विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् अपि चेद् एवं विरुद्धवद् दृश्यते
प्राणं मनसि सह करणैर्
+++(प्रणव-)+++नादान्ते परमात्मनि संप्रतिष्ठाय
ध्यायीतेशानं प्रध्यायितव्यंसर्वम् इदं, ब्रह्म-+++(अर्चा-विभवादि-रूपगत-)+++विष्णु-रुद्रेन्द्रास्
ते सर्वे संप्रसूयन्ते…
न कारणं +++([कारणानां धाता ध्याता])+++…
कारणं तु ध्येयः,
सर्वैश्वर्य-संपन्नः सर्वेश्वरः शंभुर् +++(हृदय-)+++आकाश-मध्ये ध्येयः
नीलमेघः - प्रस्तावः
[[२०२]]
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
वैदिक सिद्धान्त में श्रीमन्नारायण भगवान् ही
परब्रह्म परमात्मा और सर्वेश्वर माने जाते हैं
ये ही मुमुक्षुओं के ध्येय हैं तथा मोक्ष दाता एवं मुक्तों का अनुभाव्य हैं,
ब्रह्मादि देवगण अनीश्वर माने जाते हैं ।
यह है वैदिक सिद्धान्त
जो सभी वेदवचनों का समन्वय करने पर
फलित होता है ।
वेदों में ही
कहीं २ पर ऐसे वचन भी पाये जाते हैं
जो शिवजी को सर्वेश्वर एवं मुमुक्षुओं का ध्येय बतलाते हैं।
वहाँ पर यह सन्देह उपस्थित होता है कि
श्रीमन्नारायण भगवान् को परदेवता सर्वेश्वर परब्रह्म और परमात्मा माना जाय,
या शिवजी को माना जाय ।
इनमें किसी एक को ही वैसा मानना चाहिये
दोनों को नहीं मान सकते,
क्योंकि जगत् में दो ईश्वर नहीं हो सकते,
यह जगत् एक ईश्वर से शासित है ।
यह सर्वमान्य सिद्धान्त है ।+++(4)+++
ईश्वर सिद्धवस्तु है,
उसके विषय में विकल्प नहीं हो सकता ।
जिस प्रकार सिद्धवस्तु गौ के विषय में
यह विकल्प - कि चाहें यह गौ है,
चाहे यह अब हैनहीं होता,
उसी प्रकार सिद्धवस्तु ईश्वर के विषय में भी
विकल्प नहीं हो सकता ।
विकल्प कर्तव्य क्रियाओं में ही होता है,
क्रिया प्रयत्नसाध्य है ।+++(5)+++
उनके विषय में यह विकल्प - कि
चाहे इस काम को करो,
चाहे उस काम को करो - संगत होता है ।
ईश्वर इत्यादि सिद्धवस्तु प्रयत्नसाध्य पदार्थ नहीं,
वे पुरुष की इच्छा के अनुसार
विरुद्ध रूपों को अपना नहीं सकते ।
ईश्वर नारायण ही होंगे,
अथवा शिवजी ही होंगे।
इनमें विकल्प नहीं हो सकता ।
ऐसी स्थिति में
श्रीमन्नारायण भगवान् के
सर्वस्मात् परत्व का प्रतिपादन करने वाले वचन
तथा शिवजी को सबसे श्रेष्ठ सिद्ध करने वाले वचन
परस्पर विरुद्ध अर्थों का प्रतिपादक सिद्ध होते हैं,
इन उभयविध वचनों के प्रामाण्य की
कैसे रक्षा करनी चाहिये ।
यह प्रश्न उपस्थित होता है।
इस प्रश्न को उपस्थित करते हुये
पूर्वपक्षी कहते हैं कि
निम्नलिखित वेदवचन
शिवजी को परब्रह्म सिद्ध करते हैं।
वे वचन ये है ।
नीलमेघः - शिवोपासनाविधानम्
अथर्वशिखोपनिषद् में कहा गया है कि—
प्राणं मनसि सह करणैर् नादान्ते परमात्मनि संप्रतिष्ठाय ध्यायीतेशानं प्रध्यायितव्यं सर्वम् इदं, ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रास् ते सर्वे संप्रसूयन्ते, न कारणं, कारणं तु ध्येयः, सर्वैश्वर्यसंपन्नः सर्वेश्वरः शंभुर् आकाशमध्ये ध्येयः
अर्थात्
मन में लीन हुये इन्द्रियों के साथ
जीवात्मा को प्रणव की अर्धमात्रा के अवसान में परमात्मा में अच्छी तरह से प्रतिष्ठित करके
ईशान का ध्यान करना चाहिये ।
ईशान ही यहाँ ध्येयवस्तु है ।
यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मा विष्णु रुद्र और इन्द्र, वे सभी उत्पन्न होते हैं तथा [[२०३]] पञ्चमहाभूतों के साथ इन्द्रिय भी उत्पन्न होते हैं ।
धाता ब्रह्मा वैसे ही ध्यान करने वाला भी
कारणों का कारण नहीं है,
सबका कारण बनने वाले सर्वैश्वर्य सम्पन्न सर्वेश्वर शम्भु
हृदयाकाश मध्य में ध्यान करने योग्य हैं ।
यह उपर्युक्त श्रुतिवाक्य का अर्थ है ।
इस वाक्य में ईशान का ध्यान करने के लिये कहा गया है ।
ईशान शब्द शिवजी का वाचक है
एवं शम्भु का ध्यान करने के लिये कहा गया है ।
शम्भु शब्द भी शिवजी का ही वाचक है ।
इस उपनिषद् में आगे कहा गया है कि
यह ध्यान मोक्ष देने वाला है । ब्रह्मध्यान से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है
यह सर्वश्रुतिसंमत सिद्धान्त है ।
इससे फलित होता है कि
इस श्रुतिवाक्य में ईशान और शम्भु शब्द से जिस शिवजी को
ध्येय तत्त्व बताया गया है,
वे परब्रह्म हैं ।
इस प्रकार इस वचन से शिवजी
परब्रह्म सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
यद् अपि चेद् एवं विरुद्धवद् दृश्यते
प्राणं मनसि सह करणैर् नादान्ते परमात्मनि संप्रतिष्ठाय ध्यायीतेशानं प्रध्यायितव्यं सर्वम् इदं, ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रास् ते सर्वे संप्रसूयन्ते, न कारणं, कारणं तु ध्येयः, सर्वैश्वर्यसंपन्नः सर्वेश्वरः शंभुर् आकाशमध्ये ध्येयः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मात् परं नापरम् अस्ति किंचिद्
यस्मान् नाणीयो न ज्यायो ऽस्ति कश्चित्
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्य् एकस्
तेनेदं पूर्णं पुरुषेण+++(→नारायणेन)+++ सर्वम् …
नीलमेघः
(२) श्वेताश्वतरोपनिषद् का निम्नलिखित वचन
किसी एक तत्त्व को पुरुष अर्थात् नारायण से श्रेष्ठ सिद्ध करता है ।
इसलिये नारायण सर्वश्रेष्ठ तत्त्व नहीं है ।
यस्मात् परं नापरमस्ति किंचिद् यस्मान्नारणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥
अर्थात्
जिस पुरुष अर्थात् नारायण को छोड़कर
दूसरा कोई पदार्थ श्रेष्ठ नहीं होता,
जिस पुरुष से बढ़कर अत्यन्त सूक्ष्म कोई वस्तु नहीं है,
जिस पुरुष की अपेक्षा अधिक वृद्धि को प्राप्त हुआ कोई पदार्थ नहीं,
जो पुरुष द्युलोक में अर्थात् श्रीवैकुण्ठलोक में
वृक्ष के समान किसी के सामने न झुकते हुये विराजमान रहता है ।
उस पुरुष अर्थात् नारायण से सम्पूर्ण विश्व भरा है।
इस प्रकार इस मन्त्र में पुरुष अर्थात् नारायण की महिमा वर्णित हैं ।
मूलम्
यस्मात् परं नापरम् अस्ति किंचिद्
यस्मान् नाणीयो न ज्यायो ऽस्ति कश्चित्।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्य् एकस्
तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो यद् उत्तरतरं
तदरूपम् अनामयम् …
नीलमेघः
ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्
अगले मन्त्र का यह अर्थ है कि
उस पुरुष अर्थात् नारायण से जो अत्यन्त श्रेष्ठतत्व है,
वह रूपरहित एवं दोषरहित है,
मूलम्
ततो यदुत्तरतरं तदरूपम् अनामयम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
… य एतद् विदुर्
अमृतास् ते भवन्ति,
अथेतरे दुःखम् एवापियन्ति।
नीलमेघः
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति प्रथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥
इस तत्व को जो जानते हैं वे मुक्त होते हैं,
दूसरे लोग दुःख को प्राप्त होते हैं ।
इस मन्त्र में नारायण से भी श्रेष्ठ बनने वाले एक तत्त्व का वर्णन है ।
मूलम्
य एतद्विदुर् अमृतास् ते भवन्ति,
अथेतरे दुःखम् एवापियन्ति।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वानन-शिरो-ग्रीवः
सर्व-भूत-गुहाशयः ।
सर्व-व्यापी च भगवांस्
तस्मात् सर्व-गतः शिवः ।
नीलमेघः
सर्वाननशिरोग्रीवः
सर्वभूतगुहाशयः
सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः ॥
वह तत्त्व कौन है ?
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये
अगला मन्त्र प्रवृत्त है ।
उसका अर्थ यह है कि
वह शिवजी सब तरह के मुख शिर और कण्ठों से संबद्ध हैं,
सर्वप्राणियों की हृदयगुहा में विराजमान हैं,
वे सर्वव्यापक एवं पूर्णषाड्गुण्य वाले हैं, इसलिये सर्वव्यापक शिवजी हैं ।
यह मन्त्र नारायण से श्रेष्ठ बनने वाले तत्त्व को
शिवजी कहता है ।
इससे सिद्ध होता है कि
शिवजी ही परब्रह्म एवं परतत्त्व हैं,
नारायण नहीं ।
[[२०४]]
मूलम्
सर्वाननशिरोग्रीवः
सर्वभूतगुहाशयः ।
सर्वव्यापी च भगवांस्
तस्मात् सर्वगतः शिवः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तमस्+++(=मूलप्रकृतिः)+++ तन् न दिवा न रात्रिर्
न सन् +++(=मूर्त-प्रपञ्चम्)+++ न चासच्, छिव एव केवलः ।
तद् अक्षरं तत् सवितुर् वरेण्यं
प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ।
नीलमेघः
श्वेताश्वतरोपनिषद् में यह वचन उपलब्ध है कि-
(३) यदा तमस्तन्न दिवा न रात्रिर्
न सन्न चासच्छिव एव केवलः ।
तदक्षरं तत्सवितुर्वरेण्यं
प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥
अर्थात्
जब केवल अन्धकार अर्थात् मूलप्रकृति ही थी,
दिन और रात्रि नहीं थे,
सत् अर्थात् मूर्तप्रपञ्च और असत् अर्थात् अमूर्तप्रपञ्च भी न था उस समय केवल शिवजी ही थे ।
यह शिवजी नाशरहित हैं,
सूर्यमण्डल में रहने वाले रमणीय एवं भजनीय वस्तु ये ही हैं,
इनसे ही सृष्टिकाल में जीवों का
ज्ञानसरण सदा से होता आ रहा है ।
यह वचन अन्य पदार्थों का प्रलयकाल में नाश बतलाकर१
उस समय केवल शिवजी का ही सद्भाव बताता है ।
प्रलयकाल में ब्रह्म एक ही रहता है,
यह सर्वसंमत सिद्धान्त है ।
प्रलय-काल में सबका नाश होने पर भी
विराजने वाले शिवजी परब्रह्म सिद्ध होते हैं ।
इस प्रकार उपर्युक्त वचन शिवजी को परब्रह्म सिद्ध करते हैं ।
मूलम्
यदा तमस् तन् न दिवा न रात्रिर्
न सन् न चासच् छिव एव केवलः ।
तद् अक्षरं तत् सवितुर् वरेण्यं
प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
… इत्यादि
“नारायणः परं ब्रह्मे"ति च
पूर्वम् एव प्रतिपादितं,
तेनास्य कथम् अविरोधः ?
नीलमेघः
सिद्धान्त में नारायण परब्रह्म सिद्ध किये जाते हैं
श्रुतिवचनों के बल पर,
ये उभयविध श्रुतिवचन
परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं,
इनमें विरोध को दूर कर
किस प्रकार सामञ्जस्य स्थापित किया जाय ?
यह पूर्वपक्षी का प्रश्न है ।
मूलम्
… इत्यादि
“नारायणः परं ब्रह्मे"ति च
पूर्वम् एव प्रतिपादितं,
तेनास्य कथम् अविरोधः ।