विश्वास-प्रस्तुतिः
सो ऽयं पर-ब्रह्म-भूतः पुरुषोत्तमो
निरतिशय-पुण्य-संचय–क्षीण-
-+अशेष-जन्मोपचित-पाप-राशेः …
नीलमेघः
“अत्रेदं सर्वशास्त्रहृदयम्" इत्यादि पंक्तियों में
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
उपाय स्वरूप का संक्षेप से वर्णन किया है ।
अब आगे विस्तार से वर्णन करते हुये
यह कहते हैं कि
निम्नलिखित प्रकार का अधिकारी
भक्ति से परमात्मा को प्राप्त कर सकता है ।
उसको ही परमात्मा मिल सकता है ।
वह अधिकारी कौन है ?
इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि
जो साधक निष्कामभाव से
अपार सुकृतों को करता रहता है
उनसे उसके अनेक जन्मों में किये गये पापों की राशि
नष्ट हो जाती है ।
मूलम्
सो ऽयं परब्रह्मभूतः पुरुषोत्तमो निरतिशयपुण्यसंचयक्षीणाशेषजन्मोपचितपापराशेः
विश्वास-प्रस्तुतिः
परम-पुरुष-चरणारविन्द-
शरणागति-जनित–
तद्-आभिमुख्यस्य …
नीलमेघः
उस साधक को संसार से विरक्ति
एवं श्रीभगवान् प्राप्त करने के लिये उत्कण्ठा होती है ।
वह मोक्षसाधन निर्विघ्न सम्पन्न होने के लिये
सर्वप्रथम श्रीभगवान् के चरणारविन्दों की शरण में चला जाता है ।
शरण में जाते ही
वह साधक श्रीभगवान् का अभिमुख हो जाता है ।
उसको श्रीभगवत्प्राप्ति ही
जीवन का ध्येय बन जाती है ।
मूलम्
परमपुरुषचरणारविन्दशरणागतिजनिततदाभिमुख्यस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्-आचार्योपदेशोपबृंहित-शास्त्राधिगत-
तत्त्व-याथात्म्यावबोध-पूर्वक-
+अहर्-अहर्-उपचीयमान–
शम-दम-तपः-शौच-क्षमार्जव–भयाभय-स्थान-विवेक–
दयाऽहिंसाद्य्-आत्म-गुणोपेतस्य …
नीलमेघः - सदाचार्य-कृपया तत्त्व-ज्ञानम्
वह सदाचार्य के शरण में जाकर
उनका उपदेश सुनता है।
सदाचार्य के उपदेश से अधीत एवं अनधीत
सब तरह के शास्त्रों का अर्थ
यथार्थरीति से हृदय में उतर जाते हैं ।
उसके मन में
किसी प्रकार का सन्देह अथवा भ्रम नहीं रहता ।
भ्रम दो प्रकार का होता है ।
(१) धर्म को विपरीत समझना एक भ्रम है ।
उदाहरण - कामल-रोगवाला पुरुष
शंख को पीला समझता है ।
वह धर्मी शंख को
शंख ही समझता है,
परन्तु धर्म को विपरीत समझता है,
श्वेत को पीत समझता है ।
यह भ्रम रजोगुण से होता है ।
(२) धर्मी को विपरीत समझना
दूसरा भ्रम है ।
उदाहरण
कोई रज्जु को सर्प
एवं शुक्ति को रजत समझता है ।
यहाँ धर्मी रज्जु और शुक्ति
विपरीत समझी जाती है ।
यह भ्रम तमोगुण के कारण होता है ।+++(4)+++
ऐसे भ्रम और सन्देह
उनके मन में स्थान नहीं पाते
जो सदाचार्य के उपदेश से
शास्त्रों के सूक्ष्मार्थं को
यथार्थरीति से समझकर
हृदयंगम कर लेते हैं।
नीलमेघः - आत्मगुणाविर्भावः
इस प्रकार
साधक जब सदाचार्य के उपदेश से
स्वस्वरूप और परस्वरूप इत्यादि अर्थी को
हृदयंगम कर लेता है
तब उसको
प्रतिदिन आत्मगुण अधिकाधिक विकसित होने लगते हैं ।
वे आत्म-गुण ये हैं
(१) “शम" - वह अन्तःकरण को [[१६१]] सदा वश में रखता है ।
(२) “दम " - वह ५ ज्ञानेन्द्रिय और ५ कर्मन्द्रियों को जीत लेता है ।
(३) “तप” वह कृच्छ्र और चान्द्रायण इत्यादि धर्मशास्त्रविहित तपस्या करता है ।
( ४ ) " शौच " - वह मन वाणी और शरीरं को शुद्ध रखता है ।
( ५ ) " क्षमा " - वह दुःख सहने की शक्ति रखता है ।
(६) “आर्जव " - वह सदा सीधा रहता है, कभी कुटिलता नहीं करता है ।
( ७ ) " भयस्थानविवेक” - वह यह समझता है कि किससे डरना चाहिये ।
श्रीभगवान् की आज्ञा का उल्लङ्घन करना और भागवदपचार इत्यादि भयस्थान हैं,
इनसे डरते रहना चाहिये ।
इस बात को वह खूब जानता है ।
(८ ) " अभयस्थानविवेक” -श्रीभगवान् रक्षक हैं
इस अध्यवसाय से अभय प्राप्त होता है ।
जो श्रीभगवान् के अनुग्रह का पात्र बन जाता है
वह अभय को प्राप्त करता है
इस बात को वह अच्छी तरह से समझता है ।
(६) “दया” - वह दूसरों के दुःख को देखकर
न सहता हुआ
निःस्वार्थ भाव से
दुःख को दूर करने के लिये उद्यत हो जाता है ।
(१०) “अहिंसा” - वह दूसरों के दुःख का कारण नहीं बनता ।
ऐसे २ बहुत से आत्मगुण उस साधक को उत्पन्न होते हैं
जो सदाचार्य के उपदेश से
सभी शास्त्रार्थों को विश्वासपूर्वक हृदयंगम कर लेता है ।
मूलम्
सदाचार्योपदेशोपबृंहितशास्त्राधिगततत्त्वयाथात्म्यावबोधपूर्वकाहरहरुपचीयमानशमदमतपःशौचक्षमार्जवभयाभयस्थानविवेकदयाहिंसाद्यात्मगुणोपेतस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णाश्रमोचित–परम-पुरुषाराधन-वेष-
नित्य-नैमित्तिक-कर्मोपसंहृति-
निषिद्ध-परिहार-निष्ठस्य …
नीलमेघः
वह शास्त्रनिषिद्ध कर्मों को त्याग देता है ।
वर्ण और आश्रम के अनुसार
नित्य और नैमित्तिक कर्मों को
श्रीभगवान् का आराधन समझकर
करता रहता है,
इनमें उसकी निष्ठा बढ़ती रहती है ।
मूलम्
वर्णाश्रमोचितपरमपुरुषाराधनवेषनित्यनैमित्तिककर्मोपसंहृतिनिषिद्धपरिहारनिष्ठस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
परम-पुरुष-चरणारविन्द-युगल-न्यस्तात्मात्मीयस्य …
नीलमेघः
वह श्रीभगवान् के चरणारविन्दों में
आत्मीय पदार्थों को समर्पित करता हुआ
श्रीभगवान् से यह निवेदन करता है कि
मैं और मेरे कहे जाने वाले पदार्थ
वास्तव में मेरे नहीं हैं,
ये सब आपके हैं, मैं भी आपका हूँ,
रक्षा से होने वाले फल के प्रधान भोक्ता आप ही हैं, मैं नहीं ।
मूलम्
परमपुरुषचरणारविन्दयुगलन्यस्तात्मात्मीयस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्-भक्ति-कारित–
+अनवरत-स्तुति-स्मृति–नमस्-कृति–
वन्दन-यतन-कीर्तन–गुण-श्रवण–
वचन-ध्यानार्चन-प्रणामादि–
प्रीत–परम-कारुणिक-पुरुषोत्तम–
प्रसाद-विध्वस्त–स्वान्त-ध्वान्तस्य …
नीलमेघः
इस साधक को
शास्त्रों से श्रीभगवत्तत्व आदि को समझते समय से लेकर
श्रीभगवान् के चरणारविन्दों में भक्ति बनी रहती है ।
साधनानुष्ठान बढ़ते २
वह भक्ति भी बढ़ती जाती है।
बढ़ने वाली श्रीभगवद्भक्ति से प्रेरित होकर
वह साधक श्रीभगवान् की स्तुति करता ही रहता है,
श्रीभगवान् का गुणानुवाद उसका स्वभाव बन जाता है,
वह श्रीभगवान् का स्मरण नमस्कार वन्दन करता ही रहता है।
श्रीभगवान् के लिये पुष्पोद्यान इत्यादि के निर्माणार्थ
उद्योग करने में उसको आनन्द मिलता है ।
श्रीभगवन्-नाम का कीर्तन,
श्रीभगवान् के कल्याणगुणों का श्रवण एवं प्रवचन
श्रीभगवान् का निरन्तर ध्यान, अर्चन और प्रणाम आदि करने में
वह अपने को कृतकृत्य एवं कृतार्थ समझता रहता है।
इस प्रकार भक्ति से प्रेरित होकर
साधनानुष्ठान करने वाले के प्रति
परमकारुणिक पुरुषोत्तम श्रीभगवान प्रसन्न हो जाते हैं ।
उनके अनुग्रह के प्रभाव से
इस साधक के मन में
अनादिकाल से रहने वाले
रजस्तमोगुणरूपी अन्धकार
सदा के लिये नष्ट हो जाता है।
मूलम्
तद्भक्तिकारितानवरतस्तुतिस्मृतिनमस्कृतिवन्दनयतनकीर्तनगुणश्रवणवचनध्यानार्चनप्रणामादिप्रीतपरमकारुणिकपुरुषोत्तमप्रसादविध्वस्तस्वान्तध्वान्तस्य…
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्य-प्रयोजन-+अनवरत-निरतिशय–
प्रिय-विशदतम-प्रत्यक्षतापन्नानुध्यान-रूप-भक्त्य्–एक-लभ्यः ।
नीलमेघः
मन की मलिनता दूर होने पर
उसका मन प्रेमप्रकाश से इस प्रकार भर जाता है
जिस प्रकार राहु से मुक्त चन्द्रमा प्रकाशान्वित होता है ।
वह साधक निर्मल मन से
श्रीभगवान् के दिव्यात्मस्वरूप का
निरन्तर अनुसन्धान करने लगता है
यह अनुसन्धान ही समाधि है,
यह ध्यान तक के योगांगों से सिद्ध होता है ।
दिव्यात्मस्वरूप की अनुसन्धानरूपिणी स्मरणधारा शुष्कस्मरणधारा नहीं है,
किन्तु प्रेमरस से आप्लुत है ।
यह स्मरणधारा
साधक को अत्यन्त प्रिय लगती है,
साधक इसे छोड़ना नहीं चाहता ।
श्रीभगवान् का आनन्दमय [[१६२]] दिव्यात्मस्वरूप
अत्यन्त प्रिय लगता है,
अतएव उसकी स्मरणधारा भी
अत्यन्त प्रिय लगती है ।
यह स्मरणधारा बढ़ते २
इतना विशद बन जाती है कि
प्रत्यक्ष के समानरूप को धारण कर लेती है।
ध्यान के बाद होने वाले
इस प्रेममिश्रित प्रत्यक्षसमानाकार वाली
विशदतम समाधिरूपिणी पराभक्ति के द्वारा ही
श्रीभगवान् प्राप्त होते हैं ।
समाधि प्राप्त करने तक
किये जाने वाले भगवदर्चन इत्यादि
अंग माने जाते हैं,
समाधिनिष्ठ पुरुष के द्वारा
समाधि से उठने के बाद किये जाने वाले अर्चन आदि भगवत्कर्म
अंगिकोटि में आ जाते हैं ।+++(5)+++
प्रेमी साधक
अत्यन्त प्रिय लगने के कारण
इस समाधि को उपाय न समझकर
स्वयं प्रयोजनबुद्धि से करता रहता है ।
उपर्युक्त साधना ही श्रीभगवत्प्राप्ति का उपाय है ।
मूलम्
अनन्यप्रयोजनानवरतनिरतिशयप्रियविशदतमप्रत्यक्षतापन्नानुध्यानरूपभक्त्येकलभ्यः ।