस्येशे कश्चने"ति च
तस्यैव सर्वस्येशानता प्रतिपादिता ।
नीलमेघः - नारायणस्येशानत्वम्
किंच, उपनिषद् ने
“पतिं विश्वस्य” “न तस्येशे कश्चन” कहकर
नारायण को विश्व का स्वामी कहा
तथा यह भी कहा कि
स्नारायण पर शासन करने वाला कोई नहीं है ।
इससे नारायण सबके ईशान
अर्थात् शासक सिद्ध होते हैं ।
इस प्रकार इस वाक्य में
सर्वेश्वर श्रीमन्नारायण का ध्यान करने के लिये कहा गया है
तथा यह भी सिद्ध किया गया है कि
श्रीमन्नारायण ही ध्येयवस्तु हैं ।
[[२१२]]
नारायण ही अच्छी तरह से ध्यान करने योग्य हैं ।
नीलमेघः - ब्रह्म-रुद्र-पर्युदासः
इस अर्थ को सिद्ध करने के लिये
आगे उपनिषद् ने एक युक्ति को इस वाक्य से प्रस्तुत किया कि
“सर्वमिदं ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रास्
ते सर्वे संप्रसूयन्ते
सर्वाणि चेन्द्रियाणि सह भूतैः”
अर्थात्
यह सम्पूर्ण चेतनाचेतनप्रपञ्च प्रसिद्ध ब्रह्मा विष्णु रुद्र और इन्द्र एवं पञ्चमहाभूतों के साथ सभी इन्द्रिय उत्पन्न होते हैं ।
ये सब उत्पन्न होने वाले हैं
अतएव ये ध्येय नहीं हो सकते ।
किन्तु सर्वकारण परतत्त्व नारायण ही ध्येय है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि
ब्रह्मा और रुद्र सबके कारण हैं,
उनका ध्यान क्यों न किया जाय ?
इस प्रश्न के उत्तर में श्रुति कहती है कि-
“न कारणं कारणानां धाता ध्याता”
अर्थात्
कारण बनने वाले ब्रह्मा
एवं पहले “ध्याता रुद्रः” कहकर
ध्यान करने वाले के रूप में कहे जाने वाले रुद्र
कुछ पदार्थों के कारण होते हुये भी
कारणों के कारण नहीं ।
जो कारणों का कारण है वही ध्येय है ।
इस वाक्य का दूसरा अर्थ भी होता है,
वह यह है कि
- “ध्याता” जगत् की सृष्टि के लिये संकल्प करने वाले
- “धाता”
जगत् की सृष्टि करने वाले - “कारणानां कारणम्” एवं कारणों का कारण बनने वाले परब्रह्म नारायण
“न” उत्पन्न नहीं होते हैं ।
अतएव वे ध्येय हैं ।
मूलम्
पतिं विश्वस्येति न तस्येशे कश्चनेति च तस्यैव सर्वस्येशानता प्रतिपादिता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत एव
सर्वैश्वर्य-संपन्नः सर्वेश्वरः शंभुर्
आकाश-मध्ये ध्येय
इति नारायणस्यैव परम-कारणस्य शंभु-शब्द-वाच्यस्य
ध्यानं विधीयते -
“कश् च ध्येय” इत्यारभ्य
“कारणं तु ध्येय” इति कार्यस्याध्येयतापूर्वक-
कारणैक-ध्येयता-परत्वाद् वाक्यस्य ।
नीलमेघः - शम्भु-वाच्यता
आगे ध्येयतत्त्व का निष्कर्ष करती हुई श्रुति कहती है कि-
“कारणं तु ध्येयस्
सर्वैश्वर्यसंपन्नः सर्वेश्वरः शम्भुर् आकाशमध्ये”
अर्थात्
" कारणं” चेतनाचेतनप्रपञ्च का कारण बनने वाले “सर्वेश्वरः "
सब पर नियमन करके वाले “सर्वैश्वर्यसंपन्नः " सर्वविध ऐश्वर्य से सम्पन्न
" शम्भुः " एवं मोक्ष देने वाले भगवान्
“आकाशमध्ये ध्येयः” हृदयाकाश के मध्य में ध्येय हैं ।
यहाँ शम्भु शब्द श्रीमन्नारायण भगवान् का वाचक है ।
“शं भवति अस्मादिति शम्भुः " ऐसी उसकी व्युत्पत्ति है ।
श्रीभगवान् मोक्षसुख देने वाले हैं ।
अतएव शम्भु कहलाते हैं ।
यह शम्भु शब्द कई बार श्रीभगवान् के विषय में प्रयुक्त है ।
नारायणानुवाक में
“विश्वशम्भुवम्” ऐसा भगवान् के विषय में प्रयुक्त है।
किंच पुराण में
श्रीभगवान् के विषय में
शम्भु शब्द का प्रयोग किया गया है ।
उदाहरण-
इति नारायणः शम्भुर्
भगवान् जगतां पतिः ।
संदिश्य विबुधान् सर्वान्
अजायत यदोः कुले ॥
अर्थात्
इस प्रकार जगत् के स्वामी शम्भु अर्थात मोक्षसुख देने वाले श्रीमन्नारायण भगवान् ने
सब देवताओं को सन्देश देकर यदु के कुल में अवतार लिया।
इस श्लोक में शम्भु शब्द से श्रीभगवान् का निर्देश किया गया है।
वैसे ही प्रकृत में भी
शम्भु शब्द से
नारायण का निर्देश करके
उनका ध्यान करने के लिये कहा गया है।
नीलमेघः - विष्णोर् अवतारता
यहाँ पर ब्रह्मा रुद्र और इन्द्र के साथ
श्रीविष्णु भगवान् का जो जन्म कहा गया है,
वहाँ पर यह समझना चाहिये कि
ब्रह्मा रुद्र और इन्द्र का जन्म जन्म ही है,
श्रीविष्णु भगवान का जन्म अवतार है,+++(5)+++
वह इतर जीवों के समान जन्म नहीं है ।
यह अन्तर ध्यान देने योग्य है ।
[[२१३]]
वेद में “अजायमानो बहुधा विजायते” इत्यादि वचनों से
यह कहा गया है कि
श्रीभगवान् जीवों के समान जन्म न लेते हुये
अनेक जन्म अर्थात् अवतार लेते हैं ।
श्रीविष्णु भगवान्
जगत्कारण श्रीमन्नारायण भगवान् के प्रथम अवतार हैं ।
यह अर्थ निम्नलिखित ब्रह्मा जी के वचन से
स्फुट हो जाता है ।
वह वचन यह है कि-
ततस् त्वम् अपि दुर्धर्षस्
तस्माद् भावात् सनातनात् ।
रक्षार्थं सर्वभूतानां
विष्णुत्वम् उपजग्मिवान् ॥+++(5)+++
अर्थात्
श्री ब्रह्माजी श्रीभगवान् से कहते हैं कि
हमको उत्पन्न करने के बाद
दुर्धर्ष आप भी सर्व प्राणियों की रक्षा करने के लिये
उस सनातन नारायण स्वरूप से
श्रीविष्णुत्व को प्राप्त हुये हो ।
इससे सिद्ध होता है कि
श्रीविष्णु भगवान् श्रीमन्नारायण का अवतार हैं ।
इस प्रकार ब्रह्मा रुद्र और इन्द्र को
श्रीभगवान् का अवतार सिद्ध करने वाला वचन
शास्त्रों में है नहीं ।+++(5)+++
इसलिये उनका जन्म ही मानना पड़ता है । अस्तु ।
नीलमेघः - कारणे तात्पर्यम्
यह अथर्वशिखोपनिषत् शिवजी को ध्येय नहीं बतलाती,
किन्तु नारायण को ही ध्येय बतलाती है ।
इसमें प्रधान हेतु यह है कि
इस उपनिषद् के आरम्भ में “कश्च ध्येयः " कहकर
यह प्रश्न रक्खा गया है कि
किसका ध्यान करना चाहिये ।
इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा गया है कि " कारणं तु ध्येयः "
अर्थात् कारण तत्त्व का ध्यान करना चाहिये ।
इस वाक्य का यह तात्पर्य है कि
कार्यपदार्थों का ध्यान न करना चाहिये,
उससे कल्याण नहीं होगा ।
किन्तु उस कारणतत्त्व का ध्यान करना चाहिये
जो शास्त्रों में जगत्कारण के रूप में प्रसिद्ध है।
यह वाक्य यह बतलाने के लिये नहीं आया है कि
अमुक पदार्थ जगत्कारण है
किन्तु यह बतलाने के लिये आया है कि
जो वस्तु जगत्कारण के रूप में प्रसिद्ध है
उसका ध्यान करना चाहिये ।
मूलम्
अत एव सर्वैश्वर्यसंपन्नः सर्वेश्वरः शंभुराकाशमध्ये ध्येय इति नारायणस्यैव परमकारणस्य शंभुशब्दवाच्यस्य ध्यानं विधीयते -
“कश् च ध्येय” इत्यारभ्य
“कारणं तु ध्येय” इति कार्यस्याध्येयतापूर्वककारणैकध्येयतापरत्वाद् वाक्यस्य ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैव नारायणस्य परम-कारणता, शंभु-शब्द-वाच्यता च
परम-कारण-प्रतिपादनैक-परे नारायणानुवाक एव प्रतिपन्ना
+इति तद्-विरोध्य्-अर्थान्तर-परिकल्पनं,
कारणस्यैव ध्येयत्वेन,
विधि-वाक्ये न युज्यते ।
नीलमेघः
परमकारण का प्रतिपादन करने के लिये प्रवृत्त नारायणानुवाक में
यह स्पष्ट कहा गया है कि नारायण ही जगत् के मूलकारण हैं,
तथा वे शम्भु शब्द में वाच्य हैं ।
इस प्रकार जो नारायण
नारायणानुवाक इत्यादि में जगत् के परमकारण
एवं शम्भुशब्दवाच्य प्रसिद्ध हुये हैं,
उनका ध्यान करने के लिये
अथर्वशिखोपनिषत् बतला रही है ।
यह उपनिषद् शिवजी को
जगत् का कारण सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त नहीं हुई है
न शिवजी के ध्यान का विधान करने के लिये प्रवृत्त है
किन्तु शास्त्रों में जो जगत्कारण प्रसिद्ध है
उसके ध्यान का विधान करने के लिये यह उपनिषत् प्रवृत्त है ।
कारण वाक्यों का समन्वय करने पर
नारायण ही जगत् के कारण सिद्ध होते हैं ।
यह अर्थ पहले ही वर्णित हो गया है ।
शम्भु शब्द वाच्य
उस नारायण के ध्यान का विधान करने के लिये
यह उपनिषत् प्रवृत्त है ।
इस उपनिषत् से यह भाव निकालना -
कि शिवजी जगत् का मूलकारण हैं,
उनका ध्यान करना चाहिये,
इस बात को बतलाने के लिये यह उपनिषत् प्रवृत्त है— सर्वथा अनुचित है ।
इस प्रकार विवेचना करके श्रीरामानुज स्वामी जी ने
पूर्वपक्ष का निराकरण करके
अथर्वशिखोपनिषत् से यह सिद्ध किया कि नारायण ही जगत् के मूलकारण हैं,
उनका ध्यान करना चाहिये ।
[[२१४]]
किंच, नारायण शब्द संज्ञा शब्द होने से
लोक शास्त्र प्रसिद्धि के अनुसार
श्रीमन्नारायण रूपी व्यक्ति विशेष का वाचक है ।
“शम्भु” आदि शब्द
व्युत्पत्ति के अनुसार " सुखदायक” इत्यादि अर्थों के वाचक होने से
सामान्य वाचक हैं।
सामान्य वाचक का विशेष में पर्यवसान न्यायानुमोदित है
इसलिये उपर्युक्त शम्भु शब्द को
नारायणवाचक मानना चाहिये ।
मूलम्
तस्यैव नारायणस्य परमकारणता शंभुशब्दवाच्यता च परमकारणप्रतिपादनैकपरे नारायणानुवाक एव प्रतिपन्नेति तद्विरोध्यर्थान्तरपरिकल्पनं कारणस्यैव ध्येयत्वेन विधिवाक्ये न युज्यते ।