०४ सद्-विद्या दहर-विद्येव

विश्वास-प्रस्तुतिः

“तत् त्वम् असी"ति सद्-विद्यायाम्
उपास्यं ब्रह्म स-गुणं
स-गुण-ब्रह्म-प्राप्तिश् च फलम्
इत्य् अभियुक्तैः पूर्वाचार्यैर् व्याख्यातम् ।

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

अद्वैतियों ने
इससे पूर्व यह कहा था कि
ऐक्य-ज्ञान निर्गुण-ब्रह्म-रूपी परम-मोक्ष का साधन है,
भेदज्ञान सगुणब्रह्मप्राप्तिरूपी अर्वाचीन (निम्न कोटि के) मोक्ष का साधन है।
सद्-विद्या निर्गुण-ब्रह्म-विद्या है
क्योंकि उसमें “तत्त्वमसि” कहकर
जीव और ब्रह्म में ऐक्य का वर्णन है ।

नीलमेघः

इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि [[१८५]]
निर्गुण-ब्रह्म-विद्या और निर्गुण-ब्रह्म-भाव-रूपी मोक्ष
ये दोनों अर्थ अप्रमाणिक हैं,
केवल कल्पनाप्रसूत हैं ।

“तत्त्वमसि” वाक्य-घटित जिस सद्विद्या को अद्वैतियों ने निगुणब्रह्मविद्या कहा है
उस सद्-विया में उपास्य ब्रह्म सगुण है,
तथा उस विद्या का स-गुण-ब्रह्म-प्राप्ति फल है ।
इस प्रकार व्याख्या विद्वान् पूर्वाचार्यों ने की है ।

मूलम्

तत् त्वम् असीति सद्विद्यायाम् उपास्यं ब्रह्म सगुणं सगुणब्रह्मप्राप्तिश् च फलम् इत्य् अभियुक्तैः पूर्वाचार्यैर् व्याख्यातम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं वाक्य-कारेण +++(टङ्काचार्येण)+++
“युक्तं तद्-गुणकोपासनाद्” इति
+++(सर्वा ब्रह्मविद्याः सगुणोपासनपराः)+++।

नीलमेघः

वाक्यकार ने “युक्तं तद्गुणकोपासनात्” कहकर
इस अर्थ का प्रतिपादन किया है ।
इस वाक्य का यह अर्थ है कि
सभी मोक्षसाधन ब्रह्म-विद्याओं द्वारा प्राप्य-वस्तु गुण-युक्त ब्रह्म ही है क्योंकि गुण-युक्त ब्रह्म का उपासन ही
सभी ब्रह्म-विद्याओं में होता है ।

वाक्यकार के इस वाक्य से सिद्ध होता है कि
मोक्ष-फल देने वाली सभी ब्रह्मविद्यायें
सगुण ब्रह्म की उपासना हैं,
उनका फल भी सगुणब्रह्म की प्राप्ति है ।
इससे फलित होता है कि
निगुण-ब्रह्म-विद्या एवं निर्गुण-ब्रह्म-भाव-रूप मोक्ष प्रामाणिक हैं।

इस वाक्य-कार-वचन से
सभी ब्रह्मविद्याओं में विकल्प फलित होता है ।
जब सभी ब्रह्मविद्याओं के द्वारा मिलने वाला फल एक ही है,
क्योंकि उनसे स-गुण-ब्रह्म-प्राप्ति ही होती है,
तब इन विद्याओं में
किसी एक को अपनाना ही पर्याप्त होगा,
चाहे सद्विद्या को अपनावे,
चाहे दूसरी किसी विद्या को अपनावे
फल में कोई अन्तर नहीं होगा ।
इसी बात को विकल्प कहते हैं ।

मूलम्

यथोक्तं वाक्यकारेण युक्तं तद्गुणकोपासनाद् इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याख्यातं च द्रमिडाचार्येण विद्याविकल्पं वदता

यद्य् अपि सच्+++(→“तत्त्वमसि”)+++-चित्तो
न निर्भुग्न-दैवतं +++(दहर-विद्योक्त-)+++गुण-गणं मनसा ऽनुधावेत्
तथा ऽप्य् अन्तर्-गुणाम् एव देवतां भजत

इति तत्रापि स-गुणैव देवता प्राप्यत इति ।

नीलमेघः - स्वरूपानन्तता

द्रमिडाचार्य ने विद्याओं में विकल्प को सिद्ध करते हुये उपर्य्-उक्त-वाक्य-कार-वचन की इस प्रकार व्याख्या की है कि
सभी ब्रह्मविद्याओं में ब्रह्मस्वरूप का अनुसन्धान करना चाहिये ।
अनुसन्धान करते समय
ब्रह्म को सत्य ज्ञान अनन्त आनन्द और निर्मल समझ कर
उपासना करनी चाहिये ।
सत्यत्व ज्ञानत्व अनन्तत्व आनन्दत्व एवं अमलत्व
ये ब्रह्मधर्म सभी ब्रह्मविद्याओं में अनुसन्धान करने योग्य हैं ।
इनके अनुसन्धान के विना
ब्रह्म का आकलन करना ही कठिन है ।

अतएव ये ब्रह्म के स्वरूपनिरूपक धर्म माने जाते हैं ।
इनमें अनन्तत्व धर्म का यह तात्पर्य है कि
ब्रह्म दो प्रकार से अनन्त है,
(१) स्वरूप से और
(२) गुणों से ।

ब्रह्म देशकाल और वस्तुओं के द्वारा होने वाले परिच्छेदों से रहित है,
यही स्वरूपकृत अनन्तत्व है ।

नीलमेघः - गुण-कृतानन्तत्व

ब्रह्म अनन्त-कल्याण-गुणों से युक्त है,
यही गुणकृत अनन्तत्व है ।
ब्रह्म को अ–परिच्छिन्न एवं अनन्त-कल्याण-सम्पन्न समझना
यही अनन्तत्व का अनुसन्धान है ।

अनन्तत्व के अनुसन्धान में सामान्य रूप से
सर्वकल्याणगुणों का अनुसन्धान हो जाता है।
इनसे अतिरिक्त
प्रत्येक ब्रह्मविद्या में
विशेषरूप से कई गुणों का अनुसन्धान होता है ।

मूलम्

व्याख्यातं च द्रमिडाचार्येण विद्याविकल्पं वदता यद्य् अपि सच्चित्तो न निर्भुग्नदैवतं गुणगणं मनसानुधावेत् तथाप्य् अन्तर्गुणाम् एव देवतां भजत इति तत्रापि सगुणैव देवता प्राप्यत इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सच्-चित्तः = सद्-विद्या-निष्ठः ।

न निर्भुग्न-दैवतं गुण-गणं मनसा ऽनुधावेत्

= +++(दहर-विद्योक्त-)+++अपहत-पाप्मत्वादि-कल्याण-गुण-गणं दैवताद् विभक्तं
यद्य् अपि दहर-विद्या-निष्ठ इव
सच्-चितो न स्मरेत् ।

नीलमेघः

उदाहरण- प्रकृत सद्विद्या में
जगत्कारणत्व इत्यादि गुणों का अनुसन्धान होता है ।
इसी प्रकार ही प्रत्येक ब्रह्मविद्या में विभिन्न गुण अनुसन्धेय होते हैं । ये प्रत्येक ब्रह्मविद्या में
अनुसन्धेय असाधारणगुण हैं ।

सत्यत्व और ज्ञानत्व इत्यादि
सभी ब्रह्मविद्याओं में अनुसन्धेय साधारणगुण है ।

मूलम्

सच्चित्तः सद्विद्यानिष्ठः । न निर्भुग्नदैवतं गुणगणं मनसानुधावेत् अपहतपाप्मत्वादिकल्याणगुणगणं दैवताद् विभक्तं यद्य् अपि दहरविद्यानिष्ठ इव सच्चितो न स्मरेत् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ऽप्य् अन्तर्-गुणाम् एव देवतां भजते

= देवता–स्व-रूपानुबन्धित्वात् स-कल–कल्याण-गुण-गणस्य,

केनचित् पर-देवता-साधारणेन
+++(सद्-विद्योक्त-)+++निखिल-जगत्-कारणत्वादिना गुणेन
+उपास्यमाना ऽपि देवता

वस्तुतः +++(गुणगतानन्तत्व-कलनेन)+++ स्व-रूपानुबन्धि–
सर्व-कल्याण-गुण-गण–विशिष्टैवोपास्यते ।

नीलमेघः - स-गुण-ब्रह्म-प्राप्तिः

इस प्रकार सभी ब्रह्मविद्याओं में
किसी न किसी गुण से युक्त ब्रह्म ही
अनुसन्धेय होता है ।
सभी ब्रह्मविद्याओं का फल
सगुणब्रह्मप्राप्ति है
क्योंकि जिसकी उपासना होती है
वही प्राप्य होता है।
सभी ब्रह्मविद्याओं में
सगुण ब्रह्म की उपासना होने के कारण
सभी ब्रह्मविद्याओं का फल भी
सगुणब्रह्मप्राप्ति हो होती है ।

नीलमेघः - विकल्पोक्तिः

इस प्रकार
एक फल में पर्यवसान होने के कारण
सभी ब्रह्मविद्याओं में
विकल्प माना जाता है,
और कहा जाता है कि
साधक किसी एक ब्रह्मविद्या का अवलम्ब लेकर
उस फल को प्राप्त कर सकता है, [[१८६]]
साधक को अन्य ब्रह्मविद्याओं को अपनाने की आवश्यकता नहीं ।

इस प्रकार विद्याओं में विकल्प को सिद्ध करके
द्रमिडाचार्य ने
सद्विद्या और दहरविद्या में
थोड़ा अन्तर बतलाकर
उनमें भी विकल्प को सिद्ध किया है ।

नीलमेघः - असाधारण-गुण-भेदः

अन्तर यह है कि
सद्विद्या में जगत्-कारणत्वादि-गुणविशिष्ट ब्रह्म का अनुसन्धान होता है,
जगत्-कारणत्वादि गुणों का अलग अनुसन्धान नहीं होता ।
दहरविद्या में अपहतपाप्मत्वादि कल्याणगुणों का अलग भी अनुसन्धान होता है ।
यही इनमें अन्तर है ।

नीलमेघः - अनन्तत्वानुसन्धानम्

इतना अन्तर होने पर भी
सभी ब्रह्मविद्याओं में अनुसन्धेय अनन्तत्व-गुण का अनुसन्धान करते
अनन्त-कल्याण-गुण-विशिष्ट ब्रह्म का
अनुसन्धान सम्पन्न हो जाता है,
अतः अनन्त-कल्याण-गुणविशिष्ट ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है ।
सद्-विद्या में
अनन्तत्व-गुण का अनुसन्धान होते समय
अनन्त-गुण-विशिष्ट ब्रह्म का अनुसन्धान
सम्पन्न हो जाता है ।
इस प्रकार सामान्य रूप अनुसन्धान होने के कारण
अनन्त-गुण-विशिष्ट-ब्रह्मप्राप्ति में अन्तर नहीं होता।
इसलिये सद्विद्या और दहरविद्या में
विकल्प सम्पन्न हो जाता है ।

मूलम्

तथाप्य् अन्तर्गुणाम् एव देवतां भजते
देवतास्वरूपानुबन्धित्वात् सकलकल्याणगुणगणस्य केनचित् परदेवतासाधारणेन निखिलजगत्कारणत्वादिना गुणेनोपास्यमानापि देवता वस्तुतः स्वरूपानुबन्धिसर्वकल्याणगुणगणविशिष्टैवोपास्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः स-गुणम् एव ब्रह्म
तत्रापि प्राप्यम्

इति सद्-विद्या–दहर-विद्ययोर् विकल्प इत्य् अर्थः ।

नीलमेघः

इस प्रकार व्याख्या करके द्रमिडाचार्य ने
यह सिद्ध किया कि
सभी ब्रह्मविद्याओं में
यहाँ तक कि सद्विद्या में भी
सगुण ब्रह्म ही उपास्य एवं प्राप्य है ।
इन पूर्वाचार्यों के वचनों की अवहेलना करके
यह कैसे माना जा सकता है कि
सद्विद्या निर्गुण ब्रह्मविद्या है,
उसमें जीवब्रह्मैक्य का वर्णन है,
उसका फऱ निर्गुण ब्रह्मभाव है इत्यादि ।
ये सभी बातें
पूर्वाचार्य ग्रन्थ विरुद्ध होने से
अप्रामाणिक एवं अग्राह्य प्रतीत होती हैं ।

मूलम्

अतः सगुणम् एव ब्रह्म तत्रापि प्राप्यम् इति सद्विद्यादहरविद्ययोर् विकल्प इत्यर्थः ।