०३ ऐक्य-भेद-ज्ञानयोर् मोक्षोपायता

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु च

तत् त्वम् असि श्वेतकेतो

तस्य तावद् एव चिरम्+++(=विलम्बो [मोक्षे])+++
(यावन्न +++(शरीराद्)+++ विमोक्ष्ये, अथ +++([निर्गुणम् ब्रह्म])+++ संपत्स्ये)

इत्य्

ऐक्य-ज्ञानम् एव परम-पुरुषार्थ-लक्षण-मोक्ष-साधनम्

इति गम्यते ।

नीलमेघः

श्रीरामानुज स्वामी जी के द्वारा
यह कहे जाने पर
कि अद्वैत द्वैत और द्वैताद्वैत ये तीनों परस्पर अविरुद्ध रूप में उपनिषदों में वर्णित हैं
इसलिये हम उन्हीं रूपों में
उनका समर्थन करते हैं-

अद्वैतवादी कहते हैं कि
सद्विद्या में

“तत्त्वमसि श्वेतकेतो”

“तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये अथ संपत्स्ये”

ऐसा कहा गया है ।
इसका अर्थ यह है कि

“हे श्वेतकेतो !! तुम वह ब्रह्म हो”

“साधक का तब तक विलम्ब होता है
जब तक इस शरीर से नहीं छूटता है,
छूटते ही ब्रह्म बन जायगा ।

इस वाक्य से
यह विदित होता है कि
जीव और ब्रह्म में
अभेद समझने वाला मुक्त हो जाता है,
ऐक्यज्ञान ही परमपुरुषार्थ मोक्ष का साधन है।

निर्गुण [[१८२]] ब्रह्म बन जाना ही परमपुरुषार्थ है,
यही मोक्ष का उत्तम रूप है ।
उपासन इत्यादि सगुण ब्रह्मरूपी
निम्न कोटि के मोक्ष का साधन है
ऐक्यज्ञान ही परमपुरुषार्थ मोक्ष का साधन है ।
ऐक्यज्ञान मोक्ष का उपाय होने के कारण
श्रुतियों का अद्वैत में ही तात्पर्य होना चाहिये,
द्वैत में तात्पर्य हो नहीं सकता ।

यह अद्वैतियों का कथन है ।

मूलम्

ननु च

तत्त्वमसि श्वेतकेतो

तस्य तावदेव चिरम् इत्यैक्यज्ञानमेव परमपुरुषार्थलक्षणमोक्षसाधनमिति गम्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतद् एवम् ।

पृथग् आत्मानं प्रेरितारं च मत्वा
जुष्टस् ततस् तेनामृतत्वम् एति

इत्य् आत्मानं प्रेरितारं चान्तर्यामिणं पृथग् मत्वा
ततः पृथक्त्व-ज्ञानाद् +हेतोस्
तेन परमात्मना जुष्टो ऽमृतत्वम् एतीति
साक्षाद् अ-मृतत्व-प्राप्ति-साधनम्
आत्मनो नियन्तुश् च पृथग्-भाव-ज्ञानम् एवेत्य् अवगम्यते ।

नीलमेघः - मोक्ष-साधनत्वानुक्तिः

इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
सद्विद्या में “तत्त्वमसि " कहकर
जीव और ब्रह्म में ऐक्य का वर्णन है,
यह मोक्षसाधन कहने वाला स्पष्ट वचन है नहीं ।
किन्तु उसकी कल्पना करनी पड़ती है,
क्योंकि आगे मोक्षफल का वर्णन होने के कारण
उसे मोक्षसाधन कहना होगा ।

नीलमेघः

किन्तु स्पष्ट रूप से
भेदज्ञान को मोक्षसाधन सिद्ध करने वाला वचन
उपनिषद् में मिलता है,
उसके अनुसार
भेद-ज्ञान को मोक्ष-साधन मानना
अनिवार्य है ।
वह वचन यह है कि

“पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा
जुष्टस् ततस् तेनामृतत्वम् एति” ।

अर्थात्

जीवात्मा और प्रेरक अन्तर्यामी को भिन्न २ समझकर उस भेदज्ञान के कारण
परमात्मा की प्रीति अर्थात् अनुग्रह का विषय बनकर
साधक मोक्ष को प्राप्त करता है।

इससे सिद्ध होता है कि
जीवात्मा और उसके नियामक परमात्मा में भेद को समझना
यह भेदज्ञान ही
साक्षात् मोक्ष का साधन है ।

ऐक्यज्ञान का मोक्षोपायत्व कल्पनीय है,
भेदज्ञान का मोक्षोपायत्व कण्ठोक्त है ।
यह अन्तर ध्यान देने योग्य है ।

मूलम्

नैतदेवम्।

पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा
जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति

इत्यात्मानं प्रेरितारं चान्तर्यामिणं पृथग्मत्वा
ततः पृथक्त्वज्ञानाद्धेतोस्तेन परमात्मना जुष्टोऽमृतत्वमेतीति
साक्षादमृतत्वप्राप्तिसाधनमात्मनो नियन्तुश्च पृथग्भावज्ञानमेवेत्यवगम्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐक्य-वाक्य-विरोधाद्
एतद् अ-परमार्थ–स-गुण–ब्रह्म–प्राप्ति-विषयम्
इत्य् अभ्युपगन्तव्यम्

इति चेत्

+++(“पृथग् आत्मानं प्रेरितारं च मत्वा … अमृतत्वम् एती"त्यत्र)+++
पृथक्त्व-ज्ञानस्यैव
साक्षाद् अ-मृतत्व-प्राप्ति-साधनत्व-श्रवणाद्
विपरीतं कस्मान् न भवति? +++(5)+++

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

इस पर अद्वैतवादी कहते हैं कि किसी न किसी प्रकार -
कल्पना के द्वारा ही क्यों न हो—

ऐक्यज्ञान को मोक्षोपाय मानना ही होगा ।
भेद-ज्ञान को मोक्षोपाय कहने वाला वाक्य
उस वाक्य से - जो ऐक्यज्ञान को मोक्षोपाय सिद्ध करता है - विरुद्ध है ।
इसलिये भेदज्ञान को
मोक्षोपाय कहने वाले वाक्य का
यही भाव लेना चाहिये कि
यह वाक्य मिथ्याभूत भेद का वर्णन करता
उस भेदज्ञान का फल सगुणब्रह्मप्राप्ति है
जो निम्नकोटि की मुक्ति मानी जाती है
परममुक्ति तो ऐक्यज्ञान से ही
प्राप्त हो सकती है ।

यह अद्वैतियोँ का कथन हैं ।

नीलमेघः

इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
यह पहले ही कहा गया है कि
ऐक्यज्ञान के मोक्षोपायत्व की
कल्पना करनी पड़ती है ।
भेदज्ञान का मोक्षोपायत्व स्पष्ट कहा गया है ।
इनमें यह अन्तर है
जो ध्यान देने योग्य है ।
ऐसी स्थिति में
इनमें किसी का भी बाध न करके
इनमें समन्वय करके सिद्धान्त निकालना
उत्तम मार्ग है,
यही हमें अभिमत है ।
यदि इनमें किसी वाक्य को प्रबल मानकर
दूसरे वाक्य का गौण अर्थ करना अनिवार्य माना जाता
तब ऐसा ही क्यों न माना जाय कि
भेदज्ञान का मोक्षोपायत्व स्पष्ट कहा गया है,
अतः भेदज्ञान हो परममोक्ष का साधन है ।
भेदज्ञान को मोक्षोपाय बतलाने वाले वाक्य से
वह वाक्य - जो ऐक्यज्ञान को मोक्षोपाय सिद्ध करता है— विरोध रखता है
इसलिये यह वाक्य
मिथ्याभूत ऐक्य को लेकर प्रवृत्त है
इस ऐक्यज्ञान का फल गौणमोक्ष होगा।
इस प्रकार विपरीत व्यवस्था ही क्यों न दी जाय ।

मूलम्

ऐक्यवाक्यविरोधाद् एतदपरमार्थसगुणब्रह्मप्राप्तिविषयम् इत्य् अभ्युपगन्तव्यम् इति चेत् । पृथक्त्वज्ञानस्यैव साक्षादमृतत्वप्राप्तिसाधनत्वश्रवणाद् विपरीतं कस्मान् न भवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् उक्तं भवति -

द्वयोस् तुल्ययोर् विरोधे सत्य्
अविरोधेन तयोर् विषयो विवेचनीय

इति ।

नीलमेघः

हमारा अभिमत तो यही है कि
यहाँ किसी भी वाक्य का
गौण अर्थ न किया जाय ।
ऐक्यज्ञान को मोक्षोपाय सिद्ध करने वाला वचन,
तथा भेदज्ञान को मोक्षोपाय बतलाने वाला वाक्य
ये दोनों श्रुतिवचन हैं,
समान कोटि के हैं ।
इनमें विरोध उपस्थित होने पर
उस विरोध को शान्त करना चाहिये,
एक से दूसरे का बाध नहीं होने देना चाहिये
क्योंकि दोनों ही समान बल वाले होने के कारण
दोनों कटकर अप्रमाण बन जायेंगे।+++(5)+++

[[१८३]]

मूलम्

एतद् उक्तं भवति -
द्वयोस् तुल्ययोर् विरोधे सत्य्
अविरोधेन तयोर् विषयो विवेचनीय इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

“कथम् अविरोध” इति चेत् -

अन्तर्यामि-रूपेणावस्थितस्य परस्य ब्रह्मणः
शरीरतया प्रकारत्वाज् जीवात्मनस्,

तत्-प्रकारं ब्रह्मैव त्वम्

इति शब्देनाभिधीयते ।

नीलमेघः - भेदाविरोधेन तत्त्वमसि

इनके विरोध को शान्त करने का उपाय यही है कि
इनके प्रतिपाद्य विषयों का ऐसा विभाग किया जाय
जिससे उनमें विरोध न हो ।
यहाँ अविरुद्ध विषयव्यवस्था बन सकती है ।

वह इस प्रकार है कि
“तत्त्वमसि” इत्यादि अभेदपरक वाक्यों का
यह अर्थ बतलाने में तात्पर्य है कि
जीवात्मा अन्तर्यामी रूप से अवस्थित
परब्रह्म का शरीर होने के कारण
जीवात्मविशिष्ट ब्रह्म ही
त्वं शब्द से अभिहित होता है ।

मूलम्

“कथम् अविरोध” इति चेत् -
अन्तर्यामिरूपेणावस्थितस्य परस्य ब्रह्मणः शरीरतया प्रकारत्वाज् जीवात्मनस् तत्प्रकारं ब्रह्मैव त्वम् इति शब्देनाभिधीयते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव ज्ञातव्यम् इति
तस्य वाक्यस्य विषयः ।

नीलमेघः

इस प्रकार जीवविशिष्ट ब्रह्म
एवं जगत्कारण ब्रह्म में
अभेद समझना चाहिये।
यह “तत्त्वमसि " का प्रतिपाद्य विषय है ।

मूलम्

तथैव ज्ञातव्यम् इति
तस्य वाक्यस्य विषयः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंभूताज् जीवात्
तद्-आत्मतया ऽवस्थितस्य परमात्मनो
निखिल-दोष-रहिततया सत्य-संकल्पत्वाद्
अनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण-गुण-गणाकरत्वेन च
यः पृथग्-भावः
सो ऽनुसंधेय

इत्य् अस्य वाक्यस्य विषय
इत्य् अयम् अर्थः
पूर्वम् अ-सकृद् उक्तः ।

नीलमेघः

“पृथगात्मानम्” इत्यादि वाक्यों का यह प्रतिपाद्य विषय है कि
परब्रह्म का शरीर बनकर रहने वाले जीव से
उसका भी अन्तरात्मा बनकर रहने वाले परमात्मा
अत्यन्त विलक्षण हैं
क्योंकि वे नित्यनिर्दोष हैं,
तथा उत्कर्ष की चरमसीमा में पहुँचे हुये
सत्यसंकल्पत्व इत्यादि असंख्य कल्याणगुणों के निधि हैं,
जीवात्मा ऐसा नहीं है ।

इस प्रकार शरीर बने हुये जीवात्मा
एवं अन्तरात्मा बने हुये परमात्मा में
भेद समझना चाहिये।
यह “पृथगात्मानम्” इत्यादि श्रुतिवचन का
प्रतिपाद्य विषय है ।
यह अर्थ पहले कई बार कहा गया है।

नीलमेघः - उपसंहारः

इस प्रकार तात्पर्य मानने पर
इन श्रुतिवचनों के प्रतिपाद्य अर्थ
परस्पर विरोध न रखने के कारण
समन्वित हो जाते हैं।
इस प्रकार अविरुद्ध अर्थ करके
श्रुतिवचनों में विरोध को शान्त करना चाहिये ।
यही बुद्धिमानों द्वारा आहत पद्धति है ।

इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
अद्वैतियों के इस वाद का
कि श्रुतिवचनों का अभेद में ही तात्पर्य है, भेद में नहीं -
खण्डन कर दोनों में ही तात्पर्य को सिद्ध किया है ।

मूलम्

एवंभूताज् जीवात् तदात्मतयावस्थितस्य परमात्मनो निखिलदोषरहिततया सत्यसंकल्पत्वाद् अनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणाकरत्वेन च यः पृथग्भावः सो ऽनुसंधेय इत्य् अस्य वाक्यस्य विषय इत्य् अयम् अर्थः पूर्वम् असकृदुक्तः ।

भोक्ता भोग्यम् …

विश्वास-प्रस्तुतिः

“भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा”
+++(सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्मम् एतत्)+++

इति
भोग्य-रूपस्य वस्तुनो ऽचेतनत्वं, परमार्थत्वं,
सततं विकारास्पदत्वम्
इत्य्-आदयः स्व-भावाः,

नीलमेघः

आगे द्वैताद्वैत-वादियों ने
यह कहना चाहा कि

“भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा
सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्मम् एतत्”

इस श्रुति से
ब्रह्म-भोक्ता जीव, भोग्य जडपदार्थ और प्रेरक ईश्वर के रूप में
त्रिविध सिद्ध होता है
इससे भेदाभेद फलित होता है ।
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
इस श्रुति से ब्रह्म की तीन रूप से स्थिति बतलाई गई है।
वे तीन रूप ये हैं कि
(१) भोग्य जडपदार्थ का अन्तर्यामी बनकर रहना
(२) भोक्ता जीव का अन्तर्यानी होकर रहना तथा
(३) अपने स्वरूप से रहना ।

[[१८४]]

ब्रह्म का शरीर बने हुये
भोग्य जडपदार्थ का ये स्वभाव है कि
वह अचेतन होकर ही रहता है,
वह सत्य है
तथा दूसरों के लिये अर्थात् जीव एवं ईश्वर के लिये बना रहता है ।
सदा विकारों को प्राप्त करता रहता है ।
यह अचेतन भोग्य जडपदार्थ का स्वभाव है ।

मूलम्

भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वेति भोग्यरूपस्य वस्तुनो ऽचेतनत्वं परमार्थत्वं सततं विकारास्पदत्वम् इत्यादयः स्वभावाः,

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोक्तुर् जीवात्मनश् च
+अमलापरिच्छिन्न-ज्ञानानन्द–स्व-भावस्यैव
+अनादि-कर्म-रूपाविद्या-कृत–
नाना-विध-ज्ञान-संकोच-विकासौ +++(5)+++ भोग्य-भूताचिद्-वस्तु-संसर्गश् च
परमात्मोपासनान् मोक्षश्
चेत्य्-आदयः स्वभावाः,

नीलमेघः

भोक्ता जीवात्मा का ये स्वभाव है कि
वह निर्मल अपरिच्छिन्न ज्ञानानन्दस्वरूप होता हुआ भी
कर्मरूप अविद्या के कारण
ज्ञान में नानाविध संकोच और विकास को प्राप्त करता रहता है ।
जीवात्मा भोग्य जडपदार्थ से संबद्ध रहता है ।
परमात्मा के उपासन से
वह मोक्ष को प्राप्त करता है ।
ये सब जीवात्मा का स्वभाव हैं ।

मूलम्

भोक्तुर् जीवात्मनश् चामलापरिच्छिन्नज्ञानानन्दस्वभावस्यैवानादिकर्मरूपाविद्याकृतनानाविधज्ञानसंकोचविकासौ भोग्यभूताचिद्वस्तुसंसर्गश्च परमात्मोपासनान्मोक्षश्चेत्यादयः स्वभावाः,

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं-भूत–भोक्तृ-भोग्ययोर् अन्तर्यामि-रूपेणावस्थानं,
स्व-रूपेण चापरिमित-गुणौघाश्रयत्वेनावस्थानम्
इति परस्य ब्रह्मणस् त्रि-विधावस्थानं ज्ञातव्यम् इत्यर्थः ॥

नीलमेघः

परमात्मा तीन रूप से अवस्थित है ।
(१) भोग्य जढ-पदार्थ का अन्तर्यामी बनकर रहता है,
(२) भोक्ता जीव का अन्तर्यामी होकर रहता है
(३) स्वरूप से अपरिमित कल्याणगुणगणों का आश्रय बनकर रहता है ।

इस प्रकार परब्रह्म का जो त्रिविध अवस्थान है
वह ज्ञातव्य है ।
यह उदाहृत श्रुति का भावार्थ है ।

यह श्रुति भेदाभेद को नहीं बतलाती है । परन्तु ब्रह्म की विविध स्थिति का वर्णन करती है ।
इस प्रकार विवेचना करके
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
भेदाभेद वादियों के इस कथन का —
कि भेदाभेदज्ञान मोक्षोपाय होने के कारण
उसमें श्रुति का तात्पर्य होना चाहिये -
खण्डन किया है ।

मूलम्

एवंभूतभोक्तृभोग्ययोरन्तर्यामिरूपेणावस्थानं स्वरूपेण चापरिमितगुणौघाश्रयत्वेनावस्थानमिति परस्य ब्रह्मणस्त्रिविधावस्थानं ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥