विश्वास-प्रस्तुतिः
“यम् अन्तः समुद्रे +++(शयानं नारायणं)+++ कवयो ऽवयन्ती"त्य्-आदि
नीलमेघः
किंच, तैत्तरीयारण्यक में
षष्ठ प्रश्न के रूप में पठित नारायणोपनिषत् से भी
नारायण ही परब्रह्म सिद्ध होते हैं ।
[[२०८]]
उस उपनिषद् में यह वर्णन मिलता है कि-
“यमन्तः समुद्रे कवयो वयन्ति”
अर्थात्
सूक्ष्मतत्त्व को देखने वाले विद्वान्
जगत्कारणतत्त्व को
समुद्र के अन्दर शयन करने वाला जानते हैं ।
श्रीमन्नारायण भगवान् ही समुद्र में शयन करते रहते हैं ।
यह बात शास्त्रज्ञों से छिपी नहीं ।
इससे सिद्ध होता है कि
नारायण ही उस प्रकरण में वर्णित हैं।
आगे यह वर्णन मिलता है कि
“सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि” ।
अर्थात्
सब निमेष अर्थात् काल का अवान्तर विभाग विद्युत के समान चमकने वाले पुरुष से उत्पन्न हुये हैं ।
ये विद्युद्वर्ण वाले पुरुष
नारायण ही हैं ।
उनके वर्ण के विषय में ही
नाना प्रकार से वर्णन अन्य पाया जाता है ।
" आदित्यवर्णं तमसस्तु पारे"
कहकर श्रीमन्नारायण भगवान् ही
सूर्य के समान वर्ण वाले
एवं प्रकृति से परे रहने वाले कहे गये हैं ।
इससे भी सिद्ध होता है कि
यह प्रकरण श्रीमन्नारायण भगवान् का वर्णन करता है ।
मूलम्
यम् अन्तः समुद्रे कवयो वयन्तीत्यादि
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(सर्व-व्यापित्वात्)+++ नैनम् ऊर्ध्वं न तिर्यञ्चं
न मध्ये परिजग्रभत् ।
न तस्येशे कश्चन
तस्य नाम महद्-यशः ॥
नीलमेघः
आगे इस उपनिषद् में
ये मन्त्र आते हैं कि-
नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्च न मध्ये
परिजग्रभत् ।
नाम महद्यशः ॥
अर्थात्
इस परमात्मा को ऊर्ध्वप्रदेश में किसी ने भी नहीं जाना
तिर्यक्प्रदेश में किसी ने भी नहीं जाना
तथा मध्यप्रदेश में किसी ने भी नहीं जाना
क्योंकि सर्वव्यापक होने के कारण
परमात्मा का ऊर्ध्वदेश इत्यादि देशविशेष नहीं होता ।
अथवा वृक्षादिरूपी ऊर्ध्वगामी पदार्थों के रूप में
पश्वादिरूपी तिर्यग्रूप में
तथा मध्य में मनुष्यादि के रूप में विद्यमान
अर्थात् स्थावर और जंगम के रूप में अवस्थित उस परमात्मा को
किसी ने भी नहीं जाना है ।
उस परमात्मा के ऊपर शासन करने वाला कोई नहीं है ।
उनकी कीर्ति अपार है ।
मूलम्
नैनम् ऊर्ध्वं न तिर्यञ्चं
न मध्ये परिजग्रभत् ।
न तस्येशे कश्चन
तस्य नाम महद्यशः ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संदृशे तिष्ठति रूपम् अस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्,
हृदा मनीषा मनसा ऽभिकॢप्तो
य एवं विदुर् अमृतास् ते भवन्ति
+इति सर्वस्मात् परत्वम् अस्य प्रतिपाद्य,
नीलमेघः
न तस्येशे कश्चन
तस्य न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एनं विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥
उनका रूप देखने में आने वाला नहीं है,
नेत्र से कोई उन्हें देख नहीं सकता ।
यह परमात्मा भक्ति धृति और विशुद्ध मन से
समझे जा सकते हैं,
जो इस परमात्मा को जानते हैं
मुक्त हो जाते हैं ।
इस प्रकार
इन मन्त्रों में जगत्कारण परमपुरुष
सबके ईश्वर एवं मोक्ष देने वाले कहे गये हैं।
इससे उस परमपुरुष का
सबसे श्रेष्ठत्व सिद्ध होता है ।
मूलम्
न संदृशे तिष्ठति रूपम् अस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्,
हृदा मनीषा मनसा ऽभिकॢप्तो
य एवं विदुर् अमृतास् ते भवन्ति
+इति सर्वस्मात् परत्वम् अस्य प्रतिपाद्य,
विश्वास-प्रस्तुतिः
“न तस्येशे कश्चने"ति
तस्मात् परं किम् अपि न विद्यत
इति च प्रतिषिध्य,
नीलमेघः
इस प्रकार सर्व श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके
“न तस्येशे कश्चन” कहकर
यह बतलाया गया है कि
उनके ऊपर शासन करने वाला कोई नहीं है ।
इससे परमपुरुष से श्रेष्ठ बनने वाले तत्त्व का
निषेध किया गया है।
मूलम्
“न तस्येशे कश्चने"ति
तस्मात् परं किम् अपि न विद्यत
इति च प्रतिषिध्य,
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्भ्यः सम्भूतो हिरण्यगर्भ इत्यष्टाव्
इति तेनैकवाक्यतां गमयति ।
नीलमेघः
इसके बाद उस प्रकरण में
“अद्भ्यः संभूतो हिरण्यगर्भ इत्यष्टौ”
कहकर यह बतलाया गया है कि
इस प्रकरण के साथ
“अद्भयः संभूतः” इस अनुवाक को
तथा “हिरण्यगर्भः” इत्यादि आठ ऋचाओं को मिलाकर पदना चाहिये ।
इस प्रकार इस प्रकरण के साथ
जिस “अद्भ्यः संभूतः” इस अनुवाक को मिलाने के लिये कहा गया है,
वह अनुवाक परमपुरुष श्रीमन्नारायण भगवान् का वर्णन करता है।
मूलम्
अद्भ्यः सम्भूतो हिरण्यगर्भ इत्यष्टाव्
इति तेनैकवाक्यतां गमयति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच् +++(→“अद्भ्यः सम्भूत” इत्य् अष्टौ)+++ च महापुरुष-प्रकरणं
ह्रीश् च ते लक्ष्मीश् च पत्न्याव्
इति च नारायण एवेति द्योतयति ।
नीलमेघः
उस अनुवाक में यह वर्णन मिलता है कि “ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्व पत्न्यो” । अर्थात् हे भगवन् ? होनामवाली भूदेवी और श्रीमहालक्ष्मी जी ये दोनों आपकी पत्नी हैं। [[२०६]]
इससे सिद्ध होता है कि
इस प्रकरण में प्रतिपाद्य परतत्त्व
श्रीमन्नारायण भगवान् ही हैं
क्योंकि वे ही लक्ष्मीपति के रूप में प्रसिद्ध हैं।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
श्रीमन्नारायण भगवान् ही परतत्त्व एवं परब्रह्म हैं ।
मूलम्
तच् च महापुरुषप्रकरणं
ह्रीश् च ते लक्ष्मीश् च पत्न्याव्
इति च नारायण एवेति द्योतयति ।