विश्वास-प्रस्तुतिः
तम् एवं विद्वान् अमृत इह भवति
नान्यः पन्था अयनाय विद्यते ।
नीलमेघः
उपनिषदों में जहाँ तहाँ ब्रह्मज्ञान
मोक्ष का साधन कहा गया है वे वचन ये हैं कि-
(१) " तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था अयनाय विद्यते"
अर्थात्
उस परमात्मा को जानने वाला विद्वान्
इस संसार में मुक्त हो जाता है,
मोक्ष के लिये
ब्रह्मज्ञान के सिवाय
दूसरा कोई साधन है नहीं ।
मूलम्
तम् एवं विद्वान् अमृत इह भवति
नान्यः पन्था अयनाय विद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एनं विदुर्
अमृतास् ते भवन्ति ।
नीलमेघः
( २ ) " य एनं विदुरमृतास् ते भवन्ति"
अर्थात्
जो इस परमात्मा को जानते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं ।
मूलम्
य एनं विदुर् अमृतास् ते भवन्ति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मविद् आप्नोति परम् ।
नीलमेघः
(३) “ब्रह्मविदाप्नोति परम्”
अर्थात्
ब्रह्म को जानने वाला परब्रह्म को प्राप्त करता है ।
मूलम्
ब्रह्मविद् आप्नोति परम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो यो ह वै तत् परं वेद
ब्रह्म वेद
ब्रह्मैव भवति
+इत्यादि ।
नीलमेघः
(४) “स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद”
अर्थात्
जो इस परब्रह्म को जानता है ।
(५) “ब्रह्म वेद ब्रह्मव भवति” अर्थात् जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है अर्थात् परमसाम्य को प्राप्त होता है ।
मूलम्
सो यो ह वै तत् परं वेद
ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवतीत्यादि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदन-शब्देन ध्यानम् एवाभिहितम् -
“निदिध्यासितव्य” इत्यादिनैकार्थ्यात् ।
नीलमेघः
ऊपर उद्धृत वचनों से ज्ञान मोक्षसाधन प्रतीत होता है ।
परन्तु उस ज्ञान को ध्यानरूप समझना चाहिये
क्योंकि “निदिध्यासितव्यः” इत्यादि वचन
ध्यान को मोक्षसाधन बतला रहे हैं ।
ज्ञान सामान्य है,
ध्यान ज्ञानविशेष है,
सामान्य को विशेष में पर्यवसान करना चाहिये ।+++(5)+++
इन वचनों में सामरस्य लाना चाहिये
न कि विरोध ।
मूलम्
वेदनशब्देन ध्यानम् एवाभिहितम् - निदिध्यासितव्य इत्यादिनैकार्थ्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एव ध्यानं पुनर् अपि विशिनष्टि
नायम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुधा श्रुतेन ।
यम् एवैष वृणुते तेन लभ्यस्
तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्
इति ।
नीलमेघः
निम्नलिखित श्रुतिवचन उस ध्यान में एक विशेषाकार को बतलाता है ।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवं वृणुते तेन लभ्यस्
तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ।।
अर्थात्
यह परमात्मा उस मनन से भी लभ्य न होंगे
जो प्रवचन का कारण एवं कार्य है,
परमात्मा मेधा अर्थात् ध्यान से
तथा बहुत श्रवण करने से भी प्राप्त न होंगे,
परमात्मा जिसे चाहते हैं
उसे मिलते हैं,
उसको परमात्मा अपना स्वरूप प्रकाशित करते हैं ।
मूलम्
तद् एव ध्यानं पुनर् अपि विशिनष्टि
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुधा श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्
तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ति-रूपापन्नानुध्यानेनैव लभ्यते
न केवलं वेदना-मात्रेण -
“न मेधये"ति केवलस्य निषिद्धत्वात् ।
नीलमेघः
यद्यपि इस वचन में अन्यान्यश्रुतिविहित श्रवण मनन और निदिध्यासन का खण्डन सा प्रतीत होता है,
वास्तव में वैसी बात नहीं है ।
यह श्रुति प्रेम मिश्रित ध्यान को
मोक्षोपाय बताती है ।
प्रेममिश्रित ध्यान ही भक्ति है ।
जिन श्रवण मनन और निदिध्यासन का खण्डन
प्रतीत होता है,
वे सब प्रेम-रहित श्रवण मनन और निदिध्यासन हैं।
मूलम्
भक्तिरूपापन्नानुध्यानेनैव लभ्यते न केवलं वेदनामात्रेण न मेधयेति केवलस्य निषिद्धत्वात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् उक्तं भवति
यो ऽयं मुमुक्षुर् वेदान्त-विहित–वेदन-रूप–ध्यानादि-निष्ठो
यदा तस्य तस्मिन्न् एवानुध्याने
निरवधिकातिशया +++(भगवति)+++ प्रीतिर् जायते
तदैव तेन +++(प्रति-प्रीयमाणेन)+++ लभ्यते परः पुरुष +++(4)+++
इति ।
नीलमेघः
यह भाव इस श्रुति के उत्तरार्ध खुल जाता है ।
उत्तरार्ध में कहा गया है कि
जिसे परमात्मा चाहते हैं,
उसको परमात्मा मिलते हैं ।
यहाँ यह विचार उपस्थित होता है कि
परमात्मा किसे चाहते हैं ?
[[१६५]]
इस प्रश्न का उत्तर लोकानुभव के अनुसार से देना होगा ।
लोक में देखा जाता है कि
एक प्रेमी दूसरे प्रेमी को चाहता है ।
इससे सिद्ध होता है कि
परमात्मा उसको चाहते हैं,
जिस पर प्रेम करते हैं,
परमात्मा उस पर प्रेम करते हैं
जो परमात्मा पर प्रेम करता हो ।
इससे फलित होता है कि
परमात्मप्राप्ति को चाहने वालों को
परमात्मा पर प्रेम करना चाहिये ।
प्रेमपूर्वक किये जाने वाले श्रवण मनन और ध्यान से
परमात्मा प्राप्त हो सकते हैं,
विना प्रेम के किये जाने वाले श्रवण मनन और ध्यान से
परमात्मा को प्राप्त करना असंभव है ।
इस मन्त्र में श्रवण मनन और ध्यान का जो खण्डन किया गया है,
वह प्रेमरहित श्रवण मनन और ध्यान के विषय में है ।
शास्त्र में जो श्रवण मनन और ध्यान का विधान है
वह प्रेममिश्रित श्रवण मनन और ध्यान का है ।
इस प्रकार भाव को समझने पर
दोनों श्रुतियों में सामञ्जस्य हो जाता है ।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि
प्रेममिश्र ध्यान करना चाहिये ।
प्रेममिश्र ध्यान ही भक्तियोग है ।
भाव यह है कि
जो मुमुक्षु साधक
वेदान्तविहित ज्ञानरूपी ध्यान आदि करता रहता है,
यदि उसको इस ध्यान आदि में अपार प्रेम होता हो
तो उस ध्यान आदि से भगवान् मिल सकते हैं ।
मूलम्
एतद् उक्तं भवति
यो ऽयं मुमुक्षुर् वेदान्तविहितवेदनरूपध्यानादिनिष्ठो यदा तस्य तस्मिन्न् एवानुध्याने निरवधिकातिशया प्रीतिर् जायते तदैव तेन लभ्यते परः पुरुष
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं भगवता
पुरुषः स परः पार्थ
भक्त्या लभ्यस् त्व् अनन्यया ।
भक्त्या त्व् अनन्यया शक्यो
ऽहम् एवं-विधो ऽर्जुन ।
नीलमेघः
श्रीभगवान ने श्रीगीता में
इस अर्थ को कई बार कहा है ।
ये उनकी सूक्तियाँ हैं कि-
पुरुषः स परः पार्थ
भक्त्या लभ्यस् त्व् अनन्यया ।
भक्त्या त्व् अनन्यया शक्यो
ऽहम् एवं-विधो ऽर्जुन ।
अर्थात्
हे पार्थ !! वह परमपुरुष परमात्मा
अनन्य भक्ति से ही प्राप्त हो सकते हैं ।
मूलम्
यथोक्तं भगवता
पुरुषः स परः पार्थ
भक्त्या लभ्यस् त्व् अनन्यया ।
भक्त्या त्व् अनन्यया शक्यो
ऽहम् एवंविधो ऽर्जुन ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन
प्रवेष्टुं च परन्-तप ।
भक्त्या माम् अभिजानाति
यावान् यश् चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा
विशते तद्-अनन्तरम् ।
इति ।
नीलमेघः
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ।
भक्त्या मामभिजानाति
यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा
विशते तदनन्तरम् ।।
हे अर्जुन !! अनन्यभक्ति के द्वारा ही
इस प्रकार के हम शास्त्रों से जाने जा सकते हैं,
अच्छी तरह से यथार्थरूप से
मेरा साक्षात्कार भी
अनन्यभक्ति के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है ।
यथार्थरीति से मुझमें प्रवेश
अर्थात् मेरी प्राप्ति भी
अनन्यभक्ति के द्वारा ही सधती है ।
मूलम्
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन
प्रवेष्टुं च परन्तप ।
भक्त्या माम् अभिजानाति
यावान् यश् चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् । इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्-अनन्तरं
तत एव भक्तितो विशत इत्यर्थः ।
मूलम्
तदनन्तरं तत एव भक्तितो विशत इत्यर्थः ।