बाह्य-कृदृष्टि-सादृश्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोधायन-टङ्क-द्रमिड–गुह-देव–कपर्दि-भारुचि-प्रभृत्य्-
अविगीत-शिष्ट-परिगृहीत–
पुरातन-वेद-वेदान्त-व्याख्यान-सुव्यक्तार्थ-
श्रुति-निकर-निदर्शितो ऽयं पन्थाः ।
नीलमेघः
[[१६७]]
इसके पूर्व श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह कहा है कि
शिष्टोँ के द्वारा आहत व्याख्याग्रन्थों के अनुसार प्राप्य स्वरूप का निष्कर्ष किया गया है ।
अब उपायस्वरूप का निष्कर्ष करने के बाद कहते हैं कि
यह निष्कर्ष भी शिष्ट पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के अनुसार किया गया है।
भगवान् बोधायनमहर्षि श्रीव्यासमहर्षि के शिष्य हैं,
इन्होंने श्रीव्यास जी के ब्रह्मसूत्रों पर वृत्तिनामक व्याख्या का निर्माण किया है,
भगवान् बोधायन टङ्कनामक ब्रह्मनन्दी स्वामी द्रमिडाचार्य गुहदेव कपर्दि भारुचि इत्यादि श्रद्धेय शिष्ट पूर्वाचार्यों ने
जिन वेदवेदान्तव्याख्यानों का निर्माण किया है,
तथा अपनाया है
उन व्याख्याग्रन्थों से
श्रुतिसमूह का अर्थ सुव्यक्त होता है ।
[[१६८]]
इस प्रकार उन व्याख्याग्रन्थों के अनुसार
सुव्यक्त अर्थों को बतलाने वाले श्रुतिवाक्यों के समूह से
उपर्युक्त उपायस्वरूप का
स्पष्ट निष्कर्ष प्राप्त होता है।
श्रुतिवाक्य इस प्रकार के उपायस्वरूप को ही प्रदर्शित करते हैं ।
मूलम्
बोधायनटङ्कद्रमिडगुहदेवकपर्दिभारुचिप्रभृत्यविगीतशिष्टपरिगृहीतपुरातनवेदवेदान्तव्याख्यानसुव्यक्तार्थश्रुतिनिकरनिदर्शितो ऽयं पन्थाः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेन
चार्वाक-शाक्य+
औलूक्य+++(=काणाद)++++अक्षपाद+++(=गौतम)+++-
क्षपणक-कपिल+++(→साङ्ख्य)+++-पतञ्जलि-मतानुसारिणो
वेद-बाह्या वेदावलम्बि–कु-दृष्टिभिः सह निरस्ताः ।
नीलमेघः
अबतक प्राप्यस्वरूप एवं उपायस्वरूप के विषय में जो निष्कर्ष किया गया है,
इसके विरुद्ध उपायस्वरूप एवं प्राप्यस्वरूप का वर्णन करने वाले वादी निरस्त हो जाते हैं
क्योंकि उनका वाद तर्क एवं श्रुति से विरुद्ध हैं ।
वे वादी दो प्रकार के हैं
(१) वेदबाह्य है, इनमें कई वेदों पर सर्वथा श्रद्धा नहीं रखते हैं,
अथवा अत्यल्प श्रद्धा रखते है ।
इनमें चार्वाक बौद्ध काणाद अक्षपाद जैन कपिल एवं पतञ्जलि के मत के अनुयायी अन्तर्भूत होते हैं ।
(२) दूसरे वादी कुदृष्टि है,
ये वेदों पर पूर्ण श्रद्धा रखते हुये भी
वेदों का मनमाना अर्थ करते हैं
क्योंकि इनका दृष्टिकोण दूषित हो गया है।
इनमें श्रीशंकराचार्य, श्रीभास्कराचार्य और श्रीयादवप्रकाशाचार्य
तथा इनके अनुयायियों का समावेश है ।
यद्यपि वेदबाह्यों से कुदृष्टि विद्वान् श्रेष्ठ हैं
क्योंकि ये वेदों पर अधिक श्रद्धा रखते हैं,
तथापि वेदों का स्वकपोल कल्पित अर्थ करने के कारण
परमफल से वञ्चित हो जाते हैं ।
मूलम्
अनेन चार्वाकशाक्यौलूक्याक्षपादक्षपणककपिलपतञ्जलिमतानुसारिणो वेदबाह्या वेदावलम्बिकुदृष्टिभिः सह निरस्ताः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदावलम्बिनाम् अपि
यथावस्थित-वस्तु-विपर्ययस्
तादृशां बाह्य-साम्यं मनुनैवोक्तम्
या वेद-बाह्याः स्मृतयो
याश् च काश् च +++(वेदावलम्बिन्योऽपि)+++ कु-दृष्टयः ।
सर्वस् ता निष्फलाः प्रेत्य +++(यद्य् अपि स्याद् ऐहिकं फलं)+++,
तमो-निष्ठा हि ताः स्मृताः ।
इति ।
नीलमेघः
अतएव मनुमहाराज ने इनकी वेदबाह्यों के साथ गणना करके
उनके समान बतलाया है,
ऐसा बतलाने का कारण यही है कि वेदावलम्बी होने पर भी इनकी बुद्धि तत्त्वहित और पुरुषार्थ के विषय में भ्रान्त हो गई है।
मनु का यह वचन प्रसिद्ध है कि
या वेद बाह्याः स्मृतयो
याश्च काश्च कुदृष्टयः ।
सर्वास्त निष्फलाः प्रेत्य
तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः ॥
अर्थात्
वेद को प्रमाण न मानने वालों के
जो वेदबाह्य स्मृतिग्रन्थ हैं,
तथा वेद को प्रमाण मानने वालों के जो कुत्सित दर्शन है,
ये सब मरणोपरान्त
कुछ भी फल न देंगे,
क्योंकि ये तमोगुण एवं रजोगुण के बल पर अवस्थित हैं ।
मूलम्
वेदावलम्बिनाम् अपि यथावस्थितवस्तुविपर्ययस् तादृशां बाह्यसाम्यं मनुनैवोक्तम्
या वेदबाह्याः स्मृतयो याश् च काश् च कुदृष्टयः ।
सर्वस् ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजस्-तमोभ्याम् अ-स्पृष्टम् उत्तमं सत्त्वम् एव
येषां स्वाभाविको गुणस्
तेषाम् एव वैदिकी रुचिर् वेदार्थ-याथात्म्यावबोधश् चेत्यर्थः ।
नीलमेघः
रज और तमोगुण से नहीं छुआ गया उत्तम सत्त्वगुण
जिन महानुभावों का स्वाभाविक गुण बन जाता है,
उनको वेदों में रुचि तथा यथार्थरूप से वेदार्थ का परिज्ञान होता है ।
मूलम्
रजस्तमोभ्याम् अस्पृष्टम् उत्तमं सत्त्वम् एव येषां स्वाभाविको गुणस् तेषाम् एव वैदिकी रुचिर् वेदार्थयाथात्म्यावबोधश् चेत्यर्थः ।
पुराण-विभागः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं मात्स्ये
संकीर्णाः सात्त्विकाश् चैव
राजसास् तामसास् तथा ।
इति ।
नीलमेघः
यह अर्थ मात्स्यपुराण के निम्नलिखित वचनों से भी सिद्ध होता है ।
संकीर्णाः साविकाश्चैव राजसास्तामसास्तथा ।
[[१६६]]
अर्थात्
ब्रह्माजी का प्रत्येक दिन एक २ कल्प कहलाता है ।
ये ब्रह्मकल्प नाना प्रकार के होते हैं ।
कई ब्रह्मकल्प संकीर्ण हैं जिनमें सत्त्व इत्यादि तीनों गुणों का संकर है ।
कई ब्रह्मकल्प सात्त्विक हैं, इनमें
सत्त्वगुण का आधिक्य है ।
कई ब्रह्मकल्प राजस हैं,
इनमें रजोगुण का प्राधान्य है ।
कई ब्रह्मकल्प तामस हैं इनमें तमोगुण का आधिक्य है ।
मूलम्
यथोक्तं मात्स्ये
संकीर्णाः सात्त्विकाश् चैव राजसास् तामसास् तथा ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिद् ब्रह्मकल्पाः संकीर्णाः
केचित् सत्त्वप्रायाः
केचिद् रजःप्राया
केचित् तमःप्राया
इति कल्पविभागम् उक्त्वा
सत्त्व-रजस्-तमोमयानां तत्त्वानां माहात्म्य-वर्णनं च
तत्-तत्-कल्प-प्रोक्त-पुराणेषु
सत्त्वादि-गुणमयेन ब्रह्मणा क्रियत
इति चोक्तम् …
नीलमेघः
यस्मिन् कल्पे तु यत् प्रोक्तं पुराणं ब्रह्मणा पुरा ।
तस्य तस्य तु माहात्म्यं तत्स्वरूपेण वर्ण्यते ॥
सात्त्विक राजस एवं तामस कल्पों में ब्रह्मा में सत्त्व इत्यादि गुण अधिक मात्रा में रहते हैं ।
उन २ कल्पों में सात्त्विक आदि रूपों को धारण करने वाले ब्रह्मा के मुख से
जो २ पुराण निकलते हैं,
वे भी उन २ कल्पों के अनुसार
सात्त्विक राजस और तामस बन जाते हैं ।
सात्त्विक कल्प में सात्त्विक ब्रह्मा के मुख से निर्गत
सात्त्विक पुराण में सात्त्विक देवता की महिमा का वर्णन है ।
ऐसे ही राजस एवं तामस कल्पों में
राजस एवं तामस बने हुये ब्रह्मा के मुख से निकले हुये पुराणों में
राजस एवं तामस देवता की महिमा का वर्णन है ।
मूलम्
केचिद् ब्रह्मकल्पाः संकीर्णाः केचित् सत्त्वप्रायाः केचिद् रजःप्राया केचित् तमःप्राया इति कल्पविभागम् उक्त्वा सत्त्वरजस्तमोमयानां तत्त्वानां माहात्म्यवर्णनं च तत्तत्कल्पप्रोक्तपुराणेषु सत्त्वादिगुणमयेन ब्रह्मणा क्रियत इति चोक्तम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् +++(गुण-विशिष्टे)+++ कल्पे तु यत् प्रोक्तं +++(→)+++
पुराणं ब्रह्मणा पुरा ।
तस्य तस्य +++(गुण-विशिष्टस्य)+++ तु माहात्म्यं
तत्-स्वरूपेण +++(ब्रह्मणा)+++ वर्ण्यते ।
इति ।
मूलम्
यस्मिन् कल्पे तु यत् प्रोक्तं पुराणं ब्रह्मणा पुरा ।
तस्य तस्य तु माहात्म्यं तत्स्वरूपेण वर्ण्यते ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशेषतश् चोक्तम्
अग्नेः शिवस्य माहात्म्यं
तामसेषु प्रकीर्त्यते ।
राजसेषु च माहात्म्यम्
अधिकं ब्रह्मणो विदुः ।सात्त्विकेषु च कल्पेषु
माहात्म्यम् अधिकं हरेः ।
तेष्व् एव योगसंसिद्धा
गमिष्यन्ति परां गतिम् ।संकीर्णेषु सरस्वत्याः
पितृणाम् (च निगद्यते) ।
इत्यादि ।
नीलमेघः
अग्नेः शिवस्य माहात्म्यं तामसेषु प्रकीर्त्यते ।
राजसेषु च माहात्म्यमधिकं ब्रह्मणो विदुः ॥
सात्त्विकेषु च कल्पेषु माहात्म्यमधिकं हरेः ।
तेष्वेव योगसंसिद्धा
गमिष्यन्ति परां गतिम् ।
संकीर्णेषु सरस्वत्याः
पितृणां च निगद्यते ॥
उसका विवरण इस प्रकार है कि
तामस कल्पों में निर्मित तामस पुराणों में
अग्नि और शिवजी की महिमा का वर्णन है ।
राजस कल्पों में निर्गत राजस पुराणों में
ब्रह्माजी के अधिक माहात्म्य का वर्णन है ।
सात्त्विक कल्पों में आविभूत सात्त्विक पुराणों में
श्रीहरि भगवान् के अधिक माहात्म्य का वर्णन है
इन कल्पों में ही योगसिद्ध पुरुष परागति को प्राप्त करेंगे ।
संकीर्ण कल्पों में ब्रह्माजी के मुख से निर्गत
संकीर्ण पुराणों में सरस्वती एवं पितरों की महिमा का वर्णन है।
ये सभी बातें मात्स्य पुराण में वर्णित है ।
मूलम्
विशेषतश् चोक्तम्
अग्नेः शिवस्य माहात्म्यं
तामसेषु प्रकीर्त्यते ।
राजसेषु च माहात्म्यम्
अधिकं ब्रह्मणो विदुः ।
सात्त्विकेषु च कल्पेषु
माहात्म्यम् अधिकं हरेः ।
तेष्व् एव योगसंसिद्धा
गमिष्यन्ति परां गतिम् ।
संकीर्णेषु सरस्वत्याः (पितृणाम्) … ।
इत्यादि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदुक्तं भवति -
आदि-क्षेत्र-ज्ञत्वाद् ब्रह्मणस्
तस्यापि केषुचिद् अहस्सु सत्त्वम् उद्रिक्तं
केषुचिद् रजः, केषुचित् तमः ।
नीलमेघः
मात्स्य पुराण वर्णित अर्थों का समर्थन इस प्रकार किया जा सकता है ।
ब्रह्माण्ड में सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले जीव
ब्रह्माजी हैं,
अतएव वे आदि क्षेत्रज्ञ कहलाते हैं ।
उनके कई दिनों में सत्त्वगुण
कई दिनों में रजोगुण
एवं कई दिनों में तमोगुण बढ़ जाता है,
मूलम्
एतदुक्तं भवति
आदिक्षेत्रज्ञत्वाद्ब्रह्मणस्तस्यापि केषुचिदहस्सु सत्त्वमुद्रिक्तं
केषुचिद्रजः, केषुचित्तमः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं भगवता
न तद् अस्ति पृथिव्यां वा
दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर् मुक्तं
यद् एभिः स्यात् त्रिभिर् गुणैः ।
इति ।
नीलमेघः
क्योंकि श्रीगीता में भगवान् ने कहा है कि-
न तदस्ति पृथिव्यां वा
दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं
यदेभिः स्यात् त्रिभिर्गुणैः ॥
अर्थात् भूलोक में मनुष्य आदि में
तथा द्युलोक में देवों में
यहाँ तक ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त सभी जीवों में
कोई भी जीव ऐसा नहीं है,
जो प्रकृति से होने इन सत्त्व रज और तमोगुण से रहित हो ।
भाव यह है कि
ब्रह्माण्ड में सभी जीव तीनों गुणों से युक्त ही रहते हैं ।
ब्रह्माजी भी इसका अपवाद नहीं ।
मूलम्
यथोक्तं भगवता
न तद् अस्ति पृथिव्यां वा
दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर् मुक्तं
यद् एभिः स्यात् त्रिभिर् गुणैः ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो ब्रह्माणं विदधति पूर्वं
यो वै वेदांश् च प्रहिणोति तस्मै
- इति श्रुतेः
ब्रह्मणो ऽपि सृज्यत्वेन शास्त्र-वश्यत्वेन च
क्षेत्र-ज्ञत्वं गम्यते ।
नीलमेघः
उपनिषद् में यह वर्णन है कि
“यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै”
अर्थात्
परमात्मा सर्वप्रथम ब्रह्माजी की सृष्टि करते हैं,
तथा उनको वेदों का उपदेश देते हैं ।
इस वचन से स्पष्ट हो जाता है कि
श्रीभगवान् के द्वारा ब्रह्माजी की सृष्टि हुई है,
तथा ब्रह्माजी वेद शास्त्र के वश में रहने वाले हैं,
अतएव उनको वेद का उपदेश दिया गया है।
इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्माजी भी एक जीव ही हैं।
मूलम्
यो ब्रह्माणं विदधति पूर्वं यो वै वेदांश् च प्रहिणोति तस्मा इति श्रुतेः
ब्रह्मणो ऽपि सृज्यत्वेन शास्त्रवश्यत्वेन च क्षेत्रज्ञत्वं गम्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वप्रायेष्व् अहस्सु, तद्-इतरेषु
यानि पुराणानि ब्रह्मणा प्रोक्तानि
तेषां परस्-पर-विरोधे सति
सात्त्विकाहः-प्रोक्तम् एव पुराणं यथार्थं
तद्-विरोध्य् अन्यद् अ-यथाऽर्थम्
इति पुराण-निर्णयायैवेदं सत्त्व-निष्ठेन ब्रह्मणाभिहितम्
इति विज्ञायत इति । +++(5)+++
नीलमेघः
ब्रह्माजी सात्त्विक दिनों में कई पुराणों का प्रवचन किया है,
तथा राजस एवं तामस दिनों में कई पुराणों का प्रवचन किया है
इन पुराणों में परस्पर विरोध उपस्थित होने पर यही निर्णय करना चाहिये कि
सात्त्विक पुराण ही यथार्थ हैं जो सात्त्विक दिनों में कहे गये हैं,
इनसे विरोध रखने वाले अन्य पुराण अयथार्थ हैं।
[[२००]]
ऐसे निर्णय दिलाने के लिये सात्त्विक ब्रह्माजी ने
मत्स्य पुराण में
उपर्युक्त अर्थों का वर्णन किया है ।
इन पुराण वचनों से यही निष्कर्ष निकलता है ।
मूलम्
सत्त्वप्रायेष्व् अहस्सु तदितरेषु यानि पुराणानि ब्रह्मणा प्रोक्तानि तेषां परस्परविरोधे सति सात्त्विकाहःप्रोक्तम् एव पुराणं यथार्थं तद्विरोध्यन्यद् अयथार्थम् इति पुराणनिर्णयायैवेदं सत्त्वनिष्ठेन ब्रह्मणाभिहितम् इति विज्ञायत इति ।
गुण-भेदतो ज्ञान-भेदः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वादीनां कार्यं च भगवतैवोक्तम् -
सत्त्वात् संजायते ज्ञानं
रजसो लोभ एव च ।
प्रमाद-मोहौ तमसो
भवतो ऽज्ञानम् एव च ॥
नीलमेघः
सत्त्व आदि गुण क्या २ कार्य करते हैं
इस बात को श्रीभगवान् ने श्रीगीता में
निम्नलिखित श्लोकों में कहा है कि-
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥
अर्थात् सत्त्वगुण से यथार्थज्ञान होता है ।
रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है ।
तमोगुण से अनवधान विपरीतज्ञान एवं ज्ञान का अभाव उत्पन्न होता है ।
मूलम्
सत्त्वादीनां कार्यं च भगवतैवोक्तम्
सत्त्वात् संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतो ऽज्ञानम् एव च ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति वुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
नीलमेघः
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति वुद्धिः सा पार्य सात्त्विकी ॥
जो बुद्धि अभ्युदयसाधन प्रवृत्तिधर्म को एवं मोक्षसाधन निवृत्तिधर्म को अच्छी तरह से जानती है ।
उन २ देशकाल और अवस्थाविशेष में
क्या करना चाहिये,
क्या न करना चाहिये,
इस बात का निर्णय जिस बुद्धि से होता है,
शास्त्र का उल्लङ्घन करना भय का स्थान है,
शास्त्र का अनुसरण करना अभय का हेतु है,
इस बात को जो बुद्धि जानती है,
तथा संसार के वास्तविक स्वरूप को
एवं मोक्ष के वास्तविक रूप को
जो बुद्धि अच्छी तरह से जानती है,
वही सात्त्विक बुद्धि है ।
मूलम्
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति वुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा धर्मम् अधर्मं च
कार्यं चाकार्यम् एव च ।
अयथावत् प्रजानाति
बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।
नीलमेघः
यया धर्ममधर्मं च
कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत् प्रजानाति
बुद्धिः सा पार्थं राजसी ॥
जिस बुद्धि से मनुष्य उपर्युक्त प्रवृत्तिधर्म एवं निवृत्तिधर्म को इनके विरुद्ध अधर्म को अच्छी तरह से नही जानता,
धार्मिक मनुष्यों को देशविशेष कालविशेष एवं अवस्था विशेष में क्या करना चाहिये क्या नहीं करना चाहिये,
इस मर्म को जो बुद्धि अच्छी तरह से नहीं जानती,
इन अर्थों को समझने में थोड़ी गलती करती है,
वह बुद्धि राजस बुद्धि है ।
मूलम्
यथा धर्मम् अधर्मं च
कार्यं चाकार्यम् एव च ।
अयथावत् प्रजानाति
बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मं धर्मम् इति या
मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान् विपरीतांश् च
बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।
इति ।
नीलमेघः
अधर्मं धर्ममिति या
मन्यते तमसाऽऽवृत्ता ।
सर्वार्थान् विपरीतांश्च
बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥
जो बुद्धि तमोगुण से आवृत्त होकर अधर्म को धर्म एवं सर्वार्थों को विपरीत समझती है, वह तामस बुद्धि है ।
नीलमेघः -
इन वचनों से यह फलित होता है कि
सत्त्वगुण की अभिवृद्धि के दिन में
ब्रह्माजी के द्वारा प्रवचन किये गये पुराण यथार्थ हैं रजोगुण की अभिवृद्धि के दिन में
वर्णित पुराण यथार्थ नहीं हैं,
तमोगुण की अभिवृद्धि के दिन में ब्रह्माजी के द्वारा वर्णित पुराण सर्वथा अयथार्थ हैं ।
मूलम्
अधर्मं धर्मम् इति या
मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान् विपरीतांश् च
बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।
इति ।
पौरुषेयता
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान् पुराणार्थान्
ब्रह्मणः सकाशाद् अधिगम्यैव
सर्वाणि पुराणानि पुराण-काराश् चक्रुः ।+++(5)+++
नीलमेघः
श्री ब्रह्माजी के यहाँ से सब पुराणार्थों को प्राप्त करके
पुराणकर्ता महर्षियों ने पुराणों का निर्माण किया है ।
मूलम्
सर्वान् पुराणार्थान् ब्रह्मणः सकाशाद् अधिगम्यैव सर्वाणि पुराणानि पुराणकाराश् चक्रुः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तम्
कथयामि यथा पूर्वं
दक्षाद्यैर् मुनिसत्तमैः ।
पृष्टः प्रोवाच भगवान्
अब्-ज-योनिः पितामहः ।
इति ।
नीलमेघः
विष्णुपुराण के आरम्भ में वर्णित प्रसंग से इस अर्थ की पुष्टि होती है वहाँ कहा गया है कि-
कथयामि यथापूर्वं दक्षाद्य मुनिसत्तमैः ।
पृष्टः प्रोवाच भगवानब्जयोनिः पितामहः ।।
[[२०१]]
अर्थात् पूर्वकाल में
दक्ष इत्यादि महर्षियों से पूछे जाने पर
श्रीभगवान् के नाभिकमल में उत्पन्न ब्रह्माजी ने जैसा कहा है,
वैसा ही मैं कहूँगा ।
इस वचन से सिद्ध होता है कि
ब्रह्माजी से पुराणार्थों को सुनकर ही
महर्षियों ने पुराणों का निर्माण किया है ।
इन पुराणों में परस्पर विरोध उपस्थित होने पर
सात्त्विक पुराण ही मान्य हो सकते हैं ।
मूलम्
यथोक्तम्
कथयामि यथा पूर्वं दक्षाद्यैर् मुनिसत्तमैः ।
पृष्टः प्रोवाच भगवान् अब्जयोनिः पितामहः ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपौरुषेयेषु वेद-वाक्येषु
परस्-पर-विरुद्धेषु कथम्
इति चेत् -
तात्पर्य-निश्चयाद् अविरोधः
पूर्वम् एवोक्तः ।
नीलमेघः
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि
पुराण पुरुष निर्मित ग्रन्थ हैं,
इनमें विरोध उपस्थित होने पर
सात्त्विक पुराण को यथार्थ और राजस तामस पुराणों को यथार्थ मानकर
विरोध को शान्त कर सकते हैं,
किन्तु परस्पर विरुद्ध अपौरुषेय वेदवाक्यों के विषय में
कैसे विरोध को शान्त करना चाहिये,
वहाँ किसी वेदवाक्य को यथार्थ तो नहीं कह सकते
क्योंकि सभी वेदवाक्य अपौरुषेय होने से
वक्ता के दोषों से रहित है,
उनमें परस्पर विरोध उपस्थित होने पर कैसी व्यवस्था देनी चाहिये ?
यह प्रश्न है ।
इसका उत्तर यह है कि परस्पर विरुद्ध के समान प्रतीत होने वाले वेदवाक्यों का तात्पर्यं
परस्पर विरुद्ध अर्थों के विषय में नहीं माना जायगा,
किन्तु परस्पर में विरोध न रखने वाले अर्थों में ही
उन वचनों का तात्पर्य माना जायगा ।
परस्पर अविरुद्ध अर्थों में तात्पर्य होने के कारण
वे वेदवाक्य अविरुद्ध हो जाते हैं ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने वेदवाक्यों के विषय में
निर्णय दिया है कि
जो वेदवाक्य परस्पर में विरोध नहीं रखते हैं,
उनके विषय में कुछ कहना नहीं,
वे पूरा प्रमाण हो जायेंगे ।
जो वेदवाक्य परस्पर विरुद्ध हैं
यदि वे कर्मों का वर्णन करते हों
तो उनके द्वारा प्रतिपादित विरुद्ध दोनों अर्थों में विकल्प माना जायगा,+++(5)+++
चाहे ऐसा करो,
चाहे वैसा करो
इस प्रकार स्वेच्छा से उन विरुद्ध दोनों कर्मों
किसी एक को अपनाने के लिये शास्त्र बतलाते हैं ।
अतः उनमें विरोध नहीं रहता ।
यदि विरुद्ध अर्थों को बतलाने वाले वेदवाक्य
कर्मों को न बतलाकर
वस्तु तत्त्व को बतलाते हों
तो वह विकल्प मानना कठिन होगा
क्योंकि वस्तु एक प्रकार की ही होगी,
वस्तु मनुष्य की इच्छा के अनुसार
विरुद्ध दो धर्मों को अपना नहीं सकती ।
ऐसी स्थिति में
जो वेदवाक्य विरुद्ध वस्तुओं को बतलाने वाले प्रतीत हों
उनके विषय में यही व्यवस्था देनी चाहिये कि
इन वेदवाक्यों को विरुद्ध अर्थों को बतलाने में तात्पर्य नहीं,
किन्तु अविरुद्ध अर्थों को बतलाने में ही तात्पर्य है,
ऐसा कहकर उन वेदवाक्यों का अविरुद्ध अर्थ करना चाहिये ।
इस प्रकार तत्त्व परक वेदवाक्यों का
अविरुद्ध अर्थ में तात्पर्य लगाकर
प्रामाण्य की रक्षा करनी चाहिये ।
मूलम्
अपौरुषेयेषु वेदवाक्येषु परस्परविरुद्धेषु कथम् इति चेत् -
तात्पर्यनिश्चयाद् अविरोधः पूर्वम् एवोक्तः ।