विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं च सत्य्
अभेदो वा भेदो वा द्व्य्-आत्मकता वा
वेदान्तवेद्यः को ऽयम् अर्थः
समर्थितो भवति ।
नीलमेघः
यहाँ पर पूर्वपक्षी यह पूर्वपक्ष करते हैं
कि सर्वश्रुतियों का समन्वय करने पर
अद्वैत द्वैत और द्वैताद्वैत में
कौन श्रुतिसंमत होता है।
आप किसका समर्थन करते हैं ?
मूलम्
एवं च सत्य् अभेदो वा भेदो वा द्व्यात्मकता वा वेदान्तवेद्यः को ऽयम् अर्थः समर्थितो भवति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्य वेद-वेद्यत्वात्
सर्वं समर्थितम् ।
नीलमेघः
इस पूर्वपक्ष का समाधान करते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
इतर-सिद्धान्तियों के द्वारा वर्णित अद्वैत और द्वैताद्वैत
भेद-श्रुतियों से विरोध रखते हैं,
अतएव अमान्य हैं।
भेद-श्रुतियों से विरोध न रखने वाले
अभेद एवं भेदाभेद मान्य हैं ।+++(4)+++
श्रुतियों से भेद, अभेद और भेदाभेद प्रतिपादित होते हैं
उनमें विरोध न डालकर
समन्वय करने पर
उनका जो स्वरूप सिद्ध होता है,
वही वेदवेद्य है।
इसलिये परस्पराविरुद्ध रूपों में
वेदों के द्वारा वर्णित
अभेद, भेद और भेदाभेद का
हम समर्थन करते हैं ।
मूलम्
सर्वस्य वेदवेद्यत्वात् सर्वं समर्थितम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व-शरीरतया सर्वप्-रकारं ब्रह्मैवावस्थितम्
इत्य् अ-भेदः समर्थितः ।
नीलमेघः
अब प्रश्न होता है कि
क्या इनको अविरुद्ध रूप दिया जा सकता है ?
उत्तर यह है कि
अवश्य दिया जा सकता है।
वह रूप यह है कि
एक ही ब्रह्म सभी चेतनाचेतन पदार्थों [[१८१]] को शरीर बनाकर
उनसे विशिष्ट होकर अन्तर्यामी के रूप में सर्वत्र विद्यमान है,
वैसा दूसरा कोई पदार्थ नहीं है
इस प्रकार अद्वैत का समर्थन हो जाता है ।
मूलम्
सर्वशरीरतया सर्वप्रकारं ब्रह्मैवावस्थितम् इत्य् अभेदः समर्थितः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकम् एव ब्रह्म
नाना-भूत–चिद्–अ-चिद्–वस्तु-प्रकारं नानात्वेनावस्थितम्
इति भेदाभेदौ ।
नीलमेघः
वह परब्रह्म
एक होता हुआ
अनेक चिदचिद्वस्तुरूपी विशेषण से युक्त होकर
विभिन्न रूपों में अवस्थित है
इस प्रकार भेदाभेदों का समर्थन हो जाता है ।
मूलम्
एकम् एव ब्रह्म नानाभूतचिदचिद्वस्तुप्रकारं नानात्वेनावस्थितम् इति भेदाभेदौ ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अ-चिद्-वस्तुनश् चिद्-वस्तुनश् चेश्वरस्य च
स्व-रूप–स्व-भाव–वैलक्षण्याद्
अ-संकराच् च
भेदः समर्थितः ।
नीलमेघः
अचेतन पदार्थ, चेतनपदार्थ और ईश्वर में भेद है ।
यह स्वरूपभेद शाश्वत है ।
इस प्रकार भेद का समर्थन हो जाता है ।
परवादियों के द्वारा वर्णित अभेद और भेदाभेद,
भेदश्रुतियों से विरुद्ध होने के कारण अमान्य हैं ।
इस प्रकार समन्वय करके
अद्वैतद्वैत और द्वैताद्वैत को
वैदिक रूप दिया जा सकता है।
किसी एक से पक्षपात करना उचित नहीं ।
मूलम्
अचिद्वस्तुनश् चिद्वस्तुनश् चेश्वरस्य च स्वरूपस्वभाववैलक्षण्याद् असंकराच् च भेदः समर्थितः ।