विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एतन् नाना-विधानन्त-श्रुति-निकर–
शिष्ट-परिगृहीत-तद्-व्याख्यान-परिश्रमाद् अवधारितम् ।
नीलमेघः
[[१७६]]
आगे भी अनेक श्रुतियाँ हैं
जो अध्ययन पथ से दूर हो गई हैं
ऐसी अनेक शाखायें हैं
जिनका आजकल अध्ययन नहीं हो रहा है ।
उन सब श्रुतियों में प्रतिपादित अर्थों को
इतिहास और पुराणों के द्वारा ही जान सकते हैं ।
इन श्रुतियों की व्याख्यायें भी अनेक हैं,
उन सब में
निरन्तर परिश्रम करके
सब वचनों का समन्वय करने में ध्यान रखकर
मनन करने पर
उपर्युक्त अर्थों को
सैद्धान्तिक मानना पड़ता है।
मूलम्
तद् एतन् नानाविधानन्तश्रुतिनिकरशिष्टपरिगृहीततद्व्याख्यानपरिश्रमाद् अवधारितम् ।
सृष्टि-लयौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि
प्रमाणान्तर+अपरिदृष्ट+
+अपरिमित-परिणाम+
+अनेक-तत्त्व–नियत-क्रम–विशिष्टौ
सृष्टि-प्रलयौ
ब्रह्मणो ऽनेक-विधाः श्रुतयो वदन्ति
नीलमेघः
वे नानाविध श्रुतियाँ कौन २ हैं ?
उनसे उपर्युक्त अर्थ कैसे सिद्ध होते हैं ?
अब इन अर्थों पर प्रकाश डाला जाता है ।
अनेक श्रुतिवाक्य सृष्टि और प्रलय का वर्णन करते हैं ।
सृष्टि में अनेक तत्त्वों की सृष्टि होती है,
वह भी नियत क्रम के अनुसार ही,
प्रलय में अनेक तत्त्वों का प्रलय होता है,
वह भी नियत क्रम को लेकर ही ।
इनमें प्रत्येक तत्त्व का परिमाण अपरिमित है।
अपरिमित परिमाण वाले अनेक तत्त्वों की सृष्टि और प्रलय,
शास्त्र को छोड़कर दूसरे किसी प्रमाण से
विदित नहीं हो सकते ।
ये शास्त्रों के द्वारा ही
विदित हो सकते हैं।
शास्त्र अनेक प्रकार से
सृष्टि और प्रलय का वर्णन करते हैं ।
कहीं पर तेज जल और पृथिवी भर की सृष्टि कही गई है,
कहीं पर पाँच महाभूतों भर की सृष्टि कही गई है ।
कहीं महत्तत्त्व से लेकर
विस्तार से सृष्टि कही गई है।+++(5)+++
ऐसे ही प्रलय भी नाना प्रकार से वर्णित है ।
इन सब वाक्यों पर ध्यान रखकर
सृष्टि और प्रलय के क्रम का निष्कर्ष करना चाहिये ।
मूलम्
तथा हि प्रमाणान्तरापरिदृष्टापरिमितपरिणामान् एकतत्त्वनियतक्रमविशिष्टौ सृष्टिप्रलयौ ब्रह्मणो ऽनेकविधाः श्रुतयो वदन्ति
निर्गुणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरवद्यं निरञ्जनं विज्ञानम्
आनन्दं निर्विकारं
निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निर्गुणम्
इत्य्-आदिकाः
निर्गुणं ज्ञान–स्व-रूपं ब्रह्मेति
काश्चन श्रुतयो ऽभिदधति ।
मूलम्
निरवद्यं निरञ्जनं विज्ञानम् आनन्दं निर्विकारं निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निर्गुणम् इत्य् आदिकाः निर्गुणं ज्ञानस्वरूपं ब्रह्मेति काश्चन श्रुतयो ऽभिदधति ।
न नाना
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेह नानास्ति किंचन
मृत्योः स मृत्युम् आप्नोति
य इह नानेव पश्यति
नीलमेघः
(१) “नेह नानास्ति किचन, मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति”
अर्थात्
यहाँ अनेक पदार्थ बिलकुल नहीं है, जो अनेक पदार्थों को देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है ।
मूलम्
नेह नानास्ति किंचन मृत्योः स मृत्युम् आप्नोति य इह नानेव पश्यति
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र त्व् अस्य सर्वम् आत्मैवाभूत्
तत् केन कं पश्येत्
तत् केन कं विजातीयाद्
इत्य्-आदिका नानात्व-निषेध-वादिन्यः
सन्ति काश्चन श्रुतयः ।
नीलमेघः
(२) “यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत् केन के पश्येत् तत् केन के विजानीयात् "
अर्थात्
जब इस साधक को सब कुछ आत्मा ही हो गया,
तब यह किससे किसको देखे,
एवं किससे किसको समझे ।
इस प्रकार के अनेक श्रुतिवचन हैं
जो भेद का निषेध करते हैं ।
भेद का निषेध करने वाली कई श्रुतियाँ हैं, वे ये हैं (कि-)
मूलम्
यत्र त्व् अस्य सर्वम् आत्मैवाभूत् तत् केन कं पश्येत् तत् केन कं विजातीयाद् इत्यादिका नानात्वनिषेधवादिन्यः सन्ति काश्चन श्रुतयः ।
सर्वज्ञम् नामकृत् सर्वशक्ति
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सर्वज्ञः सर्व-वित्
यस्य ज्ञानमयं तपः
नीलमेघः
कई श्रुतिवचन परब्रह्म को सगुण बतलाते हैं, वे ये हैं कि-
(१) “यः सर्वज्ञः सर्वविद् यस्य ज्ञानमयं तपः” अर्थात् जो परमात्मा स्वरूप से सबको जानते हैं, तथा प्रकारों को लेकर सबको जानते हैं, जिनका ज्ञानमय तप है ।
मूलम्
यः सर्वज्ञः सर्ववित् यस्य ज्ञानमयं तपः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाणि रूपाणि विचित्य
धीरो नामानि कृत्वा
ऽभिवदन् यद् आस्ते
नीलमेघः
(२) “सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वाऽभिवदन् यदास्ते"
अर्थात् धीर परमात्मा सव रूपों की सृष्टि करके उनके भिन्न २ नाम रखकर व्यवहार करते रहते हैं ।
[[१७७]]
मूलम्
सर्वाणि रूपाणि विचित्य
धीरो नामानि कृत्वा
ऽभिवदन् यद् आस्ते
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे निमेषा जज्ञिरे
विद्युतः पुरुषाद् अधि
नीलमेघः
(३) “सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्यतः पुरुषादधि’ अर्थात्
विद्यत् के समान वर्ण वाले पुरुष से
सभी निमेष उत्पन्न हुये हैं ।
मूलम्
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपहत-पाप्मा विजरो विमृत्युर्
विशोको विजिघत्सो ऽपिपासः
सत्य-कामः सत्य-संकल्प
नीलमेघः
(४) “पहतपाप्मा विजरो विमृत्युविशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः” । अर्थात्
परमात्मा पाप जरा मृत्यु शोक बुभुक्षा एवं पिपासा से वर्जित हैं, स्थायी अनेक भोग्यपदार्थ वाले हैं तथा सत्यसंकल्प वाले हैं ।
मूलम्
अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर् विशोको विजिघत्सो ऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्प
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सर्वस्मिञ् जगति
हेयतया ऽवगतं सर्व-गुणं प्रतिषिध्य
निर्-अतिशय–कल्याण-गुणानन्त्यं
सर्वज्ञतां सर्व-शक्ति-योगं सर्व-नाम-रूप-व्याकरणं
सर्वस्याधारतां च
काश्चन श्रुतयो ब्रुवते ।
नीलमेघः
उपर्युक्त श्रुतिवचन उन सभी दुर्गुणों का जो सम्पूर्ण जगत् में व्याज्य माने गये हैं -
निषेध करके परमात्मा को अत्युत्कृष्ट अनन्तकल्याणगुणों का निधि बतलाते हैं, तथा सर्वज्ञ नामरूप व्याकरण के कर्ता एवं सबका आधार बतलाते हैं ।
मूलम्
इति सर्वस्मिञ् जगति हेयतयावगतं सर्वगुणं प्रतिषिध्य निरतिशयकल्याणगुणानन्त्यं सर्वज्ञतां सर्वशक्तियोगं सर्वनामरूपव्याकरणं सर्वस्याधारतां च काश्चन श्रुतयो ब्रुवते ।
सर्वता
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं खल्व् इदं ब्रह्म
तज्-ज-लान्+++(=लयान्)+++ इति
नीलमेघः
कई श्रुतिवचन ब्रह्म के द्वारा सृष्ट किये गये जगत् को अनेक आकार वाला कहकर
जगत् को अनेक आकार वाला कहकर उसमें एकता का भी प्रतिपादन करते हैं ।
वे ये हैं कि-
(१) “सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति”
अर्थात्
यह सब कुछ ब्रह्म ही है,
क्योंकि यह जगत् ब्रह्म से उत्पन्न एवं रक्षित है
तथा ब्रह्म में ही लीन होने वाला है ।
मूलम्
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐतदात्म्यम् इदं सर्वं
मूलम्
ऐतदात्म्यम् इदं सर्वं
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः सन् बहुधा विचारः
नीलमेघः
(२) “एकः सन् बहुधा विचारः” ।
अर्थात्
एक होते हुये परमात्मा
अनेक रूपों को लेकर विचर रहे हैं, अथवा समझे जाते हैं ।
मूलम्
एकः सन् बहुधा विचारः
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्य्-आदिका ब्रह्म-सृष्टं जगन्
नानाकारं प्रतिपाद्य,
तदैक्यं च प्रतिपादयन्ति काश् चन श्रुतयः ।
नीलमेघः
इस प्रकार के अनेक श्रुतिवचन यह बतलाते हैं कि
यह जगत् ब्रह्म से निर्मित है,
अनेक आकार प्रकार वाला होने पर भी
ब्रह्मात्मक होने से ऐक्य भी है।
मूलम्
इत्यादिका ब्रह्मसृष्टं जगन्नानाकारं प्रतिपाद्य तदैक्यं च प्रतिपादयन्ति काश्चन श्रुतयः ।
परमेश्वरत्वम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथग् आत्मानं प्रेरितारं च मत्वा
नीलमेघः
कई श्रुतिवचन यह बतलाते हैं कि
ब्रह्म सबसे भिन्न
सबका शासक
एवं सबका सामी है,
सब ब्रह्म के द्वारा शासनीय हैं,
तथा ब्रह्म की निजी वस्तु हैं ।
वे वचन ये हैं कि-
(१) “पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा”
अर्थात्
साधक जीवात्मा को एवं प्रेरक परमात्मा को भिन्न २ वस्तु जानकर मोक्ष को प्राप्त होता है ।
मूलम्
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा
नीलमेघः
(२) “भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा” अर्थात भोक्ता जीव, भोग्य जडपदार्थ एवं प्रेरक ईश्वर इन तीनों तत्त्वों को जाने ।
मूलम्
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतिर् अकामयत प्रजाः सृजेयेति
नीलमेघः
(३) “प्रजापतिरकामयत प्रजाः सृजेयेति” अर्थात प्रजाओं के स्वामी ईश्वर ने यह कामना की कि हम प्रजाओं की सृष्टि करें ।
मूलम्
प्रजापतिर् अकामयत प्रजाः सृजेयेति
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतिं विश्वस्यात्मेश्वरं शाश्वतं शिवम् अच्युतम्
नीलमेघः
(४) " पतिं विश्वस्यात्मेश्वरं शाश्वतं शिवमच्युतम् "
अर्थात्
परमात्मा विश्व के स्वामी हैं,
अपने लिये आप ही ईश्वर हैं
वे शाश्वत मंगलकारी हैं वे अच्युत है,
अपने स्वरूपस्वभावों से कभी च्युत होने वाले नहीं ।
मूलम्
पतिं विश्वस्यात्मेश्वरं शाश्वतं शिवम् अच्युतम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
तम् ईश्वराणां परं महेश्वरं
तं देवतानां परं च दैवतम्
नीलमेघः
(५) “तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परम च दैवतम् "
अर्थात् परमात्मा ईश्वरों के भी परम महेश्वर हैं, देवताओं के भी परम देवता हैं ।
मूलम्
तम् ईश्वराणां परं महेश्वरं तं देवतानां परं च दैवतम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः
नीलमेघः
(६) “सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः”
अर्थात्
परमात्मा सबको अपने वश में रखने वाले हैं, सब पर शासन करने वाले ईश्वर हैं ।
मूलम्
सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्य्-आदिका
ब्रह्मणः सर्वस्माद् अन्यत्वं
सर्वस्येशितव्यत्वम्
ईश्वरत्वं च ब्रह्मणः
सर्वस्य शेषतां
पतित्वं चेश्वरस्य
काश्चन ।
नीलमेघः
इस प्रकार के अनेक श्रुतिवचन
यह बतलाते हैं कि
परब्रह्म सबसे भिन्न
सब पर [[१७६]] शासन करने वाला ईश्वर
एवं सबका स्वामी है,
यह चेतनाचेतनप्रपञ्च उसके शासन में रहने वाला
एवं उसकी निजी सम्पत्ति है ।
मूलम्
इत्यादिका ब्रह्मणः सर्वस्माद् अन्यत्वं सर्वस्येशितव्यत्वम् ईश्वरत्वं च ब्रह्मणः सर्वस्य शेषतां पतित्वं चेश्वरस्य काश्चन ।
शरीरात्म-भावः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तः प्रविष्टः
शास्ता जनानां
सर्वात्मा
नीलमेघः
अन्य कई श्रुतिवचन
ब्रह्मव्यतिरिक्त सभी पदार्थ
एवं ब्रह्म में
शरीरात्मभावसम्बन्ध का प्रतिपादन करते हैं ।
वे ये हैं कि-
“अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा”
“एष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः "
“यस्य पृथिवी शरीरम्” “यस्यापः
शरीरम्” “यस्य तेजः शरीरम्” “यस्याव्यक्त ं शरीरम्” “यस्याक्षरं शरीरम्” “यस्य मृत्युः शरीरम्” “यस्यात्मा शरीरम्” ।
अर्थात् परमात्मा जीवों के अन्दर प्रविष्ट होकर शासन करते हैं, इसलिये सबके आत्मा हैं ।
मूलम्
अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष त आत्मा
ऽन्तर्याम्य् अमृतः
नीलमेघः
यही निर्दोष अन्तर्यामी तुम्हारा आत्मा है,
मूलम्
एष त आत्मान्तर्याम्य् अमृतः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य पृथिवी शरीरं
यस्यापः शरीरं
यस्य तेजः शरीरम्
इत्यादि
यस्याव्यक्तं शरीरं
यस्याक्षरं शरीरं
यस्य मृत्युः शरीरं
यस्यात्मा शरीरम्
इति
नीलमेघः
जिन परमात्मा का पृथिवी जल तेज अव्यक्त अक्षर प्रकृति और जीवात्मा शरीर है ।
मूलम्
यस्य पृथिवी शरीरं यस्यापः शरीरं यस्य तेजः शरीरम् इत्यादि
यस्याव्यक्तं शरीरं यस्याक्षरं शरीरं यस्य मृत्युः शरीरं यस्यात्मा शरीरम् इति
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मव्यतिरिक्तस्य सर्वस्य वस्तुनो
ब्रह्मणश् च
शरीरात्मभावं दर्शयन्ति काश्चनेति ।
नीलमेघः
उपर्युक्त वचन
इस बात को सिद्ध करते हैं कि
ब्रह्म को छोड़कर
जितने चेतनाचेतन पदार्थ हैं,
वे सब ब्रह्म का शरीर हैं,
ब्रह्म उनका आत्मा है इनमें शरीरात्मभाव सम्बन्ध है ।
मूलम्
ब्रह्मव्यतिरिक्तस्य सर्वस्य वस्तुनो ब्रह्मणश् च शरीरात्मभावं दर्शयन्ति काश्चनेति ।
समन्वय-क्रमः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानारूपाणां वाक्यानाम् अविरोधो
मुख्यार्थापरित्यागश् च यथा संभवति
तथा वर्णनीयम् ।
नीलमेघः
इस प्रकार श्रुतिवाक्य नाना प्रकार के होते हैं ।
उन सब वाक्यों में आपस में जैसे विरोध न हो
जैसे उनसे सरल रूप में प्रतीत होने वाले मुख्यार्थों का भी त्याग न हो,
वैसा उनका अर्थ करना चाहिये ।
यही उत्तम मार्ग है ।
नीलमेघः - शाङ्करान्याय्यम्
उनमें विरोध खड़ा करके
कई वचनों को बाध्य मानना,
तथा उनके मुख्यार्थ को छोड़कर
लक्षणा से दूसरा अर्थ करना
इत्यादि विद्वानों को शोभा नहीं देता ।
वैसा करना सर्वथा अन्याय है । +++(5)+++
श्रीशंकराचार्य के मत में निर्गुण श्रुति
और अभेद श्रुतियों को अबाध्य मानकर
सगुण श्रुति और भेदश्रुतियों को बाध्य माना जाता है ।
इन श्रुतियों में विरोध को खड़ा करके
कई श्रुतियों को बाध्य मानना अनुचित है ।
“तत्त्वमसि” इस श्रुति का अर्थ करते समय
श्रीशंकराचार्य के मत में “तत् त्वम्” पदों के मुख्यार्थ को त्याग करके लक्षण से
अर्थ किया जाता है ।
यह भी उचित नहीं । +++(5)+++
नीलमेघः - भेदाभेदवाद्य्-अन्याय्यम्
भेदाभेदवादियों के मतों में भी
उन श्रुतियों से विरोध उपस्थित होता है
जो ब्रह्म को निर्दोष एवं निर्विकार सिद्ध करती है
तथा “तस् त्वम्” इत्यादि पदों में
तत्पदबोध्य निर्दोष व एवं त्वं-पद-बोध्य स-दोषत्व में विरोध होने के कारण
किसी पद का लक्षणा से
दूसरा अर्थ करना पड़ता है ।
यह सब अनुचित है ।
मूलम्
नानारूपाणां वाक्यानाम् अविरोधो मुख्यार्थापरित्यागश् च यथा संभवति तथा वर्णनीयम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(पूर्वाचार्यैः)+++ वर्णितं च -
अ-विकार-श्रुतयः
स्व-रूप-परिणाम-परिहाराद् एव मुख्यार्थाः ।
नीलमेघः - वर्णन
इस प्रसंग में यह प्रश्न उठता है कि
इन नानाप्रकार के श्रुतिवचनों में
विरोध उपस्थित न हो,
मुख्यार्थ का त्याग न हो,
वैसा अर्थ कैसे किया जाता है ?
इस प्रश्न के उत्तर में श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
पूर्वाचार्यों ने गुरुपरम्परा से
इन श्रुतिवचनों के समीचीन अर्थों को अवगत करके
ग्रन्थों में प्रतिपादन किया है,
हम लोगों को
अपनी बुद्धि से सोचकर
वैसे अर्थों को निकालने की आवश्यकता नहीं ।
उन ग्रन्थों में वर्णित अर्थों का
यहाँ उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा ।
उनका उल्लेख किया जाता है ।
नीलमेघः
(१) जो श्रुतियाँ
ब्रह्म को निर्विकार बतलाती हैं
उनका यह तात्पर्य है कि चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म में तीन पदार्थ निहित हैं
(१) चित् (२) अचित् और (३) ब्रह्म ।
इनमें चित् और अचित्
ब्रह्म के विशेषण हैं,
ब्रह्म इनका विशेष्य है।
विशेष बनने वाले चेतनाचेतनों में विकार होते हैं,
अचेतन में स्वरूपपरिणामरूपी विकार
एवं चेतन में स्वभाव परिणामरूपी विकार होता है ।
किन्तु विशेष्य बनने वाले ब्रह्म में कोई भी [[१७६]] विकार नहीं होते।
इसलिये ब्रह्म को निर्विकार कहना युक्त ही है ।
इसलिये निर्विकार श्रुति
मुख्यार्थ को लेकर
ब्रह्म में समन्वित होती है,
उनका लक्षणा से दूसरा अर्थ करना नहीं पड़ता है ।
जो अर्थ शब्दशक्ति के अनुसार पहले अवगत होता है,
वह मुख्यार्थ है ।
उसके अनुसार यहाँ अर्थ लग जाता है ।
मूलम्
वर्णितं च अविकारश्रुतयः स्वरूपपरिणामपरिहाराद् एव मुख्यार्थाः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्गुण-वादाश् च
प्राकृत-हेय-गुण-निषेध-परतया व्यवस्थिताः ।
नीलमेघः
(२) कई श्रुतिवचन
जो ब्रह्म को निर्गुण बतलाते हैं
उनका तात्पर्य
प्राकृत दुर्गुणों का निषेध करने में ही है
कल्याणगुणों का निषेध करने में उनका तात्पर्य है ही नहीं ।
इस प्रकार
निर्गुण श्रुतियाँ मुख्यार्थ को लेकर
ब्रह्म में समन्वित होती हैं ।
मूलम्
निर्गुणवादाश् च प्राकृतहेयगुणनिषेधपरतया व्यवस्थिताः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानात्व-निषेध-वादाश् च
+एकस्य ब्रह्मणः
शरीरतया प्रकारभूतं सर्वं चेतनाचेतनं वस्त्व्
इति
सर्वस्यात्मतया
सर्व-प्रकारं ब्रह्मैवावस्थितम्
इति सुरक्षिताः ।
नीलमेघः
(३) नानात्व का अर्थात् भेद का निषेध करने वाले श्रुतिवचनों का
यह तात्पर्य है कि
सभी चेतनाचेतन पदार्थ
ब्रह्म का शरीर हैं, विशेषण हैं,
एक ही ब्रह्म
इन सबका आत्मा होकर
इन शरीरों को लेकर अवस्थित है,
चेतनाचेतन पदार्थों के अन्दर
आत्मा के रूप में विराजमान ब्रह्म तक दृष्टि पहुँचाई जाय
तो एक ही ब्रह्म बहुरूपिये की तरह
विश्वरूप को लेकर सामने उपस्थित है,
यह बात मालूम हो जायेगी ।
यहाँ एक ब्रह्म ही
विश्वरूप को लेकर दिखाई दे रहा है,
पामर व्यक्तियों को स्वतन्त्र ब्रह्मात्मक अनेक पदार्थ जो दिखाई देते हैं,
वैसे अनेक पदार्थ यहाँ हैं ही नहीं,
सभी पदार्थ परतन्त्र एवं ब्रह्मात्मक ।
एक ही ब्रह्म
विविधरूपों को लेकर विराजमान रहता है,
यहाँ अब्रह्मात्मक अनेक पदार्थ हैं ही नहीं ।
यही नानात्वनिषेध का तात्पर्य है ।
इस अर्थ को बतलाकर
नानात्वनिषेधक श्रुतियाँ सुरक्षा प्राप्त करती हैं,
उनका किसी प्रमाणवचन से विरोध नहीं होता ।
वे सदा के लिये सुरक्षित हो जाती हैं ।
मूलम्
नानात्वनिषेधवादाश् चैकस्य ब्रह्मणः शरीरतया प्रकारभूतं सर्वं चेतनाचेतनं वस्त्व् इति सर्वस्यात्मतया सर्वप्रकारं ब्रह्मैवावस्थितम् इति सुरक्षिताः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व-प्रकार-विलक्षणत्व-
पतित्वेश्वरत्व-
सर्व-कल्याण-गुण-गणाकारत्व-
सत्य-कामत्व–सत्य-संकल्पत्वादि-वाक्यं
तद्-अभ्युपगमाद् एव सुरक्षितम् ।
नीलमेघः
(४) जो श्रुतिवचन
ब्रह्म को चेतनाचेतनों से विलक्षण बतलाते हैं
तथा सर्वविलक्षणत्व पतित्व कल्याणगुणाकरत्व सत्यकामत्व और सत्यसंकल्प इत्यादि कल्याणगुणों का निधि बतलाते हैं
उन वचनों की भी सुरक्षा हो जाती है
क्योंकि ब्रह्म ऐसा है ही ।
मूलम्
सर्वप्रकारविलक्षणत्वपतित्वेश्वरत्वसर्वकल्याणगुणगणाकारत्वसत्यकामत्वसत्यसंकल्पत्वादिवाक्यं तदभ्युपगमाद् एव सुरक्षितम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानानन्द-मात्र-वादि च
सर्वस्माद् अन्यस्य
सर्व-कल्याण-गुण-गणाश्रयस्य सर्वेश्वरस्य सर्व-शेषिणः
सर्वाधारस्य सर्वोत्पत्ति-स्थिति-प्रलय-हेतु-भूतस्य
निरवद्यस्य निर्विकारस्य सर्वात्म-भूतस्य
परस्य ब्रह्मणः
स्व-रूप–निरूपक-धर्मो मल-प्रत्यनीकानन्द-रूप-ज्ञानम् एवेति
स्व-प्रकाशतया स्व-रूपम् अपि
ज्ञानम् एवेति च
प्रतिपादनाद् अनुपालितम् ।
नीलमेघः
(५) कई वचन ब्रह्म को
ज्ञानस्वरूप और आनन्दस्वरूप बतलाते हैं ।
इन वचनों को लेकर
अद्वैतवादी कहते हैं कि
ब्रह्म केवल ज्ञानानन्दस्वरूप है
वह ज्ञानादि गुणों का आश्रय नहीं ।
अद्वैतियों की यह व्याख्या समीचीन नहीं,
क्योंकि श्रुतिवचनों से
ब्रह्म में अनेक ज्ञानादिगुण सिद्ध होते हैं । +++(5)+++
उनका खण्डन करना
श्रुति को अभिमत नहीं हो सकता ।
श्रुति कहती है कि
ब्रह्म चेतनाचेतन सब पदार्थों से भिन्न है
सर्वकल्याणगुणों का आश्रय है,
सबका ईश्वर है,
सबका स्वामी है,
सबका आधार है
सबकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलय का कारण है,
निर्दोष है, निर्विकार है, सबका आत्मा है ।
इन वचनों के अनुसार ब्रह्म में सर्वविलक्षणत्व सर्वकल्याणगुणाश्रयत्व सर्वेश्वरत्व सर्वस्वामित्व सर्वाधारत्व जगत्कारणत्व निर्दोषत्व निर्विकारत्व और सर्वात्मत्व
इत्यादि गुणों को मानना चाहिये ।
ब्रह्म को ज्ञानस्वरूप और आनन्दस्वरूप बतलाने वाली श्रुति का अलम्ब लेकर
उपर्युक्त गुणों का अपलाप नहीं किया जा सकता।
इस श्रुति का यह बतलाने में तात्पर्य है कि
ब्रह्म का स्वरूपनिरूपक धर्म ज्ञान है,
जिस प्रकार गौ का गोत्व स्वरूपनिरूपक धर्म है,
गोत्व को समझने पर ही गौ समझी जा सकती है,
उसी प्रकार ज्ञान को समझ करके ही ब्रह्म को समझना पड़ता [[१८०]] है ।+++(5)+++
इसलिये ज्ञान ब्रह्म का स्वरूपनिरूपक धर्म कहा जाता है ।
शब्दों में यह स्वभाव देखा गया है कि
स्वरूपनिरूपक धर्मों को बतलाने वाला शब्द
उन धर्मों को बतलाता हुआ
उन धर्मों का आश्रय बनने वाले धर्मी तक को बतलाता है ।
उदाहरण गोत्व को बतलाने वाला गोशब्द
गोत्व को बतलाता हुआ उस गोत्व के आश्रय गोव्यक्ति तक को बतलाता है,
वैसे ही प्रकृत में भी समझना चाहिये ।
ब्रह्म के विषय में प्रयुक्त
ये ज्ञानशब्द और आनन्द शब्द,
ज्ञान और आनन्द को बतलाते हुये
उनका आश्रय बनने वाले ब्रह्म तक का प्रतिपादन करते हैं ।
इससे सिद्ध होता है कि
ब्रह्म ज्ञानगुणवाला एवं आनन्दगुणवाला है ।
यह एक अर्थ ।
इस श्रुति का दूसरा अर्थ भी है ।
वह यह है कि
ब्रह्म का स्वरूप स्वयंप्रकाश एवं अनुकूल है,
इसलिये ज्ञान एवं आनन्द कहा जाता है।
इससे श्रुतिसिद्ध अन्यान्यगुणों का खण्डन नहीं होता ।+++(5)+++
मूलम्
ज्ञानानन्दमात्रवादि च सर्वस्माद् अन्यस्य सर्वकल्याणगुणगणाश्रयस्य सर्वेश्वरस्य सर्वशेषिणः सर्वाधारस्य सर्वोत्पत्तिस्थितिप्रलयहेतुभूतस्य निरवद्यस्य निर्विकारस्य सर्वात्मभूतस्य परस्य ब्रह्मणः स्वरूपनिरूपकधर्मो मलप्रत्यनीकानन्दरूपज्ञानम् एवेति स्वप्रकाशतया स्वरूपम् अपि ज्ञानम् एवेति च प्रतिपादनाद् अनुपालितम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐक्य-वादाश् च
शरीरात्म-भावेन सामानाधिकरण्य-मुख्यार्थतोपपादनाद् एव सुस्थिताः ।
नीलमेघः
(६) “तत्त्वमसि” “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” इत्यादि श्रुतियों—
जो अभेद का प्रतिपादन करती हैं— का यह तात्पर्य है कि
चेतनाचेतनपदार्थों का अन्तर्यामी
और जगत्कारण ब्रह्म एक है
क्योंकि जगत् और जीवों को बतलाने वाले शब्द
उनके अन्तर्यामी तक को बतलाते हैं।
इस प्रकार ये अभेदनिर्देश
दोनों पदों के मुख्यार्थों में अभेद को बतलाते हुये
अन्यान्य श्रुतिवचनों - जो चेतनाचेतन प्रपञ्च एवं ब्रह्म में भेद बतलाते हैं- से समरस हो जाते हैं ।
मूलम्
ऐक्यवादाश् च शरीरात्मभावेन सामानाधिकरण्यमुख्यार्थतोपपादनाद् एव सुस्थिताः ।