आक्षेपः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु च सर्वस्य जन्तोः
परमात्मा ऽन्तर्यामी
तन्-नियाम्यं च सर्वम् एवेत्य् उक्तम् ।
एवं च सति
विधि-निषेध-शास्त्राणाम्
अधिकारी न दृश्यते ।
नीलमेघः
[[१८७]]
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
सैद्धान्तिक अर्थों को लेकर उठने वाली
एक शंका का समाधान किया है।
शंका यह है कि
सिद्धान्त में कहा जाता है कि
परमात्मा सभी जीवों का अन्तर्यामी हैं ।
जीव उनका नियाम्य हैं
अर्थात् उनकी प्रेरणा के अनुसार
कार्य करने वाले हैं ।
इस सिद्धान्त को मानने पर
यह दोष उपस्थित होता है कि
विधि शास्त्र एवं निषेध शास्त्रों के लिये
अधिकारी प्राप्त न होंगे।
मूलम्
ननु च सर्वस्य जन्तोः परमात्मान्तर्यामी तन्नियाम्यं च सर्वम् एवेत्य् उक्तम् । एवं च सति विधिनिषेधशास्त्राणाम् अधिकारी न दृश्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स्व-बुद्ध्यैव प्रवृत्ति-निवृत्ति-शक्तः
स एवं कुर्यान्, न कुर्याद्
इति विधि-निषेध-योग्यः ।
न चैष दृश्यते ।
नीलमेघः
जो मनुष्य अपनी बुद्धि से प्रवृत्त हो सकता हो,
उसके प्रति “तुम ऐसा करो”
इस प्रकार का विधान लागू हो सकता है,
जो मनुष्य अपनी बुद्धि से किसी काम से निवृत्त होने की क्षमता रखता हो
उसके प्रति “तुम ऐसा मत करो”
इस प्रकार का निषेध लागू हो सकता है ।
यहाँ इस प्रकार का कोई मनुष्य है ही नहीं,
क्योंकि सभी जीव परमात्मा की प्रेरणा के अनुसार
कार्य करने वाले हैं।
नीलमेघः - निदर्शनम्
जिस प्रकार जलवाह में
बहने वाले मनुष्य के प्रति
“वह जाओ” इस प्रकार का विधान व्यर्थ हो जाता है
क्योंकि बहने वाले के प्रति इस प्रकार के विधान की आवश्यकता नहीं,+++(5)+++
इसी प्रकार ईश्वर की प्रेरणा के अनुसार
किसी सत्कर्म में प्रवृत्त हुये मनुष्य के प्रति
" सत्कर्म करो" इस प्रकार का विधान
व्यर्थ ही होगा
क्योंकि वह ईश्वर प्रेरणा से
उस सत्कर्म को करता रहता है,
वहाँ आज्ञा की क्या आवश्यकता है ।
जिस प्रकार जल के वेग से बहने वाले मनुष्य के प्रति
" मत बहो" इस प्रकार का निषेध व्यर्थ हो जाता है
क्योंकि जलवेग का परतन्त्र बना हुआ वह मनुष्य
इस निषेधाज्ञा का पालन करने में सर्वथा असमर्थ है
उसी प्रकार परमात्मा की प्रेरणा के अनुसार
किसी दुष्कर्म में प्रवृत्त मनुष्य के प्रति
" दुष्कर्म मत करो" इस प्रकार का निषेध भी
व्यर्थ हो जाता है
क्योंकि बलवान् ईश्वर की प्रेरणा का परतन्त्र बना हुआ जीव
इस निषेधाज्ञा का पालन करने में सर्वथा असमर्थ है ।
मूलम्
यः स्वबुद्ध्यैव प्रवृत्तिनिवृत्तिशक्तः स एवं कुर्यान् न कुर्याद् इति विधिनिषेधयोग्यः । न चैष दृश्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्मिन् प्रवृत्ति-जाते
सर्वस्य प्रेरकः परमात्मा कारयितेति
तस्य सर्व-नियमनं प्रतिपादितम् ।
नीलमेघः - निदर्शनम्
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि राजा का परतन्त्र होने पर भी
प्रजा राजा के विधि और निषेधों के पालने अधिकारी मानी जाती है,
वैसा प्रकृत में क्यों न माना जाय ? उत्तर यह है कि राजा की
प्रजा और ईश्वर की प्रजा में महान् अन्तर है,
वह यह है कि
राजा की प्रजा स्वयं प्रवृत्त होने की क्षमता रखती है,
स्वेच्छा से अपराध करती है,
उसका फलस्वरूप दण्ड भोगने में
उसे राजा का परतन्त्र बनना पड़ता है ।+++(5)+++
प्रकृत में तो सभी प्रवृत्तियों में ईश्वर प्रेरक है,
उनकी प्रेरणा के विना कुछ भी नहीं हो सकता है।
ईश्वर ही जीव से सब कार्य कराता है
सभी प्रवृत्तियों में ईश्वर प्रेरक माने जाते हैं ।
ईश्वर पुण्य पाप कर्म कराने वाले हैं
यह अर्थ श्रुतियों से प्रमाणित है ।
मूलम्
सर्वस्मिन् प्रवृत्तिजाते सर्वस्य प्रेरकः परमात्मा कारयितेति तस्य सर्वनियमनं प्रतिपादितम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च श्रूयते
एष एव साधु कर्म कारयति
ते यम् एभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषति ।
एष एवासाधु कर्म कारयति
तं यम् अधो निनीषतीति ।
नीलमेघः
वे श्रुतिवचन ये हैं कि-
[[१८८]]
एष एव साधु कर्म कारयति
ते यम् एभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषति ।
एष एवासाधु कर्म कारयति
तं यम् अधो निनीषतीति ।
अर्थात्
ये ईश्वर ही उस जीव से सत्कर्म कराते हैं
जिसे इन लोकों से उन्नत लोक में
ले जाना चाहते हैं ।
ये ईश्वर ही उस जीव से
पापकर्म कराते हैं
जिसे अधोगति में ले जाना चाहते हैं ।
इन वचनों से यही सिद्ध होता है कि
ईश्वर ही जीवों से
पुण्य पाप कराते हैं।
ऐसी स्थिति में
यह दोष होगा ही कि
स्वेच्छा से प्रवृत्त होने वाले तथा निवृत्त होने वाले अधिकारी
न मिलने के कारण
विधि निषेध शास्त्र व्यर्थ होंगे ।
मूलम्
तथा च श्रूयते एष एव साधु कर्म कारयति ते यम् एभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषति । एष एवासाधु कर्म कारयति तं यम् अधो निनीषतीति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध्व्–अ-साधु–कर्म-कारयितृत्वान् नैर्घृण्यं च ।
नीलमेघः
साथ ईश्वर में वैषम्य दोष और निर्दयत्व दोष भी होगा
क्योंकि ईश्वर किसी जीव से पुण्यकर्म
और किसी जीव से पापकर्म कराते हैं।
इससे उनमें वैपम्य दोष होगा ।
तथा जिससे पापकर्म कराकर अधोगति में पहुँचाते हैं,
उस जीव के प्रति निर्दय सिद्ध होंगे।
इन दोषों को कैसे दूर किया जाय ?
यह शंका है ।
मूलम्
साध्वसाधुकर्मकारयितृत्वान् नैर्घृण्यं च ।
परिहारः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रोच्यते -
सर्वेषाम् एव चेतनानां
चिच्-छक्ति-योगः +++(प्रथम-)+++प्रवृत्ति-शक्ति-योग इत्यादि
सर्वं प्रवृत्ति-निवृत्ति-परिकरं सामान्येन संविधाय
तन्-निर्वहणाय तद्-आधारो भूत्वा
ऽन्तः प्रविश्यानुमन्तृतया च नियमनं कुर्वञ्
शेषित्वेनावस्थितः परमात्मा
+एतद्-आहित-+++(सङ्कल्पानुवर्तन)+++शक्तिः सन्
+++(जीव-कृत-सङ्कल्पम् अनु तच्छैतिल्यं वारयन् द्वितीय-)+++प्रवृत्ति-निवृत्त्य्-आदि स्वयम् एव कुरुते ।+++(5)+++
नीलमेघः - शक्ति-निधानम्
इस शंका का समाधान करते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि-
ईश्वर सब जीवों को जानने,
इच्छा करने और प्रयत्न करने की शक्ति को
सदा से दे रक्खे हैं ।
जीवों को ज्ञान इच्छा और प्रयत्न करने की
क्षमता सदा बनी रहे।
ऐसी ईश्वर की नित्य इच्छा है ।
इसलिये जीवात्मा में
यह शक्ति सदा बनी रहती है ।
किंच, ईश्वर जीवों को प्रवृत्ति करने एवं निवृत्ति करने के लिये भी
शक्ति सदा से दे रक्खे हैं ।
साथ ही ईश्वर
जीवों को देह और इन्द्रिय आदि साधनों को भी दे रक्खे हैं ।
ये सभी साधन प्रवृत्ति और निवृत्ति का
साधारण कारण है ।
इनके बल से जीव
किसी कर्म में प्रवृत्त हो सकता है,
किसी कर्म से निवृत्त हो सकता है ।
इन सब साधनों को देकर
ईश्वर यही चाहते हैं कि
जीव जो चाहे सो करे ।
नीलमेघः - अनुमन्तृत्वम्
जीव स्वेच्छा से सब कार्य करे,
आवश्यकता होने पर सहायता भी की जाय ।+++(5)+++
अतएव ईश्वर
जीव को दिये गये साधनों को
सफल बनाने के लिये
जीव का आधार बनकर
जीव के अन्दर प्रविष्ट होकर
जीव को अनुमति देते हुये
जीव के ऊपर नियन्त्रण रखते हैं ।
इस प्रकार परमात्मा
कुछ हद तक नियमन करते हुये
जीव का आधार एवं स्वामी होकर रहते हैं ।
जीव इन साधनों को प्राप्त कर
स्वेच्छा से पुण्य अथवा पाप में प्रथमतः प्रवृत्त होता है,
उस प्रथम प्रवृत्ति के समय परमात्मा
उदासीन अर्थात् उपेक्षक होकर रहते हैं,
प्रथम प्रवृत्ति के फलस्वरूप
द्वितीय प्रवृत्ति में
ईश्वर अनुमति देकर
प्रवृत्ति में शिथिलता को दूर करके
उसे फल तक पहुँचा देते हैं,
यही ईश्वर का अनुमन्तृत्व है ।+++(5)+++
मूलम्
अत्रोच्यते सर्वेषाम् एव चेतनानां चिच्छक्तियोगः प्रवृत्तिशक्तियोग इत्यादि सर्वं प्रवृत्तिनिवृत्तिपरिकरं सामान्येन संविधाय तन्निर्वहणाय तदाधारो भूत्वाऽन्तः प्रविश्यानुमन्तृतया च नियमनं कुर्वञ् शेषित्वेनावस्थितः परमात्मैतदाहितशक्तिः सन्प्रवृत्तिनिवृत्त्यादि स्वयम् एव कुरुते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कुर्वाणम् ईक्षमाणः परमात्मोदासीन आस्ते ।+++(5)+++
मूलम्
एवं कुर्वाणम् ईक्षमाणः परमात्मोदासीन आस्ते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः सर्वम् उपपन्नम् ।
नीलमेघः - शास्त्रावय्यर्थ्यम्
सामान्य रूप से ईश्वर शास्त्रों के द्वारा
अहित से निवृत्त होने के लिये उपदेश दे रखे हैं ।
मानना न मानना जीवों की इच्छा पर निर्भर है।
जो जीव शास्त्रों से निषेधाज्ञा को समझ कर
पाप से निवृत्त होते हैं,
उनके विषय में निषेध शास्त्र सफल हो जाते हैं ।
जो जीव शास्त्रों के द्वारा सत्कर्म करने की आज्ञा को जानकर
सत्कर्म में प्रवृत्त होते हैं,
उनके विषय में विधि शास्त्र सफल हो जाते हैं।
भले उल्लङ्घन करने वाले जीवों के विषय में
विधि निषेध शास्त्र विफल हों,
किन्तु मानने वालों के विषय में सफल होते ।+++(5)+++
यदि किसी भी जीव के विषय में सफल न हों,
तभी उनमें वैय्यर्थ्य दोष लग सकता है ।
मूलम्
अतः सर्वम् उपपन्नम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध्व्–अ-साधु-कर्मणोः +++(बुद्धि-दानेन)+++ कारयितृत्वं तु +++(सज्जन-दुर्जन-विभागेन)+++ व्यवस्थित-विषयं,
न सर्व-साधारणम् ।
नीलमेघः
[[१८६]]
उपनिषदों में यह जो कहा गया है कि
परमात्मा जीवों से पुण्य पाप कर्म कराते हैं,
यह बात सब जीवों के विषय में न कही गई है,
किन्तु विशिष्ट व्यक्तियों के विषय में कही गई है ।
मूलम्
साध्वसाधुकर्मणोः कारयितृत्वं तु व्यवस्थितविषयं न सर्वसाधारणम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस् तु सर्वं स्वयम् एवातिमात्रम् आनुकूल्ये प्रवृत्तस्
तं प्रति प्रीतः
स्वयम् एव भगवान् कल्याण-बुद्धि-योग-दानं कुर्वन्
कल्याणे प्रवर्तयति । +++(5)+++
नीलमेघः
भाव यह है कि
जो व्यक्ति श्रीभगवान् के से अत्यन्त अनुकूल होकर रहता है,
सदा अनुकूल आचरण ही करता रहता है,
उसके अनुकूल आचरण प्रसन्न होकर
श्रीभगवान् तत्फल स्वरूप उसको आत्मकल्याण के मार्ग में प्रवृत्त होने के लिये
सुबुद्धि का प्रदान कर
उसे कल्याण कार्य में प्रेरित करते हैं ।
श्रीभगवान् के सत्कर्म कराने की जो बात उपनिषद् में कही गई है,
वह इन व्यक्तियों के विषय में कही गई है,
सर्वसाधारण के विषय में नहीं ।
मूलम्
यस्तु सर्वं स्वयमेवातिमात्रमानुकूल्ये प्रवृत्तस्तं प्रति प्रीतः
स्वयमेव भगवान्कल्याणबुद्धियोगदानं कुर्वन्कल्याणे प्रवर्तयति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पुनर् अतिमात्रं प्रातिकूल्ये प्रवृत्तस्
तस्य क्रूरां बुद्धिं ददन्
स्वयम् एव क्रूरेष्व् एव कर्मसु प्रेरयति भगवान् ।
नीलमेघः
जो व्यक्ति श्रीभगवान् के प्रति
अत्यन्त प्रतिकूल होकर रहता है,
सदा प्रतिकूल आचरण ही करता रहता है,
श्रीभगवान् उसके प्रतिकूल व्यवहार से अप्रसन्न होकर
उसके फलस्वरूप उसको क्रूर बुद्धि का प्रदान कर
उसे क्रूर कर्मों में प्रवृत्त करा देते हैं ।
इन व्यक्तियों के विषय में ही
श्रीभगवान् के द्वारा असत्कर्म कराने की बात
उपनिषद् में कही गई है ।
मूलम्
यः पुनर् अतिमात्रं प्रातिकूल्ये प्रवृत्तस् तस्य क्रूरां बुद्धिं ददन् स्वयम् एव क्रूरेष्व् एव कर्मसु प्रेरयति भगवान् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं भगवता
तेषां सतत-युक्तानां
भजतां प्रीति-पूर्वकम् ।
ददामि बुद्धि-योगं तं
येन माम् उपयान्ति ते । +++(5)+++
नीलमेघः
यह अर्थ श्रीगीता से प्रमाणित है ।
श्रीगीता में श्रीभगवान् अर्जुन से यह कहे हैं कि-
तेषां सततयुक्तानां
भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं
येन मामुपयान्ति ते ॥
अर्थात्
हमसे सदा मिलकर रहने की इच्छा रखने वाले
एवं मेरे भजन में रत महानुभावों को
हम परिपाक दशा में पहुँचे हुये
उस बुद्धियोग का प्रदान करते हैं,
जिससे वे हमें प्राप्त करते हैं ।
मूलम्
यथोक्तं भगवता
तेषां सततयुक्तानां
भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं
येन माम् उपयान्ति ते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषाम् एवानुकम्पार्थम्
अहम् अज्ञान-जं तमः ।
नाशयाम्य् आत्म-भाव-स्थो
ज्ञान-दीपेन भास्वता ।
नीलमेघः
तेषाम् एवानुकम्पार्थम्
अहम् अज्ञान-जं तमः ।
नाशयाम्य् आत्म-भाव-स्थो
ज्ञान-दीपेन भास्वता ।
हम उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिये
उनकी चित्तवृत्ति में अवस्थित होकर
अपने कल्याणगुणों का परिचय कराते हुये
मेरे विषय में होने वाले
ज्ञानरूपी देदीप्यमान दीप से
ज्ञानविरोधी प्राचीन कर्मरूपी अज्ञान से होने वाले विषयासक्ति रूप अन्धकार को नष्ट कर देते हैं ।
मूलम्
तेषाम् एवानुकम्पार्थम्
अहम् अज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्य् आत्मभावस्थो
ज्ञानदीपेन भास्वता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् अहं द्विषतः क्रूरान्
संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्य् अजस्रम् अ-शुभान्
आसुरीष्व् एव योनिषु ॥
इति ।
नीलमेघः
तान् अहं द्विषतः क्रूरान्
संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्य् अजस्रम् अ-शुभान्
आसुरीष्व् एव योनिषु ॥
हमसे द्वेष रखने वाले
अशुभ कर नराधमों को
संसार में योनियों में हम डाल देते हैं,
हम क्रूर बुद्धि देकर
क्रूर कार्य कराकर
आसुर योनियों में पहुँचा देते हैं ।
नीलमेघः - उपसंहारः
यहाँ आद्य दो श्लोकों में
अनुकूलों के प्रति श्रीभगवान् के द्वारा किये जाने वाले
अनुकूल व्यवहार का
तृतीय श्लोक में प्रतिकूलों के प्रति
श्रीभगवान् के द्वारा किये जाने वाले प्रतिकूल व्यवहार का वर्णन हैं।
इससे श्रीभगवान् की न्यायकारिता सिद्ध होती है ।
श्रीभगवान् न्यायकारी होते हुये
परमदयालु भी हैं,
क्योंकि प्राचीन अनेक जन्मों में
लगातार पाप करने वाले अपराधी जीव
यदि उन पापाचरणों से निवृत्त होकर
क्षमा याचना करते
तो श्रीभगवान् उनके अनन्त अपराधों को ख्याल न करके
उनका कल्याण करने के लिये
कृपया सोत्साह प्रवृत्त होते हैं ।
अस्तु । इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि
जीव श्रीभगवान् का परतन्त्र होता हुआ भी
किस प्रकार विधि निषेध शास्त्रों का अधिकारी बनता है ।
[[१६०]]
मूलम्
तान् अहं द्विषतः क्रूरान्
संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्य् अजस्रम् अशुभान्
आसुरीष्व् एव योनिषु ॥
इति ।