०२ नारायण-जगत्-कारणता

पुराणोक्तिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्य्-अल्पम् एतत् ।

वेद-वित्–प्रवर-प्रोक्त-
वाक्य-न्यायोपबृंहिताः ।
वेदाः साङ्गा हरिं प्राहुर्
जगज्जन्मादिकारणं ।

नीलमेघः

इस प्रश्न का उत्तर देते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
यह प्रश्न मामूली है,
इसका उत्तर देने में कोई कठिनाई नहीं है।

हमारा सिद्धान्त यह है कि

वेद-वित्–प्रवर-प्रोक्त-
वाक्य-न्यायोपबृंहिताः ।
वेदाः साङ्गा हरिं प्राहुर्
जगज्जन्मादिकारणं ।

[[२०५]]
अर्थात्

वेदज्ञ प्रवर महर्षियों के द्वारा निर्मित स्मृति इतिहास और पुराणरूपी वाक्य
एवं मीमांसा न्यायों से उपबृंहित होने वाले
अर्थात् सुव्यक्त अर्थ को बतलाने वाले साङ्गवेद
श्रीहरिभगवान् को ही जगत् के जन्म आदि का कारण बतलाते हैं ।

केवल वेदवाक्यों से अर्थ स्पष्ट प्रतीत नहीं होता ।
वेदार्थ को सुव्यक्त करने के लिये
स्मृति इतिहास पुराण एवं मीमांसा न्यायों का अवलम्ब लेना चाहिये ।
उनका अवलम्ब लेकर
वेदों के तात्पर्यार्थ को समझने के लिये चेष्टा करने पर
स्पष्ट विदित होता है कि
वेद श्रीहरिभगवान् को ही परब्रह्म -
जो जगत् के जन्म आदि का कारण है - बतलाते हैं ।

मूलम्

अत्यल्पमेतत्

वेदवित्प्रवरप्रोक्त
वाक्यन्यायोपबृंहिताः ।
वेदाः साङ्गा हरिं प्राहुर्जगज्जन्मादिकारणं ।

कारणता-लक्ष्यम् ब्रह्म

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(विषयवाक्ये स्पष्टीकरिष्यमाणं)+++ जन्माद्य् अस्य यतः

नीलमेघः

परब्रह्म कौन पदार्थ है,
उसका लक्षण क्या है ?
इस विचार में उतरने पर ब्रह्मसूत्र और उपनिषद्वाक्यों से
इस विषय में निर्णय प्राप्त होता है ।

“जन्माद्यस्य यतः” यह ब्रह्मसूत्र
ब्रह्म के लक्षण को प्रस्तुत करता हुआ
निर्णय देता है कि
इस जगत् की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय जिससे होते हैं,
वह ब्रह्म है ।
इससे जगज्-जन्मादि-कारणत्व
ब्रह्म का लक्षण सिद्ध होता है ।

मूलम्

जन्माद्यस्य यतः

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते,
येन जातानि जीवन्ति,
यत् प्रयन्त्य् अभिसंविशन्ति,
तद् विजिज्ञानस्व
तद् ब्रह्म

  • इति जगज्-जन्मादि-कारणं ब्रह्मेत्य् अवगम्यते ।
नीलमेघः

इस सूत्र का यह विषय वाक्य है कि

“यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते
येन जातानि जीवन्ति
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति,
तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मति” ।

अर्थात्

प्राणी इत्यादि ये सभी कार्यपदार्थ
जिससे उत्पन्न होते हैं,
उत्पन्न होकर जिससे जीवित हैं,
प्रलय को प्राप्त होते हुये जिसमें लीन होते हैं,
उसे समझो, वही ब्रह्म है ।

इस श्रुतिवचन से भी
जगज्जन्मादिकारणत्व ब्रह्म का लक्षण सिद्ध होता है ।

मूलम्

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते,
येन जातानि जीवन्ति,
यत् प्रयन्त्य् अभिसंविशन्ति,
तद् विजिज्ञानस्व
तद् ब्रह्मेति

जगज्जन्मादिकारणं ब्रह्मेत्य् अवगम्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच् च जगत्
सृष्टि-प्रलय-प्रकरणेष्व् अवगन्तव्यम्
+++(न तु “शम्भुराकाशमध्ये ध्येयः” इत्यादिषूपासनावाक्येषु)+++।

नीलमेघः

इस प्रकार लक्षण के द्वारा
ब्रह्म समझ में आने पर
यह जिज्ञासा होती है कि वह ब्रह्म कौन है ?

इस प्रश्न का उत्तर
उन प्रकरणों से ही प्राप्त हो सकता है
जो जगत् की सृष्टि एवं प्रलय का वर्णन करते हैं।
उन प्रकरणों में ही
यह विदित हो सकता है कि
इस जगत् के जन्म आदि का कारण कौन है ।

“शम्भुराकाशमध्ये ध्येयः”

(हृदयाकाश के मध्य में शम्भु का ध्यान करना चाहिये)

इत्यादि ध्यानविधिपरक वचनों से
यह विदित नहीं हो सकता कि
वह ब्रह्म कौन वस्तु है,
क्योंकि ये वाक्य
कारणवस्तु का ध्यान करने के लिये कहते हैं ।
पहले कारणवस्तु निश्चित होना चाहिये,
बाद उसका ध्यान करने के लिये
कहा जा सकता है।

अन्य वचनों से

" जगत्कारण ब्रह्म अमुक पदार्थ है”

ऐसा विदित होने पर
उपर्युक्त उपासनापरक वाक्य
उस कारणवस्तु के ध्यान का विधान करते हैं ।

इस विवेचन से यह फलित होता है कि
उपासनाविधायक वाक्यों से
“ब्रह्म कौन है” यह प्रश्न हल नहीं हो सकता है
किन्तु यह प्रश्न सृष्टि और प्रलय का प्रतिपादन करने वाले वचनों से ही
हल हो सकता है ।

पूर्वपक्षी की यह कामना -
कि उपासनापरक वाक्यों से शिवजी को ब्रह्म सिद्ध किया जाय -
कभी सफल नहीं हो सकती ।

सृष्टिप्रलयपरक वाक्यों में ढूढने पर ही विदित होगा कि
वह ब्रह्म कौन है।
किंच, ब्रह्म के लक्षण को बतलाने वाले

“यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते”

इस श्रुतिवचन के द्वारा
यह बतलाये जाने पर-
कि जिससे इस जगत की सृष्टि आदि होते हैं वह ब्रह्म है -
यह प्रश्न उठता है कि
किससे इस जगत् की सृष्टि आदि होते हैं
जिसे ब्रह्म माना जाय ।

मूलम्

तच् च जगत्सृष्टिप्रलयप्रकरणेष्व् अवगन्तव्यम् ।

श्रुतौ कारणोक्तिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद्
एकम् एवाद्वितीयम्

इति जगद्-उपादानता–जगन्-निमित्तता–
जगद्-अन्तर्यामिताऽदि-मुखेन
परम-कारणं सच्-छब्देनाभिहितं
ब्रह्मेत्य् अवगतम् ।

नीलमेघः

[[२०६]]
इस प्रश्न का उत्तर
सृष्टि और प्रलय को बतलाने वाले वाक्यों से ही
प्राप्त हो सकता है ।

तदर्थ सृष्टिप्रलयप्रतिपादक वाक्यों पर
ध्यान देना चाहिये ।
वे वाक्य नानाप्रकार के हैं ।

एक वाक्य
सत् को जगत्कारण बतलाता है,
दूसरा ब्रह्म को जगत्कारण सिद्ध करता है ।
तीसरावाक्य आत्मा को जगत्कारण सिद्ध कर रहा है ।

वे वाक्य ये हैं किसद्विद्या में यह वाक्य है कि-

“सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्”

अर्थात्

हे सोमपानार्ह शिष्य,
यह जगत्-
जो विविधनामरूपों को प्राप्त हुआ है
सृष्टि के पूर्व अर्थात् प्रलयकाल में
एकता अर्थात् नामरूपविभागहीनता को प्राप्त होकर अद्वितीय सत् बनकर रहा ।

इस वाक्य में जगत् का मूलकारण
सत् शब्द से कहा गया है ।

वह परमकारण सत् “एकम्” शब्द से
जगत् का उपादान कारण
" अद्वितीयम्” शब्द से जगत् का निमित्त कारण
एवं “जगत् सत् था” इस प्रकार कहने से
जगत् का अन्तर्यामी कहा गया है ।

मूलम्

सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद् एकम् एवाद्वितीयम्

इति जगदुपादानताजगन्निमित्तताजगदन्तर्यामितादिमुखेन परमकारणं सच्छब्देनाभिहितं ब्रह्मेत्य् अवगतम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयम् एवार्थः

ब्रह्म वा इदम् एकम् एवाग्र आसीद्

इति शाखान्तरे ब्रह्मशब्देन प्रतिपदितः ।

नीलमेघः

सत् शब्द का अर्थ विद्यमान या प्रामाणिक होता है ।
इस सच्छद से परमकारण का वास्तविक रूप
स्पष्ट नहीं होता क्योंकि
इस सच्छन्द से जडतत्त्व जीवतत्त्व और परमात्मा भी बतलाये जा सकते हैं,
ये तीनों विद्यमान एवं प्रामाणिक हैं ।
इसलिये इस सच्छब्द से परमकारण का
असाधारण रूप नहीं खुलता ।

सब वेदान्तियों ने इस बात को माना है कि
उपनिषदों में विभिन्न कारणवाक्यों से वर्णित जगत्कारणतत्त्व एक ही है
भिन्न २ नहीं है ।
इसे गतिसामान्य न्याय कहते हैं।+++(5)+++
इससे यह आशा होती है कि
शायद दूसरे कारणवाक्य से
जगत्कारणतत्त्व का विशेषरूप खुल जाय।

इस आशा से दूसरे कारणवाक्यों के विचार में उतरने पर
यह वाक्य दृष्टिगोचर होता है कि

“ब्रह्म वा इदमेकमेवाग्र आसीत् "

अर्थात् यह जगत् प्रलयकाल में एक ब्रह्म के रूप में था ।

मूलम्

अयम् एवार्थः

ब्रह्म वा इदम् एकम् एवाग्र आसीद्

इति शाखान्तरे ब्रह्मशब्देन प्रतिपदितः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन सच्-छब्देनाभिहितं ब्रह्मेत्य् अवगतम् ।

नीलमेघः

इस वाक्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि
जो जगत्कारण पहले सत् कहा गया है,
वह ब्रह्म है ।
जो सबसे बड़ा हो
तथा सबको बढ़ाने वाला हो,
वह ब्रह्म कहलाता है ।+++(4)+++
इससे सिद्ध होता है कि
वह जगत्कारण सद्-वस्तु स्वयं सबसे बड़ी है
तथा सबको बढ़ाने वाली है ।
इससे यह निर्णय हो जाता है कि
वह जगत्कारणवस्तु परमाणु नहीं है
क्योंकि परमाणु सबसे छोटा है,
वह किसी से बड़ा नहीं है ।+++(5)+++

मूलम्

अनेन सच्छब्देनाभिहितं ब्रह्मेत्य् अवगतम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयम् एवार्थस् तथा शाखान्तर

आत्मा वा इदम् एक एवाग्र आसीन्
नान्यत् किंचन मिषद्

इति सद्ब्रह्मशब्दाभ्याम् आत्मैवाभिहित इत्य् अवगम्यते ।

नीलमेघः

इतना निर्णय होने पर भी
यह सन्देह बना ही रहता है कि
वह जगत्कारणवस्तु चेतन है या अचेतन है
क्योंकि दोनों भी
ब्रह्म कहे जा सकते हैं ।

यही जगत्-कारणवस्तु -
जो सत् एवं ब्रह्म कहा गया है
दूसरी शाखा में

“आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्
नान्यत् किंचन मिषत्”

अर्थात्

यह जगत् प्रलयकाल में
एक आत्मा के रूप में था,
उस आत्मा को छोड़कर दूसरी कोई वस्तु
उस समय नहीं थी -

कहकर आत्मा के रूप में वर्णित है ।
चेतन ही आत्मा कहा जाता है ।
इस वाक्य से
यह सिद्ध होता है कि
वह जगत्कारणजो सत् एवं ब्रह्म कहा गया है -
आत्मा अर्थात् चेतन है ।

मूलम्

अयम् एवार्थस् तथा शाखान्तर

आत्मा वा इदम् एक एवाग्र आसीन्
नान्यत् किंचन मिषद्

इति सद्ब्रह्मशब्दाभ्याम् आत्मैवाभिहित इत्य् अवगम्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा च शाखान्तर

एको ह वै नारायण आसीन्
न ब्रह्म नेशानो नेमे द्यावपृथिवी न नक्षत्राणि

इति सद्-ब्रह्मात्मादि-परम-कारण-वादिभिः शब्दैर्
+++(णत्वाद् विशेष्य-वाची→)+++ नारायण एवाभिधीयत इति निश्चीयते +++(छाग-पशु-न्यायेन)+++।

नीलमेघः

जगत्कारण का इतना विशेषरूप खुलने पर भी
यह सन्देह बना ही रहता है कि
वह जगत्कारण चेतनतत्त्व जीव है या ईश्वर ।
यह सन्देह महोपनिषद् के निम्नलिखित वाक्य से
दूर हो जाता है ।
वह वाक्य यह है कि-

“एको ह वै नारायण आसीन्
न ब्रह्मा नेशानो नेमे द्यावापृथिवी न नक्षत्राणि”

अर्थात्

[[२०७]]

प्रलयकाल में एक नारायण ही थे,
उस समय ब्रह्माजी नहीं थे,
शिवजी नहीं थे,
यह द्युलोक एवं पृथिवीलोक नहीं थे,
नक्षत्र नहीं थे ।

इस वाक्य से स्पष्ट विदित होता है कि
उपर्युक्त जगत्कारण नारायण ही हैं
क्योंकि जो प्रलयकाल में रहते हैं वे ही जगत् का कारण बन सकते हैं ।

यह नारायणशब्द विशेषवाचक है
क्योंकि “पूर्वपदात् संज्ञायामगः"
इस +++(णत्व-विधायक)+++पाणिनिसूत्र के अनुसार
संज्ञाशब्द होने के कारण
व्यक्ति विशेष का वाचक है ।
यह नारायणशब्द जिस अर्थ में संज्ञा के रूप में प्रयुक्त है,
वही इसका मुख्यार्थ है ।
वह अर्थ श्रीमन्नारायण भगवान् ही हैं ।

इससे सिद्ध होता है कि श्रीमन्नारायण भगवान् ही
जगत्कारण ब्रह्म हैं ।

ये ही नारायण
सत्, ब्रह्म, आत्मा इत्यादि शब्दों से
विभिन्न उपनिषदों में जगत्कारण कहे गये हैं ।

नीलमेघः - छाग-पशु-न्यायः

यहाँ पूर्वमीमांसा वर्णित छागपशुन्याय के अनुसार
निर्णय करना चाहिये ।
छागपशुन्याय का विवरण इस प्रकार है कि
वेद में “पशुना यजेत” कहकर
पशु से याग करने के लिये कहा गया है ।
चार पैर वाले प्राणी पशु कहलाते हैं ।
वे पशु नाना प्रकार के हैं,
कुत्ता बिल्ली इत्यादि सभी चार पैर वाले होने के कारण
पशु ही हैं ।
यह पशुशब्द चार पैर वाले
सभी प्राणियों का वाचक होने से
सामान्यशब्द है ।

“छागस्य वपाया” इत्यादि मन्त्र में -
जो याग में विनियुक्त है -
छाग अर्थात् बकरे का वर्णन है । छागशब्द पशुविशेष बकरे का वाचक होने से विशेष्य-शब्द है ।+++(5)+++

किस पशु से याग करें,
इस प्रकार प्रश्न उपस्थित होने पर
यह उत्तर देना उपयुक्त होगा कि
बकरे से याग करें,
क्योंकि सामान्यवाचक पशु शब्द को
छागशब्दोक्त पशुविशेष बकरे में पर्यवसान करना चाहिये ।
इस प्रकार सामान्य शब्दों को विशेषशब्दोक्त विशेष में पर्यवसान करके
दोनों शब्दों के द्वारा उस विशेष को वाच्य मानना
यही छागपशुन्याय कहलाता है ।

इस न्याय के अनुसार
सामान्यवाचक “सत्” “ब्रह्म” और “आत्मा” इत्यादि शब्दों का
नारायण शब्दोक्त विशेष में पर्यवसान कराकर श्रीमन्नारायण को जगत्कारण मूलतत्त्व मानना चाहिये ।

मूलम्

तथा च शाखान्तर

एको ह वै नारायण आसीन्
न ब्रह्म नेशानो नेमे द्यावपृथिवी न नक्षत्राणि

इति सद्ब्रह्मात्मादिपरमकारणवादिभिः शब्दैर् नारायण एवाभिधीयत इति निश्चीयते ।