विश्वास-प्रस्तुतिः
मया ततम् इदं सर्वं
जगद् अ-व्यक्त-मूर्तिना ।
मत्-स्थानि सर्व-भूतानि
+++(अन्यथा तेषां सत्ताऽपि न स्यात्)+++
न चाहं तेष्व् अवस्थितः +++(स्वतन्त्र-सत्ताकोऽहम्)+++॥+++(मत्-सङ्कल्प-भृतानि, न पीठवत् साक्षान् मयेति)+++
न च मत्-स्थानि भूतानि
पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ॥
(भूतभृन् न च भूतस्थो
ममात्मा भूतभावनः ॥)
इति सर्व-शक्ति-योगात् स्वैश्वर्य-वैचित्र्यम् उक्तम् ।
नीलमेघः
परमात्मा सर्वशक्तिसम्पन्न है,
उसका नियमनसामर्थ्य अत्यन्त विचित्र है,
यह अर्थ निम्नलिखित गीता श्लोकों से प्रमाणित होता है ।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य में योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥
अर्थात् श्रीभगवान् ने कहा कि
यह चेतनाचेतनमय सम्पूर्ण जगत्
मुझसे व्याप्त है
मैं अपने स्वरूप को प्रकाशित न करता हुआ
अन्तर्यामी बनकर
इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करता हूँ।
इस जगत् का धारण एवं नियमन करने के लिये
तथा उसे अपने अभिमत उपयोग में लेने के लिये
मुझे अन्तर्यामी बनकर
उसके अन्दर बाहर व्याप्त होकर रहना पड़ता है ।
तभी उसका स्वरूप स्थिति और नियमन हो सकता है ।
इसलिये यह कहना पड़ता है कि
सभी चेतनाचेतन पदार्थ
मेरा आश्रय लेकर ही
सत्ता पा रहे हैं, टिके हुये हैं ।
जिस प्रकार शरीर आत्मा का आश्रय लेकर
जीवित रहता है
उसी प्रकार यह सम्पूर्ण प्रपञ्च
मेरा आश्रय प्राप्त करके टिका हुआ है ।
यदि इसको मेरा आश्रय नहीं मिले
तो इसका स्वरूप इस रूप में रह नहीं पावेगा,
इसे नष्ट होना पड़ेगा,
ऐसी स्थिति में
इसकी स्थिति और प्रवृत्ति
कैसे हो सकती है ?
मैं इसकी स्वरूप स्थिति और प्रवृत्तियों को सम्हालने के लिये
इसमें व्याप्त होकर रहता हूँ ।
मुझसे इसका उपकार होता है। [[१७०]]
मेरे प्रभाव से ही
ये सत्ता पा रहे हैं ।
इसलिये यह कहना उचित ही है कि
यह प्रपञ्च मेरे द्वारा धृत है ।
जैसे मुझसे यह प्रपञ्च उपकार प्राप्त कर रहा है
वैसे उसमें मैं कुछ भी उपकार प्राप्त नहीं प्राप्त करता।
मेरी स्थिति इस प्रपञ्च के अधीन नहीं ।
प्रपञ्च की स्थिति मेरे अधीन है ।
मेरी स्थिति के विषय में यह प्रपञ्च
कुछ भी उपकार नहीं करता ।
यह प्रपञ्च मेरा आश्रय लेकर स्थिति प्राप्त करता है,
इसलिये यह कहना उचित है कि
यह सम्पूर्ण प्रपञ्च मुझ पर स्थित हैं।
मैं अपनी स्थिति के विषय में
प्रपञ्च कुछ भी उपकार प्राप्त नहीं करता,
मैं अपने बल पर टिका हुआ हूँ ।
इसलिये यह भी कहना उचित है कि
मैं उस पर स्थित नहीं ।
मैं इस प्रपञ्च का आधार हूँ,
परन्तु जिस प्रकार घट जल का आधार बनता है, वैसा नहीं,
मैं विलक्षणरीति से
जगत् का आधार हूँ ।
घट जल से संयुक्त होकर
जल को गिरने से रोकता है,
वैसा मैं इस प्रपञ्च को
अपने सिर पर रखकर
धारण नहीं करता
किन्तु संकल्पमात्र से धारण करता हूँ ।
लोकदृष्ट रीति के अनुसार देखने पर
यह कह सकते हैं
यह प्रपञ्च मुझ पर वैसा अवस्थित नहीं है
जिस प्रकार घट में जल स्थित है ।
मेरे संकल्परूपी योग को देखो।
एवंविध संकल्प
अन्यत्र कहीं भी नहीं देखा जा सकता ।
यह संकल्प मेरा असाधारण धर्म है ।
मैं इस चेतनाचेतन प्रपञ्च का
धारण करता हूँ,
यह प्रपञ्च मुझको बने रहने में
कुछ भी उपकार नहीं करता ।
मेरा संकल्प ही
इस विश्व का उत्पादन धारण एवं नियमन करता रहता है ।
इस प्रकार कहकर श्रीभगवान् ने
यह घोषित किया कि
मैं सर्वशक्तिसम्पन्न हूँ,
मेरा ऐश्वर्य अर्थात् नियमनसामर्थ्य अत्यन्त विचित्र हैं ।
संकल्पमात्र से इस जगत् का धारण और नियमन कहकर
श्रीभगवान् ने यह सिद्ध किया कि
यह प्रपञ्च श्रीभगवान् का शरीर है,
श्रीभगवान् इसके अन्तरात्मा हैं
क्योंकि शरीर का धारण और नियमन
आत्मा के संकल्पमात्र से होता है
यह लोक में देखा गया है।+++(5)+++
मूलम्
मया ततम् इदं सर्वं जगद् अव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्व् अवस्थितः ॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ॥
इति सर्वशक्तियोगात् स्वैश्वर्यवैचित्र्यम् उक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् आह -
विष्टभ्याहम् इदं कृत्स्नम्
एकांशेन स्थितो जगत् ।
इति।
मूलम्
तद् आह - विष्टभ्याहम् इदं कृत्स्नम् एकांशेन स्थितो जगत् । इति
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्त-विचित्र-महाश्चर्य-रूपं जगन्
ममायुतांशेनात्मतया प्रविश्य
सर्वं मत्-संकल्पेन विष्टभ्य
+अनेन रूपेण
+अनन्त-महा-विभूति–परिमितोदार-गुण-सागरो निरतिशयाश्चर्य-भूतः स्थितो ऽहम् इत्यर्थः ।
नीलमेघः
इस विवेचन से
इस चेतनाचेतनात्मक प्रपञ्च का
भगवदात्मकत्व फलित होता है
इस बात को दुहराते हुये
श्रीभगवान ने दशमाध्याय के उपसंहार में कहा है कि
“विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्"
अर्थात्
यह चेतनाचेतन प्रपञ्च
कारणावस्था में सूक्ष्म
एवं कार्यावस्था में स्थूल बनकर
विचित्ररूप में रहता है ।
इसको देखने पर सबको आश्चर्य लगता है । मैं इस प्रपञ्च में
अत्यन्त सूक्ष्मरूप में
अन्तरात्मा होकर अवस्थित रहता हूँ ।
मेरा स्वरूप
अत्यन्त विशाल हैं ।
कल्पना करके
उसमें दस हजार अंश बना लें,
उनमें एक अंश को
दस हजार अंश बना लिया जाय।
उनमें एक अंश को भी
कई अंशों में बाँटा जाय,
उसमें एक अंश जो निकलेगा,
वह परमसूक्ष्म होगा ।
उस सूक्ष्म अंश से मैं
इस प्रपञ्च में अन्तर्यामी के रूप में
प्रविष्ट होकर
सम्पूर्ण विश्व को
संकल्प के द्वारा
धारण करता रहता हूँ।
मेरे अधीन रहने वाली
अनन्त महाविभूतियों से सम्पन्न
एवं अपरिमित उदार कल्याणगुणों का निधि
मैं इस विश्वरूप का धारण कर
अत्याश्चर्य रूप में अवस्थित रहता हूँ,
कहीं भी दृष्टिपात किया जाय,
वहाँ मैं ही चेतनाचेतन कञ्चुकों का धारण करके
विराजमान रहता हूँ ।
इस प्रकार कहकर
श्रीभगवान् ने अपने ऐश्वर्य की
विचित्रता का वर्णन किया है।
मूलम्
अनन्तविचित्रमहाश्चर्यरूपं जगन् ममायुतांशेनात्मतया प्रविश्य सर्वं मत्संकल्पेन विष्टभ्यानेन रूपेणानन्तमहाविभूतिपरिमितोदारगुणसागरो निरतिशयाश्चर्यभूतः स्थितो ऽहम् इत्यर्थः ।