०५ ब्रह्म-वैशिष्ट्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् इदम् आह -

एकत्वे सति नानात्वं
नानात्वे सति चैकता ।
अचिन्त्यं ब्रह्मणो रूपं
कस् तद् वेदितुम् अर्हति ॥

इति ।

नीलमेघः - भेदाभेदवादि-पक्षः

[[१७१]]
उपयुक्त अर्थ का ही निम्नलिखित श्लोक -
जिसे भेदाभेदवादियों ने अपने पक्ष के अनुकूल माना है -
प्रतिपादन करता है ।
वह श्लोक यह है कि-

एकत्वे सति नानात्वं नानात्वे सति चैकता ।
अचिन्त्यं ब्रह्मणो रूपं कस्तद्वेदितुमर्हति ॥

भेदाभेदवादियों ने इस श्लोक का यह अर्थ किया है कि
ब्रह्म एक होता हुआ अनेक हैं,
तथा अनेक होता हुआ एक है ।
इस प्रकार ब्रह्म जगत् से भिन्नाभिन्न है ।

[[१७२]]
ब्रह्म का यह रूप अचिन्त्य है ।
उसे कौन जान सकता है ।

नीलमेघः - भेदाभेदवादहतिः

यह अर्थ समीचीन नहीं
क्योंकि भेदाभेदवादियों के मत में
भेदाभेद घट और पट आदि में भी माना जाता है ।+++(4)+++
ऐसी स्थिति में यह भेदाभेद
अचिन्त्य कैसे हो सकता है ?
यहाँ तो अचिन्त्य रूप का वर्णन हो रहा है ।
इसलिये कहना पड़ता है कि
भेदाभेदवादियों द्वारा उपर्युक्त श्लोक का जो अर्थ किया गया है,
वह समीचीन नहीं ।

मूलम्

तद् इदम् आह -

एकत्वे सति नानात्वं नानात्वे सति चैकता ।
अचिन्त्यं ब्रह्मणो रूपं कस् तद्वेदितुम् अर्हति ॥

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशासितृत्वेनैक एव सन्
विचित्र-चिद्–अ-चिद्–वस्तुष्व् अन्तरात्मतया प्रविश्य
तत्-तद्-रूपेण विचित्र-प्रकारो
विचित्र-कर्म कारयन्
नाना-रूपतां भजते

नीलमेघः

अतएव श्रीरामानुज स्वामी जी ने
उपर्युक्त श्लोक का दूसरा अर्थ किया है,
वह इस प्रकार है कि-

“एकत्वे सति नानात्वम्”
यह श्लोक श्रीभगवान् की आश्चर्यरूपता का वर्णन करता है ।
श्रीभगवान् एक ही हैं,
वे विचित्र चेतनाचेतनपदार्थों में
अन्तरात्मा के रूप में अन्तः प्रविष्ट होकर
उन चेतनाचेतनपदार्थों को
शरीर के रूप में धारण करते हैं ।

अतएव एक परमात्मा
विविध विचित्र शरीर वाले बनकर
बहुरूपिये की तरह विचित्र रूप से दिखाई देते हैं,
उन २ शरीर बने हुये चेतन, चेतनों से
विचित्र कर्म कराते हुये
अनेक रूप वाले बन जाते हैं ।
यह है एक रूप में अवस्थित परमात्मा की नानारूपता ।

मूलम्

प्रशासितृत्वेनैक एव सन्विचित्रचिदचिद्वस्तुष्व् अन्तरात्मतया प्रविश्य तत्तद्रूपेण विचित्रप्रकारो विचित्रकर्म कारयन् नानारूपतां भजते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्वल्पांशेन तु
सर्वाश्चर्यं नाना-रूपं जगत्-तद्-अन्तरात्मतया प्रविश्य, विष्टभ्य
नानात्वेनावस्थितो ऽपि सन्न् …

नीलमेघः

यह बात उपयुक्त श्लोक के प्रथमपाद में वर्णित है ।

“नानात्वे सति चैकता”
इस प्रकार अपने अतिस्वल्प अंश से
इस सर्वचर्यमय विविधरूप वाले प्रपञ्च में
अन्तरात्मा के रूप में प्रविष्ट होकर
इस विश्वरूप को धारण करते हुये
जो परमात्मा विविधरूप से दिखाई देते हैं
वे एक हैं, अद्वितीय हैं,
उनके समान कोई पदार्थ नहीं है,
उनसे बढ़कर तो हो ही कौन सकता है ।

मूलम्

एवं स्वल्पांशेन तु सर्वाश्चर्यं नानारूपं जगत्तदन्तरात्मतया प्रविश्य विष्टभ्य नानात्वेनावस्थितो ऽपि सन्न् …

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण-गुण-गणः
सर्वेश्वरः पर-ब्रह्म-भूतः पुरुषोत्तमो
नारायणो निरतिशयाश्चर्य-भूतो
नील-तोय-द-संकाशः पुण्डरीक-दलामलायतेक्षणः
सहस्रांशु-सहस्र-किरणः …

नीलमेघः

किसी भी दृष्टि से देखा जाय,
वे सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते हैं ।
वे उत्कर्ष की चरमसीमा में पहुँचे हुये
असंख्य कल्याणगुणों के निधि हैं ।
लोक में सबके ईश्वर बनने वाले
ब्रह्मा आदि देवों के भी ईश्वर हैं,
वे ईश्वर होते हुये
जगत् के आदि कारण परत्रह्म हैं,
पुरुषोत्तम और नारायण भी वे ही हैं,
पुरुषसूक्त और नारायणानुवाक
उनकी महिमा का गान करते हैं ।

वे एक ही
इस प्रकार की महिमा से युक्त हैं
अतएव वे अपार आश्चर्यमय प्रतीत होते हैं,
उनका आकलन करते ही
ज्ञानियों को अपार आश्चर्य होता है,
वे नीलमेघ के समान
सुन्दर दिव्य मंगलविग्रह का धारण करते हैं।
इससे उनकी विस्मयजनकता बढ़ जाती है ।

कमलदल के समान विशाल नेत्र वाले हैं,
पंक में उत्पन्न होना इत्यादि दोष कमल में हैं,
इन नेत्रों में एक भी दोष नहीं है ।
उनके दिव्यमंगलविग्रह से अपार तेज प्रकट होता है ।

एवंविधवैलक्षण्यविशिष्ट श्रीभगवान्
जिस प्रकार इस लीलाविभूति
एवं इसमें रहने वाले ब्रह्मा आदि जीवों के स्वाभाविक स्वामी हैं
उसी प्रकार इससे तीन गुनी बढ़ी हुई भोगविभूति
और उसमें विराजमान असंख्य मुक्तपुरुष और नित्यसूरियों के भी
नित्यसिद्ध स्वामी हैं।

मूलम्

अनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणः सर्वेश्वरः परब्रह्मभूतः पुरुषोत्तमो नारायणो निरतिशयाश्चर्यभूतो नीलतोयदसंकाशः पुण्डरीकदलामलायतेक्षणः सहस्रांशुसहस्रकिरणः

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमे व्योम्नि

यो वेद निहितं +++(हृदय-)+++गुहायां परमे व्योमंन्

तद् अक्षरे परमे व्योमन्न्

इत्य्-आदि-श्रुति-सिद्ध एक एवावतिष्ठते

नीलमेघः

श्रुति ने

“यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्”

“तदक्षरे परमे व्योमन्"

इत्यादि वचनों से यह कहकर -
कि जो साधक हृदयगुहा में विराजमान परब्रह्म की
प्रत्यक्ष समानाकार ज्ञान से चिन्तन करता रहता है
वह परमपद में पहुँचकर
उस परब्रह्म के साथ
सर्वकल्याणगुणों का अनुभव लेता रहता है,
अविनाशी परमाकाश परमपद में परब्रह्म विराजमान है
परमपद का उल्लेख किया है ।

नीलमेघः - अचिन्त्यता

इस प्रकार के सर्वोत्तम दिव्य लोक
परमपद का स्वामी बनने का सौभाग्य
श्रीभगवान् को ही प्राप्त है,
दूसरे किसी को नहीं ।

श्रीभगवान् की महिमा [[१७३]] अपार है ।
उनके समान वे ही हैं ।
वे अद्वितीय हैं,
उनके समान दूसरा कोई है नहीं ।
विश्वरूप को लेकर
नानारूप से रहते हुये भी
परमात्मा एक है अद्वितीय है ।

“अचिन्त्यं ब्रह्मणो रूपं
कस्तद्वेदितुमर्हति "

ब्रह्म का स्वरूप अचिन्त्य हैं ।

मूलम्

परमे व्योम्नि यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमंन् तदक्षरे परमे व्योमन्न् इत्यादिश्रुतिसिद्ध एक एवावतिष्ठते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म-व्यतिरिक्तस्य कस्यचिद् अपि वस्तुन
एक–स्व-भावस्य +एक-कार्य-शक्ति-युक्तस्य
+एक-रूपस्य
रूपान्तर-योगः स्व-भावान्तर-योगः शक्त्य्-अन्तर-योगश् च न घटते

नीलमेघः

उनमें जैसी विलक्षण योग्यता हैं
वैसी अन्यत्र कहीं नहीं ।

लोक में देखा जाता है कि
एक स्वभाव वाला पदार्थ दूसरे स्वभाव को नहीं अपनाता,
अग्नि औष्ण्य स्वभाव वाला है,
वह शैत्य स्वभाव वाला बन नहीं सकता ।
एक कार्य करने की शक्ति रखने वाला पदार्थ
उससे विरुद्ध कार्य करने की शक्ति नहीं रखता ।
जलाने में शक्ति रखने वाला अग्नि
भिगा नहीं सकता,
शीत नहीं पहुँचा सकता ।
एक रूप को अपनाने वाला कोई पदार्थ
दूसरे रूप को नहीं अपना सकता ।

ऊर्ध्वज्वलित होना अग्नि का स्वरूप है,
वह तिर्यक् ज्वलित नहीं हो सकता ।

इस प्रकार ब्रह्मव्यतिरिक्त सभी पदार्थों में
स्वभाव शक्ति और रूप व्यवस्थित रहते हैं,
वे दूसरे स्वभाव दूसरी शक्ति एवं दूसरे रूप को नहीं अपना सकते ।

ब्रह्मव्यतिरिक्त सभी पदार्थों में
यह बात दीखने में आती है ।
ब्रह्म ही एक पदार्थ ऐसा है
जिसमें सब तरह के स्वभाव शक्ति और रूप विद्यमान रहते हैं ।

मूलम्

ब्रह्मव्यतिरिक्तस्य कस्यचिद् अपि वस्तुन एकस्वभावस्यैककार्यशक्तियुक्तस्यैकरूपस्य रूपान्तरयोगः स्वभावान्तरयोगः शक्त्यन्तरयोगश् च न घटते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैतस्य पर-ब्रह्मणः सर्व-वस्तु-विजातीयतया
सर्व-स्वभावत्वं, सर्व-शक्ति-योगश् चेत्य्
एकस्यैव विचित्रानन्त-रूपता च

पुनर् अप्य् अनन्तापरिमिताश्चर्य-योगेनैकरूपता च

न विरुद्धेति -

“+++(पर-ब्रह्मणो)+++ +++(स्वासदृश-)+++वस्तु-मात्र-साम्याद् विरोध-चिन्ता”

न युक्तेत्य् अर्थः …

नीलमेघः

ब्रह्म सब पदार्थों से
अत्यन्त विजातीय है
इसलिये उसमें सभी स्वभाव और सभी शक्तियाँ निहित रहती हैं ।

अतएव परब्रह्म
समस्त चेतनाचेतनों का अन्तर्यामी होकर
विचित्र अनन्त नाना रूपों को अपनाता हुआ भी
गुण विभूति लीला और धाम को लेकर
विचारने पर
एक अद्वितीय तत्त्व सिद्ध होता है ।
इनमें एक २ बात भी
अनन्त अपरिमित आश्चर्यरूप है ।
इस प्रकार नानात्व और एकत्व
परब्रह्म में बिना किसी विरोध के समन्वित रहते हैं ।

परब्रह्म को दूसरी वस्तु के समान मानकर
शंका नहीं करनी चाहिये ।

नीलमेघः - निदर्शनम्

लोक में जिस मनुष्य ने
अग्नि का स्पर्श न किया होगा,
वह कह सकता है कि
लोक में अग्नि को उष्ण कहा जाता है,
किन्तु वह मिथ्या है,
क्योंकि कोई भी पदार्थ उष्ण नहीं हो सकता
जगत् में जितने पदार्थ देखने में आते हैं,
वे सब अनुष्ण हैं,
अर्थात् औष्ण्यरहित हैं,
अग्नि भी एक पदार्थ है,
वह भी अनुष्ण ही है,
उष्णत्व और पदार्थत्व विरुद्ध धर्म हैं ।

इस प्रकार वह मनुष्य
विरोध शंका तबतक करता रहेगा
जबतक उसका अग्नि से स्पर्श न हो ।
अग्नि का स्पर्श होते ही
उसकी सारी शका लुप्त हो जाती है ।
अग्निस्वभाव को जताने वाले
त्वगिन्द्रियरूपी प्रमाण के लगते ही
उसकी विरोधशंका शान्त हो जाती है ।

उसी प्रकार ब्रह्म में भी
विभिन्नस्वभाव और विभिन्न शक्तियों का समावेश मानने में उठने वाली विरोधशंका
जो ब्रह्म को दूसरे पदार्थों के समान मानकर उठती हैं
ब्रह्मतत्त्व को बतलाने वाले उपनिषद् प्रमाण के सामने नहीं टिकती ।+++(5)+++

मूलम्

तस्यैतस्य परब्रह्मणः सर्ववस्तुविजातीयतया सर्वस्वभावत्वं सर्वशक्तियोगश् चेत्य् एकस्यैव विचित्रानन्तरूपता च पुनर् अप्य् अनन्तापरिमिताश्चर्ययोगेनैकरूपता च न विरुद्धेति वस्तुमात्रसाम्याद् विरोधचिन्ता न युक्तेत्यर्थः

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं

+++(अग्नेर् औष्ण्यम् इव)+++
शक्तयः सर्व-भावानाम्
अ-चिन्त्य-ज्ञान–गो-चराः ।
यतो ऽतो, ब्रह्मणस् तास् तु
सर्गाद्या भाव-शक्तयः ।
भवन्ति तपसां श्रेष्ठ
पावकस्य यथोष्णता ।
+++(“अन्यत्र नास्त्य् औष्ण्यम्” इत्य् अग्न्यौष्ण्य-तिरस्कारो ऽयुक्तं यथा)+++

इति ।

नीलमेघः

उपनिषदों के अनुसार
परब्रह्म को विभिन्न स्वभाव
एवं विचित्र शक्तियों से युक्त मानना पड़ता है ।
यह अर्थ निम्नलिखित विष्णुपुराणश्लोक से
प्रमाणित होता है ।

शक्तयः सर्व-भावानाम्
अ-चिन्त्य-ज्ञान–गो-चराः ।
यतो ऽतो ब्रह्मणस् तास् तु
सर्गाद्या भाव-शक्तयः ।
भवन्ति तपसां श्रेष्ठ
पावकस्य यथोष्णता ।

[[१७४]]

अर्थात् हे तपस्वियों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षे !!
सब पदार्थों की शक्तियाँ अचिन्त्य हैं,
उन्हें अचिन्त्य ही समझना चाहिये,
वे तर्क से कट नहीं सकतीं ।
इसलिये यह मानना पड़ता है कि
जिस प्रकार अग्नि में वह उष्णता मानी जाती है
जो अन्यत्र कहीं नहीं देखी गई है
वैसे ही अन्यत्र कहीं न दिखाई देने पर भी
उन शक्तियों को ब्रह्म में मानना होगा
जो सृष्टि आदि कार्यों में उपयुक्त होती हैं ।

मूलम्

यथोक्तं

शक्तयः सर्वभावानाम् अचिन्त्यज्ञानगोचराः ।
यतो ऽतो ब्रह्मणस् तास् तु सर्गाद्या भावशक्तयः ।
भवन्ति तपसां श्रेष्ठ पावकस्य यथोष्णता ।

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् उक्तं भवति

सर्वेषाम् अग्नि-जलादीनां भावानाम्
एकस्मिन्न् अपि भावे दृष्टैव शक्तिस्
तद्-विजातीय-भावान्तरे +++(दृश्या)+++ ऽपीति
न चिन्तयितुं युक्ता।

नीलमेघः

अग्नि और जल इत्यादि
बहुत से पदार्थ जगत् में विद्यमान है ।
एक पदार्थों में एक शक्ति देखने में आती है,
विजातीय दूसरे पदार्थ में भी उस शक्ति को मानने के लिये आग्रह करना उचित नहीं ।

मूलम्

एतद् उक्तं भवति सर्वेषाम् अग्निजलादीनां भावानाम् एकस्मिन्न् अपि भावे दृष्टैव शक्तिस् तद्विजातीयभावान्तरे ऽपीति न चिन्तयितुं युक्ता

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलादाव् अदृष्टा ऽपि
तद्-विजातीय-पावके
भास्वरत्वोष्णतादि-शक्तिर् यथा दृश्यते,
एवम् एव सर्व-वस्तु-विसजातीये ब्रह्मणि
सर्व-साम्यं नानुमातुं युक्तम्
+++(अपि तु शास्त्र-मात्र-गम्यम्)+++ इति ।+++(5)+++

नीलमेघः

उज्ज्वल रूप और उष्णताशक्ति
जल आदि में देखने में नहीं आती
तथापि जल आदि से विजातीय पदार्थ अग्नि में
उज्ज्वल रूप और उष्णता शक्ति देखने में आती है
इसलिये अग्नि में उन्हें मानना पड़ता है ।

इसी प्रकार ही ब्रह्म के विषय में भी समझना चाहिये ।

मूलम्

जलादाव् अदृष्टापि तद्विजातीयपावके भास्वरत्वोष्णतादिशक्तिर् यथा दृश्यते, एवम् एव सर्ववस्तुविसजातीये ब्रह्मणि सर्वसाम्यं नानुमातुं युक्तम् इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो विचित्रानन्तशक्तियुक्तं ब्रह्मैवेत्यर्थः।

नीलमेघः

परब्रह्म सभी पदार्थों से अत्यन्त विलक्षण है,
उसको इतर पदार्थों के समान मानकर
मनमाना अनुमान करके
परब्रह्म के स्वभाव शक्ति और रूपों का खण्डन करना
नितान्त मूर्खता है ।
पर अनुमान से जाना नहीं जा सकता
वह केवल शास्त्र मार्ग से विदित होता है।

शास्त्रों में उसका स्वरूप स्वभाव शक्ति और रूप
जैसे कहे गये हैं
वैसे उनको मानना ही बुद्धिमत्ता है।
शास्त्रों से ब्रह्म
विचित्र अनन्त शक्तियों से युक्त सिद्ध होता है,
शास्त्रावगत अर्थ को कुतर्कों से काटना
अग्नि में प्रत्यक्षावगत उष्णता को
कुतर्क से काटने के समान है। +++(5)+++

मूलम्

अतो विचित्रानन्तशक्तियुक्तं ब्रह्मैवेत्यर्थः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् आह -

जगद् एतन् महाश्चर्यं
रूपं यस्य महात्मनः ।
तेनाश्चर्यवरेणाहं
भवता कृष्ण संगतः ।

इति ।

नीलमेघः

विचित्र-शक्ति-युक्त होने से
परब्रह्म परमविस्मयजनक माना जाता है ।
अत एव श्री अक्रूर जी ने श्रीकृष्ण भगवान् से मिलते समय यह कहा कि-

जगद्-एतन्-महाश्चयं
रूपं यस्य महात्मनः ।
तेनाश्चर्यवरेणाहं
भवता कृष्ण संगतः ॥

अर्थात्

यह आश्चर्यमय जगत् जिस महात्मा का रूप है
वह आप आश्चर्यों में श्रेष्ठ हैं,
हे श्रीकृष्ण भगवन्,
आपसे मिलकर मैं धन्य हो गया।

इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
यह सिद्ध किया कि
“एकत्वे सति नानात्वम्” इत्यादि श्लोक
अत्याश्चर्यमय रूप वाले सर्वशरीरक सर्वान्तर्यामी श्रीभगवान् की
सर्वशक्तिसम्पन्नता और अद्वितीयता का वर्णन करता है ।

मूलम्

तद् आह -

जगद् एतन् महाश्चर्यं रूपं यस्य महात्मनः ।
तेनाश्चर्यवरेणाहं भवता कृष्ण संगतः ।

इति ।