०४ भक्तिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्तिर् अपि
निरतिशय-प्रियानन्य-प्रयोजन-
स-कलेतर-वैतृष्ण्यावह-ज्ञान-विशेष एवेति । +++(5)+++

नीलमेघः

परा भक्ति से साधक को
मेरा साक्षात्कार प्राप्त होता है,
उस साक्षात्कार में सब कुछ विदित हो जाता है ।

स्वरूप और स्वभाव को लेकर
हम जो कुछ हैं,
गुण और विभूति को लेकर
हम जितने हैं,
यह अर्थ उसको
इस साक्षात्-कार में स्पष्ट विदित हो जाता है ।
इस साक्षात्कार को पर-ज्ञान कहते हैं ।

परज्ञान प्राप्त होने के बाद
साधक की भक्ति इतनी बढ़ जाती है कि
श्रीभगवान् को प्राप्त किये बिना रहा न जाय ।
इस भक्ति को परमभक्ति कहते हैं । इस परमभक्ति से साधक मुझमें प्रवेश अर्थात् मेरी प्राप्ति को हथिया लेता है ।

यह भक्ति वह ज्ञानविशेष है
जो अत्यन्त प्रिय लगता है,
जिसे छोड़कर
दूसरा प्रयोजन सूकता नहीं,
जो स्वयं-प्रयोजनभाव से होता रहता है
तथा जो अपने इतर समस्त पदार्थों में
वैराग्य को उत्पन्न करता है ।

मूलम्

भक्तिर् अपि निरतिशयप्रियानन्यप्रयोजनसकलेतरवैतृष्ण्यावहज्ञानविशेष एवेति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्-युक्त एव
तेन परेणात्मना वरणीयो भवतीति
तेन लभ्यत इति +++(“यमेवैष वृणुते” … ←)+++ श्रुत्य्-अर्थः ।

नीलमेघः

जिस प्रकार का भक्तिरूपापन्न साधन
जिस साधक के यहाँ होगा,
वही परमात्मा का वरणीय होता है
तथा वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है ।
यह उद्धृत श्रुतिवचन का अर्थ है ।

पराभक्ति से पूर्णरूप से
परब्रह्म का साक्षात्कार होता है,
यह साक्षात्कार परज्ञान कहलाता है ।

[[१६६]]
परज्ञान से परमभक्ति उत्पन्न होती है,
परमभक्ति में पहुँचने पर
परब्रह्म को प्राप्त किये विना
साधक से रहा नहीं जाता ।

मूलम्

तद्-युक्त एव तेन परेणात्मना वरणीयो भवतीति तेन लभ्यत इति श्रुत्यर्थः ।