विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् उक्तं परमगुरुभिर् भगवद्-यामुनाचार्य-पादैः -
+++(ज्ञान-कर्म-)+++उभय-परिकर्मित–स्वान्तस्य
+ऐकान्तिकात्यन्तिक+++(←फलप्राप्ताव् अप्य् अच्छिन्ना)+++-भक्ति-योग-लभ्य
इति ।
ज्ञान-योग–कर्म-योग–संस्कृतान्तः-करणस्येत्य् अर्थः ।
नीलमेघः
[[१६३]]
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
उपायस्वरूप का वर्णन करके
इसके विषय में
प्रमाणवचनों को उपस्थापित करते हुये कहा है कि
परमगुरु श्रीभगवद्यामुनाचार्यपाद ने
सिद्धित्रय ग्रन्थ में
उपर्युक्त अर्थ का समर्थन इस प्रकार किया है कि-
“उभय-परिकर्मित-स्वान्तस्यैकान्तिकात्यन्तिक-भक्ति-योग-लभ्यः "
अर्थात् कर्मयोग एवं ज्ञानयोग करने से
साधक का मन शुद्ध हो जाता है ।
शुद्ध-मनस्-सम्पन्न साधक को
भक्तियोग करने का अधिकार मिलता है,
वह साधक इस प्रकार के भक्तियोग में
प्रवृत्त होता है
जो ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक है ।
ऐकान्तिक भक्तियोग वही है
जो श्रीभगवान के विषय में ही किया जाता है,
दूसरे किसी के विषय में नहीं।
आत्यन्तिक भक्तियोग वही है जो
फल प्राप्त होने पर भी नहीं मिटता है,
किन्तु फलानुभव के समय में भी बना रहता है ।+++(5)+++
मूलम्
तद् उक्तं परमगुरुभिर् भगवद्यामुनाचार्यपादैः उभयपरिकर्मितस्वान्तस्यैकान्तिकात्यन्तिकभक्तियोगलभ्य इति ।
ज्ञानयोगकर्मयोगसंस्कृतान्तःकरणस्येत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च श्रुतिः -
विद्यां चाविद्यां+++(→कर्म)+++ च
यस् तद् वेदोभ्यं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा
विद्यया +++(भक्ति-रूपया)+++ ऽमृतम् अश्नुते ।
इति।
नीलमेघः
इस प्रकार के भक्तियोग से श्रीभगवान् प्राप्त होते हैं ।
यह श्रीयामुनाचार्य जी की श्रीसूक्ति का भाव है ।
साधना में कर्म की आवश्यकता है,
यह अर्थ इस उपनिपद्वचन से सिद्ध होता है कि-
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
विद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥
अर्थात्
सदाचार्य से उपदेश प्राप्त करके
जो साधक ब्रह्मोपासनरूपी अंगी विद्या को
तथा उसका अंग कर्मरूपी अविद्या को -
परस्पर विरोध को दूर करके
दोनों को अंग और अंगी के रूप में अनुष्ठान करने योग्य समझता है,
वह विद्या का अंग बने हुये
निष्काम कर्म से
विद्योत्पत्ति के विरोधी प्राचीन कर्मरूपी मृत्यु को पार कर
प्राप्त हुई विद्या अर्थात् ब्रह्मोपासन से अमृत ब्रह्म को प्राप्त होता है ।
मूलम्
तथा च श्रुतिः -
विद्यां चाविद्यां च
यस् तद् वेदोभ्यं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा
विद्ययामृतम् अश्नुते ।
इति।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राविद्याशब्देन विद्येतरत्वाद् वर्णाश्रमाचारादि पूर्वोक्तं कर्मोच्यते
विद्या-शब्देन च भक्ति-रूपापन्नं ध्यानम् उच्यते ।
नीलमेघः
इस मन्त्र में
अविद्याशब्द से वर्णाश्रमधर्मादिकर्म विवक्षित हैं,
क्योंकि वे विद्या से भिन्न हैं ।
विद्याशब्द से
भक्तिरूप को प्राप्त हुआ ध्यान विवक्षित है ।
यही ब्रह्मोपासन कहलाता है। अविद्याशब्द कर्मवाचक है, इसमें निम्नलिखित वचन प्रमाण है ।
[[१६४]]
मूलम्
अत्राविद्याशब्देन विद्येतरत्वाद् वर्णाश्रमाचारादि पूर्वोक्तं कर्मोच्यते विद्याशब्देन च भक्तिरूपापन्नं ध्यानम् उच्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तम्
इयाज सो ऽपि सु-बहून्
यज्ञाञ् ज्ञान-व्यपाश्रयः ।
ब्रह्म-विद्याम् अधिष्ठाय
तर्तुं मृत्युम् अ-विद्यया ।
इति ।
नीलमेघः
इयाज सोऽपि सुबहून्
यज्ञान् ज्ञानव्यपाश्रयः ।
ब्रह्मविद्यामधिष्ठाय
तर्तुं मृत्युमविद्यया ॥
अर्थात्
शास्त्रजन्यज्ञान को प्राप्त हुआ
वह जनक ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने का उद्देश्य करके
उसके विरोधी प्राचीन अनन्त कर्मों को
अविद्या से अर्थात् विद्या का अंग बने हुये निष्कामकर्म से नष्ट करने के लिये
बहुत से यज्ञों को करता रहा।
इन वचनों से सिद्ध होता है कि
कर्म ब्रह्मविद्या का अंग होने से संग्राह्य है ।
मूलम्
यथोक्तम्
इयाज सो ऽपि सुबहून्
यज्ञाञ् ज्ञानव्यपाश्रयः ।
ब्रह्मविद्याम् अधिष्ठाय
तर्तुं मृत्युम् अविद्यया ।
इति ।